● द्वितीय खंड ●
🌼 योग खंड 🌼
● द्वितीय खंड ●
🌼 योग खंड 🌼
~ संत - शरण ~
इस खण्ड में स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने योग के सम्बन्ध में बताया है। परमात्मा से मुक्ति हेतु साधना की बात पूछने पर परमात्मा ने पहले शरीर के भीतर की सारी बातें बताई। उसके बाद आन्तरिक ध्यान की युक्ति समझाई। स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने उस युक्ति से ध्यान लगाया। तब उन्हें प्रकाश स्वरूप परमात्मा के दर्शन हुए। स्वामी जी ने उससे अनेक प्रश्न पूछे, जिसका कि समाधान आकाशवाणी द्वारा हुआ। इससे स्वामी जी का सारा दुःख दूर हो गया। इसलिए उन्होंने परमात्मा को दुःखहरण कहा ।
दोहा - गुरु तो विष्णु समान हैं,
विष्णु गुरु इक होई ।
गुरु विष्णु एक जान हु,
प्रकटत पालत सोई ।।
चौपाई -
यहि बातन सुनि शंसय भयऊ।
गुरु की सूरत आन उर गहेऊ ।।
शिवनारायण कहत पुकारी।
दर्शन देहु गुरु कहीं विचारी ।।
शंसय एक भयल मनमोरा ।
कैसे के ध्यान धर हूँ, प्रभु तोरा ।।
से कहि गुरु समुझा बहु आई।
जवन ध्यान से दर्शन पाई ।। 1-4।।
स्वामी शिवनारायण जी महाराज कहते हैं कि मैंने जब संत सभा में शब्द की चर्चा सुनी और यह भी सुना कि गुरु की कृपा होने पर जीव का उद्धार अवश्य हो जाता है। यह भी चर्चा सुनी कि गुरु विष्णु के समान हैं तो मेरे मन में बहुत शंसय पैदा हो गया। मैंने परमात्मा के स्वरूप को हृदय में स्थापित कर उससे विनय पूर्वक प्रार्थना की कि हे गुरु देव ! कृपा कर दर्शन दें। मैं आपका ध्यान किस प्रकार करूँ, मेरे मन में इस का शंसय हो गया है। कृपा कर मुझे ध्यान की वह प्रक्रिया बतावें जिससे आपके दर्शन हो।
चौपाई -
कहु स्वामी तेकर व्यवहारा ।
जवन ध्यान से उतरत पारा ।।
जरा मरण सुन के जीव काँपा ।
यह जंग देखों पाप व्यापा ।।
संत शब्द सुनिभौ अनुरागा ।
विनु गुरु भक्ति मुक्ति किमि लागा ।।
श्रवण सुना मैं गुरु जब होई ।
लागत पार बार नहि सोंई ।। 5-8 ।।
हे स्वामी! कृपा कर उस प्रक्रिया को बातवें जिस के करने पर कि जीव भव दुःख से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। जरा मरण के कष्ट को सुनकर भय से मेरा हृदय व्याकुल हो जाता है। जिधर भी देखता हूँ, संसार में पाप ही पाप दिखाई देता है। किन्तु संत सभा में मैं ने यह भी सुना है कि बिना गुरु की भक्ति से इस भव दुःख से कभी भी मुक्ति नहीं मिल सकती है। मैं ने यह भी सुना है कि जब गुरु की कृपा हो जाती है तो जीव का कल्याण होने में जरा भी देर नहीं लगती है।
चौपाई -
से सुनी कहीं गुरु करजोरी।
प्रसन्न होई करऊ गति मोरी ।।
मैं अघ अधम भेद नहिं जानी।
तुम सर्वज्ञ गुरु सब जानी ।।
शंका सकल मिटा बहु स्वामी।
सब विधि जानहु अन्तर्यामी ।। 9-11 ।।
हे गुरुदेव ! मैं हाथ जोड़कर आप से विनय करता हूँ, कि मेरे सारे अवगुणों को भूलकर मेरे ऊपर कृपा कीजिए। मुझे सद्गति प्रदान कीजिये। मैं अघ (पापी) अधम (नीच) प्राणी हूँ। मुझ में उतनी बुद्धि कहाँ जो मैं आपके भेद (रहस्य) को जान सकूँ। तुम तो अन्तर्यामी एवं सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) हो। इसलिए मेरे मन में जो शंसय है। कृपाकर उसे दूर कर मार्ग दर्शन करें।
दोहा - भेद न जानों स्वामी,
मैं अघ अधम अपार ।
शरण देहु गुरु आपनी,
तब उतरों भव पार ।। 7।।
हे स्वामी। मैं अत्यन्त ही पापी हूँ। अधम से भी अधम हूँ। मैं आप के भेद को जानने योग्य नहीं हूँ। मैं अल्पज्ञानी हूँ। आप जैसे सर्वज्ञ को कैसे जान सकता हूँ। हे गुरुदेव ! कृपा कर मुझ जैसे पापी को शरण दें। केवल आपकी शरण प्राप्त होने पर ही जीव इस भव सागर से पार हो सकता है। इसलिए अपनी शरण में लेकर भवसागर पार कर दें। इस अधमका उद्धार कर दें।
चौपाई -
यहि देहिया के गर्व भुलाना ।
विष स्वरूप से अमृत जाना।।
नौ नाड़ी से बहे बयारी।
जठराग्नि नहिं जाय सम्भारी ।।
निशि दिन जारि करत हैं छारा ।
रहे न सुध बुध ध्यान तुम्हारा ।।
ये सब बढ़के एक ते एका।
तुहुँ तो स्वामी प्रीति ते नेका ।।12-15।।
हे स्वामी! मैं अज्ञानी, इस नश्वर शरीर के गर्व (घमंड) में अपने को भुलाया हुआ हूँ। विष रूपी शरीर को अमृत समझ लिया हूँ। मेरा शरीर (आज्ञा चक्र से नीचे) विषयों का भंडार है। शरीर के नौ द्वारों (नाक का छिद्र, कान का दो छिद्र, दो आँख, मुँह, लिंग और गुदा में जो नौ नाड़ियाँ (नाक के बाँये छिद्र में इंगला, दाँये, छिद्र में पिंगला, दाहिनी आँख में हस्ति जिह्वा, वायीं आँख में गांधारी, दाहिने कान में पूषा, बाँयें में यशस्वनी, मुँह में अलम्बुषा, लिंग में कुहू, और गुदा में शंखिनी) लगी हुई है। इन नाड़ियों से विषय रूपी वायु निरन्तर बहता रहता है। शरीर में जठरानल (भूख की अग्नि) का प्रकोप सम्भाला नहीं जाता है क्योंकि जठरानल रात दिन शरीर को जलाकर खाक कर रहा है। मन की असंख्य इच्छाओं को पूरा करने में तथा इन्द्रियों को सुख पहुँचाने में इतना व्यस्त एवं व्याकुल रहता हूँ कि आपका भजन करने का समय नहीं मिलता है। सारे विषय एक से बढ़कर एक हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में आपकी याद कैसे रह सकती है। हे गुरुदेव ! आप तो परम दयालु हैं। आप की कृपा से ही मेरा उद्धार सम्भव है। और दूसरा कोई उपाय नहीं है।
चौपाई -
पाँच पचीस एकमत आहिं ।
दया करहु समझा बहु ताहिं।।
इन्हते काम बुरा नहीं पावें।
नित उती प्राण सतावत आवें ।।
छाया छांह जस करत पसंद।
अंगुठ एक कोटि भव भार।।
खते शिख प्राण तेहिं माहीं ।
जानहु नौ खण्ड तेहि माहीं ।।16-19 ।।
हे स्वामी ! मेरे भीतर काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार पाँच विषय एवं शरीर की पचीस प्रकृतियाँ (लालच, दम्म, पाखण्ड, अपखूबी, अपचतुराई, दोषी, हिरसी, दरिद्री, द्रोही, कपट, कुटिलता, अनीति, घमण्ड, आलस, निन्दक, जम्हाई, निन्दा, बदी, छल, लालच, बेईमानी, चोरी, ममता, कुचाली, धर्महीन शब्द ग्र० संत वजन 12) सभी मिलकर हलचल मचाये हुए हैं। सभी एक मत होकर परेशान किये रहते हैं। दयाकर उन्हें समझाने की युक्ति बतावें । ये सब मिल कोई अच्छा काम (ध्यानाभ्यास) नहीं करने देते हैं। मन को चंचल एवं व्याकुल किये रहते हैं। छाया के समान अपना प्रभाव चारों ओर फैलाये हुए हैं। इस शरीर में रहने वाला अंगुठ प्रमाण (छोटा) सा प्राण इतनी बातों को कैसे वर्दास्त करे। रह रहकर मेरा मन घबराने लगता है। ब्रह्ममाण्ड के समान नौ खण्डों से युक्त आपने मानव शरीर की रचना की है। इसमें नख से शिख तक प्राण वायु का संचार होते रहता है। जो कि मन को भी व्याकुल करते रहता है।
