धन्वन्तरि ई-समाचार पत्र

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Department of Ayurveda and Holistic Health

Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar

Volume 2, Issue 2, 2020

वर्षा ॠतुचर्या

हमारे शरीर पर खान-पान के अलावा ॠतुओं और जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। एक ॠतु में कोई दोष बढ़ता है तो दूसरा शान्त होता है। अत: आयुर्वेद में प्रत्येक ॠतु में दोषों में होने वाली वृद्धि, प्रकोप या शान्ति के अनुसार सब ॠतुओं के लिए अलग-अलग खानपान व रहन-सहन का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार आहार विहार अपनाने पर स्वास्थ्य-रक्षण होता है तथा व्याधियों से बचाव होता है।

प्रत्येक ॠतु 2-2 मास की होती है। चैत्र-वैशाख में बसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ में ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद में वर्षा , आश्विन-कार्तिक में शरद, मार्गशीष-पौष में हेमन्त तथा माघ-फाल्गुन में शिशिर ॠतु होती है। इन ॠतुओं का आधार सूर्य की गति होती है जिसे अयन कहा जाता है। अयन दो प्रकार के है- उत्तरायण व दक्षिणायन ।

उत्तरायण को आयुर्वेद में आदान काल कहा जाता है। इस समय में सूर्य की किरणों का तेज अधिकतम होता है। शिशिर बसन्त और ग्रीष्म अर्थात् माघ-फाल्गुन, चैत्र वैशाख, ज्येष्ठ-आषाढ़ मासों से मिलकर इस उत्तरायण का समय माना गया है। अंग्रेजी माह के अनुसार मध्य जनवरी से लेकर मध्य जुलाई तक का समय उत्तरायण के अन्तर्गत आता है।

दक्षिणायन को विसर्ग काल कहा जाता है। इस समय सूर्य की किरणों का तेज क्रमश: कम होना शुरू हो जाता है।

वर्षा शरद और हेमंत ॠतुएँ इस काल में मानी जाती हैं। हिन्दी मासों में सावन-भादों वर्षा के महीने होते हैं। मध्य जुलाई से लेकर मध्य सितम्बर तक का समय इसके लिए विचारणीय होता है।

आदान काल के अन्त में और विसर्ग काल के प्रारम्भ में प्राणियों में दुर्बलता अधिक होने के कारण, शारीरिक शक्ति मध्यम होने लगती है। वर्षा ॠतु में वायु का प्रकोप और पित्त का संचय होता है। मध्य जुलाई से मध्य सितम्बर तक सावन भादों में वर्षा ॠतु का काल माना जाता है। समय की इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए आयुर्वेद में सभी ॠतुओं में अलग-अलग आहार विहार का वर्णन किया गया है।

वर्षा ॠतु में आकाश और दिशाएँ बादलों से युक्त होती हैं। वातावरण में हरियाली के साथ-साथ नमी और रुक्षता भरी होती है। नमी के कारण मच्छर, मक्खी, झींगुर आदि जन्तुओं से गन्दगी में वृद्धि होती है। जठराग्नि विकृत हो जाती है।

यह काल वात दोष के शमन हेतु श्रेष्ठ है। वर्षा की बौछारों से पृथ्वी से निकलने वाली गैसों एवं अम्लीयता बढ़ने से पाचन शक्ति दुर्बल हो जाती है। बीच-बीच में बारिश न होने से, सूर्य की गर्मी बढ़ने से, शरीर में पित्त दोष का संचय होने लगता है।

इन सब कारणों से व संक्रमण से डेंगू, मलेरिया, फाइलेरिया, जुकाम, दस्त (आम युक्त), पेचिश, हैजा, आंत्रशोथ, अलसक, गठिया, सन्धि शोथ, उच्च रक्तचाप, फुंसियाँ, दाद, खुजली आदि चर्म रोगों में अधिकता देखी जाती है।

