● प्रथम खंड ●
🌼 आरम्भ खंड 🌼
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🌼 आरम्भ खंड 🌼
~ संत - शरण ~
इस खंड में स्वामी श्री शिवनारायन जी महाराज ने सृष्टि का उद्देश्य, अपना परिचय एवंउस समय की प्रशासनिक स्थिति का वर्णन किया है। इसके उपरान्तगुरु दुःखहरण स्वामी का परिचय , एवं साधना द्वारा ज्ञान की प्राप्ति की भी चर्चा की है । गुरु अन्यास का रचना कल , जीवन में गुरु का महत्व को दर्शाते हुए यह भी बतलाया है कि गुरु साक्षात् विष्णु भगवन के सामान है । श्रद्धा एवं विश्वास से गुरु मार्ग पर चलकर मानव अपने जीवन का कल्याण का सकता है।
दोहा - कर्ता सब गुण कर का ,
गुण कारण भाव भार ।
सृष्टि संवारन चारि फल ,
चाल चलन व्यवहार ।। 1 ।।
इस मतपंथ के प्रवर्त्तक- स्वामी शिवनारायणजी महाराज को साधना के उपरान्त जब आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ तब उन्होंने इस कल्याण कारी आत्म ज्ञान को सृष्टि में सर्वोत्तम मानव योनी के कल्याणार्थ गुरु अन्यास ज्ञान दीपक के नाम से प्रकट किया।
स्वामी श्री शिवनारायण जी महाराज कहते हैं कि कर्त्ता पुरुष (परमात्मा) निराकार, निगुर्ण एवं अविनाशी हैं। जब उनकी इच्छा हुई तब सर्व गुण सम्पन्न होकर उन्होंने सूर्य, तारे, ग्रह, आकाश, पाताल के साथ चार खानी (उष्मज, उद्भिज, अंडज एवं पिण्डज) जीव की भी रचना की। इस महान कार्य के फलस्वरूप सृष्टि के सुसंचालन का भार भी उन पर आया। इस कार्य को ठीक से संचालन हेतु उन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार नियमों का प्रति पादन किया। मनुष्यों को कर्म करने में स्वतंत्र कर दिया। किन्तु जो मनुष्य अपने बुद्धि एवं विवेक से जो कार्य करते हैं वे वैसे ही फल प्राप्त करते हैं। फल-कार्य करने वालों के चाल चलन व्यवहार पर निर्भर है। परमात्मा कुछ नहीं करते हैं। वे केवल द्रष्टा भाव से रहते हैं।
विशेष- महाप्रलय के बाद परमात्मा चराचर जगत को उदर में समेटकर योग निद्रा में चले जाते हैं। इस समय वे संकल्प-विकल्प से रहित गुणातीत एवं शब्दातीत अवस्था में रहते हैं। इस अवस्था को संतो ने निर्गुण की संज्ञा दी। इस अवस्था का वर्णन शब्दातीत होने के कारण संतों ने इस अवस्था को अनाम पद कहा और उस कर्त्ता पुरुष को अनाम नाम से सम्बोधित किया।
जब वे योग निद्रा से जगते हैं तब उनकी इच्छा होती है कि मैं एक हूँ। अनेक हो जाऊ (एकोऽहँ बहु स्याम) इस संकल्प से उनमें कम्पन होता है और कम्पन से शब्द का विस्फोट होता है। उसी शब्द से क्रमश: अन्तरिक्ष, सूर्य, तारे, ग्रह (पृथ्वी) पताल एवं सोलह पुत्रों की रचना होती है। इसमें आदि शब्द ओऽम् से ब्रह्मा विष्णु एवं महेश की उत्पत्ति होती है। माया इन्हीं तीनों देवों के सहयोग से पृथ्वी पर जीवों की रचना करती है। जब तीनों गुणों से युक्त जीवों की रचना हो जाती है। तब परमात्मा पर इस के संचालन हेतु जिम्मेदारी आती है। इसके लिए परमात्मा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार नियमों का प्रति पादन करते हैं। कर्म की सारी जिम्मेदारी मनुष्य (करने वाले) पर डालकर स्वयं सभी कर्मों से निर्लिप्त होकर केवल द्रष्टा बने देखते रहते हैं।