चौपाई -
कर्त्ता कर से आप बनाई।
गिरि उर नाभी मण्डल छाई ।।
कमल करेजा प्रति समानी।
गुरु सब जानहु कहो वखानी ।।
श्वांसा चलत काम सबजागे।
निशि बासर मन तेहि संग लागे ।।
नैना चलत साथ मन चलहीं ।
ब्रह्म ज्ञान धरि के काकरही ।। 20-23।।
आप ने अपने हाथों से इस मानव शरीर को ब्रह्माण्ड का लघु रूप बनाया है। इसमें गिरि (मस्तक का द्वादश स्थान) तर (हृदय) नाभी एवं विभिन्न मण्डलों (खण्ड) की रचना की है। करेजा (हृदय) रूपी केवल (पद्म) को प्रेम का घर बनाया है। हे गुरु देव आप इन सारी बातों को अच्छी तरह जानते हैं। कृपा कर इस रहस्य को स्पष्ट रूप से समझाकर कहें। निरन्तर चलने वाली साँस शरीर में काम वासना को जगाते रहती है। क्योंकि कामवासना के साथ साँस का अत्यधिक सम्बन्ध है। नैना (आँख) जिधर जाती है। मन भी उस के साथ जाता है। इस विषम परिस्थित में संतों से सुना बहा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। इस परिस्थित में आप का भजन कैसे किया जाय।
चौपाई -
पाँव आप मन करे गुमाना।
मोहि विनु पंथ चले कहि ज्ञाना ।।
मोहि बिन पंथ कोई नहीं चलहीं।
मैं न चलूँ तो चल कस सकही ।।
कर कपोल आँख मुख बोले।
पाँव बिना अँग कैसे डोले ।।
अँग बसी सब एक मत किन्हा।
पाँवन अर्थ मुख कही दिन्हा।। 24-27।।
शरीर की सभी कर्म इन्द्रियाँ अपने-अपने कर्म पर गुमान करती हैं। पैरों को इस बात का गुमान (घमण्ड) है कि मेरे विना शरीर रास्ता कैसे चल सकता है। अगर मैं शरीर को चलने में मदद नहीं करूँ तो शरीर रास्ता चल नहीं सकता है। शरीर एक जगह जड़वत पड़ा रहेगा। हाथ को कपोल (गाल) पर रखकर मुँह पैरों की प्रशंसा में बोलता है कि सचमुच में पाँव के विना शरीर का चलना असम्भव है। इस प्रकार शरीर के सभी अंग एक मत हो गये हैं। पैर की सारी बातें मुँह ने ही कह दी है क्योंकि पैर बोल नहीं सकता है।
चौपाई -
पाँव राखु परतीत प्यारा ।
तू न चले तो क्या करें संसारा ।।
पाँव कहे मैं मुख ते हारी।
मोहि बिन चल कस देखि विचारी ।।
चलहु जहाँ-तहाँ देहु पहुँचाई।
तोरें काज गुरु मोहिं बनाई ।।
से सुनि जिभ्या कहे विचारी ।
मोहि बिन जन्म वृथा सम्हारी ।। 28-31।।
यह परतीत (विश्वास) की बात है कि पैरों के सहारे ही शरीर सर्वत्र भ्रमण करता है। इसलिए पैर कहते हैं कि मेरे बिना शरीर का चलना फिरना असम्भव है। किन्तु हम दोनों केवल मुँह से ही हार जाते हैं। किन्तु मन का आदेश होते ही तुरन्त शरीर को वहाँ पहुँचा देते हैं, जहाँ जाना चाहता है। दयालु गुरु (परमात्मा) ने हम दोनों को शरीर की सेवा करने के लिए बनाया है। पैरों की बात सुनकर जीभ बोल उठती है कि मेरे बिना दुनिया में जन्म लेना बेकार है। सभी अंगों से सुन्दर एवं परिपूर्ण होने पर भी जो बोल नहीं सकता है। उस का जीवन बेकार है। मनुष्य बोल कर ही मन का भाव प्रकट करता है। मेरे अलावे शरीर का दूसरा अंग यह काम नहीं कर सकता है।
चौपाई -
सुना श्रावण लाग नहीं बारा।
लेत सुवास नासि का ।।
आशा तृष्णा लागी रहहि ।
सब मिलिजुलि के बेबस करहि ।।
आशा तृष्णा कहत बखानी।
मोहि उल्छि जाई प्राणी हैं।।
काम क्रोध लोभ तन भारी।
मोह अहंकार नहीं जात संभारी।।32-35 ।।
जीभ की बात सुनकर श्रवण (कान) बोलता है कि शरीर में मेरा भी महत्त्व कम नहीं है। जो प्राणी सुन नहीं सकता है, उसका जीवन बेकार है। नासिका (नाक) कहती है कि सुवास (सुगंध) की पहचान मेरे ही द्वारा होती है। अगर मैं कार्य करना बन्द कर दूँ तो मनुष्य को सुगंध एवं दुर्गन्ध का ज्ञान ही नहीं होगा। आशा, तृष्णा कहती है कि मुझको उलछि (छोड़कर) प्राणी कहाँ जा सकते हैं। मेरे प्रभाव से प्राणी बच नहीं सकते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जो मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं वे भी कहते हैं कि मेरे प्रभाव से बचकर प्राणी कहाँ जा सकता है। इन सभी दुश्मनों का प्रभाव सम्भालना मेरे लिए कठिन हो रहा है।
चौपाई -
माया रूप से उपजी देही।
से बपुरा कहे आपन तेही ।
पाप पुण्य इन में प्रधाना।
अपने-अपने काम सयाना ।। 36-37।।
महामाया (आदि शक्तिभगवती की कृपा से, पाँच तत्व, पच्चीस प्रकृति एवं तीन गुणों के मिश्रण से इस नश्वर शरीर की रचना हुई है। वह बपुरा (अज्ञानी एवं निर्बल) नश्वर शरीर भी अपना रंग दिखाने में कम नहीं है। इस में पाप और पुण्य दो प्रधान है। इन्हीं दोनों के कारण जीव कर्मबन्धन में बँधकर आवागमन के चक्र में घूमते रहते हैं।
दोहा - एकर कवन विचार है।
कहो गुरु सो आय ।
जैसे गहऊँ चरण प्रभु।
तैसे कहो बुझाय ।। 2 ।।
शिवनारायण स्वामी विनयपूर्वक पूछते हैं कि हे गुरु देव! इन सब व्याधियों का क्या निदान है? इन उसइलों के बीच रहकर कैसे जीवन निर्वाह किया जाय और आपकी भक्ति की जाय। मैंने तो विश्वास पूर्वक आपके चरणों को पकड़ लिया है। इन शंकाओं का समाधान कर मेरा मार्ग दर्शन करें जिससे आपके चरण कमलों में मेरा दुइ विश्वास हो।
चौपाई -
पूछत मोहि परों नहीं भोरा ।
चकित होई चितवऊ चहुँ ओरा ।।
गुरु के सोच बहुत चित रहेऊ।
तेहि सोच भ्रम अस भयेऊ ।।
तहाँ कहत केऊ गुरु की वाणी ।
सुनत प्रीति भी कहऊ बखानी।।
सुनहु शिष्य कहा कुछ मोरा।
अस कहि प्रकट कहऊँ कुछ थोरा ।। 38-41।।
इस प्रकार जब मैंने बहुत विनय पूर्वक परमात्मा से अपनी शंकाओं के विषय में पूछा तो तुरन्त आकाशवाणी हुई। मैं चकित होकर इधर-उधर देखने लगा कि यह मधुर एवं गम्भीर आवाज किधर से आई। जब मेरा मन स्थिर हुआ तब मैंने सुना कि आकाशवाणी से कोई मुझे प्रेम पूर्वक समझाकर कह रहा है कि हे शिष्य । गुरु की चिन्ता मन में बहुत रहती है। इसी सोच के कारण मन कुछ भ्रमित हो गया है। यह वाणी सुनकर मेरे मन में बहुत ही प्रेम हो आया। फिर गुरु की वाणी में बोले कि हे शिष्य ! तुमने मुझसे कुछ पूछा है। तुम्हारे प्रेम एवं विश्वास से मेरा मन बहुत प्रसन्न है। इसलिए मैं कुछ प्रकट (साफ-साफ) रूप से कह रहा हूँ। तुम मेरी बात को ध्यान पूर्वक सुनो।
चौपाई -
गुप्त कहऊँ कछु तोहि बुझाई।
से सुन हृदय जाय जुराई ।।
कहुँ कि घट में रहे उदासा।
रहऊ सदा एक नाम की आशा ।।
तेहि नाम के धरहु विश्वासा।
जब लग घट में प्राण प्रकाशा ।।
