।। संत-शरण ।।
विषय सूची
1. दो शब्द
2. गुरू महिमा
3. भजन
4. प्रातः कालीन वन्दना एवं स्तुति
5. विनती
6. श्लोक
7. आरती मंत्र
8. आरती
9. क्षमा प्रार्थना
10. समापन
11. अपराह्न एवं सांयकालीन वन्दना एवं स्तुति
12. विनती
13. विनय
15. श्लोक
16. आरती मंत्र
17. क्षमा प्रार्थना
18. समापन
19. अर्जी
20. जानकारी की बातें
1.दो शब्द
गुरू-स्तुति-वन्दना किसी भी मत-पंथ की प्रथमाभक्ति है। गुरू-स्तुति-वन्दना व्यक्तिगत रूप से पूजा स्थल या ध्यान साधना कक्ष में की जाती है और सामूहिक रूप से सत्संग स्थल या सम्मेलन स्थल पर करने का विधान है।
सभी मत पंथों की अपनी-अपनी गुरू-स्तुति हुआ करती है। शिवनारायणी संतमत सम्प्रदाय की भी अपनी गुरू-स्तुति है। लेकिन गुरू-स्तुति करने के मामले में किसी भी मत के अनुयायी सत्संगी को रूढ़िवादी नहीं होना चाहिए। क्योंकि सभी गुरू एक ही हैं। ब्रह्मलीन संत मेंहीं जी महाराज ने 'सब संतन्ह की बड़ी बलिहारी' कह करके सभी संतों -कबीर, रैदास, नानक, तुलसी, तुलसी साहब, पलटू जगजीवन, शंकर, बुद्ध प्रभृति की स्तुति की है। कहाँ पक्षपात किया है? उन्होंने यह भी लिखा है कि पंथ-पंथाई की भावना को छोड़ दिया जाय तो सभी पंथ एक ही हैं। इससे बढ़ कर समन्वयकारी, समतामूलक उदारवादी विचार और कौन सा हो सकता है?
जब हम प्रवचन करते हैं तो सभी पंथों के सदगुरूओं की वाणियों का उदाहरण दे-दे कर अपने विचारों को पुष्ट करते हैं या अपने विचारों की पुष्टि में संत वाणियों का उदाहरण पेश करते हैं। यहाँ कोई परहेज नहीं होता है। लेकिन गुरू-स्तुति गायन करने में परहेज क्यों ?
“हमारे गुरूदेव सबसे महान हैं। हमारा साहित्य सबसे अच्छा है, हमारी साधना सबसे उत्तम है, हमारे गुरूभाईयों की संख्या करोड़ों में है.....।" इत्यादि कहना सबसे बड़ा अहंकार है और कूपमण्डुक बनाने वाला विचार है।
हमें किन्हीं भी संत गुरू की स्तुति को बड़ी श्रद्धा से पाठ करना चाहिए, अपना-पराया (तोर-मोर) के फेर में नहीं पड़ना चाहिए।
हम बड़ी श्रद्धा-भक्ति से गुरू-स्तुति करते हैं। हम ऐसा क्यों करते हैं? इसके पीछे कारण क्या है? इन प्रश्नों का एकमात्र उत्तर यही है:- "गुरू से बड़ा न कोय"। गुरू हमारे पथ-प्रदर्शक हैं, मुक्तिदाता हैं और "राम मिलावनहार" हैं। इन्हीं गुणों-विशेषताओं के कारण हम गुरू स्तुति करते हैं। इसका दिग्दर्शन प्रस्तुत पुस्तिका में संकलित 'गुरू महिमा' में होगा।
स्तुति करते समय आँखें बन्द होनी चाहिए और गुरू- मूर्ति को ध्यान में रखते हुए मन में यह भाव होना चाहिए कि मुझमें शुभ का प्रवेश हो रहा है और अशुभ का बहिर्गमन हो रहा है। मुझमें सद्गुण आ रहे हैं और दुर्गुण दूर हो रहे हैं। मुझमें देवी सम्पदा आ रही है और आसुरी सम्पदा जा रही है। मैं प्रकाश से युक्त हो रहा हूँ और अंधकार से मुक्त। मैं सत्रूवरूप प्रकाशमय और शब्दमय हो रहा हूँ। मैं जिनकी स्तुति कर रहा हूँ-मैं वही - गुरूमय हो रहा हूँ।
मेरी जानकारी में मेरे शिष्य लखनलाल मिस्त्री (सालमारी, कटिहार जिलाध्यक्ष) और श्री सदानन्द बाबा (गंगझाली, विश्वप्रचारक) ने भी 'गुरू स्तुति' पर लघु पुस्तिका लिखी है। उन द्वय लेखकों ने अपनी-अपनी पुस्तिकाओं में जिन पदों (दोहे-चौपाइयों) को संकलित किया है, उन्हीं पदों को मैंने भी प्रस्तुत पुस्तिका में संकलित किया है। उनमें और मुझमें अन्तर सिर्फ इतना ही है कि उन दोनों ने संकलित पदों का अर्थ नहीं लिखा है और मैंने संकलित दोहों, श्लोकों और चौपाइयों काभावार्थ लिख दिया है, ताकि स्तोता स्तुति करते (गाते) समय जो गा रहे हैं, उसका अर्थ भी समझते जाएँ ! मैंने प्रयास किया है कि प्रयुक्त दोहे-चौपाइयों में एक-एक शब्द का भाव छूटने न पावे। फिर भी त्रुटियाँ हो सकती है, क्योंकि व्यक्ति को अपनी गलती दिखाई नहीं पड़ती है। सुधी पाठकों से आग्रह होगा इस ओर ध्यान दिलाने की कृपा करेंगे।
आशा है विनय-स्तुति के इस संकलन से संत समाज को लाभ होगा।
2. गुरू महिमा
(संत शिवनारायण स्वामी कृत)
।।दोहा।।
सतगुरू पूरा जेहि मिले,
सार शब्द मिले सोय ।
आवागमन कबहूँ नहीं,
जरना-मरना नहीं होय ॥ 1 ॥
भावार्थ:- जिन सौभाग्यशाली प्राणियों को पूर्ण समर्थ संत सदगुरू का सानिध्य मिल जाता है, उन्हें 'सारशब्द' भी मिल जाता है। इसके फलस्वरूप उन प्राणियों को आवगमन (जन्म-मरण) के बन्धन से छुटकारा मिल जाता हैं।
गुरू आज्ञा माथे धरे,
सदा रहे आधीन ।
मिथ्या कबहुं न भाखई,
गुरू के चरण चित दीन ॥ 2 ॥
भावार्थ:- सशिष्य को चाहिए कि वह हमेशा गुरू के आदेश को शिरोधार्य करे, गुरू आज्ञा पालन में सदा तत्पर रहे, कभी आना-कानी न करे और हमेशा उनके अनुशासन में रहते हुए उनकी आज्ञा में बंधा रहे, क्योंकि गुरू-आज्ञा शिष्य के हित में हुआ करती है। शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह गुरू से दूर-दुराव नहीं रखे, छल प्रपंच नहीं करे, निष्कपट भाव से वर्ताव करे, उनसे कुछ छुपाकर (गुप्त) न रखे और उनसे कभीमिथ्या-असत्य न बोले। वह गुरू के चरणारविन्द (नख) ज्योति) में चित्त लगाकर अपने को रख से सलग्न रह। विनम्र भाव
सतगुरू ही से भव कटे,
छुटत फन्द अनन्त ।
शिवनारायण देखते,
अधम होत हैं संत ॥ 3 ॥
भावार्थ:- एक ओर प्राणी दुःख-दारिद्रय से छुटकारा पाने के लिए, धन-धान्य से परिपूर्ण होकर सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए, कायिक सुख पाने के लिए और अपने मनोरथ-मनोवांछित फल प्राप्ति के उद्देश्य से मठ-मंदिर में जाकर विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करता है, तीर्थाटन करता है, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य, तीर्थ-व्रत, कीर्तनादि का अवलम्बन लेता है-अनुष्ठान करता है। संतों के अनुसार, वह इन्हीं बहिर्मुखी क्रियाओं में अँटका- फँसा रहकर भटकता रहता है और बार-बार भव-बंधन में पड़ता है।
