● तृतीय खंड ●
🌼 साहु खंड 🌼
● तृतीय खंड ●
🌼 साहु खंड 🌼
~ संत - शरण ~
सारांश - इस खण्ड में परमात्मा ने शिवनारायण स्वामी को यह बतलाया है कि मैं साहु हूँ। इस संसार रूपी हाट को, मैं ने ही लगाया है। जीव यहाँ चारों पन में कर्म रूपी सौदा करते हैं। जो जीव समझदारी से सौदा करता है, लेन देन का हिसाब जीवन काल में ही साफ कर लेता है, उसे पुनः संसार रूपी हाट में आने का दुःख उठाना नहीं पड़ता है। किन्तु सौदा करने की युक्ति गुरु से सीखनी पड़ती है। गुरु कृपा से ही जीव भवसागर पार करता है। इसलिए जीवन में गुरु का महत्त्व सर्वोपरि है।
दोहा - मन धरि सौदा हाट का,
तन धरि ले जस भाग ।
लेना सोई लीजिये,
जग में हाट एक लाग ।। 1 ।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि, परमात्मा आकाशवाणी से बोले कि हे शिवनारायण , यह संसार एक हाट (बाजार) के समान है। मैं ने अपनी इच्छा से इस बाजार को लगाया है। इस संसार रूपी बाजार में जीव कर्म के अनुसार जन्म लेते हैं और अपनी बुद्धि एवं इच्छा के अनुसार नेकी बदी का सौदा करते हैं। जीव चारों अवस्था (बचपना, किशोरावस्था जवानी और बृद्ध) में कोई मोक्ष (कल्याण) का सौदा करता है तो कोई सांसारिक सुख हेतु धर्म, अर्थ एवं काम रूपी सौदा करता है। जो अज्ञानी सॉच विचार में समय व्यतित कर देता है, मृत्यु के समय उसे पछताना पड़ता है। इसका कारण यह है कि मृत्यु के समय जैसा विचार रहता है तथा जीवन भर का जो कर्म का प्रभाव रहता है, अगला जन्म उसी के अनुसार होता है।
विशेष- परमात्मा ने मानव शरीर को ब्रह्ममाण्ड का एक छोटा स्वरूप बनाया है। इस के भीतर भी हाट लगी हुई है परमात्मा साहु बनकर बैठा है और जीव क्रेता के रूप में है। ज्ञानी जन ध्यान साधना के द्वारा मोक्ष रूपी सौदा इसके अन्दर करता है। अज्ञानी जन तीन अवस्था (बचपन, किशोरावस्था, एवं जवानी) को पार कर वृद्धा अवस्था में चेत करता है। उस समय ईश्वर भजन नहीं हो सकता है। उसे अन्त में पछताता हुआ यम लोक को जानापड़ता है। किन्तु जो गुरु दीक्षा ग्रहण कर शरीर रूपी हाट में मोक्ष का सौदा कर लेता है वह सदा के लिए दुःख से छूट जाता है। यह मनुष्य पर निर्भर करता है। इस में परमात्मा का तनिक दोष नहीं है।
चौपाई -
कहि समझाबहुँ सुन्दर ज्ञाना।
गुरु के शब्द करहु परमाणा ।।
जो गुरु शब्द सुनावत आनी ।
तेहि के का मैं करूँ बखानी ।।
गुरु साहु के शब्द सेई मणियारा ।
साहु गुरु स्वरूप संसारा ।।
के शब्द पाय मणियारा।
तब सौदा के कीन पसारा ।। 1-4।।
हे शिवनारायण ! मैं तुम्हें सुन्दर (दिव्य ज्ञान समझता हूँ। तुम दीक्षा गुरु के शब्द को विश्वास पूर्वक जीवन में धारण करो। गुरु जो शब्द (दीक्षामंत्र) देते हैं, वह शब्द अनमोल है। उसकी बखान (प्रशंसा) नहीं की जा सकती है। संसार रूपी हाट में गुरु ही साहु है। उनका शब्द मनिआर (प्रकाशयुक्त) रत्न के समान है। गुरु संसार रूपी हाट में उसी अजर-अमर शब्द का व्यापार करते हैं। मनुष्य को चाहिये कि साहु रूपी गुरु से अनमोल शब्द रत्न को प्राप्त कर अपने हृदय के अन्धकार को दूर करें और ईश्वर भजन कर मुक्ति को प्राप्त करें।
चौपाई -
सौदा सब आगे ले राखा,
सौदा दाम ग्राहक सब भाखा ।।
चलत बाट हाट एक देखा।
कहि न सकत अति रूचिर विशेषा ।।
सघन हाट लाग एक भाला।
लेत वेसावत आवत जाला ।।
बाल, किशोर, तरूण बहूता ।
वृद्धा जान पर शीतल ताता।। 5-8।।
संसार रूपी हाट में परमात्मा रूपी साहु इस प्रकार का समान लेकर बैठे हैं। ग्राहक को उन चीजों का नाम एवं गुण बता देते हैं। अर्थात् परमात्मा की हाट में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूपी सौदे विकते हैं। जो जैसा ज्ञानी होता है वह अपने बुद्धि विचार से खरीदते हैं। प्राणी संसार में आते-जाते इस हाट को देखते हैं और अपनी अवस्था के अनुसार सौदा खरीदते हैं।
शरीर के भीतर भी आध्यात्मिक हाट लगी हुई है। इस हाट में जो अनमोल वस्तुएँ बिकती हैं, उनका वर्णन करना कठिन है। मनुष्य बाल, किशोर, तरूण एवं वृद्धावस्था में गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी धन से इस हाट में सौदा खरीदता है वह ज्ञानी हैं जो कि जवानी तक मौक्ष का सौदा कर लेता है। बृद्धा अवस्था तो रोग शोक संताप का समय होता है। बृद्धा समय ईश्वर की भक्ति नहीं होती है।
चौपाई -
देखऊँ जहाँ तहाँ वस्तु पसारा।
साहु आप रहे बैठे किनारा।।
अनन्य मोती मानिक हीरा ।
रत्न ज्योति लागी जंजीरा ।।
जो देखे सो धरे तब धाई।
अरू राखत सब जतन कराई ।।
जे छूटे से तो रहे न पारा ।
लागे ग्राहक भयऊ परारा ।। 9-12।।
परमात्मा रूपी साहु के हाट में (संसार में) अनेक प्रकार के बहुमूल्य मोती, माणिक, हीरा, जबाहर चमकते जंजीरों में जड़े हुये और जड़ाऊ रत्न विकते हैं। परमात्मा चुपचाप बैठकर सभी ग्राहकों के क्रिया कलापों का अवलोकन करते रहते हैं। समझदार ग्राहक देख सुन कर शीघ्र अच्छी वस्तु को खरीद लेता है और उसे अच्छी तरह सम्भाल कर रखता है। हाट में अनेकों ग्राहक आते रहते हैं। जो पीछे आते हैं उन्हें ठीक वस्तु नहीं मिलती है। अन्त में आने वाले को खाली हाथ लौटना पड़ता है।
विशेष :- मानव शरीर में बहुमूल्य वस्तुओं का भंडार है। जो युक्ति से शरीर रूपी हाट में प्रवेश करते हैं उन्हें बहुमूल्य रत्नों का भंडार मिल जाते हैं। जो किनारे बैठा रहता है उसे अन्त में पछताना पड़ता है। कारण कि वृद्धावस्था में साधना नहीं हो सकती है। युवावस्था तक ही इस धन को अर्जन किया जा सकता है।
दोहा- जो ढूँढा सो पाईया,
गहरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन ,
डरा रहा किनारे बैठ ।।
चौपाई-
आये निकट कनक ले बाटा।
हीरा लेन आये यहि हाटा।।
परखत जात लेते नहीं खोटा।
नहीं ले लाभ छोटा नही मोटा ।।
हीरा नाम से लागत प्यारा।