पन्थ एक ताही के आहीं।
सुनि के मन धरो जो ताहीं।। 42-45।।
जो रहस्यमय गुप्त बातें हैं, मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ। तुम्हारे हृदय में जो अशांति व्याप्त है, मेरी बात सुनकर शांत हो जायेगी। ज्ञानी को सांसारिक प्रपंच से सदैव दूर रहना चाहिये। सदैव गुरु नाम (ईश्वर उपासना) में मन को लगाना चाहिए। जब तक इस घट (शरीर) में प्राण है तब तक ईश्वर भजन से विमुख नहीं होना चाहिये। गुरु नाम पर दृढ़ विश्वास रखना चाहिये। गुरु नाम हो मोक्ष की ओर जाने में सहायक होता है। मुक्ति का क्या पन्थ (रास्ता) है मैं तुम्हें बताता हूँ। तुम विश्वास कर सुनो और अपने जीवन में धारण करो। क्योंकि इसके अलावे मुक्ति का दूसरा मार्ग नहीं है।
चौपाई -
प्रथम चरण गुरु के धरहीं।
जो गुरु कहत सोई शिष्य करहीं ।।
जो गुरु कहे सोई शिष्य माने ।
भय चिंता चित में नहीं आने ।।
ऐही विधि सतगुरु पंच लखायें।
मुक्ति होत विलम्ब नहीं आवे।। 46-48।।
हे शिवनारायण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। जो इस मार्ग पर चलना चाहता है उसे सर्वप्रथम गुरु की शरण में जाना चाहिये। अपने को गुरु शरण में अर्पित कर देना चाहिये।
गुरु जो आदेश दे शिष्य को निःसन्देह पालन करना चाहिये। गुरु के बताये मार्ग पर चलना चाहिये। अपने दिल में भय (डर) चिन्ता नहीं करना चाहिये। गुरु जिस प्रकार पन्थ (रास्ता) लखावे (बतावे) उस पर दृढ़ विश्वास से चलने पर मुक्ति होने में विलम्ब नहीं होता है। जिसके हृदय में भय, चिन्ता, शंसय रह जाता है उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिलती है। मुक्ति का सबसे बड़ा आधार है गुरु वाक्य पर दृढ़ विश्वास एवं नियमित ध्यानाभ्यास ।
दोहा- गुरु स्वरूप समझावत,
शिवनारायण जान ।
नौ नाड़ी जेहि बंधना,
होत कहऊँ से मान ।। 3 ।।
हे शिवनारायण ! मैंने तुम्हें गुरु के स्वरूप के विषय में बताया। ध्यान साधना में सद्गुरु का क्या महत्त्व है इस विषय में साफ साफ समझाया। अब मैं ध्यान साधना के रहस्य को बता रहा हूँ। शरीर के नौ दरवाजों में जो नौ नाड़िया लगी हुई है। उस का बंधन किस प्रकार होगा उसे मैं बता रहा हूँ।
चौपाई -
बन्धन नौ नाड़ी जे होई ।
अब सुन शिवनारायण सोई ।।
दम को मार घाट सब मारे।
तबहि मुक्ति की राह संवारे ।।
मारत घाट बाट जे प्राणी।
तब पावत है वस्तु निज आनी ।।
सुरति संभारि द्वादश स्थाना।
मुक्ति पन्थ के पावत ज्ञाना।। 49-52।।
हे शिवनारायण ! नौ नाड़ी का बन्धन जिस प्रकार होगा उस रहस्य को बताता हूँ। मानव शरीर में बारह द्वार हैं। 3 गुप्त हैं और 9 प्रकट हैं। नाक के छिद्र-2 । आँख-2। कान-2। मुहँ - 1 | लिंग एवं गुदा- 2। इस प्रकार नौ दरवाजे बाहर की ओर खुलते हैं। इन नौ दरवाजे के मुँह पर एक-एक नाड़ी लगी हुई है।
1. नाक के वाँये छिद्र में इंगला। 2. दाँया छिद्र में पिंगला । 3. वाँयी आँख में गाँधारी। 4. दाँयी आँख में हस्त जिह्वा । 5. वाँया कान में यशस्वनी। 6. दाँया कान मे-पूषा। 7. मुँह में अलम्बुषा । 8. लिंग में- कुहू । 9. गुदा में शंखिनी ।
युक्ति से सभी दरवाजों को बन्द करना पड़ता है (यह गुरु गम्य है) फिर शरीर के भीतर जो दम (श्वाँस) चलती है, प्रणायाम की युक्ति से उसे भीतर ही भीतर मेरुदण्ड के भीतर से हर कमल पर रोकते हुए द्वादश स्थान तक ले जाना पड़ता है। इस समय गुरु मंत्र का जाप एवं सूरत को ठीक रखना पड़ता है। जो अपनी सूरत को आज्ञा चक्र से उठाकर श्वाँस के साथ द्वादश स्थान (ब्रह्मरंध्र) में ठहरा सकता है वहीं उस स्थान की शोभा देख सकता है। वही मुक्ति मार्ग का ज्ञान पा सकता है। उसे ही आत्म दर्शन होता है। वही मोक्ष का अधिकारी भी होता है।
आसन पद्म लगाय के, खैच मकर के तार ।
मेरु दण्ड के राह से, चढ़े संत होशियार ।।
संग्रहगंथ जब शिष्य दीक्षा ग्रहण करता है तो गुरु देव ध्यान की प्रक्रिया में ये सारी बात बताते हैं। नौ दरवाजे, बहारंध्र की बात गुरु गम्य है। इसलिए यहाँ स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है।
चौपाई -
तहाँ की शोभा कहुँ बखानी ।
जे कुछ देखत अमृत वाणी ।।
चन्द्र चमकत सुन्दर गाता।
सूरज किरण नहिं शीतल ताता ।।
झिलमिल तारा अगम गम्भीरा।
एक ज्योति से बरत शरीर ।।53-55।।
मैं उस द्वादश स्थान की अद्भुत शोभा का वर्णन कर रहा हूँ, जिस का कि वर्णन शब्द के द्वारा ठीक-ठीक नहीं किया जा सकता है। देखकर ही उस रूप एवं आनन्द का अनुभव किया जा सकता है। वहाँ सदैव अमृत की वर्षा होती है। चन्द्रमा का शीतल एवं शान्ति दायिनी प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। दिव्य पुरुष (परमात्मा) का शरीर अत्यन्त सुन्दर है। वहाँ सूरज का उज्ज्वल प्रकाश भी चारों ओर प्रकाशित हो रहा है। किन्तु वह प्रकाश न तो शीतल है और न तो अधिक ताता (गर्म) है। ऊपर में एक अद्भूत तारा जो कि अगम (पहुँच से बाहर) गम्भीरा (बहुत ही शांत) है। झिलमिल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है। उस ब्रह्म ज्योति से सारा ब्रह्माण्ड (परमात्मा का पूरा शरीर सिर से पैर तक) प्रकाश मान हो रहा है। इस स्थान का वर्णन शब्द से करना कठिन है। हे शिवनारायण ! मैं उसी परमात्मा के स्वरूप का वर्णन कर रहा हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।
श्लोक-
वरुण लिलाट नेत्र है सेता,
दिवाकर द्वादश जानि निकेता ।
नसिका न्यास सिद्धासन माना,
मुखे रहत जिभ्यात समाना।। 1-2।।
उस परम पुरुष का ललाट वरुण (सूर्य) की भाँति चमक रहा है। उनकी सुन्दर आँखें सेता (श्वेत सूर्य की किरणों के समान चमक रही है। उस परम पुरुष का निकेता (धर) द्वादश सूर्य (धाता, अर्यामा-मित्र, वरुण, विवस्वान, पूषा, पर्जन्य, अंश, भग, त्वष्टा एवं विष्णु) के दिव्य प्रकाश से प्रकाशमान हो रहा है। उस प्रकाश में दृष्टि को स्थिर करना बड़ा ही कठिन है। जिस प्रकार मुख के अन्दर जीभ है, उसी प्रकार वह परम पुरुष द्वादश में जल तत्त्व के मध्य (भीतर) श्वेत सेज (विछावन) के ऊपर अर्ध निद्रा की मुद्रा में विराजमान है। साधक को एकान्त जगह में सिद्धासन पर बैठकर, नासिका (नाक) पर दृष्टि को स्थिर करना चाहिये। उसके बाद धीरे-धीरे ऊपर उठाकर आज्ञा चक्र पर बैठाना चाहिये। वहाँ से सहस्रार शून्य, महाशून्य, भँवर गुफा को पारकर शब्द की डोरी को पकड़कर, द्वादश स्थान में पहुँचना चाहिये। वहाँ दिव्य प्रकाश स्वरूप परम पुरुष के दर्शन होता है। यही मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक-
