आयुर्वेद मात्र चिकित्सा शास्त्र न होकर सम्पूर्ण जीवन दर्शन है। यह मनुष्य को स्वस्थ बनाने के साथ ही संस्कारों पर विशेष बल देता है। मानव जीवन रूपी साधना के सोपान हैं – शरीर, आत्मा, मन, बुद्धि तथा अध्यात्म। यही आयुर्वेद की आधारशिला है। शरीर, मन एवं वस्तुओं की शुद्धि के लिये समय-समय पर शास्त्र निर्दिष्ट जो कार्य किए जाते हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं।
आयुर्वेद में संस्कारों का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। औषधियों में अभीष्ट गुणों की वृद्धि के लिए मुख्य रूप से संस्कारों की उपयोगिता स्वीकृत की गई है। विशिष्ट विधि द्वारा अच्छे गुणों की स्थापना करना ही संस्कार है। दोषों को, अशुद्धियों को दूर करना और गुणों को बढ़ाना यही संस्कार का उद्देश्य है। मनुष्य जीवन का, अन्न का एवं औषधियों का संस्कार आवश्यक माना गया है। औषधियों के क्रम में पारद (पारा या मरकरी) के 18 संस्कारों का निर्देश है। कहा गया है कि क्रमश: सभी संस्कारों के बाद ही पारद सर्व रोगहर, सर्वश्रेष्ठ औषधि के रूप में प्रयुक्त होता है।
शरीर हमारा अकेला नहीं है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन्द्रियाँ सब संयुक्त रूप में हैं। संस्कार हमारे बुद्धि एवं चित्त पर पड़े दोषों को, विकारों को स्वच्छ कर हमारे हृदय में शुभ्रता एवं दिव्यता का प्रवेश कराते हैं, जिससे शरीर व मन स्वस्थ बनता है। हमारी इन्द्रियाँ बर्हिमुखी हैं, इन्हें अंर्तमुखी बनाकर शुद्ध करना, तथा रोग एवं भोग से मुक्त करना, संस्कार से ही सम्भव होता है। बाह्य स्तर पर अन्न-आहार के विभिन्न संस्कार एवं आंतरिक स्तर पर इन्द्रिय संयम, इत्यादि के माध्यम से मन-चित्त भी शुद्ध एवं पवित्र होता है।
आचार्य चरक कहते हैं कि संस्कारों के माध्यम से ही अन्न, आहार द्रव्य, औषधी द्रव्य उपयोगी एवं मूल्यवान बनते हैं। इन्होंने अन्न के संस्कार पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। साथ ही औषधियों एवं अन्य सभी प्रकार की उपयोगी वस्तुओं को संस्कारित कर प्रयोग में लाने की बात पर जोर दिया है।
आचार्य सुश्रुत एवं वाग्भट्ट भी जीव मात्र के कल्याण हेतु सभी के संस्कारों को स्वीकृत करते हैं। मनुष्य जीवन में जन्म से पूर्व से ही संस्कारों का क्रम प्रारम्भ किया गया है। सुसंतति प्राप्ति की इच्छा के साथ ही माता-पिता के दैहिक-दैविक भाव शुद्धि हेतु संस्कारों का निर्देश है। गर्भाधान संस्कार संतान ही नहीं, वरन् उपयोगी संतान बनाने का संस्कार है, इसलिए इस संस्कार में धर्म का भाव यथावत् आवश्यक रूप से बना रहना चाहिए। माता-पिता की मानसिक स्थिति जैसी शुद्ध पवित्र होगी, भावी संतान भी उसी प्रकार होगी। अत: माता-पिता के मनोभाव का स्वस्थ एवं संतुलित होना अत्यन्त आवश्यक है।
संस्कारों की परम्परा एवं आवश्यकता का निर्वाह करते हुए ही स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी संतानोत्पत्ति हेतु तप किया था। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में संस्कारों को विशेष स्थान प्राप्त है। आयुर्वेद में जन्मोपरांत जातकर्म, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, आदि संस्कारों से बालक के गार्भिक एवं बैजिक दोष समाप्त किए जाते हैं। इस प्रकार आयु एवं सामाजिक मर्यादा के अनुकूल षोडश संस्कारों का विधान भारतीय संस्कृति में बताया गया है। संस्कार मात्र धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं अपितु वैज्ञानिक विधा है। इसका समर्थन पाश्चात्य वैज्ञानिक भी करने लगे हैं।
8 से 14 वर्ष की आयु में उपनयन/यज्ञोपवीत आदि का कारण था कि इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक विकास एवं परिवर्तन होता है। अन्त:स्रावी ग्रंथियों का विकास एवं उनके स्राव का विशेष प्रभाव पड़ता है, जो सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करता है। इस अवस्था में संयम, सामंजस्य, श्रम, सेवा इत्यादि गुणों का विकास गुरु के संरक्षण में किया जाता था। कारण यही था कि बालक पथ भ्रमित न होकर समाजोपयोगी बने।
आयुर्वेद में संस्कारों की महत्ता एवं उपादेयता प्रतिपादित की गई है - कारण - संस्कारों के द्वारा विभिन्न औषधियों और आहार द्रव्य को विविध प्रक्रिया विशेषों द्वारा संस्कारित कर उन्हें प्रयोग एवं सेवन के योग्य बनाया जाता है। प्रतिदिन जिस अन्न या आहार का सेवन करते हैं, उसका सेवन उसी रूप में नहीं किया जाता, वरन कूट-पीस कर, उबाल कर, छान कर, इत्यादि की जाने वाली क्रिया को संस्कार कहा जाता है। आहार के संस्कार पर विशेष बल दिया गया है - कारण - संस्कारित आहार आयु का मूल कारण होता है। ओजस-तेजस की वृद्धि, इन्द्रियों का बल, तुष्टि-पुष्टि, मेधा शक्ति तथा आरोग्य सब आहार के अधीन हैं। इस संदर्भ में आचार्य वाग्भट्ट ने बताते हुए कहा है कि आत्मवान मनुष्य, स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य रूप फल के हेतु, स्वभाव, संस्कार, देश, काल, इत्यादि का भलीभाँति विचार कर, मात्र हितकारक आहार का ही सेवन करें।
इसी प्रकार आहार सम्बन्धित विस्तृत वर्णन चरक संहिता के विमान स्थान में उद्धृत है कि संस्कारित अन्न-आहार का ही सेवन करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार प्रत्येक द्रव्य, जैसे औषधि द्रव्य, वानस्पतिक द्रव्य, खनिज द्रव्य, जांगम द्रव्य, विष द्रव्य, आदि का उपयोग, संस्कारित करके ही किया जाता है। इनका यदि संस्कार न किया जाए तो ये हानिकारक हो सकते हैं।
अत: अन्न हो, औषधि हो या मनुष्य, सभी संस्कार से ही उपयोगी बनते हैं।
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