तेहि नहीं रंग रूप व्यवहारा।। 13-15 ।।
प्राणी बुद्धि रूपी बाट के द्वारा इस संसार में हीरा (बहुमूल्य वस्तु) खरीदता है। वस्तु को ठीक से देखकर, परखकर, और लाभ-हानि का विचार कर वस्तु को खरीदता है। हीरा को नाम से लोग जानते हैं किन्तु मूल रूप को नहीं जानते हैं। हीरा जब मूल रूप में रहता है तो उसमें रंग रूप कुछ नहीं रहता है। जौहरी उसे तरास कर ही गुण युक्त बनाता है।
चौपाई -
जो खोजत सो पावत तेहि।
दृष्टि विलोकत केऊ-केऊ होई।।
क्षण-क्षण परखत हैं सो आई।
तिन्हीं कहत सब केऊ बनाई ।।
लेत देत मँह जो कोई रहई।
तिनकी निन्द भूख न अहई ।। 16-18।।
जो ज्ञानी होता है वह हीरा रूपी अमूल्य वस्तु को खोजकर प्राप्त कर लेता है। वहवस्तु की सुन्दरता से प्रभावित नहीं रहता है बल्कि गुण से प्रभावित होता है। वह क्षण-क्षण ठीक से परखकर वस्तु को लेता है और वह उसके गुण की चर्चा दूसरों से भी करता है। जो व्यक्ति सार वस्तु की खोज में रहता है उसे नीन्द नहीं आती है। भूख नहीं लगती है। उसके हृदय में बहुमूल्य हीरा की लालसा लगी रहती है।
दोहा - लिया दिया सो आपना,
पर के न आवे काम।
ले दे जात सकल ,
सब रहत गुरु के नाम।। 211
जो मनुष्य इस संसार रूपी हाट में जैसा सौदा खरीदता है (कर्म करता है) उसी के अनुसार वह फल प्राप्त करता है। दूसरों का किया उसे काम नहीं आता है। कर्म के अनुसार प्राणियों का आवागमन लगा रहता है। यहाँ कुछ स्थिर नहीं है। केवल गुरु का नाम ही अमर स्थिर है। अर्थात् ईश्वर शाश्वत है।
चौपाई -
लेई देइ चलइ जवन मन माना।
उठ चली हाट न रहत निदाना ।।
लेत देत मँह भईल बिहाना।
तब लेखा के चित मह आना ।।
घाट बाढ़ से इकट्ठा कीना।
जिन्स जिन्स जेहि सनजस लीना ।।
क्या टूटी क्या बड़ी सवाई।
लागत लेखा गये घबराई ।। 19-22।।
समझदार को संसार रूपी हाट में शीघ्र ही अच्छे सौदे कर लेना चाहिये। हाट समाप्त होने पर सौदा नहीं मिलेगा। अर्थात् जीवन समाप्त होने पर कुछ नहीं होगा। अज्ञानी लेन देन के झमेले में (मोह माया में) सारा जीवन समाप्त कर देता है और अन्त में इस के विषय में सोचता है। जब पूरे जीवन का हिसाब करता है तो देखता है कि अच्छे सौदे का अभाव है। पूरा जीवन बुरे कर्म में व्यतित हो गया। किन्तु बुढ़ापे में खरीद नहीं हो सकती है। अर्थात् ईश्वर भजन नहीं होता है। बुढ़ापे के दुःख को देखकर प्राणी घबड़ा जाते हैं।
चौपाई -
पहिला सौदा लेखा आना।
निश्चय कर चित देखहु सुजाना।।
भयऊ भोर ग्राहक सब आयऊ।
पहिला सौदा भोर में गयऊ।
भोर भये भ्रम नहीं होई।
पहिला सौदा यही विधि खोई ।।
दृष्टि विलोकत आवत धोखा।
कैसे सुन होई जीव सन्तोषा ।। 23-26।।
भक्ति करने का सबसे अच्छा समय बालापन है। किन्तु यह समय लाड़-प्यार में चला जाता है। जिस तरह हाट में सुबह का समय दुकान सजाने में चला जाता है, उसी प्रकार जीवन का पहली अवस्था खेल कूद में चला जाता है। सबसे पहले प्रातः जो ग्राहक सौदा खरीदता है, वह ठीक से देख परख कर अच्छा सौदा करता है। इसी प्रकार जीवन का पहला पहार रोग-शोक व्याधि से रहित रहता है। इस समय की गई भक्ति शीघ्र फलित होती है। किन्तु इस समय को मनुष्य व्यर्थ गवा देता है।
चौपाई -
तेहि पाय भय कवन हवाला।
अस बोलत जस गूँजत व्याला।।
कहत सब केऊ निकट बुलाई।
बाल अवस्था जानो भाई ।।
उत्कट के बोलत वाणी।
तब पय पान करावत प्राणी ।। 27-29।।
बालापन का समय निर्भय, निष्कपट सुन्दर एवं मोहक होता है। कभी वह मधुर बोलता है तो कभी व्याल (सर्प) की तरह फूंफकार मारता है। लोग बचपना समझ कर कुछ नहीं बोलते हैं। उलटे ही प्यार करते हैं। वह उत्कट (अटपटी तीव्र) बात भी बोलता है। फिर भी लोग प्यार से उसे दूध पिलाते हैं।
चौपाई -
बालापन से सुबुध सयानी।
जे चित आवे से बूझ न आनी ।।
लागत रसना अमृत अमोला।
ताहि समुझ कुछ वचन न बोला।।
लेत मधुर रस पूर्ण इच्छा।
दृष्टि विलोकत पाव परीक्षा ।। 30-32।।
धीरे-धीरे बालापन से सवाना होने लगता है। बुद्धि भी कुछ विकसित होती है। किन्तु जो मन में आता है वही बोलता है। किन्तु कभी-कभी अमृत के समान मीठी बात भी बोलता है। इस प्रकार उसके व्यवहार एवं वाणी से लोग बहुत खुश होते हैं। बचपन का यह समय इसी प्रकार क्रिया कलापों में व्यर्थ चला जाता है। भजन भक्ति नहीं हो पाती है।
दोहा - पहिला सौदा अस गये,
जस बालापन की नेह ।
अब तरूण पन होत है,
चेत करो नर देह ।।3।।
परमात्मा शिवनारायण स्वामी को समझाते हुए कहते हैं कि हे शिवनारायण इस प्रकार मनुष्य का बालापन (प्रथम अवस्था) का समय खेल कूद एवं लार-प्यार में ही चला जाता है। उसका पहला सौदा यानि ईश्वर भजन नहीं हो पाता है। मनुष्य धीरे-धीरे किशोरावस्था में आता है। यह समय बालापन से अधिक समझदारी का होता है। इस समय चेत करना चाहिये कि यह नरदेह मुझको क्यों मिला है। क्या केवल संसार के सुख भोग के लिए मिला है या ईश्वर के भजन करने के लिए मिला है।
चौपाई -
दूसरा सौदा के लेखा करहीं।
कुल परिवार जानि हिय धरहीं ।।
सब परिवार मिल करत गुनाना।
चित एकमत कइकै सब ठाना।।
पाँच प्रधान मिले जब आई।
लेखा तब से पूरन पायी।।
नहीं जानत से तो करत गुनाना।
काम करार ताहि के आना ।। 33-36।।
किशोरावस्था मनुष्य जीवन की दूसरी आनन्दमयी अवस्था है। इस अवस्था में मनुष्य कुछ सोचने समझने लगता है। चाहे तो मनुष्य इस अवस्था में ईश्वर भजन रूपी सौदा कर सकता है। किन्तु परिवार के लोग संसार की माया भोगने के लिए पढ़ने-लिखने में लगा देते हैं। चतुर लोगों से सांसारिक चतुराई सिखलाते हैं। सांसारिक मोह माया में पड़कर प्राणी दूसरे पन में भी ईश्वर भजन नहीं कर पाता है। यह समय भी व्यर्थ चला जाता है।
चौपाई -
काम करार कैसे के जानी।
के तो आई पूछत तेहिं आनी ।।
जिन सौदा के आनी बुलाई।
से तो पूछत हैं तहाँ जाई ।।
काम परार न जानत अन्ता