न्यासे तर्जण पुष्ट विचारा ।
सत व्रत छत्र नैव परकारा ।
न्यासे तस वरुण कण्ठ घर श्वंशा।
सो साधो जानो धन अंशा।। 3-4।।
सर्वप्रथम साधक को अपना विचार दृढ़ करना चाहिये। फिर गुरु द्वारा बताई गई विधि से नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करना चाहिये। यह मार्ग सत् तक पहुँचाने वाला व्रत (जप) है। जब साधक सिद्धासन पर बैठकर शरीर के नौ दरवाजों को बन्दकर आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाता है तब उसे द्वादश में श्वेत छत्र के नीचे विराजमान परमात्मा के दर्शन होते हैं। इसके लिए श्वांस को मणिपुर चक्र (नाभीकमल) से धीरे-धीरे उठाकर कण्ठ (जहाँ कि वरुण सूर्य है) होते हुए द्वादश स्थान में ले जाकर स्थिर करना चाहिये। जो साधक इस युक्ति से साधना करेगा वही अंश नामक सूर्य के समान प्रकाशमान परमात्मा का दर्शन करेगा।
श्लोक-
निगम तेज से बाहु के पोषण ।
न्यासे मित्र वैपिष्ठ मुखानं ।।
तवन वरुण सहस्त्रहाथा।
तुष्टरवाँ नावों ना माथा।। 5-6 ।।
निगम तेज (प्रकाश) से उस परमात्मा की बाहु (भुजा) को पोषण (शक्ति) मिलती है। पीठ में मित्र नामक सूर्य एवं मुख पर भास्कर नामक सूर्य का प्रकाश हो रहा है। वरुण नामक सूर्य उनके सहस्त्रों (हजारों) हाथों को प्रकाशित किये हुए हैं। माथे पर अर्क नामक सूर्य का प्रकाश हो रहा है।
श्लोक-
विष्णु ओंकार सत्य कै जाना।
न्यासे हृदय पति भगवाना।।
देव तुरिया में विद्या मिली।
तदादित्य नाभि मंडल छाया ।। 7-8 ।।
विष्णु नामक सूर्य ओंकार के रूप में हृदय में प्रकाशित हो रहा है। जो कि जीव के हृदय में सत्य एवं ईश्वर के रूप में विराजमान रहता है। नाभी में आदित्य नामक सूर्य प्रकाशित हो रहा है। उन सभी बातों का ज्ञान साधक को तुरीया अवस्था में होता है।
श्लोक-
स्कन्ध ते रुद्र।
मूलकविता सत्य शांत जननेन्दम ।।
नाति गोचर भी भगवाना।
प्रेन्यासेत सर्वज्ञषु जाना।। 9-10 ।।
कंधे में रूद्र नामक सूर्य प्रकाशित है वीर्य रूप मूल वस्तु जननेन्द्रिय में है। यह परमात्मा सर्वज्ञ है। वह गोचर नहीं है। उसे साधना से ही जाना जा सकता है।
श्लोक -
सहस्त्र सुदिग पाय जो सन्ता ।
पर पास चरणादिक कन्ता ।।
के पृष्टावातों गृहिणी जानी।
परबल अस परबल अस्थानी।।
चराचर चारु स्थाना !
नमामि विष्णु शरणं पद जाना ।। 11-13।।
जो संत परमात्मा के इस सहस्र (हजारों) सूर्य के प्रकाश के समान सुदिग (सुन्दर एवं दे दीप्यमान) स्वरूप को पाया है। देखा है। उस कन्त (स्वामी) स्वरूप संत के चरणों की वन्दगी बार-बार करने योग्य है। प्रभु की माया बड़ाही प्रबल है। उसे जानना बड़ा ही कठिन है। वह चराचर (चर-अचर) भीतर बाहर सर्वत्र विराजमान है। इसलिए भगवान् विष्णु की शरणागत होकर उस की कृपा से उस परमात्मा को खोजना चाहिये।
दोहा- इतना शिष्य न जानहिं,
जो गुरु देत लखाय।।
मुक्ति एकांत ताहिको,
जो गहे दृक् चितलय ।। 4।।
हे शिवनारायण ! परमात्मा के स्वरूप के विषय में एवं उसे जानने के विषय में जो बातें तुम्हें बताई गई, शिष्य इन बातों को नहीं जानते हैं। जब गुरु कृपा कर शिष्य को ये सारी बातें लखा (बता देते हैं, और शिष्य भी पूर्ण विश्वास के साथ दृढ़ चित होकर इस मार्ग पर चलता है। तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है। इस बात में किंचित (थोड़ा) भी शंसय (शक) नहीं है।
चौपाई -
इतना कहि जब गुरु समुझावा।
क्षण एक बैठ के ध्यान लगावा ।।
धरत ध्यान निर्मल भयी काया ।
धन्य सोजन जेहिं पर गुरु माया ।।
क्षण एक ध्यान में निर्मल भयऊ।
गुरु स्वरूप तहाँ केऊ आयऊ ।।
रूचिर रूप अति कहि नहीं आवे।
जैसे भवन मँह दीप जरावे ।। 56-59।।
'शिवनारायण स्वामी!' कहते हैं कि आकाशवाणी के द्वारा जब मुझे परमात्मा के स्वरूप के विषय में बताया गया और ध्यान की विधि समझाई गई तब मैंने उसी के अनुसार ध्यान लगाया। ध्यान लगाने के कुछ देर बाद मेरा शरीर निर्मल हो गया और मन में विचित्र अनुभूति हुई। उस व्यक्ति का जीवन धन्य है जिसे गुरु की इस प्रकार की कृपा प्राप्त होती है। कुछ देर ध्यान पर जब मेरा तन एवं मन निर्मल हो गया तब गुरु के समान कोई स्वरूप ध्यान में प्रकट हुआ। उसके प्रकट होते ही, घर में दीपक जलाने के समान मेरे भीतर प्रकाश हो गया। उस सुन्दर रूप का वर्णन शब्द में करना ही कठिन है। उस प्रकाश में शरीर के भीतर की सारी चीजें स्पष्ट दिखाई देने लगी।
चौपाई -
देखि के रूप तहाँ मनभूला ।
रूप अनुप तहाँ केहु तूला।।
तब अस्तुति उठके मैं लाई।
बहुत यत्न से प्रीति बढ़ाई ।। 60-61।।
उस अपूर्व सुन्दर रूप को देखकर मेरा मन मोहित हो गया। वह रूप अनुपम (जिससे बढ़कर कोई रूप नहीं हो) था। उस रूप की तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। उस गुरु रूप को देखकर मेरे मन में बहुत अनुराग पैदा हुआ तब मैं प्रेमपूर्वक उस दिव्य पुरुष की स्तुति-वन्दना करने लगा।
दोहा- गुरु के रूप अनुप देखि,
हिय पुलकित हुई आय ।
मन गह्वर बहु प्रीत बसी,
मुखते कछु न कहाय ।। 5 ।।
किन्तु गुरु (परमात्मा) का अनुपम रूप को देखकर मेरा हृदय बहुत पुलकित (प्रफुल्लित) हो गया। मनमें इतना गहर (प्रेम का अनुराग) उत्पन्न हुआ कि शरीर का रोम-रोम पुलकित हो गया और वाणी शिथिल हो गई। मुँह से आवाज नहीं निकलने लगी। कुछ क्षण मैं उसी स्थिति में रह गया।
चौपाई -
पलक न लागु सुनत गुरु ताही ।
हिय मँह जानु कहत केउ आई ।।
शीश हाथ दे आशीष दीन्हा ।
श्रवण लागि शिष्य तब किन्हा ।।
बहुत जतन कहि मोंहि समुझाई।
राखु सदा हिया में लाई ।।
कहा कि उठके माँगहु मोहीं।
इच्छा फल मैं देवहुँ तोहि ।।
कौन सोच तोहि बाढ़ी बारा ।
कहहु तुरन्त करौं निरवारा।। 62-66।।
जब मैं गुरु स्वरूप (परमात्मा के स्वरूप) एवं चिन्तन में पूर्ण रूप से खोया हुआ था, उसी क्षण ऐसा प्रतीत हुआ कि गुरु के रूप में कोई कुछ कह रहा है। उसने मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कान में श्रवण मंत्र देकर अपना शिष्य बनाया। उसके बाद प्रेम पूर्वक अच्छी तरह समझाकर कहा कि मैंने तुम्हें अपने हृदय में सदा के लिए बैठा लिया है। तुम्हारी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो। मैं तुम्हें इच्छाफल देने के लिए तैयार हूँ। हे पुत्र ! तुम किस सोच में डूबे हुये हो । उसे प्रकट रूप में कहो, मैं उस चिन्ता को तुरन्त दूर कर दूँगा ।