दूसरी ओर, संतो का कहना है कि प्राणियों के एक मात्र हितैषी सद्गुरू ही हैं जो अन्तर्मुखी साधना बतलाकर भव-बंधन काटने का उपाय और अनन्त (न अन्त-अन्तहीन) योनियों के फन्दे से छुटकारा दिलाने का क्रियात्मक साधन बतलाते हैं। स्वामी शिवनारायण जी महाराज का कहना है कि सदगुरू शरणागतअधम-से-अधम (नीच पापी) प्राणी भी देखते देखते (कुछेक दिनों में ही) शांति को पाकर संत हो जाता है।
सत्पुरूष गुरू एक हैं,
एक हि पुरूष संसार।
स्तुति एक समान है,
पूरन ब्रह्म करतार ॥4॥
भावार्थ:- संत मतानुसार सृष्टि के रचयिता सत्पुरूष मालिक हैं, वही पूर्ण ब्रह्म और कर्ता है, उनसे परे कोई नहीं है। वही समस्त चराचर जगत् में व्याप्त-समाहित है। वही सभी संतो के इष्टदेव है संतों ने सत्पुरूष और सद्गुरू दोनों को एक (नररूप हरि) माना है। इसीलिए वे सत्पुरूष और सद्गुरू की स्तुति-आराधना अन्तर्मुखी साधना द्वारा एक समान (एक ही तरह) करते हैं।
रंग रूप रेखा नहीं,
करत जगत उजियार ।
सतगुरू मिले तो पाइये,
बिन गुरू मिलत न पार॥ 5 ॥
भावार्थ:- सगुन-निर्गुण से पार (ब्रह्म) 'सत्पुरूष' का प्रत्यक्ष रूप से कोई रंग (श्याम वर्ण, गौर वर्ण, श्वेत वर्ण) और रूप (स्वरूप) दिखाई नहीं पड़ता है और न उसकी कोई रेखा (पहचान) दिखाई पड़ती है। फिर भी वह सम्पूर्ण जगत को जाज्वल्यमान करते रहते हैं। लेकिन जीवन में यदि सद्गुरू मिल जाते हैं तो 'पार' का भेद मिल जाता है आत्मस्वरूप के प्रकाश में सत्पुरूष का साक्षात्कार होता है। कोई भी व्यक्ति बिना गुरू (भव) पार नहीं हो सकता है।
(संत मतानुसार सत्पुरूष से निरंजन और ज्योति और उनसे (ज्योति निरंजन से) ब्रह्मा, विष्णु पैदा हुए और महेश पैदा हुए। निरंजन को निराकार ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिदेव कहलाते हैं। इन्हीं त्रिदेवों का सम्मिलित नाम ॐ (ओंकार ब्रह्म) है। सारे संसार के लोग इन्हीं ओंकार ब्रह्म की उपासना किसी-न-किसी रूप में करते हैं, अर्थात् सत्पुरूष के पौत्रों की लोग भक्ति- आराधना करते हैं, उन्हें सत्पुरूष का पता नहीं है। इसकी जानकारी सद्गुरू शरणागत् होने पर ही होती है।
सुरत डोर धरि प्रेम ते,
चढ़े चलो चिंत्त लाय।
सतगुरू से परिचय करो,
जो भावे सो खाय ॥6॥
भावार्थ:- प्राणी वर्तमान काल (अपने समय) के जीवित सद्गुरू से परिचय (भेट) करे और उनसे सूरत-शब्द-योग की क्रियात्मक साधना सीख करके सूरत (आत्मा की चेतन सत्ता) की डार, गगन मंडल से आती (उतरती) हुई (चंतन-धार-धारा) को पकड़ करके अपने गगन. मंडल में चढ़े और प्रसन्न मुद्रा में चित्त मन लगाकर दसमद्वार में विराजमान प्रकाशपुञ्ज स्वरूप सद्गुरू का चलकर साक्षात्कार-दर्शन करे और इस अन्तर्भ्रात्मा केअन्तर्गत आये स्थूल मंडल, सूक्ष्म मंडल, तम मंडल, ज्योति मंडल, शब्द मंडल, शून्य मंडल, महाशून्य मंडल, भंवर, गुफादि में जहाँ का जैसा सौंदर्य है। उसकी अनुभूति कर, जो अच्छा लगे खाय, अपने में पचा ले।
गुरू तो विष्णु समान हैं,
विष्णु गुरू एक होई।
गुरू विष्णु एक जानहुँ,
प्रकट पालत सोई ॥ 7 ॥
भावार्थ:- भगवान विष्णु संसार के प्राणियों के पालनकर्त्ता हैं तो सद्गुरू प्राणियों के उद्धारकर्त्ता है। एक पालनकर्त्ता और दूसरा उद्धारकर्त्ता- दोनों समानधर्मी हैं। अतः दोनों ही तत्त्वतः एक हैं। गुरू ही विष्णु हैं और विष्णु ही गुरू हैं। एक (विष्णु) अप्रत्यक्ष (अप्रकट) रूप से पालन कर्त्ता हैं तो दूसरे (सद्गुरू) प्रत्यक्ष (प्रकट) रूप से उद्धारकर्ता हैं।
जो चाहो भव पार कर,
सतगुरू से मिल धाय ।
शिवनारायण आपना,
काल करम मिट जाय ॥ 8 ॥
भावार्थ:- जो प्राणी भवपार ( आवागमन-जन्म-मरण के बंधन से पार) होना चाहते हैं, वे दौड़कर यथाशीघ्र सद्गुरू से जाकर मिलें। स्वामी शिवनारायण जी महाराज कहते हैं कि सद्गुरू मिलन से प्राणी के काल (मृत्यु भय) और कर्म (के बंधन) मिट जाते हैं, अर्थात् सद्गुरू काल और कर्म से छुटकारा पाने का साधन बतलाते हैं। उससाधन को करके प्राणी काल- कर्म के बन्धन से ऊपर उठ जाता है और भयमुक्त हो जाता है।
मन वच सुरति साधिके,
धरौ गुरू पर ध्यान।
संकट सब गुरू मेटिहें,
होई हैं मुक्ति निदान ॥ 9 ॥
भावार्थ:- साधकों को मन से बच कर के अर्थात उसके बहकाने में न पड़ के, जैसा कि गुरू ने बतलाया है, उसके अनुसार सुरति (आत्मा को चेतन सत्ता) को साध करके गुरू-मूर्ति पर ध्यान धरना (टिकाना) चाहिए। ऐसा करने से श्री गुरूदेव की कृपा से सभी संकट (दैहिक, दैविक, भौतिक ताप) मिट जायेंगे और अंत में मुक्ति मिल जायेगी।
जो नर आपनो जानई,
सुरति निरन्तर नाम।
सो तो संत सरन गहे,
तब पावे निज धाम ॥10॥
भावार्थ:- जो प्राणी अपने सत्स्वरूप (स्वमेव-सोहं) को नहीं जानता है (कि मैं कौन हूँ... कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना है... ) और अपनी सुरति (आत्मा की चेतन सत्ता) को नहीं जानता है एवं अपने भीतर अनहद के निरन्तर अनाहत ध्वनि हो रही है, उसका नाम नहीं जानता है, वह तत्काल संत-शरण में जाय, संत शरणागत होकर उनका गहे, तभी उसे निज धाम की प्राप्ति होगी। प्राणी को यह भली-भाँति जान लेना चाहिएकि वह शरीर नहीं है, वह शरीर में है। शरीर गेह (घर)* में रहता है और जीव देह (घट) में रहता है। शरीर समय आने पर गेह छोड़ देता है और जीव देह। गेह छोड़ने पर शरीर को जला या दफना दिया जाता है, लेकिन देह छोड़ने पर जीव को जलाया नहीं जा सकता, क्योंकि शरीर विनाशी है और जीव अविनाशी । जीव जिस शरीर में अभी है, वह पहले इस शरीर में नहीं था और फिर शरीर छुटने पर इस शरीर में नहीं रहेगा। तात्पर्य इस शरीर में आने के पहले वह जीव था और अभी इस शरीर में है, फिर शरीर छूटने पर भी रहेगा। अर्थात् जीव था और जीव रहेगा, लेकिन शरीर नहीं था, अभी है और फिर नहीं रहेगा।