से अब मोहिं कहहु विरतन्ता ।।
नहीं जाने केऊ कौन विचारा।
काम परार जाने बिनु भारा।। 37-40।।
मनुष्य जीवन का जो लक्ष्य था प्राणी उसे भूल जाते हैं। परामात्मा जिस उद्देश्य से संसार रूपी हाट में भेजा था, सांसारिक विषय वासना में फँसकर प्राणी भूल जाते हैं। किन्तु जो कुछ भी ज्ञान रखते हैं वे ज्ञानी जनों के सम्पर्क में जाकर ज्ञान को प्राप्त करते हैं और मुक्ति मार्ग को अपनाते हैं।
चौपाई -
उठि के सब मिलि के तहँ जाई।
जेहि ते जग में होत बड़ाई ।।
यहि विधि कहत जहाँ तहँ साहु।
जेहि न लेखा पाउ निबाहु ।।
अस कहि पूछत पाँच प्रधाना।
हमरे चित के सुनहु गुनाना।। 41-43।।
किन्तु प्राणी अच्छे कर्मों को नहीं करते हैं। वहीं कर्म करते हैं जिस से संसार में प्रशंसा हो। साहु (परमात्मा) के पूछने पर अपने कर्मों का लेखा (हिसाब) नहीं दे पाते हैं। कर्म करने में शरीर के पाँच प्रधान (मन, बुद्धि, अहंकार, चित और विवेक) भी सहयोग करते हैं।
चौपाई
सौदा करहु से कहहु बखानी।
से सुनि के लेखा चित आनी ।।
सौदा जौन किन्ह प्रधाना।
से कहिं प्रकट सुनावहुँ सुजाना।। 44-45।।
जब परमात्मा जीव से सौदा का हिसाब पूछता है तब जीव सोंचने लगता है और मन में सौदा का हिसाब करता है कि पाँच प्रधानों के कहने पर संसार रूपी हाट में कौन-कौन सा नेकी वदी का सौदा किया है।
दोहा- साहु कहा बुझाय जब,
जेहि सुनि होय परमान ।
देहु बड़ाई बुलाबहु,
कर सौदा जस जान।।4।।
इस प्रकार परमात्मा ने शिवनारायण स्वामी से समझा कर कहा कि हे शिवनारायण । इस प्रकार जीव से पूछा जाता है कि तुमने नेकी वदी का सौदा जीवन में किया है प्रमाण के साथ हिसाब दो। जो अच्छे बुरे कर्म करने में सहयोगी थे उन्हें बुलाकर गवाही दो।
चौपाई
लेत देत के सुनहु हवाला ।
लेत देत बहु प्रीति बिहाला ।।
लागी लालच बढ़ी सबाई
रही न सुधि बुधि कछु चतुराई।।
होय बिहाल हाल नहीं ताई।
लालच लागी भूली जग माँही ।।
अब तासे नहिं आवत वाणी।
यहि ते लेखा ठीक के आनी ।। 46-49।।
हे शिवनारायण । प्राणी संसार रूपी हाट में आकर लेन-देन में फँस जाते है। लोभ, लालच आदि विषय में फँसकर प्राणी अपने कर्त्तव्य को भूल जाते हैं। सुध-बुध को खो कर कर्म में लिप्त हो जाते हैं वे सांसारिक कार्य में इस प्रकार फँस जाते हैं कि भक्ति भाव को कभी चित में नहीं लाते हैं। अन्त में जब उससे कर्मों का हिसाब पूछा जाता है तो मुँह से आवाज नहीं निकलती है। अपने कर्म का लेखा ठीक से नहीं दे पाते हैं।
चौपाई
अब तो करो जिन्सकर मोला।
रक्ती माशा लिखा जे तोला ।।
से सुनि के चित आनी सुजाना।
हित से लेखा करहु प्रमाणा ।। 50-51।।
मृत्यु के उपरान्त प्राणी के किये कर्मों का लेखा-जोखा (हिसाब) किया जाता है। रत्ती माशा (छोटी से छोटी) कर्मों का भी हिसाब होता है। यहाँ कोई जीब बच नहीं सकता है। जीवों से कहा जाता है कि हे चतुर सुजान, तु अपने चित को स्थिर कर किये गये कर्मों का सही-सही हिसाब दो ।।
दोहा - लेन-देन जेहिबिधि ते,
कहो परिवार बुलाय ।
लेखा ठीक कर आनहु,
जेहि विधिकहऊँ बुझाय ।। 5 ।।
जीव से पूछा जाता है कि जिस परिवार के कहने पर तुमने कर्म किया है, परिवार के उन सदस्यों को बुलाकर उन से बूझ समझ कर अपने कर्मों का लेखा-जोखा (हिसाब ) प्रस्तुत करो। मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ। तुम्हारे कर्म के अनुरूप ही कर्म फल निर्णय किया जायेगा।
चौपाई -
अस सुधि पाय प्रीति अतिलागी।
लेखा करत भ्रम न जागी ।
तब उठ के तब ताहि सुनाई।
जेहि विधि लेखा पूरन पायी।। 52-53।।
इस प्रकार की बात सुनकर जीव को सुधि (ख्याल) आता है कि उसे अपने किये कर्मों का हिसाब परमात्मा को देना है। परमात्मा को सामने पाकर जीव के हृदय में अत्यन्त प्रीति पैदा हो जाती है। तब सभी भ्रमों से रहित होकर, अपने द्वारा किये गये कर्मों का ब्योरा साफ-साफ सुनाता है। तब उस जीव का लेखा (हिसाब) पूरा होता है और उसी के अनुरूप उसका कर्म फल निर्धारित होता है।
दोहा -लेखा सुन चित धरिके,
जेहि विधि निश दिन होई।
बढ़त सबाई सत्य की,
प्रतीत से गहे जो सोई ।। 6 ।।
हे शिवनारायाण! जीव से कर्म का हिसाब सुनने के बाद परमात्मा जीव से कहते हैं कि अब तुम मन को स्थिर कर मेरी बात को सुनों कि प्रति दिन किस प्रकार के कर्म करना चाहिये। जो प्रतीत (विश्वास) करके इस सत्य वचन को जीवन में धारण करता है और उसी के अनुकूल कर्म भी करता है तो उस के अच्छे कर्म फल सवा गुणा के हिसाब से प्रति दिन बढ़ता है। अन्त में उस जीव का कल्याण हो जाता है।
चौपाई
तीसरा सौदा कहऊ बखानी।
प्रीति भाव रस अमृत जानी।।
सुनत हृदय प्रीति अति भयऊ।
शिव नारायण गुरु पद गहेऊ ।।
आनन्द भयऊ देखत तेहि स्वामी।
तोहरी कृपा हृदय मंह जानी।।
तुम दुःख हरण संसारा।
शिव नारायण दास तुम्हारा।। 54-57।।
दूसरे सौदा के विषय में सुनने के बाद, शिवनारायण स्वामी परमात्मा से विनयपूर्वक कहते हैं कि हे प्रभु! तीसरा सौदा जीवन में किस प्रकार करना चाहिये, अब इस बात की चर्चा कृपाकर करें। आप की अमृत मयी वाणी सुनने के लिए मेरे हृदय में प्रीति (प्रेम) का भाव उत्पन्न हो गया है। हृदय में बहुत प्रीति आ जाने से मैंने आपके पवित्र पद (चरण) को, गुरु रूप में विश्वास पूर्वक पकड़ लिया है। आप को देखकर मेरा हृदय आनन्दित हो उठा है। मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे ऊपर आपकी बहुत कृपा है। आप संसार के जीवों के दुःख को हरण करने वाले दुःख हरण स्वामी हैं और मैं (शिवनारायण) आपके चरणों का दास हैं।
चौपाई -
तुम्हीं छोड़ि और पूछाँ काहो।
भवसागर से लेहु निवाही ।।
तीसरा सौदा जेहि विधि होई।
बहुत जतन समझा बहु मोही ।। 58-59।।