जो जैसा करता है वह वैसा पाता है। इस में परमात्मा का कुछ भी दोष नहीं हैं। इसे ही चाल चलन व्यवहार कहा गया है।
दोहा - चर्चा जाकि जो सुने ,
चौरासी से बाँच।
गुरु बिनु से ना पाहिं,
बिनु गुरु मिलत न साँच।। 2।।
सत्संग में संतो की संगति में बैठकर जो इस कल्याणकारी मोक्षप्रद ज्ञान की चर्चा सुनते हैं और सद्गुरु की शरण में जाकर इस ज्ञान को प्राप्त कर नियमित ध्यानाभ्यास करते हैं वे चौरासी लाख योनियों में बार-बार जन्म लेने और मरने के दुःख से बच जाते हैं। किन्तु यह मोक्षप्रद ज्ञान केवल सद्गुरु के पास ही मिल सकता है। अन्यत्र नहीं। इसलिए आत्म कल्याण हेतु किसी सच्चे गुरु से ज्ञान लेना चाहिए। सच्चा ज्ञान सच्चे गुरु से ही मिल सकता है।
चौपाई -
गुरु अन्यास गहत जब आनी ।
तब गति मुक्ति होत हैं प्राणी ।।
गुरु के शब्द पाय होत सन्ता ।
बिनु गुरु शब्द न पावहि अन्ता ।।
गुरु की कृपा से परि कछु बूझी।
भव अनुभव पंथ परि सूझी।।
कृपा किन्ह तब आदि कुमारी।
कण्ठ बैठ ज्ञान देत भारी ।। 1-4॥
जो प्राणी (मनुष्य) सद्गुरु से दीक्षा ग्रहण कर गुरु अन्यास में बताई गयी-युक्ति अर्थात् गुरु द्वारा बताई गई युक्ति को पूर्ण विश्वास से दृढ़ता के साथ नियमित अभ्यास करता है। वह मनुष्य आवागमन से छुटकारा पाकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। बिना गुरु शब्द को धारण किए कल्याण नहीं हो सकता है।
इस मार्ग को छोड़कर किसी अन्य मार्ग से अर्थात् पूजा-पाठ, व्रत-उपवास से जीव का कल्याण नहीं हो सकता है। गुरु के शब्द पर अमल करने वाला ही संत हो सकता है। स्वामी शिवनारायण जी महाराज कहते हैं कि जब मझ पर गुरु की परम कृपा हुई तब मुझ को यह पंथ (ज्ञान का रास्ता जानने में आया। मैंने आवा गमन के दुःख को जाना, अनुभव किया। मेरे कण्ठ पर आदि कुमारी (सरस्वती) बैठकर प्रेरणा दी। मेरे हृदय को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर दिया।
चौपाई-
ज्ञान होत जब अगम अपारा।
तब अन्यास कथा अनुसारा ।।
संवत् सत्रह सौ इकान्बे होई ।
ग्यारह सौ सन् पैतालीस सोई ।।
अगहन मास पक्ष अजियारा ।
तिथि त्रयोदशी शुक्र से बारा ।।
तेहि दिन निरमे कथा पुनीता।
गुरु अन्यास कथा सबहीता ।।
शाह मोहम्मद दिल्ली सुलताना।
काशी क्षेत्र आगरा थाना ।। 5-9 ।।
गुरु की परम कृपा से जब मेरे हृदय में ज्ञान का दिव्य प्रकाश हुआ तब मैंने जन कल्याणार्थ ब्रह्म विद्या गुरु अन्यास की रचना शुरु की। शुभ समय विक्रम संवत् 1791 (सन् 1734) एवं हिजरी सन् 1145 अगहन मास शुक्रवार शुक्ल पक्ष त्रयोदशी तिथि थी। इसी पुनीत दिवस में समस्त मानव के कल्याण के लिए मैंने निर्मल एवं पवित्र कथा को 'गुरुअन्यास ज्ञान दीपक' के रूप में रचना पूरी की। उस समय दिल्ली की गद्दी पर शाह मोहम्मद नाम का बादशाह शासन करता था। काशी क्षेत्र तक उसके राज्य की सीमा थी और आगरे में थाना (फौजी किला ) था ।
दोहा - ताहि समय में शिवनारायण,
बंग देश चलि आय।
कण्ठे बैठी सरस्वती,
कथा अन्यास बनाय ।। 3 ।।