पथ्य आहार-विहार :-

वर्षा ॠतु में हल्के, सुपाच्य, ताजे, गर्म और पाचक अग्नि को बढ़ाने वाले आहार का सेवन हितकर है। आहार में यथासम्भव पुराना अनाज, साठी चावल सरसों, राई, खीरा, खिचड़ी, मट्ठा, दही, मूँग और अरहर की दाल, सब्जियों में लौकी, भिण्डी, तोरी, टमाटर और पुदीना की चटनी, सब्जियों का सूप।

फलों में सेब, केला, अनार, मौसमी, पके जामुन, पके आम, नाशपाती, घी व तेल के बने पदार्थ उपयोगी होते हैं। आम और दूध का सेवन विशेष रूप से लाभकारी है। मधुमेह के रोगियों को आम वर्जित है। आम ताजा और मीठा ही लाभकारी है। खट्टा और कृत्रिम रूप से पकाया आम लाभ के स्थान पर हानि करता है। पके गूदेदार जामुन से त्वचा रोग और प्रमेह में लाभ होता है। दही की लस्सी में लौंग, त्रिकटु, सेंधा नमक, अजवाइन, काला नमक डालकर पीने से पाचन शक्ति वर्धक है। लहसुन की चटनी उपयोगी है। हरीतकी में सेंधा नमक समभाग मिलाकर सेवन करना चाहिए।

इस ॠतु में जल की शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अच्छा हो कि जल को उबालकर ठण्डा कर के सेवन करना चाहिए। शरीर पर अभ्यंग (तेल मालिश), उबटन, सिकाई लाभकर है।

वर्षा ॠतु में भीगने पर वस्त्रों को तुरन्त बदल लेना चाहिए। मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना, केमिकल युक्त मच्छर भगाने वाली अगरबत्तियों से अच्छा है। आसपास में गड्ढों में जमा हुए और सड़ रहे जल में मच्छर मक्खियाँ पनपने लगते हैं और रोग वृद्धि करते हैं। अत: उन पर कीट नाशक या मिट्टी का तेल डाल देना चाहिए। कूलर आदि में टॉमीफास नामक केमिकल का एक चम्मच डाल देना चाहिए।

अपथ्य आहार-विहार :-

वर्षा ॠतु में पत्ते वाले शाक, ठण्डे व रुक्ष पदार्थ चना, मोठ, उड़द, जौ, मटर, मसूर, ज्वार, आलू, कटहल, सिंघाड़ा, करेला व पानी में सत्तू घोलकर लेना हानिकारक है। कम वर्षा वाले दिनों में पित्त का संचय होता है। अत: इस समय खट्टे, तले, बेसन से बने पदार्थ, तेज मिर्च मसाले वाले खाद्य, बासी भोजन वर्जित है। दिन में सोना, धूप में घूमना व सोना, अधिक मैथुन, अधिक पदयात्रा, अधिक शारीरिक व्यायाम हानिप्रद है।

भारी और बार-बार भोजन, बिना भूख का भोजन न करें। रात्रि में दही और मट्ठा बिल्कुल न लें। नमी युक्त वस्त्रों और बिस्तर का प्रयोग न करें। शरीर के जोड़ों, विशेष कर जांघों के जोड़ और मलमूत्र विसर्जन के अंगों के आसपास की चमड़ी को पानी या पसीने से गीला होने से बचाना चाहिए। फल सब्जियों को अच्छी तरह से धो कर खाएं। दूषित जल से अवश्य बचना चाहिए। शरीर में घमोरियाँ निकलने पर बर्फ का टुकड़ा मलना चाहिए या मुल्तानी मिट्टी का लेप करें।

इन सब उपर्युक्त पथ्य-अपथ्यों और आहार विहार का ध्यान रखकर मनुष्य स्वस्थ रहकर वर्षा ॠतु का पूर्ण आनन्द ले सकता है।

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