जीव पहले शिव था। वह पीव से बिछुड़ गया, इसलिए जीव हो गया। पुनः जीव को पीव में मिलकर शिव होना पड़ेगा जीव को ब्रह्म और आत्मा को परमात्मा बनना पड़ेगा। तभी वह (जीव) निज घर में पूर्ण विश्राम पावेगा। पीव में मिलकर शिव बनने की प्रक्रिया सद्गुरू बतलाते हैं।
3. भजन
(संत शिवनारायण स्वामी कृत)
भजन
निहारो यारो गुरू मूरति की ओर।।
गुरू मूरति सुरति बीच राखो।
तब उर होत इंजोर ॥
छुटत कर्म तार सब टूटत।
फुटत कठिन कठोर ॥
शुभ अरू अशुभ कर्म न लागे ।
जागो धरो गृह चोर ॥
शशि ना सूर्य दिवस ना रजनी ।
नहीं शाम न भोर ॥
आप देखे तो कर्म मिटावत ।
शिवनारायण कहें कर जोर।।
भावार्थ:- हे मित्रों! अपने गुरूदेव की मूर्ति (तस्वीर या प्रस्तर मूर्ति नहीं) को अपनी सुरति (चेतन सत्ता) के बीच धारण करो। ऐसा करने से तुम्हारे हृदय में सत्य क प्रकाश से उजाला होगा। उस प्रकाश के प्रभाव से तुम्हारे कर्मों के सभी बंधन टूट जाएगें, नहीं तो इसके अभाव में बन्धन टूटना कठिन कठोर है। जागो (चेत जाओ) तुम्हारे गृह (घटों) में (पाँच) चोर (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) घुसे (समाए) हुए हैं, उन्हें धरो (पकड़ो)। उन्हें पकड़ लेने पर अर्थात् इन पर विजय प्राप्त कर लेने पर तुम्हें शुभ कर्म (पुण्य) और अशुभ कर्म (पाप) का फन्दा नहीं लगेगा अर्थात् पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाओगे। स्वामी शिवनारायण जी महाराज हाथ जोड़कर कहते (समझाते हैं कि जो साधक पाप-पुण्य से ऊपर उठ कर अपने में उस सत्य हृदय को, जहाँ न चान्द है, न सूर्य है, न दिन है, न रात है, न शाम है और न भोर है, देख लेते हैं, उनके कर्म (जन्म-मरण) के फेरे मिट जाते हैं, वे आवागमन से रहित हो जाते।
भजन
हे मन लागीं रहो यही ओर।।
सार शब्द कपाल भीतर।
होत अनहद शोर ।।
समझ बुझ मन उदित निहारो।
पलक न लावहूँ भोर ॥
मिलत गंगा सहित जमुना।
सुखमन की ओर।।
उलटि नयन निहारो ।
भीतर कोटिन होत अंजोर।।
मध्यआसन आपु साईं ।
वसन रंगाये साराबोर ।।
शिवनारायण देखत शोभा।
चितवत नयन की ओर।।
भावार्थ:- हे मन! यही (गुरू द्वारा बतलाये गए ध्यानाभ्यास एवं नादानुसंधान की ओर लगे रहो। इसमें लगे रहने पर कपाल के भीतर सार शब्द को अनहद ध्वनि सुनाई पड़ेगी। भली-भांति समझ-बूझ (जानकारी प्राप्त करके) स्वरोदय को निरखो, पल भर के लिए भी इसे न भूलो। जहाँ गंगा (इंगला नाड़ी) और यमुना (पिंगला नाड़ी) जाकर सुखमन (सुषुम्ना नाड़ी) से मिलती है, वहाँ नेत्र को उलटकर (दृष्टियोग साधन कर) भीतर की ओर निहारो, ऐसा करोगे तो कोटि (चन्द्र-सूर्य के प्रकाश की .. तरह) उजाला देखोगे। इतना ही नहीं, उस उजाले के बीच साई (सत्पुरूष) को जमकर आसन लगाये देखोग और ऐसा लगेगा कि रंग की तरह उस उजाला से उनका वस्त्र सराबोर ओत-प्रोत है।, स्वामी शिवनारायण जी महाराज कहते हैं कि मैंने उस शोभा को देखा है (अन्य साधक भी उसकी अनुभूति करते हैं और कर सकते हैं)। इसलिए मैं नेत्र की ओर चिन्तन करता रहता हूँ अर्थात् नेत्र को उलटने की क्रिया करता रहता हूँ ।
हे संतपति श्री गुरूदेव जी! आपकी जय हो ।
पूर्वान्ह कालीन
4. प्रातः कालीन स्तुति एवं वन्दना
।। गुरु-वन्दना ।।
अखण्ड भण्डलाकारं व्याप्तं येनचराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥1॥
भावार्थ- जो 'परमसत्ता' अखण्ड है और भण्डलाकर होकर चराचर जगत् में व्याप्त है, उस परमपद को जिन श्री सद्गुरु देव ने मुझे दर्शाया है, मैं उनको नमन करता हूँ।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥2॥
भावार्थ - जिन श्री सद्गुरु ने शलाका से ज्ञानरूपी अंजन को लगाकर अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर दिया और मेरे ज्ञान चक्षु को खोल दिया, उन श्री गुरुदेव को नमन करता हूँ।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देव महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 3॥
भावार्थ मेरे लिए श्री सद्गुरू ही ब्रह्मा, विष्णु और - महेश हैं। इतना ही नहीं, वह साक्षात्पारब्रह्म परमात्मा हैं। उनश्री गुरुदेव को नमन करता हूँ।
॥ गुरु स्तुति ॥
(संत शिवनारायण स्वामी कृत )
॥ दोहा ॥
भेद न जानहूँ स्वामी, मैं अघ अधम अपार ।
शरण देहु गुरु आपनी, तब उतरू भवपार।
भावार्थ - हे सद्गुरूदेव स्वामी! मैं आपका भेद (रहस्य, क्षमता, महत्ता, विशेषता और पहुँच) को नहीं जानता हूँ। क्योंकि मैं पापपुञ्ज और अधम (नीच) हूँ। मेरे पापों और दुष्कर्मों का कोई ओर-छोर नहीं है। ऐसी परिस्थिति में भवसार से पार उतरने का एक मात्र उपाय आपका शरणागत है। अतः आप मुझे अपनी शरण में ले लिजिए ताकि भवसागर से पार उतर सकूँ।
॥चौपाई॥
स्वामी मोहिं पर होउ दयाला, प्रसन्न होउ करहु प्रतिपाला
नित उठि दर्शन देहु गोसांई, जब जो इच्छा तब सोई पाई
सत्य सोई मुख कहहु बखानी, जेहिते इच्छा पूरवहूँ आनी
भावार्थ - हे स्वामी! आप मुझ पर दया कीजिए। मेरे अपराधों, पापों एवं अवगुणों पर ध्यान न देकर प्रसन्न होइये और मेरा प्रतिपालन कीजिए। आप प्रतिदिन मुझे दर्शन दीजिए ताकि मैं जब चाहूँ तब अपना मनोवांछित फल पा सकूँ। आप अपने मुखारविन्द से कह दीजिएकि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण रूपेण सत्य हो, जिससे मेरी इच्छा की पूर्ति हो जाय।