जिस समय मैने पुनीत ग्रन्थ गुरु अन्यास ज्ञान दीपक की रचना की थी उस समय मैं बंगदेश का निवासी था।
'अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त जब ज्ञान की देवी सरस्वती कृपा कर मेरे कण्ठ प्रदेश में विराजमान हुई तब मैंने गुरु अन्यास ज्ञानदीपक की रचना की। नोट- सन् 1717 में जिस समय शिवनारायण स्वामी चन्द्रवार के निवासी थे उस समय विहार, बंगाल, उड़ीसा तीनों एक थे और तीनों एक साथ बंग प्रदेश कहलाते थे।
चौपाई -
जन्म भूमि है कनउज देशा।
कर्म वशी से बंग प्रदेशा ।।
तीर्थ प्रयाग सूबा जे होई।
जेहि के अमल गाजीपुर सोई ।।
गाजीपुर सरकार कहावे।
सूबा प्रयाग अमल तहाँ पावे ।।
जहुरावाद परगना आही।
आसकरन टप्पा तेहि माही ।।
से स्थान चन्द्र वार कहावे ।
शिवनारायण जन्म तहाँ पावे ।।
जन्म पाय भई गुरु की माया ।
तब अन्यास अस कथा बनाया ।। 10-15 ।।
मेरे पूर्वज, पिता, दादा, परदादा कन्नौज के निवासी थे। कुछ कारण वश पिताजी को सपरिवार बंग प्रदेश (उत्तर प्रदेश) के बलिया जिला अन्तर्गत चन्द्रवार नामक स्थान में आकर बसना पड़ा। उस समय प्रयाग सूबा (प्रान्त) था। उसके अन्तर्गत गाजीपुर सरकार (कमिश्नरी) थी। गाजीपुर से लगान (अमल) असूल होकर प्रयाग भेजा जाता था। गाजी पुर कमिश्नरी के अन्तर्गत जहुरा वाद परगन्ना था। उसी के अन्तर्गत आसकरन नामक एक छोटा सा भूभाग (टप्पा) था। उसी टप्पे में चन्द्रवार नामक गाँव था जहाँ की पवित्र भूमि पर मेरा जन्म हुआ था। गुरु की असीम कृपा मुझ पर हुई जिस से कि कम ही उम्र में मुझमें ज्ञान का उदय हुआ। ज्ञान का उदय होने पर मैंने 18 वर्ष की उम्र में (सन् 1734) मनुष्य के हितार्थ गुरु अन्यास ज्ञानदीपक नामक ब्रह्म विद्या की रचना की।
दोहा- आस पास चन्द्रवार म्हँ,
गाजी पुर सरकार ।
बुन्द निरौनी कहत सब,
बाघ राय के बार ॥14॥
उस समय गाजीपुर सरकार के अन्तर्गत चन्द्रवार ग्राम के अलावे और भी गाँव थे। चन्द्रवार में बुन्द निरौनी वंशज (परिहारवंश) क्षत्रिय निवास करते थे। उसी क्षत्रिय परिवार में मेरा जन्म हुआ।
अर्थात् मैं बाघराय का बार (पुत्र) हूँ।
चौपाई -
दुःखहरण नाम से गुरु कहावे ।
बड़े भाग्य से दर्शन पावे ।।16।।
स्वामी जी कहते हैं कि पूर्वजन्म के संचित शुभ भाग्य फल के कारण दुःखहरण दास नामक आत्मज्ञानी गुरु मिले। यह बड़े भाग्य कीबात है कि मनुष्य को किसी सद्गुरु की शरण मिल जाय।
विशेष- दुःखहरण दास ससना के निकट बहादुर पुर के निवासी थे। स्वामी जी की बहन शुभद्रा की शादी ससना के राजा श्री शोभा सिंह के साथ हुई थी। स्वामी जी बहन के घर जाया करते थे। कभी-कभी दुखहरण दास के सत्संग में भी जाते थे। उनके शब्द से प्रभावित होकर स्वामी जी ने उनसे दीक्षा ले ली। उस समय उनकी उम्र मात्र 7 वर्ष की थी।
दोहा - जिनके चरण में चित घरे,
भये शिवनारायण दास ।
दुःखहरण नाम के सुमरते,
पावत निश्चल बास ||5||
स्वामी जी कहते हैं कि मैं ने गुरु दुखहरण के चरणों में अपना चित लगाया अर्थात् उन का शिष्य बना और शिवनारायण से शिवनारायण दास बन गया। उन के द्वारा बताये गये नाम का सुमिरन कर तथा बताये गये तरीके से ध्यानाभ्यास कर निश्चल (स्थिर) वास (स्थान) का ज्ञान प्राप्त किया जो कि सत्य एवं मोक्षप्रद है।
