प्रातः कालीन स्तुति एवं विनती
श्लोक
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
बार बार पुकार है, हे अनाथ के नाथ |
इस असार संसार से , उबारहूँ पकड़ी बांह ॥
गुरु तो विष्णु समान है , विष्णु गुरु एक होय |
बिष्णु गुरु एक जानहूँ , प्रकटत पालत सोय ॥
॥ गुरू-स्तुति ॥
॥दोहा॥
भेद न जानहूँ हे स्वामी, मैं अध अधम अपार ।
शरण देहूँ गुरू आपनी, तब उतरों भव पार॥
॥चौपाई॥
स्वामी मोहिं पर होउ दयाला।प्रसन्न होउ करहु प्रतिपाला
नित उठि दर्शन देहु गोसांई।जब जो इच्छा तब सोई पाई
सत्य सोई मुख कहहु बखानी।जेहिते इच्छा पुरबहू आनी
॥दोहा॥
देहु स्वामी जे मांगहूँ, बिनती मानहूँ हमार ।
नित उठि दर्शन पावाहूँ, इच्छा के फल चार ॥
॥चौपाई ॥
स्तुति करहूँ दोऊ कर जोरी। स्वामी जड़ता क्षेमहू मोरी
धन्य गुरु धन्य नाम तुम्हारा।धन्य पुरुष जिन सृष्टि संचारा
धन्य नाम जाने संसारा । लेई उतारत भवजल पारा
जेकर पार केहू नहीं पावे । दया करि गुरू पार लगावे
गुण तोहार यश अपरम्पारा।को करि सकै करै निरूवारा
मैं बपुरा का जानहूँ भेदा। नहीं कछु ज्ञान पढ़े नहीं वेदा
मैं अज्ञानी ज्ञान का थोरा।सब अपराध क्षेमहु प्रभु मोरा
॥दोहा॥
जहं लगिआये जगत महं,करि करि गइले बखान।
मोहि बपुरा जड़ जानि के क्षेमहु सब अज्ञान ।।
मैं बपुरा नहीं जानहुँ, मोहि शब्द की चाह ।
अवगुण अगम गंभीर प्रभु, तोहरे हाथ निबाह।।