1. श्रीमद्भगवद गीता भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश है। भगवान श्रीकृष्ण के भजन और जीवन विद्या के सूत्र गीता है, जो भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं, जीवन विद्या जीवन जीने की कला है, जीवन जीने के सूत्र हैं।
2. जीवन जीने की कला में जीवन क्या है? इसे कैसे जिया जाए? यह बताते हैं भगवान। इसमें यज्ञ का क्या रोल है? यज्ञ की क्या भूमिका है? यह बताते हैं भगवान कृष्ण।
3. जीवन की नैसर्गिक और अनिवार्य आवश्यकता है कर्म - हम कर्म किए बिना नहीं रह सकते। प्रकृति का एक सुनिश्चित सत्य है - कर्मफल विधान। कर्म करेंगे तो उसका फल आपको मिलेगा। कर्म किए बिना आप रह नहीं सकते। थोड़ी देर के लिए हेर फेर किया जा सकता है - जैसे आपको दर्द है, कष्ट है, तो थोड़ी देर के लिए राहत देना है, तो आप क्या कर सकते है? दर्द निवारक दवा ले सकते हैं, जिससे कष्ट दर्द कुछ समय के लिए चला जाएगा, लेकिन जब तक मर्ज नहीं जाएगा, तब तक दर्द नहीं जाएगा। बुखार के कारण दर्द हो रहा है, तो बुखार दूर करना पड़ेगा। इसी तरह से हमारा जीवन कर्म विज्ञान के बिना नहीं चल सकता है।
4. कर्म के ज्ञान के बिना, कर्म को समझे बिना जीवन अधूरा रहता है - हमारे जीवन की सबसे बड़ी परम आवश्यकता है। कर्म हमें बांधता है, जैसे हम कर्म करते हैं, तुरंत उसका बंधन बन जाता है। जहाँ तक कर्म है वहाँ तक कर्मफल है - आप कोई भी कर्म करें - चाहे शुभ कर्म या अशुभ कर्म। कर्मफल तक प्रकृति आपको पहुंचाएगी। यह प्रकृति का नियम है। कर्म प्रकृति का एक ही काम है आपको वॉच करना। अगर आप अशुभ कर्म कर रहे हो तो अशुभ कर्मफल प्राप्त होता है, और शुभ कर्म कर रहे हो तो शुभ कर्मफल प्राप्त होगा।
5. कर्म मात्र बंधन है तो कुछ विद्वानों ने कहा - जब कर्म बंधन का कारण है तो कर्म ही मत करो, कर्म करने की जरूरत ही नहीं है। लेकिन ऐसा सम्भव नही है - कर्म किए बिना कोई नहीं रह सकता, देह विवश होकर आपको कर्म कराएगी।
6. शुभ-अशुभ कर्म के फल देने वाला यह जो कर्मफल विधान है इसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण जी कहते है-' यज्ञायाचरत: कर्म' - अगर यज्ञीय जीवनशैली के साथ कर्म किए जाते हैं तो आपके कर्म पूरी तरह विलीन हो जाएंगे। अगर आप यज्ञीय जीवन नहीं जी रहे हैं तो कर्म आपके बंधन बन जाएंगे।
7. भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते है- यज्ञ के लिए किए जाने वाले कर्मों से अपने लिए किए जाने वाले कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है, इसलिए आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के लिए ही कर्म कर।
8. भगवान कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि यज्ञ के अलावा जो कर्म करोगे वह बंधन का कारण बन जाएगा, इसलिए हर कर्म यज्ञ की तरह से समर्पित कर दो। इदं न मम यह मेरा नहीं है - यही यज्ञीय भाव है।
9. इस यज्ञ के साथ और हमारे जीवन के साथ यज्ञ के कई पहलू हैं, कई बातें हैं। यज्ञ में हमारा जीवन दर्शन है, यज्ञ के कई-कई आयाम हैं, यज्ञ का आयाम हमारे दर्शन से हमारे चिंतन से जुड़ा हुआ है।
10. भगवान कहते हैं - यज्ञीय आचरण जब आचरण में यज्ञ उतरता है, तो यज्ञ हमारी जीवन शैली हो जाता है। आप कर्म करने से पहले यदि सावधान होकर कर्म करें और यज्ञीय जीवन जीने की प्रक्रिया का अभ्यास कर लिया, तो वह कर्म जीवन का बंधन नहीं बनेगा।
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