हे स्वामी! आप जैसे कृपालु को छोड़कर मैं यह कल्याणकारी बात किस से पूछूं। हे दयानिधान! कृपाकर आप मुझे भवसागर से उबार लें। कृपाकर यह भी बतायें कि मनुष्य को जीवन में तीसरा सौदा कैसे करना चाहिये।
दोहा- अस कहि के शिवनारायण,
गुरु के चरण चित दीन्ह।
बहुत आशीष देई के
गुण प्रकट अस कीन्ह ।। 7 ।।
इस प्रकार विनय पूर्वक प्रार्थना करते हुए शिवनारायण स्वामी ने गुरु स्वरूप परमात्मा के चरणों में ध्यान लगाया। तब परमात्मा ने शिवनारायण स्वामी को बहुत आशीर्वाद दिये और मानव को अपने जीवन में तीसरा सौदा कैसे करना चाहिये, इस उत्तम ज्ञान को स्पष्ट रूप से बताना शुरु किये।
चौपाई -
सौदा कहूँ जे तीसर होई
प्रीति भाव समुझा बहु सोई।।
भरमन लाद लेत सब लोगा।
जे कछु दाम कर्म जेहि योगा ।।
दाम देत जैसन जस होई
तैसन फल पावत है सोई।।
लेत सबै अपने मनमाना।
जैसन जस बनिज जिन जाना।।60-63।।
शिवनारायण स्वामी से परमात्मा बोले कि हे शिष्य! तीसरा सौदा जीवन में कैसे करना चाहिये। इस बात को प्रेमपूर्वक तुम्हें समझाकर कहता हूँ। तीसरा सौदा जीवन के तीसरे पन में यानि जवानी में किया जाता है। यह समय ईश्वर भजन का सर्वोत्तम समय होता है। किन्तु लोग धन, पुत्र, यश के पीछे बेचैन रहते हैं। इसके लिए बिना विचारे भले-बुरे कर्मों को करते रहते हैं। उसके पास जितना दाम (कीमत, ज्ञान) रहता है। उसी के अनुसार संसार के हाट में सौदा खरीदता है। अन्त में बुरे कर्मों की गठरी सिर पर लादे संसार रूपी हाट से विदा होता है। किन्तु ज्ञानी जन भक्ति की गठरी लिए सुख पूर्वक संसार रूपी हाट से विदा होता है। यह अपने पर निर्भर करता है। दूसरों पर दोषारोपण करना व्यर्थ है।
चौपाई -
तौलि नापि के लेत बनाई
जेहि तेदोष न ताहि लगाई।।
घटि बढ़ि देखि के भूला
तुला तत्त्व से सब कहु तूला ।।
पुरा सुहावन लागत नीका
घटि बढ़ि में होत मन फीका ।।
धाड़ा साथ कर लेहु पूरा।
फेरि फारि पलड़ा करू दूरा।। 64-67।।
हे शिष्य संसार रूपी हाट में क्रेता को सौदा ठीक से देखकर और ठीक से तौलकर लेना चाहिये। तुला (तराजू) और बटखरे को जाँच कर सौदा तौलाना चाहिये। समान ठीक खरीद होने पर क्रेता के मन में खुशी होती है। समान कम या खराब मिलने पर मन में बहुत दुःख होता है। इसलिए मन की संतुष्टि के लिए पलड़े को फेर फार (अदल-बदल करपसंगा (कमी-बेसी) को देख लेना चाहिये। ऐसा करके सौदा खरीदने पर किसी पर दोष नहीं लगता है और पीछे पछतावा भी नहीं होता है।
विशेष- यहाँ परमात्मा ने शिवनारायण स्वामी को अपने शरीर रूपी हाट में सत् नाम का सौदा करने का इशारा किया है। गुरु जो ध्यान की विधि बताते हैं, उसमें तत्त्व की तुला और श्वांस रूपी बटखरे से ही शरीर के भीतर खरीद (अभ्यास) होती है। इसमें इंगला पिंगला एवं सुषमना का सबसे अधिक महत्त्व है। साधक पहले फेरि पारिकर यानि प्रणायाम करके ईंगला एवं पिंगला के मार्ग को ठीक करता है। दोनों का मार्ग साफ होने पर सुषमन का मार्ग ठीक (साफ) हो जाता है। फिर साधक सूरत एवं नाम के साथ सुषमना मार्ग से ऊपर ब्रह्माण्ड की ओर आगे बढ़ते हैं। फिर सूरत के बाद शब्द को पकड़कर अनाम पद की यात्रा करते हैं। अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं।
चौपाई -
बहुत जतन साधि के लेहि।
फिर जिन दोष काहु के देई ।।
लेई देई तब चले पियारा।
जे कुल लिन्ह किन्ह सिर भारा।।
लेई बाँध दुई खँचि पिटारा
चिन्ता भी निज पूँजी निहारा।।
अब गुरु डेरा कहाँ बनाई।
मानो जब चौथा पन आई ।। 68-71।।
जो व्यक्ति सधे हुए तराजु से सौदा खरीद विक्री करता है अर्थात ठीक से सोच विचार कर कर्म करता है। उसे किसी से शिकायत नहीं रहती है। उसका मन भी हमेशा प्रसन्न रहता है। सोदे की गठरी सिर पर लादकर जब वह घर की ओर चलता है तब अपने सौदे को देखता है और अपनी पूँजी का हिसाब करता है। उसे यह देखकर बहुत दुःख होता है कि उसके पास जो पूँजी थी वह समाप्त हो गई है। अर्थात् उसने सांसारिक वस्तुओं की गठरी तो बाँध ली है किन्तु ईश्वर भजन नहीं किया है। परमात्मा के द्वारा ईश्वर भजन करने के लिए जो मानव शरीर मिला था उसे उसने सांसारिक धन बटोरने में लगा दिया अब वह चौथे पन को सामने देखकर घबड़ा जाता है कि इस समय ईश्वर भजन कैसे होगा।
दोहा - लादि चले सब बहु जतन,
अपनी अपनी लाद ।
जब उठिके नायक चले,
तब छूटत बाद विवाद ।। 8 ।।
परमात्मा शिवनारायण स्वामी से कहते हैं कि चौथे पन की चर्चा करना व्यर्थ है। यह समय सौदा करने का नहीं होता है। तीनों पनों (वालापन किशोरापन एवं जवानी) में जो सौदा किया जाता है उसे लादकर चलने का समय चौथापन होता है। पीछे किये कर्मों का हिसाब करने का समय होता है। जब आत्मा रूपी नायक इस शरीर रूपी हाट से चल देता है तो सारा बाद-विवाद ही मिट जाता है।
चौपाई -
चौथा सौदा के विरतंता।
मूल शाखा पर उठत प्रयन्ता ।।
जैसे जग किसान की वानी।
जोत बोय उपजावत आनी ।।
प्रति पालत मारत नहीं दाया।
क्षुधावन्त होई पाकत पाया ।।
पाके पर कुछ सोच न आनी।
लावत मोह न आने प्राणी ।। 72-75 ।।
हे शिवनारायण ! चौथे पन की चर्चा वृक्ष की जड़ एवं डाली (शाखा) के समान समझना चाहिये। बूढ़े वृक्ष की जड़ एवं डाली सूख जाती है और उसमें पत्तें फूल एवं फल नहीं लगते हैं। उस के लिए प्रयन्ता (चेष्टा) करना व्यर्थ है। उसी प्रकार चौथा पन आने पर शरीर की सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। शिथिल एवं रोगग्रस्त शरीर में भक्ति रूपी फूल एवं फल कदापि नहीं लगते हैं। किसान खेत में फसल लगाते हैं। फसल के पकने पर (चौथा पन) आने पर किसान फसल को काट कर घर ले आते हैं। फसल काटने में उसे तनिक भी दुःख नहीं होता है। उसी प्रकार संसाररूपी खेत से काल (यमराज) जीव रूपी फसल को काटते रहते हैं। चौथापन तो जीवन की समाप्ति का समय होता है कर्म करने का नहीं।
चौपाई -
करत न प्रीति से सुनहु सुजाना।
जैसे काल काढ़ लेत प्राणा ।।