दोहा- जो तुम्हरे मन इच्छा,
माँगहू दे हूँ तुरन्त ।
तोहि कि जानहूँ आपना,
मोरे नाम अनन्त ।।6।।
हे शिष्य ! जो तुम्हारे मन में अभिलाषा है, उसे निःसंकोच माँग लो। मैं उसे तुरन्त देने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हें अपना प्रिय मानता हूँ। मेरा नाम तो अनन्त है। मेरी शक्ति भी अपार है किन्तु मैं एक हूँ। ऐसा विश्वास रखो।
चौपाई -
स्वामी मोही पर होऊ दयाला ।
होऊ प्रसन्न करहु प्रतिपाला ।।
नित उठि दर्शन देहु गोसाई।
जब जेहिं इच्छा तब सोई पाई ।।
सत्य होई मुख कहौ बखानी।
जेहि ते इच्छा पुरबहु आनी ।। 67-69।।
शिवनारायण स्वामी जब आकाश वाणी से गुरु शब्द को सुने तब उन का हृदय निर्मल हो गया। तब स्तुति करते हुए बोले कि हे स्वामी। मुझ पर दया करें। मेरे ऊपर प्रसन्न होईये मेरा प्रति पालन कीजिये। कृपा कर प्रतिदिन प्रातः दर्शन दीजिये। जब मेरे मन में कोई शुभ कामना उत्पन्न हो, आपकी कृपा से वह पूरा हो जाय। मुक्ति प्राप्त करने हेतु जो सत्य बात है, कृपा कर आप अपने श्रीमुख से वर्णन कीजिये जिससे मेरी अभिलाषा पूरी हो जाय।
दोहा- देहु स्वामी जो माँग हूँ।
विनती मानो हमार ।
नित उठि दर्शन पावहुँ ।
इच्छा से फल चार ।। 7।।
हे स्वामी! कृपा कर मेरी विनती को स्वीकार करें और मैं जो कुछ माँग रहा हूँ, कृपा कर प्रदान करें। मेरी इच्छा है कि प्रतिदिन प्रातः आप के दर्शन प्राप्त हो। अर्थात् प्रातः जब मैं आप का ध्यान करूँ तो ध्यान में अवश्य आपके दर्शन प्राप्त हो। आप के दर्शन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल प्राप्त हो जायेंगे ।
चौपाई -
जब गुरु सुनि शिष्य की वाणी।
बहुत दया तब चित मँहानी ।।
अमृत वचन कहि के भाखा।
इच्छा तोहरी पुरवहुँ साखा।।
जो भाख हूँ सूचना होई न आना।
देहूँ, एज तोहि मनमाना ।।
तोहि पर दया बहुत मोहि बाढ़।
भवसागर से ले रहा हूँ, तोहिकाढ़ी ।। 70-73।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि जब गुरुदेव (परमात्मा) ने मेरी विनती सुनी तब उनके हृदय में मेरे लिए बहुत दया उत्पन्न हो गई। गम्भीर एवं अमृत मयी वाणी (आकाशवाणी) में बोले कि हे शिष्य ! मैं तुम्हारी सारी इच्छा पूरी करूंगा। मैं जो-जो कह रहा हूँ, वह कदापि असत्य नहीं होगा। तुम जो कुछ माँगोगे मैं तुरन्त प्रदान करूँगा। तुम्हारे ऊपर मुझे बहुत दया आ गई है। मैं तुम्हें भवसागर (संसार के दुःख से) अवश्य काढ़ी (निकाल) लूँगा । अर्थात् तुम्हें आवा गमन के चक्र से मुक्त कर दूँगा ।
चौपाई -
जो मैं देहुँ होई नहीं आना।
शिवनारायण सुन दे काना ।।
जो गुरु विष्णु, विष्णु गुरु जानी ।
तेहि राखत हिय महँ आनी ।।
निशि वासर जो जानहि प्राणी।
दर्शन देहुँ बिलम्ब नहीं आनी ।।
जो प्राणी मोहि हिय मह जानी।
दर्शन देहुँ प्रीति बहु आनी ।। 74-77।।
हे शिवनारायण ! मैं जो कह रहा हूँ, वह मिथ्या नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। जो साधक गुरु को विष्णु और विष्णु को गुरु समान जानते हैं, मैं उसे हृदय मैं स्थान देता हूँ। जो साधक रात-दिन मुझको सुमिरण करते हैं, उसे मैं दर्शन देने में विलम्ब नहीं करता हूँ। जो मुझे हर पल अपने हृदय में बसाये रखते हैं, उसके प्रति मेरे हृदय में बहुत प्रेम रहता है और उसे अवश्य दर्शन देता हूँ।
चौपाई -
पावत दर्शन रहत अनन्दा।
गुरु स्वरूप से सदा गोविन्दा ।।
गुरु की सुरति विसर न जाई।
शोभा देखि हर्ष मन ताही ।।
से माँगत पावत फलचारी।
गुरु स्वरूप से इच्छाचारी ।।
जो माँगत सो देत तुरन्ता।
गुरु स्वरूप से श्री भगवन्ता ।। 78-81।।
वह साधक मेरे दर्शन पाकर सदा आनन्दित रहता है। वह अपने गुरु देव को हमेशा गोविन्द (श्रीकृष्ण) के रूप में देखता है। उस के चित से गुरु का ध्यान (स्वरूप) कभी अलग नहीं होता है। गुरु की छवि (रूप) को देखकर सदा प्रसन्न रहता है। इस प्रकार गुरुदेव से जो माँगता है, उसे प्राप्त हो जाता है। गुरु कृपा से वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो फल सहज में प्राप्तकर लेता है। गुरु के स्वरूप में ही श्री भगवन्त (भगवान विष्णु) तुरन्त उसकी सारी इच्छाओं को पूरा करते हैं।
दोहा - इच्छा भव तोहरे मना ।
देत न लाबहुँ हूँ, बार।
पलक-पलक ते मोरे।
हिया मँह लागु प्यार ।। 8 ।।
हे शिष्य ! इस प्रकार तुम्हारे मन मे जो इच्छा हो उसे प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करूँगा। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में बहुत प्यार है। तुम्हें हृदय से एक पल भी अलग नहीं कर सकता हूँ।
चौपाई -
इतना सुनत भ्रमित भईकाया।
जब जागे तब अन्त न पाया ।।
समुझि समुझि के मुर्छा आई।
गुरु अन्यास केहु देत लखाई ।।
कहई कि उठके देखहु बारा।
शब्द अनहद होत उजियारा ।। 82-84।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि जब मैंने ध्यानावस्था में इस प्रकार सुना तब मेरा तन-मन भ्रमित हो गया। जब मेरा ध्यान खुला तब मुझे आस-पास कोई दिखाई नहीं दिया। जब मुझ को होश आये, तब मैं कही हुई बातों पर विचार करने लगा कि किसने मुझे गुरु अन्यास (मोक्ष पाने का सरल उपाय बताया है। जब बात ठीक से समझ में नहीं आयी तो मन व्याकुल हो गया और मुझे मुर्छा (बेहोशी) सी होने लगी। इसी समय आकाश वाणी हुई कि हे पुत्र ! उठकर (सावधानी से) मेरी बात सुनो। तुम्हारे भीतर (ब्रह्माण्ड में) अनहद शब्द (दस अनहद) गूँज रहा है। ये अनहद शब्द हृदय को प्रकाशित करने वाला एवं मुक्तिप्रद है।
चौपाई -
होई आकाशवाणी मनियारा।
यह सुनी हृदय होई उजियारा ।।
गुरु कहत मोहिं लागते प्यारा।
सत्यहि शब्द करूँ हूँ निरूवारा ।।85-86।।
इस प्रकार आकाशवाणी सुनने पर मेरा हृदय मनिआरा (दिव्यज्ञान के प्रकाश) से प्रकाशित हो उठा। गुरु (परमात्मा) ने यह भी कहा कि तुम मुझको बड़े प्यारे लगते हो। इसलिए मैं तुम्हें सत्यशब्द (अन्यास) बताऊँगा जिससे तुम्हारा भ्रम निरुवारा (दूर) हो जायेगा ।
दोहा - सत्य शब्द अन्यास सुन,
शिवनारायण दास ।
सदा रह हूँ मैं हिय तोहि,
पूरण ब्रह्म प्रकाश ।। 9।।
