उपदेशामृत
अर्थात्
आध्यात्मिक संदेश
आदि गुरू संतपति स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने साधकों को उपदेश दिया है कि:-
प्रातः उठिकै ब्रह्म जगावै ।
पाँच तत्त्व के मार्ग पावे ॥
उठत बैठत सुरति संवारे ।
सत- सुक्रीत दुनों लव लावे ॥
आपु तरे अवर को तारे।
मातु पिता को पार उतारे ।
भावार्थ:- प्रातः काल में उठ जाग कर, ब्रह्म-चिन्तन करें। उसी समय पाँचों तत्त्वों की पहचान होती है। अर्थात् उस समय कौन तत्त्व चल रहा है, उसकी जानकारी होती है। आँख मलने पर जो लाल-पीला रंग दिखाई पड़ते हैं तत्त्व के रंग हैं। पंच तत्त्व- क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर हैं। इन पंच तत्त्वों की पहचान- क्षिति का रंग पीला, जल का रंग उजला, पावक का रंग लाल, गगन का रंग काला-नीला और समीर का रंग हरा होता है। पंच तत्त्वों के व्यक्ति पर प्रभाव- पीला रंग की प्रधानता रहने पर उस दिन व्यक्ति मन मारे उदास रहता है, कोई न कोई शारीरिक कष्ट होता है, जैसे बुखार, में दर्द आदि । उजला रंग की प्रधानता रहने पर उस दिन व्यक्ति शांत रहता है- कोई उद्विग्न नहीं, कोई चिन्ता नहीं। लाल रंग की प्रधानता होने पर व्यर्थ क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है। अतः उस दिन व्यक्ति को सावधान रहना चाहिए। काला-पीला रंग की प्रधानता होने पर व्यक्ति व्यर्थ की चिन्ता, सोच में पड़ा रहता है। हरा रंग की प्रधानता रहने पर उस दिन व्यक्ति प्रसन्नता का अनुभव करता है।
जो साधक परिपक्व नहीं होते, वे तत्त्वों के रंग लाल, पीला, हरा आदि को देख कर मान लेते हैं कि वे ज्योति स्वरूप परमात्मा के दर्शन कर लिए, जो वास्तव में एक भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। उठते बैठते सुरति (ध्यान-चिन्तन) लगानी चाहिए। सत् (ब्रह्म) और सुकृत (जीव) दोनों को लीन (लय-एकात्म) करे।ऐसा करके खुद तरे, दूसरों को तारे और माता-पिता को भी (भव) पार उतारे।
उलट मन पवन को गमन कर गगन में,
सुनों गुरूदेव की अनहद बानी ।
काम को छेमा दो क्रोध को मारिले,
सतगुरू गहो उर अन्तर आनी ।
ब्रह्म परचाई ले जीव ठहराई ले,
नाहीं सरवर अमर जानी।
जवन जेहि जानत तवन तेहि मानत,
शिवनारायण गुरू एक ही को मानी।
भावार्थ: हे मन! पवन (श्वास) का उलट कर गगन (ब्रह्माण्ड ) में प्रवेश कर और गुरूदेव (सत्पुरूष) की अनहद वाणी (ध्वनि) सुन। काम (नाओं) को छोड़ दे और क्रोध पर विजय प्राप्त कर ले तथा हृदयान्तर्गत सद्गुरू को गहे। वहाँ ( गगन में) जीव को ठहरा कर ब्रह्म ( सत्पुरूष) को पहचान ले। इस संसार में कोई अमर होकर नहीं आया है। जो जिसको जानता है, उसी को मानता है। शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि एक गुरू (आदेश- उनके द्वारा बतलाई हुई विधि) को ही मान दुःखहरण स्वामी अपने शिष्य शिवनारायण स्वामी को ज्ञान, ध्यान, साधनाभ्यास संबंधी उपदेश देते हुए बतला रहे हैं कि साधना कैसे करनी चाहिए।
दोहा- आसन पदम लगाइकै, खैचे मकर के तार ।
मेरूदण्ड के राह धरे, चढ़े संत होशियार ॥