तेहि काटी खलिहान हि आनी।
मल दल लेत सोच नहि मानी।।
तौलि-नाप कैसे ले जाई ।
लेई धरे निज भवन बनाई ।।
देई दाम गोनी लेई भारा।
लादि चले जैसे बंजारा ।। 76-79।।
हे सुजान (चतुर)! जिस प्रकार यम शरीर से प्राण को काढ़ लेता है (निकास लेता है)और उसे तनिक भी जीव के प्रति मोह नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार किसान पकी हुई फसल को काट लेता है और खलिहान में लाकर जमा करता है। उस फसल को दल-मल कर ढेर कर लेता है। फिर उसे नाप तौलकर अपने घर ले जाता है। बंजारा (खरीद विक्री करने वाला) दाम देकर उस अनाज को खरीदता है और गोनी (गट्ठर) बनाकर सिर पर लादकर ले जाता है। इस प्रकार प्राणी भी जीवन भर की कमाई का गट्ठर बाँधकर संसार से जाने के समय सिर पर लाद कर ले चलता है। उस समय धन, मकान, पुत्र कुल परिवार नहीं बल्कि अच्छे और बुरे कर्म ही साथ जाते हैं।
चौपाई -
टाँडा लाद पंथ तब धरही।
तब चिन्ता चित मंह करई ।।
पंथ चलत में हासिल दीन्हा।
लाद लीन पंथ छाँड़ि न लीना ।।
राह चलत हाथ कछु नाहीं।
तेहिते सोच करत मन माहीं।।
बिनुलिए कछु आवे न हाथा।
तेहिते सोच करत धुनि माथा।। 80-83।।
जब प्राणी टौंडा (कर्म की गठरी) को सिर पर लादे हुए यम के साथ चल देता है, तब उसके हृदय में यह विचार उत्पन्न होता है कि जो गठरी में सिर पर लादे जा रहा हूं, उसमें मेरी भलाई की कुछ वस्तु है कि नहीं। जब वह पूरे जीवन के कर्मों का हिसाब करता है तो वह देखता है कि वह व्यर्थ की इतनी बड़ी गठरी लादे जा रहा है। उस समय यह बहुत पछताता है दुःखी होता है और सोचता है कि उसे ठीक से सोच समझकर संसार में कर्म करना चाहिये। था। अच्छे कर्मों की गठरी बाँधनी थी। वह अपने भाग्य (किये कर्म) पर सोचता अपने को कोसता हुआ यम के साथ चलता जाता है। क्योंकि बिना गुरु भक्ति किये कुछ हाथ नहीं आने वाला है अर्थात् यम से नहीं बच सकता है।
विशेष- चौथे पन में जब मनुष्य चलने फिरने देखने सुनने से असमर्थ हो जाता है, तब बैठा-बैठा बीते दिनों के विषय में सोचता है। जीवन भर के कर्मों का हिसाब करता है। वह देखता है कि झूठ-सच करके वह अपार सम्पत्ति को जमा किया है। बहुत से बेटे-बेटियाँ एवं ऊँचे मकान का भी मालिक बन गया है। जीवन की सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं। किन्तु साथ जाने वाला तो एक भी नहीं है। जिस ईश्वर भजन से जीवन का कल्याण होता। आवा गमन के दुःख से छुटकारा मिलता, उसे तो कभी किया ही नहीं। इस जर्जर शरीर से अब ईश्वर भजन भी नहीं होगा। मेरा सारा जीवन व्यर्थ चला गया। ऐसा सोचता हुआ दुःख से शेष जीवन को व्यतित करता है। और अन्त में पाप की गठरी सिर पर लादे यमपुरी को जाता है।
चौपाई -
संग न पावत चलती बारा।
गृह छाड़ि सब होत पराया ।।
सुधि न रहत कछु लिन्ह न हाथा।
नहीं समान कछु लिन्हें साथा।
अब से का करत पछताई।
उठि चले पंथ धारा जनु धाई ।।
बीच बन में जब डेरा लिन्हा।
दिन चार के फेरा किन्हा।। 84-87।।
रास्ता चलते समय विचार कर देखता है कि आज धन-दौलत कुटुम्ब परिवार एक भी साथ नहीं जा रहा है। आज घर एवं बाहर के सभी प्रिय से प्रियजन भी पराया हो गया है। कोई भी यम के फाँस से नही छुड़ा पा रहा है। आज अकेले ही यम लिए जा रहा है। अगर जीवन में ईश्वर की भक्ति की होती तो आज अवश्य ही यम के फाँस से बचाता ।
इस प्रकार जीव अपने कर्म पर पछताता हुआ यम के फाँस में बँधा हुआ अकेले ही यम के साथ जाता है। रास्ते में जब शाम हो जाती है तो भयावह जंगल के बीच रात ठहरना पड़ता है।
चौपाई -
नहीं सूझे रात नहीं उजियारा।
परत मोह वश करत पुकारा ।।
नहीं केऊ समझावत तेहि ।
कैसेहु धीर धरत नहीं देही ।।
स्वारथ जप-तप नैनन खोले।
भौ अवगाह जब रहत अकेले ।।
आगे देखत अगम गंभीरा।
भवसागर के बैसल तीरा।। 88-91।।
जंगल के अंधेरे में वह (जीव) अत्यन्त व्याकुल हो जाता है। वह सहायता के लिएपुकारता है, किन्तु कोई सहायता के लिए नहीं आता है। पीछे के जीवन के कर्मों को यादकर एवं जंगल की भयानकता को देखकर वह थर-थर काँपता है। वहाँ धैर्य बँधाने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ता है। तब वह सोचता है कि मेरा सारा जीवन व्यर्थ के समान जुटाने में चला गया। कभी सत्संग, जप, तप, सुकर्म को आँख खोलकर देखा नहीं। जो कि आज इस मुसीबत की घड़ी में काम आता। वहाँ से जब आगे बढ़ता है तब सामने विस्तृत एवं अथाह समुद्र को देखकर और अधिक व्याकुल हो जाता है। वह चारों तरफ देखता है किन्तु पार का कोई साधन (नाव या बेड़ा) दिखाई नहीं देता है। निराश होकर किनारे बैठ जाता है और पार कैसे जाया जाय विचार करने लगता है।
दोहा- पड़ी नाव केवट बिन,
जल मंह अगम अपार ।
औघट नदिया भयावनी,
करि देखऊँ हृदय विचार ।। 9 ।।
बहुत खोजने पर वह देखता है कि एक नाव है किन्तु पार करने वाला केवट नहीं है। अथाह जल राशि वाला समुद्र है जो कि औघट (बिना घाट का) है। भयावह दिखाई पड़ता है। उसके हृदय में यह विचार उठता है कि इस भवसागर को कैसे पार किया जाय और कैसे अपने देश को जाया जाय। किनारे बैठकर पूर्व कर्मों को यादकर बार-बार पछताता है।
हे शिवनारायण ! मन में ठीक से सोच विचार कर देखो कि जो व्यक्ति गुरु रूपी केवट को नहीं पकड़ा है उसे इस भवसागर से कौन पार करेगा। इसके लिए गुरु रूपी केवट का होना बहुत जरूरी है। नहीं तो जीव को भवसागर की घाट से बार-बार लौटना पड़ेगा।