प्रिय शिष्य शिवनारायण ! तुम मेरी बात को ध्यान देकर सुनो। मैं तुम्हें सत्य शब्द अन्यास को विस्तार से सुनाता हूँ। मैं तुम्हारे हृदय प्रदेश में पूर्ण ब्रह्म प्रकाश के रूप में सदा विराजमान रहता हूँ। तुम इस बात को समझो। उसी परमात्मा को पाने का सच्चा मार्ग बतलाता हूँ।
चौपाई -
चिहुँकि उठे तब ज्ञान सम्भारा ।
चकित होय चहुँ ओर निहारा ।।
के अस वचन कहा यहि ठाँई।
से मोंहि प्रकट कहऊ गोसांई ।। 87-88 ।।
ऐसा सुनकर मैं चिहुक (चौंककर) उठा किन्तु गुरु ज्ञान से अपने को तुरन्त सम्भाल लिया। फिर चकित होकर चारों ओर देखने लगाकि यह अमृत मयीवाणी किसने कही। फिर मैंने विनय पूर्वक कहा कि हे गोसांई (परमात्मा) जो कुछ कहना चाहते हैं कृपा कर मेरे सामने प्रकट होकर कहें जिससे कि मेरा भ्रम दूर हो जाय।
दोहा - मनसा वाचा कर्मना,
जानहुँ स्वामी तोहिं ।।
कहाँ होय शब्द सुनाबहु,
प्रकट कहहु अस मोहिं । । 10 ।।
हे स्वामी! मैं मन, कर्म एवं वचन से आपके पवित्र चरणों में समर्पित हूँ। आप पर मेरी पूर्ण आस्था है। आप कहाँ से बोल रहे हैं मैं समझ नहीं पाता हूँ। संसार से तरणे का उत्तम शब्द ज्ञान जो आपने सुनाया है, कृपा कर प्रकट रूप से विस्तारपूर्वक सुनावें जिसे कि समझकर मैं जीवन में उतार सकूँ ।
चौपाई -
तब आकाश होत ब्रह्म वाणी।
चित्त लगाय सुन कह हूँ बखानी ।।
जो मैं कहूँ करऊँ प्रमाणा।
आगे तोहिं सुनावहूँ ज्ञाना ।।
मैं बैठत तोहरे हिये आनी ।
चेतड शिष्य जो कह हूँ वखानी ।। 89-91।।
मेरे ऐसा अनुनय-विनय करने पर पुनः आकाशवाणी (ब्रह्मवाणी) हुई। कहा कि है शिष्य ! मैं जो कहता हूँ, उसे चित्त लगाकर सुनो। मैंने जो अभी ज्ञान युक्त बातें सुनाई है, उसे 'प्रमाणित करने के लिए गुरु अन्यास का दिव्य ज्ञान सुनाता अब मैं तुम्हारे हृदय में बास कर रहा हूँ। अब तुम चेतो (सावधान हो जाओ)। मैं अब उस दिव्य ज्ञान का बखान (वर्णन कर रहा हूँ)
दोहा - गुरु अन्यास शब्द अस,
कह हूँ प्रीति से आय।
नाराज होत नहीं,
जो सुने हय धरि लाय।। 11।
मैं प्रेमपूर्वक गुरु अन्यास (परमात्मा के दर्शन का ज्ञान) बता रहा हूँ। जो उसे ध्यानपूर्वक सुनता है और हृदय में धारणकर अनुकूल आचरण करता है, वह निश्चय ही आवागमन से छुट जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर भव दुःख से बच जाता है।
चौपाई -
गुरु की वाणी सुनत पुनीता।
सुनत सुनत भौ हर्ष बहुता ।।
दिव्य ज्ञान तब चित महँ पाई।
चिन्ता गई तब स्तुति लाई ।। 92-93 ।।
इस प्रकार गुरु की पुनीता (पवित्र) आकाशवाणी को बार-बार सुनकर मेरे मन में बहुत हर्ष (खुशी) हुआ। तब मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान का प्रकाश हुआ और मन की सारी चिन्ता दूर हो गई। उसके बाद मैं उस दिव्य पुरुष की विनती करने लगा।
चौपाई -
स्तुति करौं दोऊ कर जोरी।
स्वामी जड़ता छेमहु मोरी ।।
धन्य गुरु धन्य नाम तुम्हारा।
धन्य पुरुष जिन सृष्टि संवारा।।94-95।।
हे प्रभु! मैं दोनों हाथ जोड़कर तुम्हारी स्तुति (प्रशंसा) करता हूँ। कृपा कर मेरी जड़ता (अज्ञानता) को क्षमा कर दें। अज्ञानता बस मैंने तुम्हारी महत्ता को नहीं समझ सका। आप धन्य हैं। आप का नाम भी धन्य है। आप सर्वशक्तिमान पुरुष हैं। आपने ही उस विशाल विश्व की रचना की है। और बड़े ही सुन्दर ढंग से उसे संवारा (सजाया) भी है।
चौपाई -
धन्य नाम जाने संसारा।
लेहि उतारत भव जल पारा ।।
जे कर पार केहु नहि पावें ।
दया करि गुरु पार लगावें ।। 96-98।।
आपके इस धन्य (पुण्यवान) नाम को संसार में आपके भक्त जानते हैं। जनम-मरण के चक्र में फँसे अज्ञानी मनुष्य आपके इस पवित्र नाम के सहारे भवजल (भवसागर) से पार उतर जाते हैं। आप ही दयाकर जीव को भवसागर से पार कर देते हैं। आप के अनन्त है। जिसका कि कोई पार नहीं पा सकते हैं। गुण
चापाई -
मैं बपुरा का जानहु भेदा।
नहीं कछु ज्ञान पढ़ेहुँ नही बेदा ।।
मैं अज्ञानी ज्ञान का थोड़ा।
सब अपराध क्षेमहु प्रभु मोरा ।। 99-100।।
मैं बपुरा (अज्ञानी एवं लाचार) आप के इस अनन्त भेद को कैसे जान सकता हूँ, मुझे तो इस विषय में तनिक भी ज्ञान नहीं है। मैं ने वेद शास्त्र को भी नहीं पढ़ा है। मेरे जैसा अज्ञानी, जिसके पास थोड़ा ज्ञान हो आप के रहस्य को कैसे समझ सकता है। इसलिए है परम प्रभु ! दया के सागर ! मेरे सभी अपराधों को क्षमा करेंगे।
दोहा- जहाँ लगि आये जगत मंह,
करिं करिं गयिल वखान ।।
मोहें बपुरा जड़ जानि के,
क्षेमहु सब अज्ञान ।। 12 ।।
हे स्वामी! जहाँ तक मैं जानता हूँ, इस संसार में बड़े से बड़े संतमहात्मा ऋषि-मुनि आये और वे लोग आपके गुणों का बखान (वर्णन) करते-करते संसार से विदा हो गये। किन्तु आप के अनन्त गुणों का वर्णन कोई नहीं कर पाये। मैं तो अज्ञानी तथा जड़ बुद्धि हूँ। अज्ञानता में मुझ से जो अपराध हुआ है, उसे बपुरा (अज्ञानी और लाचार) समझकर क्षमा करें।
चौपाई -
कविता स्तुति पूर्ण भाखा।
शिवनारायण चित कर राखा ।।
तब पूछत भये गुरु से वाणी।
अमृत वचन कहहु गुरु आनी ।। 101-102 ।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि जब मैं ने परमात्मा की बहुत प्रकार से कविता (वन्दना) स्तुति (प्रशंसा) की, तब उन्होंने कल्याण हेतु बहुत सी बातें बताई, जिन्हें कि मैं ने अपने हृदय में ठीक से धारण कर लिया। पुनः मैंने अत्यन्त विनय पूर्वक कहा कि है गुरुदेव ! अमृतमयी वाणी में कुछ और बताने की कृपा करें।
दोहा - शिवनारायण पूछत,
मुक्ति हेतु की बात ।।
गुरु अन्यास सुनावहु,
दुःख हरण धरि गात।। 13।।
हे भव दुःख को दूर करने वाले दुःख हरण स्वामी! मैं आप से भव बंधन से मुक्ति प्राप्त करने के उपाय जानना चाहता हूँ। आप कृपा कर धरिगात ( शरीर धारण कर) प्रत्यक्ष रूप में गुरु अन्यास (मुक्ति प्राप्त करने की युक्ति) बताने की कृपा करे।
चौपाई -
सुनु स्वामी में पूछ हूँ तो ही।
भलि बिधि कहि समुझा बहु मोही ।।
कोऊ कहत गुरु परम स्नेही।
सबघट रहत सदा धरि देही ।।
केक कहत गुरु ब्रह्म अपारा।
केहु कहत ज्योति उजियारा ।।
जहाँ तहाँ कहत अंग-अंग शोभा।
जैसे कमल मन मधुकर लोभा।।103-106।।
हे स्वामी। मैं आप से जो विनय पूर्वक पूछ रहा हूँ, कृपाकर स्पष्ट रूप में मुझे समझा कर कहें। कोई कहता है कि गुरु परम स्नेही (कृपालु) होते हैं। वे सभी प्राणियों में देह धर कर विराजमान रहते हैं। कोई कहता है कि गुरु ब्रह्म स्वरूप है। कोई कहता है कि गुरु प्रकाश स्वरूप है। कोई कहता है कि की गुरु प्राणियों के अंग प्रत्यंग की शोभा है। जिस प्रकार कमल की शोभा में मधुकर (भौंरा) मोहित हो जाता है, उसी प्रकार आपकी शोभा को देखकर मन रूपी भौंरा आकर्षित एवं मोहित हो जाता है।