भावार्थ:- ध्यानाभ्यासी सर्वप्रथम पद्मासन लगाकर (कुशादि की आसनी पर ) बैठ जाये और दोनों हाथ की हथेलियों को दोनों पैरों की एड़ियों पर बांयी हथेली को नीचे और दायीं हथेली को ऊपर रख कर मेरूदण्ड को सीधा कर ले। इसके बाद होशियार संत (साधक) मकर तार ( मकड़ा के सूक्ष्म पतला तार की तरह श्वास को ) गगन मंडल की राह पकड़ कर ऊपर चढ़े- गगन मंडल में प्रवेश करे।
चौपाई-
दोनों चरन मिलावन होई।
आसन पदम कहावत सोई ॥
भावार्थ:- दोनों चरणों (बायें पैर को दायें पैर की जाँघ पर और दायें पैर को बायें पैर की जाँघ पर ) को मिलाकर बैठना- पद्मासन कहलाता है
चौपाई-
यही विधि सुरत गगन चढ़ावे।
प्रात अस्त यह समय बतावे ॥
भावार्थ:- इसी विधि से (पद्मासन पर बैठ कर ) सुरत (आत्मा की चेतन सत्ता ) को गगन मंडल में चढ़ावे। ऐसी साधना करने का समय प्रातः (सूर्योदय के पहले ब्रह्ममुहूर्त में ) और अस्त (सूर्यास्त के बाद) बतलाया गया है।
चौपाई-
बैठ एकान्त ध्यान जो धरई ।
दूसरा जीव पास न रहई ॥
भावार्थ:- ध्यान एकान्त स्थान में बैठकर करना चाहिए। वहाँ पास में कोई दूसरा जीव (प्राणी) नहीं रहना चाहिए। (जहाँ नदी-नद, जल-प्रपात निर्झर, पशु-पक्षी, वाद्य यंत्र, संगीत एवं मनुष्य के शोरगुलहोते हों, वहाँ ध्यान नहीं करना चाहिए। )
चौपाई-
दहना सुर धीरे से साधे।
नयन नासिका सुरत अराधे ॥
भावार्थ:- नयन को नासिका (अग्र) पर रख कर धीरे-धीरे दाहिने स्वर को साधते हुए सुरत (ध्यान) में इष्टदेव की आराधना करे।
चौपाई-
नौ द्वारा को बन्द करावे ।
त्रिकुटी घाट पर ध्यान लगावे ॥
भावार्थ:- स्वर साधना करते समय शरीर के नौ द्वारों (आँख - 2, कान-2, नाक-2, मुँह-1 गुदा-1 और शिश्न-1 ) को बन्द कर लेना चाहिए। और त्रिकुटी घाट (गंगा-यमुना के संगम) पर ध्यान लगाना चाहिए।
चौपाई-
त्रिकुटी घाट पथ भौ भारी।
बिनु बादर जहाँ बरसे बारी ॥
दामिनी दमक रही घन मांही।
मोती बरन के उरमो आही ॥
तहाँ जाय सुरत ठहरावे ।
सत्पुरूष के दर्शन पावे ॥
भावार्थ:- त्रिकुटी घाट का पथ बड़ा भारी (कठिन) है। उस पर चलना आसान काम नहीं है। त्रिकुटी घाट के पार में बिना बादल पानी पड़ते रहता है और बादल के बीच में रह-रह कर दामिनी (बिजली) दमकते (चमकते हैं और उसमें मोती के लाल-श्वेत रंग की तरह (साधक के ) अन्तःकरण में ( भी लाल-श्वेत रंग का) आभास होता है। वहीं पर जाकर साधक अपनी सुरत को ठहरावे- अपनी चेतन सत्ता को समिट कर वहीं रोके। ऐसा करने पर उसे सत्पुरूष के दर्शन होंगे।
दोहा-
यह उपदेश है सन्त गुना,
चढ़े चले चित लाय ।
सत्पुरूष जबही मिले,
सब संसय मिट जाय ॥
भावार्थ:- यह गुणी संतों के लिए उपदेश है कि वे मन लगाकर (प्रसन्नमना होकर ) गगन मंडल में चढें चलें। (चढ़ी चलु गगन अटरिया, सेजरिया जहाँ बालम के )। वहाँ जाने पर जब सत्पुरूष मिलते हैं (उनके दर्शन होते हैं) तब साधकों के सभी प्रकार के संशय (सन्देह) मिट जाते हैं- आशंकायें समाप्त हो जाती हैं।
चौपाई-
सुनहु अर्थ मैं कहौ समुझाई।
गुप्त भेद सुनो ध्यानलाई ॥
ऐसन साधन करहीं बनाई।
सुरति से आँख लई चढ़ाई ॥
भावार्थ:- मैं गुप्त भेद को समझा कर तुम्हें बतला रहा हूँ, उसे ध्यान लगाकर सुनो। मेरा कहने का अर्थ (तात्पर्य) क्या है? सो उसे सुनो। साधक ऐसन साधन ( ऐसी साधना) करें- सुरति से (दृष्टियोग साधन की क्रिया से) आँख को उलट कर आज्ञा चक्र में चढ़ा लें और
दोहा-