॥ दोहा ॥
देहु स्वामी जो मांगहूँ , विनती मानहूँ हमार।
नित उठि दर्शन पावहूँ, इच्छा से फल चार ॥
भावार्थ- हे स्वामी! मैं जो मांग रहा हूँ मेरी विनती मानकर, दया करके दीजिए। वह यह कि मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मैं प्रतिदिन शैया से उठूं तो सर्व प्रथम आपके दर्शन हों ताकि मैं इच्छित चार (दर्शन, पर्शन, मञ्जन अरू पान) फल पा सकूँ अर्थात् मुझे आपके दर्शन करने, आपके चरण स्पर्श करने, आपके सत्संग-सरोवर में स्नान करने और आपके उपदेशामृत का पान करने का लाभ (सुअवसर) मिल सके।
॥ चौपाई ॥
स्तुति करहूँ दोऊ कर जोरी। स्वामी जड़ता क्षेमहू मोरी
धन्य गुरु धन्य नाम तुम्हारा।धन्य पुरुष जिन सृष्टि संचारा
धन्य नाम जाने संसारा । लेई उतारत भवजल पारा
जेकर पार केहूँ नहिं पावे । दया करि गुरू पार लगावें
गुण तोहार यश अपरम्पारा।को कहि सकै करै निरूवारा
मैं बपुरा का जानहूँ भेदा। नहिं कछु ज्ञान पढ़े नहीं वेदा
मैं अज्ञानी ज्ञान का थोरा।सब अपराध क्षेमहु प्रभु मोरा
भावार्थ - हे स्वामी मैं दोनों हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना (निवेदन) करता हूँ कि मेरी जड़ता (मूर्खता, अज्ञानता) को क्षमा करें।
हे गुरुदेव ! आप धन्य हैं ,और आपका नाम (यश, महिमा) भी धन्य है। वे 'पुरुष' भी धन्य हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की है। सृष्टि में वे प्राणी भी धन्य हैं जिन्होंने 'नाम' को जान लिया है, क्योंकि नाम ही भवसागर से पार उतारता है।
हे गुरुदेव! पूजा-पाठ, तीर्थ-व्रत, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य इत्यादि करके कोई भवसागर से पार नहीं उतरते हैं। लेकिन आप उन्हें दया करके पार लगा देते हैं- उद्धार कर देते हैं। कारण कि- 'गुरु बिनु भवनिधि तरई न कोई। जो विरंची शंकर सम होई' -मानस ।
हे गुरुदेव! आपका गुण (लीला) और यश (कीर्ति) अपरम्पार है। आपकी महिमा का वर्णन कौन कर सकेगा और निर्णय कर सकेगा कि गुरु की महिमा मात्र इतनी ही है।मैं अल्पज्ञ और अज्ञानी आपको भेद (लीला) को क्या जानूँ? क्योंकि मैंने वेदों का अध्ययन नहीं किया। (कि उनमें क्या लिखा है?) और न इनकेसंबंध में विशेष जानकारी है।
हे गुरुदेव ! मैं अज्ञानी हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ। मुझमें ज्ञान का अभाव है। मुझे गुरू महिमा का थोड़ा सा ही ज्ञान है। इसलिए हे प्रभु! मेरे सभी (मन-वच-कर्म से होनेवाले) अपराधों को क्षमा करें। अर्थात् मैंने मन से, वचन से और कर्म से यदि कोई अपराध किया हो तो मुझे क्षमा कर दें।
॥ दोहा ॥
जहं लगि आये जगत महं ,करि करि गइले बखान।
मोहि बपुरा जड़ जानिके, क्षेमहु सब अज्ञान ।।
मैं बपुरा नहीं जानहुँ, मोहि शब्द की चाह ।।
अवगुण अगम गंभीर प्रभु, तोहरे हाथ निबाह ।।
भावार्थ - हे गुरूदेव ! जगत् में जितने ऋषि-मुनि, साधु- संत ज्ञानी ध्यानी आये, सबों ने गुरू महिमा का बखान किया और बखान करके चले गये। मैं उनकी तरह आपकी महिमा का वर्णन कैसे करूँ? आप मुझे जड़ (मूर्ख) और बपुरा (अज्ञानी) जानकर मेरे सभी अज्ञानों को हर लें, दूर कर दें और क्षमा करें।
हे गुरुदेव! मुझे 'शब्द' की चाह है, लेकिनअज्ञानी होने के कारण उसकी जानकारी नहीं है। साथ हो मुझमें अनगिनत और भयंकर अवगुण हैं। अब आपकेही हाथ में है मेरा निर्वाह करना और भवसागर से पार करना-उद्धार करना।
हे संतपति श्री गुरुदेव जी! आपकी जय हो।
5. विनती
(बैद्यनाथ उदासी कृत)
॥दोहा॥
नमो नमो शिवनारायण, पार-ब्रह्म गुरुदेव ।
निरालम्ब निर्मोह अदग, हरहु सकल मम ऐव ॥
भावार्थ:- हे संतपति शिवनारायण! आप निर्मल-निष्पाप, ममता-मोह शून्य एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में पारब्रह्म सद्गुरूदेव हैं। अतः आप दया करके मेरे समस्त ( मन-वच कर्म से होनेवाले) ऐबों-अवगुणों को अपहृत कर लिजिए। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
दया सिन्धु पतितन तारण , दुष्ट दलन भवहरण।
अन्तर्यामी नाथ प्रभु, प्रेम भक्ति देहु शरण ॥
भावार्थ: हे नाथ! आप दया के सिन्धु, पतितों को तारनेवाले, दुष्टों का संहार करनेवाले, भव बंधन से छुड़ानेवले और समस्त प्राणियों के घट-घट में रहनेवाले अन्तर्यामी प्रभु हैं। हे देव! आप मुझे अपनी स्वर्णिम प्रेमा-भक्ति दीजिए (जिसे करके मैं मुक्त हो जाऊँ)।
युग-युगानी जन्म-जन्म, भरमि-भरमि भ्रम फन्द ।
महाकष्ट नित पावहूँ , सदगुरू परमानन्द ॥
भावार्थ:- हे परमानन्द श्री सद्गुरू देव जी! अपना हाल क्या सुनाऊँ! मैं युग-युगों में जन्म ले-लेकर भ्रम के फन्दे में फँसकर भ्रमता रहा हूँ और नित (सर्वदा) महाकष्ट पाता रहा हूँ।
दया करहु नीज दास पर, सद्गुरू कृपानिधान ।
आप बिना यह जग नहीं, कृपासिन्धु भगवान ॥
भावार्थ :- हे कृपा सिन्धु सद्गुरूदेव भगवान! आपकी कृपा के बिना इस जगत का कोई आधार (आश्रय) नहीं है। हे आश्रयदाता! आप अपने दास (गुरू-भक्त) पर दया कीजिए।
देहु शरण निज आपना, अवगुण क्षेमहु हमार ।
निरालिप्त निष्कपट प्रभु, सद्गुरू जगदाधार॥
भावार्थ:- हे जगदाधार श्रीसद्गुरूदेव स्वामी! आप निरलिप्तऔर निष्कपट हैं। आप मेरे अवगुणों को क्षमा करें और अपनी शरण में स्थान) दीजिए।
संतपति दीजै मोहि, निज चरण स्थान।
बूड़त भव से उबारहु, मैं हूँ अति अज्ञान।।
भावार्थ:- हे संतपति! मैं अति अज्ञानी हूँ। आप अपने चरण कमल में स्थान दीजिए और मुझ डूबते हुए को भव से उबारिए।
कौल किया था मैं प्रभु, भूला यह जग आय।
माया हीरा चुरा लिया, मैं खड़ा पछताय॥