विशेष- मृत्यु के समय पापी व्यक्ति के प्राण (जीव) लिंग, गुदा, मुँह, नाक एवं आँख के मार्ग से शरीर से बाहर निकलता है। यमदूत पहले से ही इन द्वारों पर मौजूद रहते हैं। जीव शरीर से अँगूठे के आकर में बाहर निकलता है यमदूत उसे यातना रूपी शरीर से ढक कर बड़ा करता है और गले में रस्सी बाँधकर खींचता हुआ यमपुरी ले जाता है। पुनः यमराज की आज्ञा से पृथ्वी पर लाया जाता है। जीव अपने शरीर में प्रवेश करने का पूरा प्रयत्न करता है। किन्तु बन्धे रहने के कारण ऐसा नहीं कर पाता है। वह अपने परिजनों के दुःख को देखकर बहुत दुःखी हो जाता है। बहुत रोता है। किन्तु विवश कुछ नहीं कर पाता है। प्रतिदिन जो पिण्ड दिया जाता है वही उसका भोजन होता है। दशवें दिन का पिण्ड खाकर उसका शरीर एक हाथ का होता है । ग्याहरवें एवं बारहवें दिन का पिण्ड भोजन करने के बाद तेरहवे दिन उसे बन्धे हुए बंदर की तरह घसीटता हुआ यमदूत यमलोक की ओर चल देता है।
रास्ते में आग, असि पत्र वन, तप्त बालू, ताँबे के समान जलती पृथ्वी पर घसीटते हुए यमदूत लेकर जाता है। भूख प्यास से व्याकुल जीव अपने कर्मों को याद करता हुआ रोता विलखता चलता जाता है। रास्ते में वैतरणी नदी (100 योजन लम्बी) मिलती है। वह नदी पीव, विष्ठा, रूधिर से युक्त बड़ी ही भयानक होती है। उसमें घड़ियाल, मगर अन्य भयानक जल जीव तैरते रहते हैं। पापी को उसी में डूबाते उठाते ले जाया जाता है। वह उसी गंदी चीजों को खाता पीता है। हाय पुत्र, हाय पिता, हाय बन्धु करके चिल्लाता है। किन्तु वहाँ उसे बचाने कोई नहीं आता है। जो गाय को दान करता है वह सुख से वैतरनी पार करता है। उससे निकलने के बाद रास्ते में सौम्मपुर, सौरिपुर, नगेन्द्र भवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूपुर, विचित्र भवन, वहवापद, दुःखद, नामा क्रन्दपुर सुप्त भवन, रौद्रनगर, पयोवर्षम, शीताढ्य, बहुभीति, नामक पुरी को पारकरता है। बहुभीति पुर में उसे फिर अंगुष्ठ आकार का शरीर मिलता है। उसी रूप में जीव यमदूतों के साथ दक्षिण मार्ग से यमपुरी जाता है। धार्मिक लोग पूरब पश्चिम एवं उत्तर मार्ग से जाते हैं। ।।
(गरुड़ पुराण के अनुसार )
चौपाई -
श्रीस्वामी मुख सुन्दर वाणी।
शिवनारायण सुनि चित आनी
जस उतरत लागत बड़ी बारा ।
तसस्वामी के मुख निहारा ।।
कैसे उतरत कहहु बखानी।
मोहि लागत जस अमृत वाणी।। 92-94।।
परमात्मा के मुख से यह कल्याण कारी सुन्दर वचन को सुनकर शिवनारायण स्वामी अपने मन में सोचने लगे। फिर उन्होंने विनयपूर्वक कहा कि हे प्रभु! मुझे केवल आपका ही भरोसा है। आप से ही कल्याण सकता है। आप कृपाकर अमृत तुल्य वचनों से यह बताने की कृपा करें कि प्राणी किस प्रकार इस अगम अपार भवसागर को पार कर सकता है। अपना कल्याण कर सकता है।
दोहा- हे स्वामी जल अमग देखि,
महा संकट हिय होई।
कैसे के पार होत प्रभु,
कहि समझाावहु मोहि ।। 10 ।।
हे स्वामी! भवसागर में अगम जल देखकर मेरे दिल में महा संकट (बहुत सोच) उत्पन्न हो गया है। इस अगम-अथाह जल को कैसे पार करूँगा, इस बात को समझाकर कहें। विशेष- इस संसार रूपी अगम अपार सागर में मोह माया का अथाह जल भरा हुआ है। पापी जीव वैतरणी नदी में जिस प्रकार डूबता उतरता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव संसार रूपी वैतरणी में मोह माया के बंधन में बंधकर डूबता उतरता रहता है। जिसको सदगुरु केवट मिल जाता है वही इसे पारकर निज देश को जा सकता है। अन्यथा इसे पार करने का कोई उपाय नहीं है।
चौपाई -
जैसे उतरत सुनहु विख्याता।
आवत जात लागत दिन साता।।
यह जग का सौदा दिन चारा।
जेहि जेहि कर्म लेत सिर भारा।।
यही के बीच घाट जो जाने।
तब सन्देह न ताहि के आने।।
नहीं दीन लीन कछु हाथा।
वैसे गँवावत ठोकत माथा ।। 95-98।।
यह सुनकर परमात्मा शिवनारायण स्वामी से कहते हैं कि हे शिवनारायण ! जीव कैसे भवसागर पार हो सकता है वह उपाय मैं तुम को विख्याता (साफ-साफ) बतलाता हूँ। मनुष्य का संसार में आना जाना सात दिनों (सात भागों) में बँटा हुआ है। एक दिन आने (जन्म लेने) और एक दिन जाने (मरने) में लग जाते हैं। चार दिन जीवन की चार अवस्थाएँ- बचपना, किशोरावस्था, जवानी, एवं बुढ़ापा हैं। इन्हीं चारों अवस्था में मनुष्य संसार रूपी हाट में कर्म रूपी सौदा खरीदते हैं। दुनिया से जाने पर इसी कर्म की गठरी उसके सिर पर रहती है। एक दिन का समय किये कर्म का हिसाब करने का होता है। इसी बीच जो सद्गुरु की शरण में जाकर भवसागर पार करने की बाट (रास्ता) जान जाता है। निःसन्देह वह भवसागर पार चला जाता है। वह जीव मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। मनुष्य होकर जो अपने हाथ दीन लीन (दान, दूसरों की सेवा) नहीं किया उसका जन्म लेना व्यर्थ चला जाता है। वह प्राणी भवसागर के किनारे बैठ माथा ठोकठोक कर रोता है।
चौपाई
से फिरि आवे से फिरि जाई।
विना दाम नहीं उतरे पाई।
तब से होके चतुर सुजाना।
से जो आने तब यह ज्ञाना ।।
केवट से तब प्रीति बढ़ावे।
होय प्रसन्न तब पार लगावे ।।
तेहि के सुनो प्रीति के भेवा।
देई लेई न उतारे खेवा।। 99-102।।
हे शिष्य ऐसे व्यक्ति (जीव) जो कि भगवत भजन नहीं करता है, उसका आना-जाना लगा रहता है। वह भवसागर पार नहीं जा सकता है। केवट को विना उतराई दिये अर्थात् बिना भगवत भजन का कोई पार नहीं जा सकता है। वही चतुर सुजान (ज्ञानी) है। जो कि इस बात को समझता है। वहि केवट अर्थात् गुरु से प्रीति बढ़ाता है। उन के मार्ग पर चलकर उन्हें प्रसन्न करता है। तब गुरु केवट बनकर भवसागर पार कर देता है। हे शिवनारायण!! अगर गुरु शिष्य की भक्ति एवं निष्ठा से प्रसन्न हो जाय तो विना खेवा (उतराई) लिए ही शिष्य को भवसागर से पार कर देते हैं। इसलिए गुरु के प्रति निष्ठा एवं विश्वास होना बहुत जरूरी है।
चौपाई -
थोड़ी प्रीति बहुत कै जाने ।
तेहि से प्रीति केहु न आने ।।
सहज रूप से पावत सोई।
जो नहीं जानत आपन कोई ।।
तब से नाव ताहि के चढ़ई।
डगमग होई उर्ध्वमुख परई ।।
साँच भाव हो ताहि निवाही।
साँच ते काम ताहिं के आही ।। 103-106।।