चौपाई-
गुरु के नाम हृदय में राखी ।
यहि विधि संत सब भाखी ।।
गुरु के शब्द हिया में गहेऊ।
शिवनारायण चले तब भयऊ ।।
चलि फिरी के देखत संसारा ।
जानत घट-घट गुरु पियारा ।।
एक दिन संत सभा में गयऊ।
चर्चा शब्द होत तहाँ रहेऊ ।।17-20 ।।
स्वामी जी कहते हैं कि मैंने संतों के मुख से यह सुना था कि गुरु के शब्द को हृदय में धारण करने से (निरन्तर जाप करने से) जीव का कल्याण हो जाता है। मैंने भी गुरु द्वारा दिया गया शब्द (नाम) एवं उनके स्वरूप को हृदय में धारण कर संसार में भ्रमण करने के लिए निकल पड़ा। भ्रमण काल में संतों की संगति में यह जान पाया कि सभी जीवों में गुरु व्याप्त हैं। अर्थात् घट-घट में परमात्मा का वास है। इसी प्रकार भ्रमण काल में एक दिन संत सभा में गया जहाँ कि सत्य शब्द (अनहद शब्द) की चर्चा हो रही थी।
चौपाई -
चर्चा सुनत बहुत सुख पाई।
शिवनारायण सुनि मन लाई ।।
सुनत सुनत मोरा मन पतिआई।
दिव्य ज्ञान तब चित में पाई ।।
गुरु की चर्चा सुनत पुनीता।
संत कहहि गुरु नाम ले नीता ।।
से सुनिश्रवण बहुत सुख पाई।
सुने ध्यान धरि अनत न जाई।।21-24।।
स्वामी जी कहते हैं कि मैंने संत सभा में बैठकर शब्द की चर्चा को मनलगाकर सुना। इससे मुझे अपार आनन्द की अनुभूति हुई। बार-बार इस चर्चा को सुनने से मेरे हृदय में गुरु शब्द पर विश्वास जम गया। इससे मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान का उदय हुआ। सभी संतों ने गुरु नाम के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा कि गुरु नाम का जाप और ध्यानाभ्यास नित्य विश्वास पूर्वक करना चाहिए। यह सुनकर मेरा हृदय बहुत आनन्दित हुआ और मैंने अपने मन को अन्य स्थानों से हटाकर गुरु शब्द को दृढ़ता से पकड़ लिया।
चौपाई -
कहत कि गुरु है विष्णु सामना।
उनहिं के अंश सकल घट जाना ।।
गुरु के सुमिरत विष्णु सहाई ।
बिन गुरु दया विष्णु नहीं पाई ।।
जब गुरु दया करत मन माहीं।
तब शिष्य सिद्ध होत क्षण माहीं ।।
सिद्ध होत गुरु पावत सोई।
ताहि सहाय विष्णु तब होई ।। 25-28 ।।
सत्संग में संतों ने कहा कि गुरु विष्णु के समान हैं। वे घट-घट में व्याप्त हैं। जो गुरु पर पूर्ण विश्वास करते हैं-
उन पर विष्णु भगवान कृपालु होते हैं। जिस पर गुरु की कृपा नहीं होती है, उस पर विष्णु भगवान की कृपा नहीं होती है। जब गुरु शिष्य पर कृपा करते हैं, तब शिष्य क्षण में हो सिद्ध (पूर्ण) हो जाता है। वही शिष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है जो सच्चे गुरु को पा लेता है। ऐसी अवस्था में भगवान विष्णु स्वयं उसका सहायक हो जाते हैं। सारी सिद्धियाँ भी उसे प्राप्त हो जाती है।
चौपाई-
गुरु के चरण माँहि चित लेई ।
से गुरु चरण रेणु सिर देई ।।
गुरु के शब्द दिवाकर ज्ञाता।
और वृथा कर मानत प्राणी ।।
होई उजियार एक पल माँही ।
गुरु की दया से अन्तर नहीं पड़ता।।
कटत तम काया घर माँही।
गुरु के बास पावत हैं ताही ।। 29-32।।