भावार्थ:- हे प्रभु! मैंने (माता के गर्भ में) प्रतिज्ञा की थी (कि संसार में जाकर आपकी भक्ति करूँगा)। लेकिन इस जग में आकर (भक्ति करना) भूल गया। क्योंकि माया ने हीरा (अति उत्तम वस्तु भक्ति) को चुरा लिया। इसलिए अब मैं खड़ा खड़ा पश्चाताप कर रहा हूँ।
दया करहु गुरूदेव जी, मानहु अरज हमार।
आप बिना यह जग नहीं, नैया खेवनहार ॥
भावार्थ:- हे गुरूदेव जी! मेरी विनती माने और मुझपर दया करें। आपके बिना (सिवा) इस जग में जीवन-नौका का खेवनहार कोई दूसरा नहीं है।
क्षमा स्वरूपी दृष्टि को, खोलहु स्वामी हमार ।
भवसागर में बह रहा, स्वामी लगावहु पार ।।
भावार्थ :- हे मेरे स्वामी! मैं भवसागर में वह (डूब) रहा हूँ। आप क्षमारूपी दृष्टि को खोलकर मुझे (भवसागर से) पार लगाइए।
कोटि भूल को क्षमा करो, दयासिन्धु के खान।
ज्ञान दृष्टि मोहि दीजै, हरहु तम अज्ञान ॥
भावार्थ :- हे दया-सिन्धु के भंडार गुरूदेव जी! मेरी करोड़ों भूलों (गलतियों) को क्षमा करें और मुझे ज्ञान चक्षु प्रदान कर मेरे अज्ञानान्धकार को दूर करें।
अष्टादश पुराण कहत, कहत है छः शास्त्र चारो बेद।
भेद बानी गुरू भी कहे, सब में स्वामी को देख ॥
भावार्थ:- अष्टादश पुराण (स्कन्ध पुराण, कुर्म पुराण, गरूड़ पुराण, लिंग पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण, अग्नि पुराण, मत्यस्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, भविष्य पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्म पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, वावन पुराण और बराह पुराण), षष्ट शास्त्र (मीमांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग) और चारो वेदों (ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) के कथन हैं कि समस्त प्राणियों में(एकः देवः सर्व भूतेषु) स्वामी (परमात्मा) को देखो। श्री गुरूदव भी यही भेद (रहस्य) की वाणी (बात) कहते हैं, "एके ब्रह्म सकल घट माहीं"।
स्वामी सब में आप है, पर मैं देखत नाय।
वही दृष्टि मोहि दिजिए, जासो प्रभु दर्शाय॥
भावार्थ:- हे स्वामी! आप सबमें हैं। परन्तु मैं देख नहीं पाता। आप मुझे वही दृष्टि (ज्ञान चक्षु) दीजिए जिससे प्रभु (आप) दिखाई पड़ते हैं॥
"इस तन के अन्तिम तह में गुरू हैं, मन पता पाता नहीं" - परमहंस मेंही जीमहाराज
स्वामी आप तो सर्वगुण, मैं निर्बल अज्ञान ।
सब संतन नीज दास को, दिजिए चरण स्थान ॥
भावार्थ:- हे स्वामी! आप तो सर्वगुण सम्पन्न (सर्व समर्थ) हैं। लेकिन मैं अशक्त और अज्ञानी हूँ। आप भी सभी संतों की तरह अपने दासों (गुरू भक्तों) को अपने चरण में स्थान दीजिए।
6. श्लोक
(संत शिवनारायण स्वामी कृत )
अगम ज्ञानी ब्रह्ममूर्ति, कर्म सर्व विवर्जितम्।
विमल वाणी रूचिर शोभा, सत्य सोई दिगम्बरम् ॥ 1॥
विभूतिभूषण ज्योति लौके, पद्मासन राजतम्।
उन्मुनी में लागि तारी, परम सोई सन्यासनम्॥2॥
जटा जूटि ज्योति जगमग, गंगा यमुना निवासनम्।
गगन गुफा में रहत उन्मुनी, यह लक्षण सन्यासनम् ॥ 3॥
चन्द्र-सूर्य बाँधे सुर-साधे विकसित कमल सोहं चढ़ग।।
त्रिकुटी आसन शून्य वासन सत्य सोई अवधूतम् ॥ 4॥
वैराग्य ब्रह्म का भेद जाने सहज शून्य निवासनम्।
ज्ञान ध्यान न नियम पूजा सो वैरागी साहेबंग ॥ 5॥
सत्य कंठी जाप मुद्रा प्रेम सेहली हिय गलंग।
तत्वता के तिलक शशि दिये, ज्योति झिलमिल नित नरंग ॥6॥
ज्ञान गुदरी मौज बनी, बैराग्य रूप बीच राजतंग।।
नयन भरि भरि अधर परखे, कोटि चन्द्र सुधा झरंग ॥7॥
वैराग्य रूप ओंकार अद्भूत, परमपद पर चित्त धरंग ।।
शिवनारायण अस सहे नर, पाप-पुण्य तजि भव तरंग ॥8॥
भावार्थ:- ओहं, मोहं, क्षर, अक्षर, परा-पश्यन्ति से परे परमसत्ता को जाननेवाला संत समस्त कर्म बंधनों से छुटकारा पाकर साक्षात ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। उस संत की वाणी बहुत ही मधुर होती है और उसकी शोभा मनमोहक होती है ॥ 1 ॥
वह पद्मासन पर बैठा हुआ सुन्दर लगता है। उसकी चारों ओर दिव्य ज्योति विभूषित होती है। वह महायोगी खेचरी मुद्रा विधि से उन्मुनी में ताली (जिहा के अग्रभाग से चट-चट मार) लगाता है॥ 2॥
वह गंगा (इड़ा), यमुना (पिंगला) में निवास (विलास) करता हुआ मस्तक पर जगमग करती हुई ज्योति स्वरूप परमसत्ता की जटा बांधता है ॥3॥
वह सोहं (श्वास) पर सवार होकर चन्द्र (इड़ा) और सूर्य (पिंगला) को बाँध (साध) करके भृकुटी- त्रिकुटी मार्ग से सहस्रदल कमल में जाता है। वह योगी सत्य में प्रतिष्ठित होकर त्रिकुटी मार्ग से जाकर महाशून्य में निवास करता है ॥4॥
वैराग्य (जिन-जिन सांसारिक वस्तुओं में ममता हो उस ममता से दूर (शून्य) होकर न कि भागकर या पलायन कर के द्वारा बहा का भेद (रहस्य) जानकर सहज साधना में तल्लीन होकर महाशून्य में निवास करे, उस वैरागी (गुणातीत) साहिब (सत्पुरूष)की प्राप्ति के लिए बाहरी ज्ञान, ध्यान, पूजा, पाठ नियमादि नहीं है ॥5॥
संत साधक सत्य की कंठी बाँधे, प्रेम की सेहली पहनें और हृदय से मुद्रा (अजपा जाप, मानस ध्यान, मानस जाप, दृष्टियोग साधन, नादानुसन्धान, खेचरी मुद्रा) रूपी जाप करें। इन मुद्राओं-क्रियाओं को करने वाले तत्त्वज्ञानी संत-साधक चाँदनी की तरह झिलमिल झिलमिल करती हुई परम ज्योति का नित्य तिलक करे ॥6॥
वह ज्ञान-गुदरी (परमार्थिक शरीर) साधकों के लिए मौज (सत्यानुसन्धान केन्द्र) की वस्तु (साधन) है। वह (साधक) बहिर्जगत् से ममता शून्य होकर इसके अन्दर समाहित होता है और करोड़ों चन्द्र की शीतल चाँदनी की अमीरस को ऊपर से झरते हुए भर नजर देखता है और आनन्दित होता है॥7॥
उस अद्भुत परम पद की ओर ओंकार- ब्रह्म भी ध्यान लगाये रहता है। स्वामी शिवनारायणजी महाराज मनुष्यों को (ऊपर बताये हुए गुण-विशेषता जिस संत में पाया जाय वैसे को गुरू बनाकर) पाप-पुण्यसे उपर उठकर भव सागर से तर जाने के लिए उपदेश करते हैं ॥8॥