हे शिवनारायण ! गुरु परम दयालु होते हैं। सच्चे मन से की गई थोड़ी भक्ति को भी वे बहुत करके मानते हैं। शिष्य पर अति प्रसन्न हो जाते हैं। फिर भी अज्ञानी शिष्य गुरु परतनिक भी विश्वास नहीं करते हैं। जो गुरु पर विश्वास कर सत्यज्ञान की दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। वे भवसागर पार जाने हेतु नाव पर चढ़ जाते हैं। जो गुरु मार्ग से डगमगा जाते हैं, वे उलटे मुँह भवसागर में गिर जाते हैं। जो दृढ़ता से पकड़े रहते हैं गुरु उसे भवसागर से अवश्य पार उतार देते हैं।
दोहा - सबसे साँचा प्यार है,
गुरु ते सांच अनूप ।
मंह जल अगम उतारते,
जस धरे केवट के रूप ।। 11।।
गुरु को सत्य सबसे प्यारा है। वह अनूप (परमात्मा स्वरूप) है। इसलिए जो भाग्यशाली शिष्य गुरु शरण में जाकर उसे जानने का ज्ञान प्राप्त करता है और गुरु से सच्चा स्नेह करता है। गुरु केवट का रूप धरकर उसे अगम अपार भवसागर से सदा के लिए पार कर देते हैं।
चौपाई -
मनुष्य जन्म अनूप बखानी।
लेन देन से सब विधि जानी।।
लख चौरासी भ्रमत सोई।
जन्म अनुप मनुष्य के होई।। 107-108।।
मनुष्य योनी अनूप (ईश्वर स्वरूप) है। इसलिए इस योनी को साधन धाम मोक्ष का द्वार कहा गया है। मनुष्य भला बुरा हर बात को ठीक से समझता है। इसी योनी में वह आत्म कल्याण के विषय में सोच सकता है।
चौरासी लाख योनियों से भटकता हुआ जीव मानव योनी में पहुँचता है। मनुष्य की योनी सर्वोत्तम योनी ईश्वर तुल्य है। किन्तु मनुष्य इस बात को नहीं समझकर जीवन को मोह-माया में फँसाकर बर्बाद कर देता है। अज्ञानी आत्म कल्याण नहीं कर पाता है। लाख चौरासी में भटकता रहता है और दुःख पाता है।
दोहा - खरी खरा का सौदा,
लेत देत नहीं बार।
खोटा सौदा अन्त का,
तो कैसे लागत पार। ।। 12 ।।
हे शिष्य आत्म कल्याण के विषय में जो कुछ बताया गया, वह खरी खरा का सौदा है। अर्थात् उसमें कोई बात भ्रमित करने वाली नहीं है। यह लेन-देन अर्थात् कर्म करने वालों पर निर्भर करता है कि वह आत्म कल्याण के लिए ईश्वर भक्ति करता है कि नहीं। क्या वह खोटा सौदा अथात् पाप कर्म में लगा रहता है। ऐसे लोग भवसागर कैसे पार करेगा। उसे लौट कर पुःन संसार में आना ही पड़ेगा। उसका आवा गमन नहीं छूट सकता है।
चौपाई
उत्तर पार डेरा जब लीन्हा।
तब निश्चय कै लेखा कीन्हा ॥
हर्षवन्त होई पावत पूरा।
गुरु के शब्द लगत होय शूरा।।
लेखा किन्ह जब पाय सवाई।
हर्ष भये विस्मय नहीं आई।
जे तो सौदा करहिन जाना।
अति दुःख तिन का होत निदाना।।109-112।।
मृत्यु के बाद जब जीव अपनी भक्ति एवं गुरु कृपा से भवसागर पार हो जाता है, तब वह उस पार किनारे बैठकर पुनः भक्तिरूपी व्यापार का लेखा जोखा (हिसाब) मिलाता है। जब वह हिसाब में सवागुणा लाभ देखता है तो वह बहुत खुश होता है। वह गुरु शब्द को पूरा एवं शूरा (शक्तिशाली) पाता है जिसके सहारे कि भवसागर पार हो गया। किन्तु जो गुरु शब्द पाकर भी संसार रूपी हाट में सौदा करना नहीं जानता है, अर्थात् न तो गुरु पर पूर्ण विश्वास करता है और न तो उनके उपदेश के अनुसार ईश्वर भक्ति ही करता है, तो ऐसा व्यक्ति अपना मूल को गमा देता है। अन्त में बहुत दुःखी होता है। उसकी दुर्गति होती है।
चौपाई
बहुत सुख पावत है सोई।
सौदा लेत निवाहट जोई।।
महा आनन्द ताहि के होई।
काल के फन्द परत नहीं सोई।।
जिन सौदा के पाई निबाही।
आवागमन न होवे ताही ।।
लाभ होत से जानु सुजाना।
से फिर हाट न करत पयाना ।। 113-116।।
जो व्यक्ति संसार रूपी हाट में, सौदा की खरीद विक्री समझदारी से करता है अर्थात् सोच समझकर कर्म करता है, वह बहुत लाभ प्राप्त करता है और बहुत सुख भी पाता है। जो ईश्वर भजन रूपी सौदा ठीक से कर लेता है, निश्चय ही वह भवसागर पारकर निज देश को चला जाता है। वह काल कर्म के फंदे में फिर कभी नहीं पड़ता है। जो व्यापार भी ठीक से करता है और लेन-देन का हिसाब भी ठीक से करता है, उसे व्यापार में अवश्य ही लाभ होता है। उस जीव को पुःन हाट में सौदा के लिए नहीं आना पड़ता है। अर्थात् उस का आवागमन नहीं होता है।
चौपाई
आवा गमन की क्षोभ मिटाई।
जेहि सौदा सुख सुन्दर पाई।।
तिनकर का मैं करूँ बखानी।
सुख कहत तेहि निश्चय जानी।। 117 118।।
हे शिवनारायण ! जो जीव संसार रूपी हाट में ठीक से सोच विचार कर सौदा करता हैं अर्थात् ईश्वर भजन करता है, उस का आवा गमन का शोक (दुःख) सदा के लिए मिट जाता है। उस जीव के सुख का मैं क्या वर्णन करूँ। वह निजदेश में अक्षय (जिसका क्षय नहीं होता है।) सुख को भोगता है। विलास करता है।
दोहा- जेहि सौदा से पार होय,
पावत निश्चल बास।
कृषि बीज जैसे परे,
सेवत तैसे पास।। 13 ।।
जिस भक्ति रूपी सौदा करने से जीव भवसागर से पार जाकर अपने देश में निश्चल (स्थिर) रूप से बास करता है। पुनः आवा गमन में नहीं पड़ता है। वही सौदा करना चाहिये। क्योंकि किसान अपने खेत में जैसा बीज बोता है, वह उसी के अनुकूल फसल पाता है। जीव के लिए कर्म की प्रधानता है।
चौपाई -
पूर्ण भव सौदा जब चारी
शिवनारायण सुख भव भारी।।
तेहि बहु अर्थ होत मन माँही ।
उतरत भवसागर तर जाँहीं ।।
मोह पाप तेहि निकट न आवे।
कैसेहु के तेहि काल न धावे ।।
ऐसन नाम भजन जो करहीं।
गुरु के शब्द पाय हिय धरही।।119-122।।
हे शिवनारायण ! जो ज्ञानी बालापन, किशोरावस्था, जवानी एवं बुढ़ापा में अवस्था के अनुकूल भव सौदा (संसार का सौदा) ठीक से समय पर कर लेता है, उसे बहुत आनन्द प्राप्त होता है। वह भवसागर पार कर जाता है। मोह, माया, पाप उसके निकट नहीं आता है। उस पर काल (यम) का प्रभाव कभी नहीं होता है। जो गुरु शब्द को हृदय में धारण कर उसके अनुसार भक्ति करता है उस का कल्याण हो जाता है। वह आवा गमन से मुक्त होकर निज देश (संतदेश) में विलास करता है।
चौपाई
देखू विचार यही भल कामा।
भजन भाव हिय गुरु के नामा।।
पावत गति तेहि नहीं संदेहा।