संतों ने कहा कि जो भाग्यशाली व्यक्ति गुरु के पवित्र चरणों में चित को लगाये रखते हैं, उन के पवित्र धूली को सिर पर लगाते हैं, गुरु शब्द को सूर्यकी प्रखर किरणों की तरह जानते हैं, संसार की हर वस्तु को क्षण भंगुर एवं नाशवान मानते हैं, ऐसे ही स्थिर चित व्यक्ति पर गुरु की परम कृपा होती है। उस का हृदय क्षण में दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। इस में जरा भी संदेह नहीं है। हृदय में काम, मोक्ष, लोभ, मोह, माया का जो अंधकार व्याप्त रहता है। वह ज्ञान के प्रकाश से सदा के लिए समाप्त हो जाता है। उसका शरीर पवित्र हो जाता है। मन निर्मल हो जाता है। गुरु (परमात्मा) के प्रकाश से हृदय का अंधकार सदा के लिए दूर हो जाता है।
चौपाई -
ऐसा समय जानि मन लावे।
जहाँ खोजे तहाँ दर्शन पावे ।।
दर्शन पावत होत पुनीता।
जरा मरण के मेटत चिन्ता ।।
गुरु दयाल हो तत्त्व लखावे।
शंसय नाहिं मुक्ति पथ पावे ।।
शंसय मेटि करे निरूवारा।
पार ब्रह्म गुरु नाम अपारा।। 33-36।।
मानव जीवन दुर्लभ है। ऐसा सु अवसर बार-बार नहीं मिलता है। इसलिए इस सुअवसर को आत्म कल्याण में लगाना चाहिये।
जो सच्चे दिल से इस ज्ञान की खोज करता है, उसे यह आत्मज्ञान अवश्य प्राप्त हो जाता है। सतत् ध्यानाभ्यास करने से अंतरिक गुरु परमात्मा का दर्शन होता है। इस से जरा मरण दुःख सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
इस के लिए गुरु कृपा परमावश्य है। गुरु कृपा करके ही आत्म तत्त्व को दर्शाते हैं। जो शिष्य विश्वास को दृढ़कर इस मार्ग पर चलता है उसे अवश्य ही मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है। गुरु शंसय को दूरकर सारे दुःख को दूरकर देता है। इस लिए गुरु को ब्रह्म के समान कहा गया है। गुरु के अलावा इस कार्य को कोई भी नहीं कर सकता है।
चौपाई-
बहुत स्वभाव गुरु के होई।
प्रकट लखावत गुण अति सोई ।।
गुरु को छोड़कर कोऊ दूसर नहीं।
भवसागर से लेत निवाही।।
प्रीति करे तेहिते फल पावे।
मुक्ति होत बिलम्ब नहिं आवे।। 37-39।।
गुरु स्वभाव से अत्यन्त दयालु होते हैं। उनमें यह गुण होता है कि वे शिष्य को ज्ञान का मार्ग प्रकट (स्पष्ट) लखा देते हैं। वे अपने मन में छल-कपट नहीं रखते हैं। गुरु के अलावे कोई भी सामर्थवान नहीं है जो कि भवसागर (जनम-मरण) से उवार सके। किन्तु यह शिष्य पर भी निर्भर करता है कि गुरु के प्रति उसके हृदय में कितनी प्रीति (प्रेम) है। जिसके हृदय में गुरु के प्रति जितना प्रेम एवं विश्वास रहता है वह उतनी ही जल्दी मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
दोहा - गुरु तो विष्णु समान हैं,
विष्णु गुरु एक होई ।
गुरु विष्णु एक जानहु,
प्रकटत पालत सोई ।। 6 ।।
संत सभा में स्वामी जी ने यह भी सुना कि गुरु साक्षात् विष्णु के समान होते हैं। विष्णु एवं गुरु में कुछ भी अन्तर नहीं है। जिस प्रकार विष्णु भगवान जीव की रचना करते हैं और उनके पालन-पोषण करते हैं। ठीक उसी प्रकार गुरु भी जीव को ज्ञान देकर नवजीवन प्रदान करते हैं और त्रिताप से मुक्ति दिलाकर जीव का कल्याण करते हैं। इस प्रकार गुरु एवं विष्णु के कार्य एक ही हैं। गुरु प्रत्यक्ष है किन्तु विष्णु अप्रत्यक्ष हैं।
● आरम्भ खण्ड समाप्त ●