7. आरती मंत्र
संतपति की आरती, सोहं साजिए थार ।
संत समाज मिलि स्तुति करे, साहेब के दरबार ॥
(सभी लोगों को खड़े होकर आरती करनी चाहिए और सिर पर तौलिया, गमछा या रूमाल रख लेना चाहिए-सिर खुला नहीं होना चाहिए।
8. आरती
(बैद्यनाथ उदासी कृत)
आरती -
आरती करू गुरूदेव गोसाई,
काल और कष्ट हरहु मम स्वामी ।
अग्नि दहन तन गर्भ बसेरा,
जनम मरण फन्द देहु छोड़ाई।
हृदय थाल औ मन पुष्पमाला,
सूरत कपूर ज्ञान धूप गोसांई।
जनम-जनम शरणागत देहु,
मांगत नित-नित देहु शरणाई ।
दास संतन और निरखहु मम स्वामी,
शिवनारायण नमामी नमामी ।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ॥
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
समाप्त
9. क्षमा प्रार्थना
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है प्रभु तोर ।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ॥
बार बार पुकार है, हे अनाथ के नाथ।
इस असार संसार से, पकड़ि उबारहु हाथ।
मैं मतिहीन अधम अति, भगति न जानहुँ तोहि ।
कृपा करहु गुरुदेव जी, शरण लगावहु मोहि।
10. समापन
धूप जाप सम्पूर्ण आहीं, सब सन्तन मिलि शिश नवाहीं ॥
(समाप्त)
अपराह्न कालीन
11. अपराह्न एवं सांय वन्दना-स्तुति
॥ गुरू वन्दना ॥
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥1॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाज्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितमयेन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥2॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देव महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥3॥
॥ गुरू-स्तुति ॥
॥दोहा॥
भेद न जानहं हे स्वामी, मैं अध अधम अपार ।
शरणदेहं गुरू आपनी, तब उतरू भव पार॥
॥चौपाई॥
स्वामी मोहिं पर होउ दयाला।प्रसन्न होउ करहु प्रतिपाला
नित उठि दर्शन देहु गोसांई।जब जो इच्छा तब सोई पाई
सत्य सोई मुख कहहु बखानी।जेहिते इच्छा पूरवै आनी
॥दोहा॥
देहु स्वामी जे मांगहूँ , बिनती मानहूँ हमार ।
नित उठि दर्शन पावाहूँ, इच्छा के फल चार ॥
॥चौपाई॥
स्तुति करहूँ दोऊ कर जोरी। स्वामी जड़ता क्षेमहू मोरी
धन्य गुरु धन्य नाम तुम्हारा।धन्य पुरुष जिन सृष्टि संचारा
धन्य नाम जाने संसारा । लेई उतारत भवजल पारा
जेकर पार केहूँ नहिं पावे । दया करि गुरू पार लगावें
गुण तोहार यश अपरम्पारा।को कहि सकै करै निरूवारा
मैं बपुरा का जानहूँ भेदा। नहिं कछु ज्ञान पढ़े नहीं वेदा
मैं अज्ञानी ज्ञान का थोरा।सब अपराध क्षेमहु प्रभु मोरा
॥दोहा॥
जहं लगि आये जगत महं, करि करि गइले बखान।
मोहि बपुरा जड़ जानि के क्षेमहु सब अज्ञान ।।
मैं बपुरा नहीं जानहुँ, मोहि शब्द की चाह ।
अवगुण अगम गंभीर प्रभु, तोहरे हाथ निबाह।।
12. विनय
अपराह्न एवं सांय विनती
(बैद्यनाथ उदासी कृत)
सद्गुरू शिवनारायण, विनवों कर जोरी।
प्रेम भक्ति देहु आपन, सुनिए अर्ज मोरि ॥
भावार्थ:- हे सद्गुरू शिवनारायण स्वामी! मैं हाथ जोड़कर • आपसे विनय कर रहा हूँ। आप मेरी अर्ज सुन लिजिए और मुझे अपनी प्रेमा-भक्ति दीजिए।
पतितन तारन नाथ, दया माया स्वामी न मोरी।
दया दृष्टि मम ओर रहे, कहूँ दोउ कर जोरी।
भावार्थ:- हे पतितन तारन स्वामी! मुझमें न दया (करुणा) है और न माया (छलपूर्ण कार्य)। मैं इन दोनों से परे हो गया हूँ। अतः दानों हाथ जोडकर कहता हूँ कि आपकी दया दृष्टि मेरी ओर बनी रहे।
युग युगानी जन्म-जन्म, भ्रमी-भ्रमी दुख पाऊँ।
अग्नि दहन तन जरा मरण, गर्भ वास भ्रमाऊँ॥
भावार्थ :- हे गुरूदेव! मैं युगों-युगों से जन्म ले-लेकर भ्रमता (भटकता) रहा हूँ और गर्भवास के दुखों (महाकष्टों) को पाता रहा हूँ। इतना ही नहीं, बुढ़ापे के कष्टों को भी झेलता रहा हूँ और मरने पर शरीर अग्नि में जलता रहा है।
काम क्रोध मदलोभ, चतुरदश इन्द्री सतावे |
भक्ति भाव बिसराई रहे, नित नित भ्रमावे ॥
भावार्थ:- हे गुरूवर! काम, क्रोध, मद, लोभ और चौदह इन्द्रियों ( पाँच कर्म इन्द्रियाँ हस्त, पद, वाक, उपस्थ एवं गुदा, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ आँख, कान, जिह्वा, नाक और त्वचा) और चतुष्य मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार) के विषय सताते रहते हैं और नित्य सर्वदाभ्रमाते (भटकाते) रहते हैं। इन्हीं कारणों से आपकी भक्ति बिसर जाती है-लोग कर नहीं पाते हैं।
भरमी-भरमी भ्रम कन्द मंह, यम दण्ड नित पाऊँ।
सद्गुरू जगदाधार गुरूदेव शरण लगाऊँ ॥
भावार्थ:- हे गुरूदेव जगदाधार! भ्रम(जो सत्य नहीं है। उसको सत्य मानकर) के फन्दे (बन्धन) में पड़कर सर्वदा यमदण्ड़ (यम की मार) पाता खाता रहा हूँ। हेगुरूदेव ! इससे बचने- बचाने के लिए आप मुझे अपनी शरण में लगालें रखले ।
कनक ओ कामिनी, खान-पान सम्मान सतावे ।
सुत दारा परिवार अरू सम्पति नहीं भावै॥
भावार्थ:- हे गुरूदेव! मुझे कनक (रूपया-पैसा, धन सम्पत्ति), कामिनी (काम-वासना), खान-पान (सुस्वादु भोज्यपदार्थ) और सम्मान (प्रतिष्ठा) अर्थात् वित्तेषणा, स्त्रैषणा व लोकेषणा के लोभ सताते हैं। इन्हीं के कारण पत्नी, पुत्र, परिवार (के अन्य सदस्य) और वित्त अच्छे नहीं लगते हैं।
नाथ दया अब कीजिए, गुरूदेव गोसाईं ।
नित-नित चरण शरण रहूँ लिज्यौ अपनाई ॥
भावार्थ:- हे नाथ! गुरूदेव स्वामी! अब आप मुझे दया करके अपना लिजिए ताकि मैं नित (प्रतिदिन) नित (सर्वदा) आपके चरण में रहूँ।
सुरत मन स्थिर हो, नित चढ़ी गगन समावे।
सारशब्द में लीन हो, निर्मल मति होवे ॥
भावार्थ:- हे गुरूदेव! मेरा चंचल मन स्थिर हो और मेरी सुरत (आत्मा की चेतन सत्ता) नित्यप्रति गगन मंडल में चढ़कर 'सार शब्द' में समाहित होकर विलीन हो जाय एवं मेरा विवेक विमल हो जाय।