शब्द सदा सुमिरन करे,
जवन शब्द है सार ।
नैना सर्वन सुखि रोकि के,
गहि चढ़े मकर तार ॥
भावार्थ:- आँख, कान, नाक, मुँह को रोक कर (बन्द करके) निरन्तर सार शब्द का सुमिरन करते हुए मकर तार को पकड़ कर ( गगन मंडल में ) उपर चढ़ें। चौपाई- सुरति मुरत शब्द महां मेले।
3 सन्त होय गगन महां खेले। जो यह खेल खेले मन लाई ||
तेहि के काल कबहुं न खाई ॥ जग लगि चाहे रहे संसारा ।
जुग बहु बीते सहस हजारा ॥ काल के आवत देख भाई ।
करि पहचान गगन चढ़ि जाई ॥
यही प्रकार से रहे जग माही।
काल भेद से महरम आहीं ॥
भावार्थ:- संत होकर गगन के मध्य में सुरत (जीव) और मूरत (ब्रह्म) को मेल करें। (शब्द में शब्द मिलाये तो कहो अब क्या चाहिए - शिवनारायण स्वामी)जो साधक मन लगाकर यह खेल खेलता है (जीव को ब्रह्म में मिलाने का प्रयत्न करता है) उसको काल कभी नहीं खाता (व्याप्ता-दबोचता) है। वह जब तक चाहे हजारों-हजार युगों तक इस संसार के बीच में जीवित रह सकता है; उसकी इच्छा मृत्यु होती है।
(आज के युग में हजारों हजार वर्षों तक जीवित रहना और इच्छा मृत्यु का होना गप्प अथवा कल्पना की बात होगी। भगवान् श्री राम ने ग्यारह हजार वर्षों तक राज किया था। उनके सेनापति हनुमान जी महाभारत के रणक्षेत्र में भगवान् श्री कृष्ण के रथ पर सवार दिखाये जाते हैं। नारद के नारायण त्रेता और द्वापर में भी ध्वनित होते हैं। महाभारत में कई ऋषि-मुनियों के दीर्घजीवी
होने का उल्लेख है। ) युगों-युगों तक कैसे जीवित रहा जा सकता है, इसका उपाय बतलाते हैं कि-
जब साधक काल को आते हुए देखे तब उसकी पहचान करके वह गगन मंडल में चढ़ जाय वहाँ काल का प्रवेश नहीं है । (काल की पहचान के सांकेतिक अंक 9, 7, 5, 3 और 1 हैं। गुरू दीक्षा देने के समय इसका स्पष्टीकरण करते हैं।) इसी प्रकार वह जब तक चाहे संसार में रहे। ऐसा वही करेगा जो काल भेद के मर्मज्ञ ( जानने वाला) होगा।
चौपाई- शिवनारायण सुन मन लाई । एही संशय तोहि कहीं बुझाई ॥
जेतन साधु संत अनुरागी । एक नाम महां निसदिन पागी ॥ और नाम स्वपने नहीं जाने।
एक नाम हृदय में आने ॥ चाहे गिरही मह करे निवासा। चाहे करही वन खण्ड महावासा ।।
ऊँच नीच कछु समझत नाहीं ।
सत्पुरूष सदा हिया मा आहीं ॥
निस दिन डोलत सोवत जागे ।
उठत-बैठत सदा अनुरागे ॥
श्रवण शब्द जब सतगुरू लागे ।
प्रेम से गहे भ्रम सब त्यागे ॥
जो गहे एक तो दूसरा नाहीं ।
दूसर देव मुक्ति नहीं आहीं ॥
32एक नाम है प्राण अधारा । दूसरे नाम काल जम धारा ॥
भावार्थ:- हे शिवनारायण ! यह संदेश (उपदेश ) तुम्हें समझा कर कह रहा हूँ। मन लगाकर (ध्यान देकर) सुनो।
जितने -संत और अनुरागी (भगवद् प्रेमी) होते हैं. साधु- वे सब निश-दिन एक नाम के जपन में निमग्न रहते हैं। वे अपने हृदय में एक ही नाम लेते ( जपते रहते हैं. वे सपना में भी दूसरा ) नाम नहीं लेते।
वे परिवार के सदस्यों के साथ घर (गार्हस्थ्य जीवन) में रहते हों अथवा वन खण्ड के एकान्त प्रदेश में। वे ऊँच-नीच (कौन बड़ा-कौन छोटा) कुछ समझते ही नहीं। अर्थात् वे किसी को ऊँच मानते हैं न किसी को नीच। उनकी दृष्टि में सभी बराबर हैं क्योंकि उनके हृदय में सदा सत्पुरूष का वास होता है। उनके अलावे और किसी को अपने हृदय में रखने के लिए स्थान नहीं है। सत्पुरूष के हटने पर ही कोई दूसरा आ सकता है। वे रात-दिन, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते सदा