चौपाई -
केऊ कहत कि कर्म आपरा।
सब घट बसे यह कर्म करारा ।।
खिल अखिल पवन जल होई।
अग्नि आकाश जीवन में सोई ।।
जल थल बना आकाश ब्रह्मण्डा।
स्वामी माया तुम्हरी उदंडा ।। 107-109।।
कोई कहता है कि संसार में कर्म ही प्रधान है। जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल पाता है। घट (शरीर) में जो जीवों का बास हो वह कर्म के आधार पर ही होता है। संसार में जो भी खिल (छोटी) अखिल (बड़ी) चीजें बनी है, आपकी माया है। पवन, जल, अग्नि, आकाश, एवं पृथ्वी ये पाँचों तत्त्व एवं सम्पूर्ण प्राणी, पूरा ब्रह्ममाण्ड की माया से निर्मित है। आपकी माया बड़ा ही उदंड (भयानक) है। इसे कोई समझ नहीं पाता है।
दोहा -
कहु स्वामी मन जानी के,
जेहि सुनि पातक जाय।
जेहिं सुनिके होय चार फल,
प्रभु मुख पा प्राप्त करें।।14।।
है प्रभु! आप मुझे अपने चरणों का दास समझें और मेरे मन की बातों को जानते हुए, सभी बातों का रहस्य समझाकर कहैं। इसे सुनकर मेरा पातक (पाप) का नाश हो तथा आपके श्री मुख की वाणी सुनकर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति हो। इस के लिए आप की कृपा आवश्यक है।
चौपाई -
जे पूछहु से कह हूँ, विचारी ।
तोहि पर प्रीति हृदय भव भारी ।।
सुनहु अर्थ कहीं अगम गंभीरा।
शिवनारायण कर चित थीरा ।।
कहूँ अर्थ सब अगम अपारा।
जेहिते पाप होई निरूवारा।।110-112।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि परमात्मा से स्तुति करने पर आकाश वाणी हुई कि तुम जो पूछते हो, मैं विचार कर स्पष्ट रूप से कह रहा हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में बहुत 'प्यार' उत्पन्न हो गया है। तुम अपने चित को स्थिर कर मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें अगम जहाँ पहुँचना कठिन है एवं गंभीर (स्थिर एवं भावपूर्ण) बातों के रहस्य समझाकर कहता हूँ। इस अगम अपारा उपदेश को ठीक से सुनकर हृदय में धारण करो जिस से पाप का निरूवार (नाश) हो जायेगा।
चौपाई -
जितने पापी यह जग रह हिं।
होत पुनीत कहत मोहिं लहहिं ।।
त्रिभुवन नाथ कहत मन जानी।
रहत न पाप शरीर हिंआनी ।। 113-114।।
संसार में जितने पापी हुए, सभी मेरा नाम लेने से ही पवित्र हो गये। जो मुझे त्रिभुवन नाथ (तीनों लोक के मालिक) समझते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। पुण्यात्मा हो जाते हैं।
चौपाई -
अपरमपार जान मन लावे ।
भवसागर उतरत सच पावे ।।
अलख निरंजन कहत बखानी।
पावत गति अमर होय प्राणी ।।
पारब्रह्म परतीत मन धरई ।
पापी होय नरक नहिं परई ।।
सब घट जो जाने मोहि प्राणी।
ताको निर्भय करूँ मन जानी।। 115-118।।
हे शिवनारायण ! जो व्यक्ति मुझे अपरमपार (जिसका पार पाना कठिन हो) जानता है। वह सत्य को जान जाता है। वह ज्ञानी प्राणी संसार सागर से पार हो जाता है। मैं अलख निरंजन (माया रहित अव्यक्त ब्रह्म) कहता हूँ कि वह प्राणी सभी कर्म बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मुझ को परब्रह्म जानता है और विश्वास करता है, वह पापी होकर भी नरक में नहीं जाता है। जो प्राणी मुझ को घट-घट में जानते हैं, मैं उसे काल कर्म से निर्भय कर देता हूँ, अर्थात् मुक्ति प्रदान करता हूँ।
चौपाई -
जो प्राणी मोहि निशि दिन जाने ।
संकट परे तो मोहिं चित आने ।।
गुरु से कहहिं दोऊ कर जोरी।
आवत मोंहि लागत नही खोरी ।।
संकट परे जो देखहु ताही ।
गाढ़े संकट लेहु निवाही ।।
काहु फन्द काल के जाई।
जैसे गऊ गोधन के धाई ।। 119-121 ।।
जो प्राणी दिनरात मेरा सुमिरन करते हैं। कोई संकट आने पर एकाग्र मन से मुझको याद करते हैं। साथ ही साथ दोनों हाथ जोड़ कर गुरु से संकट मोचन हेतु विनय पूर्वक कहते हैं। मैं अति शीघ्र उसके दुःख को दूर करने आ जाता हूँ। मैं उसे कठिन से कठिन संकट से [11:50, 3/15/2023] Ritesh Sharma: उवार लेता हूँ। यमराज का भी फँदा उसका काट देता हूँ। जिस प्रकार गऊ (गाय) अपने गोधन (बछड़ा) की आवाज पर अबिलम्ब दौड़ जाती है, मैं भी भक्त की पुकार पर अविलम्ब दुःख दूर करने हेतु शीघ्रता से भक्त की ओर दौड़ जाता हूँ।
दोहा - भक्त मोर जो जगत रहे,
सो सब कहहूँ, बुझाय ।।
जेहि सुनि गति मुक्ति होय,
सुनत ही पातक जाय ।। 15 ।।
संसार में मेरे जो भक्त रहते हैं, मैं उन के विषय में समझा कर कहता हूँ। वे किस प्रकार मेरा सुमिरन-भजन करते हैं, यह भी बताता हूँ। उन भक्तों के विषय में सुनने पर पाप का नाश होता है और उन के अनुसार आचरण करने वाले मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
चौपाई -
जो पूछें से कहूं विचार ।
मोरे हृदय प्रीत अतिभारी ।।
शिवनारायण दास हमारा।
जेहि श्लोक रहत यहि संसारा।।
सुनु अर्थ कहूं अगम गंभीरा।
शिवनारायण कर चित थिरा ।।
अर्थ सुनि के अब करहु विचार।
जेहिते पाप होई निरुवारा।। 123-126।।
तुमने जो कुछ मुझ से पुछा, मैंने उसे विचार पूर्वक सुनाया। क्योंकि तुम्हारे लिए मेरे हृदय में बहुत प्यार है। हे शिवनारायण ! तुम मेरे प्रिय भक्त हो। मेरे भक्त इस संसार में जिस प्रकार रहते हैं, वह बहुत ही गंभीर प्रसंग है। इस लिए चित को स्थिर कर ध्यान से मेरी बातों को सुनो। इस कल्याणकारी उत्तम प्रसंग को सुनकर अपने मन में विचार पूर्वक धारण करो जिससे संसारिक पाप कर्म का नाश हो जाय।
चौपाई-
भक्तन संग सदा मैं रहऊँ ।
सो प्रसंग तोही से कहऊँ ।।
नाम ओंकार भक्त है एका ।
सो प्रसंग सुनाबहु नेका ।।
भक्ति करे एक जानि पुनीता।
अमृत रस ऊर्ध मुख पीता ।।
ताकर का मैं करहूँ बखाना।
एक भक्ति से राखत प्राणा ।।127-130।।
हे शिवनारायण! मैं भक्तों के साथ हमेंशा, रहता हूँ। मेरे भक्त भी मुझे हमेशा अपने दिल में बसाये रखते हैं। इसी प्रसंग को मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ। वह मेरे इस एक नाम को पुनीता (पवित्र) समझ कर विश्वास पूर्वक मेरी भक्ति करता है। साधना करता है। ब्रह्माण्ड में सहस्रार से जो अमृत टपकता है उसे उर्धव मुख (जिहवा को तालु में लगाकर) होकर अमृत का रसपान करता है। इस भक्त का मैं क्या वर्णन करूँ। उसके प्राण का बास मेरी भक्ति में ही रहते हैं।