13. विनय
अपराह्न एवं सांय विनय
(बैद्यनाथ उदासी कृत)
नमो नमो शिवनारायण, गुरू अन्तर्यामी ।
घट-घट गामी नाथ, तिहु लोक के गुरू नमामी |
भावार्थ:- हे अन्तर्यामी (सबके अन्तः करण में व्याप्त परमेश्वर)! घट-घट में गमन करनेवाले, त्रिलोक के गुरू शिवनारायण स्वामी नमस्कार है, नमस्कार है। आदि अनादि अगोचर, निरालम्ब मम स्वामी ।
करूणा सागर जगत हित, गुरूदेव नमामी ॥
भावार्थ :- हे गुरूदेव! आप आदि, अनादि, अगोचर, निरालम्ब, करूणा-सिन्धु, जगत के हितैषी और मेरे स्वामी हैं। मैं आपको नमन करता हूँ।
प्रेम भक्ति विश्वास देहु, श्री चरण निष्कामी ।
युग युगानी जन्म-जन्म, परब्रह्म नमामी ।
भावार्थ:- आप युगों-युगों और जन्मों-जन्मों के निष्कामी पारब्रह्म गुरूदेव हैं। आप मुझे अपने श्री चरण की प्रेमा भक्ति में विश्वास (दृढ़ता) दें। मैं आपको नमन करता हूँ।
दुष्ट दलन पतितन तारन, नीज भक्तन स्वामी ।
देहु शरण नीज आपन, गुरूदेव नमामी॥
भावार्थ:- हे गुरूदेव! आप दुष्टों को दण्ड देनेवाले, पतितों को तारनेवाले और अपने भक्तों को उद्धार करने वाले स्वामी हैं। अतः दया करके अपनी शरण दीजिए। मैं आपको नमन करता हूँ।
नीज दास कीओर निरखो मम स्वामी।
सद्गुरू शिवनारायण, नमामी नमामी |
14. श्लोक
अगम ज्ञानी ब्रह्ममूर्ति कर्म सर्व विवर्जितम्।
विमल वाणी रूचिर शोभा सत्य सोई दिगम्बरम् ॥ 1॥
विभूतिभूषण ज्योति लौके पद्मासन राजतम्।
उन्मुनी में लागि तारी परम सोई सन्यासनम्॥2॥
जटा जूटि ज्योति जगमग गंगा यमुना निवासनम्।
गगन गुफा में रहत उन्मुनी यह लक्षण सन्यासनम् ॥ 3॥
चन्द्र-सूर्य बाँधे सुर-साधे विकसित कमल सोहं चढ़ग।।
त्रिकुटी आसन शून्य वासन सत्य सोई अवधूतम् ॥ 4॥
वैराग्य ब्रह्म का भेद जाने सहज शून्य निवासनम्।
ज्ञान ध्यान न नियम पूजा सो वैरागी साहेबंग ॥ 5॥
सत्य कंठी जाप मुद्रा प्रेम सेहली हिय गलंग।
तत्वता के तिलक शशि दिये ज्योति झिलमिल नित नरंग ॥6॥
ज्ञान गुदरी मौज बनी बैराग्य रूप बीच राजतंग।।
नयन भरि भरि अधर परखे कोटि चन्द्र सुधा झरंग ॥7॥
वैराग्य रूप ओंकार अद्भूत परमपद पर चित्त धरंग ।।
शिवनारायण अस कहे नर पाप-पुण्य तजि भव तरंग ॥8॥
15. आरती मंत्र
संतपति की आरती, सोहं साजिए थार ।
संत समाज मिलि स्तुति करे, साहेब के दरबार ॥
(सभी लोगों को खड़े होकर आरती करनी चाहिए और सिर पर तौलिया, गमछा या रूमाल रख लेना चाहिए-सिर खुला नहीं होना चाहिए।
आरती
आरती - आरती करू गुरूदेव गोसाई, काल और कष्ट हरहु मम स्वामी । अग्नि दहन तन गर्भ बसेरा, जनम मरण फन्द देहु छोड़ाई। हृदय थाल औ मन पुष्पमाला, सूरत कपूर ज्ञान धूप गोसांई। जनम-जनम शरणागत देहु, मांगत नित-नित देहु शरणाई । दास संतन और निरखहु मम स्वामी, शिवनारायण नमामी नमामी ।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ॥
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव ।
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
16. क्षमा प्रार्थना
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है तोर ।
प्रभु तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ॥
बार बार पुकार है, हे अनाथन के नाथ।
इस असार संसार से, पकड़ि उबारह हाथ।
मैं मतिहीन अधम अति, भगति न जानहुँ तोहि ।
कृपा करहु गुरुदेव जी, शरण लगावहु मोह।
17. समापन
धूप जाप सम्पूर्ण आहीं, सब सन्तन मिलि शिश नवाहीं ॥
(समाप्त)
18 . अर्जी
॥ अर्जी ॥
सद्गुरू चरण के दास तिहारो॥
त्रिभुवन नाथ सदगुरूस्वामी जी।
काल और कष्ट हरहु हमारी।
पतितन तारण अधम उधारन।
नीज भक्तन को प्रभु रखवारौ।।
जन्म-जन्म शरणागत देहू स्वामी।
छाड़ो नहीं गहि बाँह निवारो ।
सदगुरू शिवनारायण स्वामीजी।
सब संतन के प्रभु रखवारौ।
भावार्थ:-
हे सद्गुरूस्वामी! आप त्रिभुवन (आकाश लोक, पाताल लोक और मृत्यु लोक) नाथ (मालिक) हैं और मैं आपके चरण कमल का दास (सेवक) हूँ।। सेवक सदा सद्गुरु (स्वामी) के अधीन (आश्रय चाहनेवाला) होता है। आप क्षमा करके अन्तिम (मृत्यु के) समय होनेवाले कष्टों (पीड़ाओं) को हर लें, दूर कर दें अर्थात् मरने के समय जो कष्ट होता है वह न हो। मैं पतित हूँ और आप पतितों के तारनेवाले (पतित पावन) हैं। मैं अधम हूँ और आप अधमों के उद्धार करनेवाले (उद्धारकर्त्ता) हैं। हे प्रभु! आप अपने भक्तों के रखवाले (रक्षक- रक्षा करनेवाले) हैं। हे स्वामी! मैं जन्म-जन्मान्तर आपकी शरण में रहूँ। बस! मुझे इतना ही वरदान दीजिए। मैं भवसागर में डूब रहा हूँ। आप डूबते हुए को छोड़ें नहीं, डूबने नहीं दें, बल्कि बाँह पकड़ कर उबार लें डूबते हुए को बचा लें। स्वामी शिवनारायणजी महाराज कहते हैं कि सदगुरू मालिक सभी संतों के रक्षक हैं, उनकी शरण में जो जाता है, वह उसकी रक्षा करते हैं।
॥ अर्जी ॥
सतगुरू, अवगुन हमरो निवारो ॥
मैं मतिहीन मलीन ओछो बुधि कर्म न गुण हमारो ।
भवसागर देखि होत त्रासा जीव वेगि लगावो किनारो ॥
रामानन्द कबीर मलूका नानक नामदेव तारो ।
ध्रुव प्रहलाद विभीषण लोमस पांडव जरत उबारो॥
गनीका गीघ अजामिल सवरी जुठफल कीयो है अहारो।
देव दनुज नर पशु पंछी जन सभके संकट टारो ॥
संकट सभके टारि दियो है जो ले नाम तिहारो।
शिवरारायण नाम संतपति बलि बलि जात तिहारो॥
भावार्थ -