एक नाम का अनुरागी (भगवद् प्रेमी) बने रहते हैं।) ० शब्द (नाम) चार प्रकार के होते हैं- (1) वर्णात्मक (2) ध्वनात्मक ( 3 ) श्रवणात्मक और (4) अनुभवात्मक।) जब सत्गुरूदेव ने नादानुसन्धान की क्रिया बतलाकर श्रवण (श्रवणात्मक) शब्द (नाम) का बोध कराया है, तब साधक सब प्रकार के भ्रमों का त्याग करके उसी को गहे (ग्रहण करे। )
जब एक देवता (सत्पुरूष) को अपना लिया है तब दूसरे देवता को अपनाने की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वे (दूसरे देवता) मुक्ति प्रदान नहीं कर सकते। हाँ, लौकिक सुख (सन्तान, सम्पत्ति और शारीरिक सुख) (स्वर्ग सुख ) दे सकते हैं- लेकिन मोक्ष नहीं। 'स्वर्गहु अल्प अन्त दुखदाई' मानस।
एक नाम जो श्रुत (श्रवणात्मक) और अनुभूत (अनुभवात्मक) है, वही प्राण (जीव) का आधार (आश्रय) हैं और दूसरा नाम (वर्णात्मक- लिखने, पढ़ने और बोलने में आने वाला और ध्वन्यात्मक- वाद्य यंत्रों एवं संगीतमय सुना जाने वाला) काल (मृत्यु) और यम को धरवाने ( हवाले करवाने) वाले हैं। अतः एक नाम का आधार लेना चाहिए। (ग्रंथ 'मूल सागर' से संकलित )
इतना जान-सुन और समझ-बूझ लेने के बाद स्वामी शिवनारायण जी महाराज अपने गुरूध्यान की प्रक्रिया (संत साधना विधि) जानना चाहते हैं। ध्यान कैसे किया जाता है? और ध्यान करने पर कैसी अनुभूति होती है? इसका प्रत्यक्षीकरण करना (सत्यता को जानना चाहते हैं। अतः स्वामी जी अपने गुरू दुःख हरण स्वामी से प्रश्न करते हैं:- चौपाई- संसय एक भईल मन मोरा ।
कैसे ध्यान धरहुं प्रभु तोरा । से करि गुरू समझावहुं आई।
जवन ध्यान से दर्शन पाई ॥ संका सकल मिटावहु स्वामी ।
सब विधि जानहु अन्तर्यामी ॥
भावार्थ:- हे मेरे अन्तर्यामी गुरूदेव ! वह कौन सी ध्यान करने की प्रक्रिया है जिसको करने से आपके (इष्टदेव के ) दर्शन होते हैं, जिस विधि को आप भली-भाँति जानते हैं, उस विधि को बतला कर मेरी जिज्ञासा को शान्त करें।
इसके उत्तर में दुःख हरण स्वामी बतलाते हैं:-
चौपाई- सुनहु शिष्य कहा कछु मोरा । अस कहि प्रगट कहहु कुछ थोरा ॥
गुप्त कहहुं कुछ तोहि बुझाई। से सुन हृदय जाय जुड़ाई ॥
कहहूं कि घट में रहेउ उदासा । रहहु सदा इक नाम की आसा ॥
तेहि नाम के करहु विश्वासा। जब लग घट में प्राण प्रकाशा ।।
/ प्रथम चरण गुरू के घरहीं। जो गुरू कहत सोई शिष्य करहीं ॥ जो गुरू कहे सोई शिष्य माने।
भय चिन्ता चित्त में नहीं आने ॥
जेहि विधि सतगुरू पंथ लखावे । मुक्ति होत विलम्ब नहीं आवे ॥
भावार्थ:- हे तात्! मैं तुम्हें गुप्त रहस्य को स्पष्ट रूप से समझा कर बतलाऊँगा जिसे सुनकर तुम्हारा हृदय गदगद हो जायेगा। जब तक घट में प्राण का प्रकाश (निवास) है तब तक तुम एक नाम ( सार शब्द ) को पूर्ण आशा और विश्वास के साथ सदा धारण करो। घट में रहने वाले सार शब्द (सत्पुरूष) के दास-उपासक बनकर रहो। उस शब्द को धारण (प्राप्त) करने का सिद्धान्त यह है कि प्रथम गुरू के शरणागत हो, जैसा गुरू ध्यान की प्रक्रिया
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