जे गुरु नाम धरे निज देहा ।।
यह जगजीवन साँच के लेखा।
सन्त सभा जब दृष्टि निरेखा ।।
साहु पूरा लेत निवाही।
बढ़ा बनिज किन रोका ताही ।। 123-126।।
हे शिष्य ! इस अच्छे कार्य के विषय में मन में ठीक से सोच विचार कर देखो। मानव जीवन में, गुरु द्वारा बताई गई ईश्वर भक्ति कितनी उच्च कोटि का कार्य है। जो व्यक्ति गुरुनाम को विश्वास पूर्वक हृदय में धारण कर ठीक से अपने शरीर के अन्दर साधना करते हैं, निःसन्देह उसकी सद्गति होती है। इस प्रकार की भक्ति की जानकारी संत सभा (सत्संग) में ही होती है। जब वह संत सभा में जाकर यह वनिज (व्यापार) करने की विधि अर्थात् ईश्वर भजन करने की विधि को ठीक से सीख लेता है, और अपने जीवन में अमल करता है, तब साहु (परमात्मा) उसका उद्धार कर देता है। उसे भव सागर से पार कर देता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
दोहा- जग में देखत वस्तु बहु,
लेत जौन मन मान।
शिवनारायण दास होय,
गुरु चरण धर ध्यान ।। 14 ।।
हे शिवनारायण ! संसार में अच्छी बुरी अनेक वस्तुएँ उपलब्ध हैं। नेकी बदी के अनेक कार्य हैं। जिस व्यक्ति को जो अच्छा लगता है, वह अपने बुद्धि विचार से उसी को ग्रहण करता है। किये कर्म के अनुसार वह फल भी भोगता है। किन्तु हे शिवनारायण ! जो गुरु पर पूर्ण विश्वास कर दास भाव से उनके चरण कमलों का नित्य ध्यान करता है, उसका अवश्य कल्याण हो जाता है।
चौपाई-
गुरु के शब्द परेजब काना।
शिवनारायण के मन माना ।
कौन सन्त असन्त के आही।।
चिह्न लेत है यह जग ताही ।।
कैसे सन्त असन्त दुराई
से कहत स्वामी मोहि बुझाई ।।
के हो सन्त निगुरा के आही।
सुनि के प्रभु मुख जानो ताही ।। 127-130।।
शिवनारायण स्वामी कहते हैं कि जब गुरु (परमात्मा) के ज्ञानमयी अमृतवाणी मेरे कान में पड़ी तब मेरे मन में विश्वास हुआ और मन की व्याकुलता शान्त हुई। तब मैंने गुरु स्वरूप परमात्मा से विनय पूर्वक पूछा कि हे गुरु देव! संसार में संत एवं असन्त को किस प्रकार पहचान किया जाय। हे स्वामी मुझे समझाकर कहें कि संत असन्त को कैसे दुराई (अलग) किया जाय। आप के श्रीमुख से यह भी जानना चाहता हूँ, कि कौन संत है और कौन निगुरा (असन्त, जिसने दीक्षा नहीं लिया है) उसे कैसे पहचाना जाय ।
चौपाई -
सब घट ब्रह्म एक समाना।
एहिमा अन्तर केहि विधि जाना।।
एक समान जानूँ प्रभु सोई।
यही बिच अन्तर केहि विधि होई।।
सब घट रहों कौन उपकारा।
तेकर कहाँ कौन व्यवहारा।।131-133।।
हे प्रभु! जब सभी प्राणियों में एक ही ब्रह्म का बास है तब संत और असंत का अन्तर कैसे जाना जा सकता है। मैं तो अपने ज्ञान से सभी प्राणियों को एक समान मानता हूँ, किन्तु उनमें यह अन्तर कब और किस प्रकार होता है। हे स्वामी। मुझे यह भी समझाकर कहें कि घट-घट में ब्रह्म रूप में आप किस हेतु रहते हैं। इसका क्या कारण है?
दोहा- कहु स्वामी मन जानि के,
यहि के भ्रम सब मोहि ।।
केहि विधि रहत सर्व घट,
पूछहूँ स्वामी तोहि ।।15।।
हे स्वामी! मुझे अपना जानकर यह बताने की कृपा करें कि आप सभी प्राणियों में किस प्रकार रहते हैं। मेरे मन में भ्रम समा गया है। यह भी बताने की कृपा करें कि जब आप सभी प्राणियों में निवास करते हैं। तो प्राणी पाप कर्म कैसे करते हैं। इन बातों को सरल रूप में समझाकर कहें, जिस से मेरा भ्रम दूर हो जाय।
चौपाई -
शिवनारायण पूछत जो मोहिं ।
सब विधि कहि समझाबहुँ तोहि ।।
मोहि बड़ी दया तोहिं पर आई।
जो पूछहु सो कहहुँ बुझाई ।।
जेहि विधि रहत यहाँ संसारा।
कह हूँ प्रसंग से सुनहु विचारा ।।
रचि पति ज्ञान गगन घट छाया।
मूल शाखा के वृक्ष बनाया।। 134-137।।
परमात्मा कहते हैं कि हे शिवनारायण! तुमने मुझसे जो कुछ जानने का आग्रह किया है। मैं तुम्हें सारी बातें ठीक-ठीक समझाकर कहता हूँ। तुम्हारा प्रेम और भक्ति को देखकर, तुम्हारे ऊपर मुझे बहुत दया आ गई है। मैं जिस प्रकार घट-घट में बास करता हूँ। यह सारा प्रसंग विस्तार से समझाता हूँ। मैंने मनुष्य के शरीर को ब्रह्माण्ड स्वरूप बनाया है। शरीर के ऊपरी भाग को द्वादश स्थान (ब्रह्म रंध्र) कहते हैं। मैंने बड़ी युक्ति से वहीं अपना निवास स्थान बनाया है। मनुष्य का शरीर मूल एवं शाखा से युक्त पीपल के उलटे वृक्ष के समान है। शरीर का ऊपरी भाग जड़ एवं नीचे डाली है।
चौपाई -
शाखा भौ तब जाचक आही।
फल जब होत देत सब ताही ।।
फल और फूल देख मन भूला।
अभिगति वृक्ष महा सम तूला ।।
शाखा जानि घर एक किन्हा।
अनन्य वस्तु ताहि मैं दिन्हा।।
फूल के पास फल रहत छिपाई।
आस-पास बहु आनी बसाई ।।
तेहि के पास बहुत रखवारा।
पवनन के तँह नहीं संचारा।। 138-142।।
सृष्टि रूपी जो पीपल का वृक्ष (मानव शरीर) है उसकी जड़ ऊपर है और तना, डाली, फल और फूल नीचे की ओर है। आज्ञा चक्र से नीचे का भाग मोह माया से संचालित होने वाला भवसागर के समान है। मैं द्वादश स्थान (जड़) में बैठा हूँ। साधक जिस अंग को पकड़ता है अर्थात् जैसी भक्ति करता है। उसी के अनुकूल फल प्रदान करता हूँ। किन्तु साधक फल को छोड़कर फूल की सुन्दरता में फँस जाता है। अभि गति वृक्ष (सृष्टि रूपी वृक्ष में) अनेक उत्तम फल लगे हुए हैं। जो साधक विश्वास कर वृक्ष की डाली पकड़ लेता है वह धीरे-धीरे मेरे पास पहुँच जाता है। मैं उसे अनन्य फल प्रदान करता हूँ, और वह जीव मोक्ष प्राप्त कर अपने लोक (संत देश) में विलास करता है। फूल में ही फल भी छिपा हुआ रहता है। साधक आस-पास भटकते हैं। फल तक नहीं पहुँच पाते हैं। यह भी कार्य बहुत कठिन है। उसके पास बहुत रखवारा हैं। पवन का भी वहाँ प्रवेश नहीं है। साधक पवन से भी पतला होकर मेरे निकट पहुँच सकता है। क्योंकि मेरे पास पहुँचने वाला मेरे जैसा हो जाता है।
समाप्त
दोहा
यह तो कर्त्ता आपकरी, तेहि बीच कर्म अपार ।
आवत जात लखे नहीं, कर चोर खण्ड पैसार ।।