नोट- मनुष्य जो भोजन करता है वह आमाशय (पेट) में जाता है। वहाँ भोजन को मथा जाता है। उस से जो रस बनता है उसे आँत अवशोषित कर लेती है। उस से खून बनता है। खून से मज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है। उसे ही संत भाषा में अमृत कहते हैं। यह पुरे शरीर में फैला हुआ रहता है और धीरे-धीरे सहस्रदल कमल में जमा होता है। वहाँ से नीचे वंकनाल (रीढ़की हड्डी) के मध्य में जो छिद्र है उस से होकर मूलाधार चक्र में चला आता है। वहाँ बैठी कुंडलनी शक्ति उस अमृत को पान कर सबल हो उठती है शरीर में जितना भी विकार है इसी कुंडलनी शक्ति के सबल होने से होता है। साधक इस अमृत को खेचरी मुद्रा द्वारा ऊपर ही पान कर जाते हैं। इसे पीने वाले को भूख, प्यास एवं निद्रा नहीं सताती है। शरीर निरोग एवं सवल रहता है। काम बासना समाप्त हो जाती है। ऐसा ही साधक समाधि ले सकते हैं।
चौपाई -
साधु संत के सभ्मुख रहई।
माया गर्व कबहूँ नहीं करई ।।
निशिदिन हिय में नाम हमारा।
पाप पुण्य के करत विचारा ।।
जग में जन्म जहाँ लग भयऊ।
एक ब्रह्म से जानत रहयऊ ।।
छोटा बड़ा दुई न जाने । सब
एक लेखा गुरु सम माने।। 131-134।।
वह भक्त सदा साधु संतों की संगति में रहता है। माया (धन, पत्नी, पद) का कभी गर्व नहीं करता है। रात दिन हृदय में मेरा नाम जपते रहता है। कोई भी कार्य पाप-पुण्य, उचित - अनुचित के विचार करके ही करता है। जब से उसे ज्ञान होता है एक ही ब्रह्म (ईश्वर) की भक्ति में लगा रहता है। छोटा बड़ा का भेद भाव उस के पास नहीं रहता है। हर प्राणी में गुरु का दर्शन करता है।
चौपाई -
समंज्ञी सब एक समाना।
जानत सबघट श्री भगवान ।।
ब्राह्मण गाय दुय न जाने।
गुरु सादृश्य से सब ही बखाने ।।
दुर्बल हीन देख जो कोई।
बहुविधि प्रीति बढ़ी सोई ।। 135-137।।
वह समदर्शी होता है। उसकी दृष्टि में सभी प्राणी समान होते हैं। सभी प्राणियों में वह ईश्वर के दर्शन करता है। वह ब्राह्मण एवं गाय को एक समान मानता है। घट-घट में गुरु (ब्रह्म) का बास मानता है। जीव और ब्रह्म को एक समान मानता है। वह दुर्बल, हीन एवं दुःखी जन से विशेष प्रेम करता हैं।
चौपाई -
तेहि के बीच कोई दुविधा लावे।
जानो दुष्ट ताहि के आवे ।।
दुःखित देखि बहुत माने दुःख।
पर दुःख के बारे में आप को समझाना ।। 138-139।।
अगर कोई उसके भलाई के कार्य में दुविधा पैदा करता है। रूकावट डालता है तो वह उसे महा दुष्ट समझता है। किसी को दुखित देखकर वह बहुत दुःखी हो जाता है। दूसरों के दुःख को अपने दुःख के समान मानता है।
चौपाई -
संकट परे तो सत्य न हारे।
सम्पत्ति पाय के धर्म विचारे।।
जो दुःख परे तो सत्य व्यबहारा।
सत्य ही जाने पुरुष अपारा।।
करत कमाई यही जग आई।
पूरा भक्त नाम गुण गाई।।
लेना देना जग व्यवहारा।
लै दै सो उतरे पारा।।140-143।।
संकट आने पर भी वह भक्त सत्य मार्ग से तनिक विचलित नहीं होता है सम्पत्ति होने पर भी वह सदैव धर्म के मार्ग पर ही चलता है। दुःख परने पर भी सत्य व्यवहार नहीं छोड़ता है। वह सत्य को ही परम पुरुष परमात्मा के रूप में मानता है। वह संसार में धर्म, अर्थ, यश की कमाई नहीं करता है, बल्कि मोक्ष की कमाई करता है सच्चे एवं पूर्ण भक्त के अच्छे गुणों का जीवन में पालन करता है। जब तक संसार में रहता है, बड़ा ही सोच विचार कर जग व्यवहार करता है। अन्त में ईश्वर भजन कर संसार सागर से पार उतर जाता है।
दोहा - अस भक्त मोरे जगत में
रहत यही व्यवहार।
प्रकट विचार कहे,
तोहिं शिवनारायण वार ।।16।।
हे पुत्र ! शिवनारायण ! इसी प्रकार मेरा भक्त संसार में विचार पूर्वक कर्मों को करता हुआ अपना जीवन व्यतित करता है। इस प्रकार मैंने उस के व्यवहारर को स्पष्ट रूप से कहा।
चौपाई -
जो स्वामी मोहिं जानहुँ बारा।
शिवनारायण दास तुम्हारा ।।
मोहिं पर दया बहुत गुरु कीना।
तुम प्रसाद सब हम चिह्ना ।।
जन्म पाय जग देखऊँ आई।
भूलि परेड नहीं किहऊँ कमाई ।।
का कमाई करत नर लागा।
जेहि ते सुख लगत तन भोगा ।। 144-147।।
शिवनारायण स्वामी! परमात्मा से विनय पूर्वक कहते हैं कि स्वामी! आप ने बड़ी कृपा कर मुझे पुत्र माना है। मैं भी आपके चरणों का दास हूँ। आपने मेरे ऊपर बहुत कृपा की है। आपके प्रसाद (कृपा) से मुझ को अब सांसारिक हर बात का ज्ञान हो गया है। किन्तु मैं संसार के मोह माया में इस प्रकार फँस गया हूँ, कि आपकी भक्ति कुछ भी नहीं कर पाता हूँ। कृपाकर यह बतावें कि लोग इस तन से कौन सी सच्ची कमाई करे जिससे कि इस शरीर में सच्चा सुख (आत्म ज्ञान का सुख) प्राप्त हो सके।
चौपाई -
चारहु पन के कहऊ विचारा।
हार-जीत जेहि विधि संसारा ।।
से स्वामी समझाव मोही ।
प्रकट कहऊँ गुरु पूछ तोही ।। 148-149।।
हे स्वामी! मनुष्य के शरीर में कौन-कौन चार पन (चार अवस्था) होते हैं। किस अवस्था का क्या कार्य है। संसार में किस अवस्था में क्या करना चाहिये। कृपा कर प्रकट
रूप में साफ-साफ समझा कर कहें। दोहा शिवनारायण करजोरे! गुरु से पूछत सम्बाद ।
कैसे के मोक्ष होत प्रभु । छूटत बाद विवाद ।। 17 ।। शिवनारायण स्वामी हाथ जोड़कर गुरु पारब्रह्म से इस संसार के बाद-विवाद (प्रपंच) से छुटकारा पाकर निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने का तरीका (उपाय) पूछते हैं।
चौपाई -
गुरु जो सुना शिष्य की वाणी !
तब हँस बोले कहत बखानी ।।
चारों पन जेहि विधिते होई ।
सो प्रसंग सुनावहु तोही ।।
यह संसार हाट एक लागी।
सौदा करत सवै मन जागी।। 150-153 ।।
जब गुरु ने शिष्य के इन वचनों को सुना तो हँस कर बोले कि हे शिवनारायण ! इस शरीर में चार पन कौन-कौन सा है उसी के सम्बन्ध में तुम्हें बताता हूँ। यह संसार एक हाट के समान है। जीव यहाँ कर्म रूपी सौदा करने आता है। चारों अवस्था (वचपन, किशोर, जवानी एवं बूढ़ापे) में अपनी बुद्धि एवं विवेक से उस संसार रूपी हाट में सौदा करता है। इस सम्बन्ध में मैं विस्तार रूप से समझा कर 'साहु खण्ड' में बताऊँगा ।
चौपाई -
लेत देत सौदा जेहि जोगा।
जेहि ते सुख लहत तन भोगा ।।
प्रीति बढ़ावत सब सुख लागी।
हाट लाग लेत जस भागी।।154-155।।
प्राणी अपनी बुद्धि एवं विचार से इस जग में कर्म रूपी सौदा करते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसी प्रकार का सुख प्राप्त होता है। अज्ञानी हाट एवं हाट वालों के साथ प्रेम बढ़ा कर फँस जाते हैं । दुःख भोगते हैं। इस में किसी का दोष नहीं है। जो जैसा करता है वैसा ही पाता है।
● योग खण्ड समाप्त ●