हे सद्गुरु देव! मैं मतिहीन, (सत्यासत्य का निर्णय करने में असमर्थ) मलिन, (अनेक दोषों से युक्त) और ओछ बुद्धि (तुच्छ विचार रखने वाला) हूँ। मेरे कर्म (कुकर्मों) की गणना नहीं हो सकती अर्थात् मैंने कितने कुकर्म किये हैं, इनकी कोई गिनती नहीं है। आप भी मेरे कुकर्मों की गणना न करें। मुझमें कोई गुण (शुभ कर्म) नहीं है। दूसरी ओर भव सागर (जन्म-मरण बन्धन) को देखकर भय लगता है। ऐसी परिस्थिति मेंमेरे अवगुणों को ध्यान में न रख करके निवारण (छुटकारा) करें। मुझ (अधम) जीव को शीघ्र किनारे (पार) लगावें। क्योंकि आपने रामानन्द, कबीर, मलूक, नानक, नामदेव, ध्रुव, प्रहलाद, विभीषण, लोमश, गणिका, गीध (गिद्धराज) अजामिल, देव, दानव, नर (केवट), पशु (गजराज) पंछी (जटायु) सभी के संकट को टारा है। शबरी प्रदत्त जूठे फल (बेर) का आहार किया है। और पाँचों पाण्डवों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव) को लाक्षा गृह में जलते हुए को उबारा है। आपने उन सभी भक्तों के संकट टाल दिये हैं जिन्होंने आपका नाम लिया (जपा) है। स्वामी शिवनारायण जी महाराज कहते हैं- हे संतपति! आपके नाम की बलिहारी है। मैं आपका कृतज्ञ हूँ।
19 . जानकारी की बातें
1. पंथ का परिचय
स्वामी शिवनारायण जी महाराज के चलाये हुए मत-पंथ को 'शिवनारायणी संतमत-सम्प्रदाय' और 'शिवनारायणी पंथ' कहते हैं।
स्वामी शिवनारायण जी महाराज का प्रादुर्भाव मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के शासन काल (ई० सन् 1719-1748) में उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के चन्द्रवार नामक गाँव में वहाँ के तत्कालीन जमीन्दार निरौनी वंश के राजपूत बाघराय (पिता) के घर में सुन्दरी देवी (माता) की कोख से ई० सन् 1716 में (जन्म) हुआ था। स्वामी जी के गुरू का का नाम दुःख हरण स्वामी था। उन्होंने सात वर्ष की अवस्था में 'सुरत शब्द-योग' की क्रियात्मक साधना की दीक्षा ली थी और कठोर ध्यानाभ्यास करके सोलह वर्ष की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली थी।
स्वामी जी से प्रभावित होकर मुहम्मद शाह ने इनकी शिष्यता ग्रहण की थी और मुहर देकर पंथ चलाने के लिए आग्रह भी किया था।स्वामी जी के प्रधान पाँच (रामानाथ सिंह, लखन राम सिंह ( दोनों क्षत्रिय) सदा शिव (ब्राह्मण) लखराज और युवराज (दोनो भाट) शिष्य थे। इनमें लखन, राम सिंह और सदाशिव ने ही पंथ का खूब प्रचार किया। सदाशिव ने स्वामी जी के जीवन काल में खूब प्रचार किया। सदाशिव ने स्वामी जी के जीवन काल में ही पैदल चलकर उस समय यातायात का कोई साधन नहीं था) बंगाल तक पंथ का प्रचार कर दिया था। लखन रामसिंह स्वामी जी के उत्तराधिकारी थे। इस नाते उन्होंने पंथ का खूब प्रचार किया।
2. पंथ का विस्तार
सम्प्रति शिवनारायणी पंथ के माननेवाले
(अनुयायी) भारत वर्ष के अलावे नेपाल, पाकिस्तान, बंगाला देश, वर्मा, मारिशस, अदन, अफ्रीका, ट्रिनिडाड (अमेरिका) आदि देशों में फैले हुए हैं।
3. पंथ की पहचान
इस सम्प्रदाय की पहचान (चिह्न) 'संत-शरण' है। इस सम्प्रदाय के सभी ग्रंथों में सबसे ऊपर 'संत-शरण' छपा लिखा होता है। इस पंथ के अनुयायी अपने निवास स्थान पर 'संत-शरण' लिखवाते हैं, (क्योंकि 'संत-शरणसुख दाता' है।) ताकि इसको देखकर पंथ का अनुयायी समझ लें कि यह हमारे गुरु भाई का निवास स्थान है। इसके अनुयायी पत्राचार में भी इसका प्रयोग करते हैं। अर्थात् पंथ में सबसे ऊपर 'संत-शरण' लिखते हैं।
4. पंथ का झण्डा
इस पंथ का झण्डा त्रिकोण श्वेत वस्त्र का बना हुआ होता है जिसके एक भाग में 'संत-शरण' और दूसरे भाग में 'संतपति' लिखा होता है।
5. पंथ का अभिवादन
इस सम्प्रदाय का अभिवादन 'जय गुरु संतपति' है। जब इसके अनुयायी एक दूसरे से मिलते हैं तब आपस में 'जय गुरु संतपति' बोलकर अभिवादन (प्रणाम) करते है।
6. पंथ की दीक्षा
इस पंथ की दीक्षा 'सुरत-शब्द-योग' है। इसके अन्तर्गत मानस ध्यान, मानस जाप, दृष्टिकोण साधन और नादानुसन्धान के अतिरिक्त कई क्रियात्मक साधनाओं का ज्ञान एक ही बार शिष्यों को कराया जाता है। इसके अनुयायियों को सुर-दुर्लभ मानव-जीवन की उपयोगिता एवं महत्ता बतलाई जाती है। बतलायाजाता है कि मानव जीवन 'साधन-धाम' और 'मोक्ष का द्वार है। एवं सत्यानुसन्धान केन्द्र है। इसी शरीर में साधना करके 'गगन मण्डल के द्वार से प्राण करे निकसार' की विधि बतलाई जाती है।
6. पंथ के धाम
शिवनारायणी सम्प्रदाय के देश-विदेश में अनेक कुटी, सत्संग-मंदिर, संत्संग भवन और समाज घर हैं। लेकिन इस सम्प्रदाय के प्रमुख चार ( चन्द्रवार, ससना, बड़सरी और गाजीपुर) धाम (प्रसिद्ध स्थान) हैं। इसके अतिरिक्त पीरगंज सत्संग मंदिर ( झौआ - सोनैली पथ पर ) , झौआ , आज़मनगर , कटिहार , बिहार , भारत |
1. चन्द्रवार - स्वामी जी की जन्म भूमि
2. ससना स्वामी जी का गुरुद्वारा, तपोभूमि और - समाधि स्थल है।
3. बड़सरी स्वामी जी के उत्तराधिकारी शिष्य लखन - राम सिंह का जन्म स्थान है।
4. गाजीपुर - पंथ का धाम होने के कारण प्रसिद्ध है।
5. पीरगंज सत्संग मंदिर - नया धाम
7. पंथ के पर्व
(1) कार्तिक सुदीतीज
इस दिन स्वामी जी का बड़ी धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया जाता है। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि कार्तिक सुदी तीज के दिन स्वामी जी काजन्मोत्सव क्यों बनाया जाता है? जबकि लिखा है-
सम्वत् सतर सौ तिहत्तर में, हुवा जन्म हमार । कृष्णपक्ष तिथि तीज थी, कार्तिक मास गुरु वार । आधी रात कार्तिक मासा। कृष्णपक्ष तिथि तीज प्रकासा । रोहिणी नक्षत्र तेहि बारा । वृहस्पति वार जन्म हमारा ।
अर्थात् - स्वामी शिवनारायण जी महाराज का जन्म सम्वत् 1773 (ई०सन् 1716) में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की तिथि तीज दिन बृहस्पतिवार, रोहिणी नक्षत्र की आधी रात में हुआ था।
पूछने पर कोई-कोई कहते हैं कि "कृष्ण पक्ष की आधी रात में अर्थात् अंधेरा में रोहिणी नक्षत्र कैसे दिखाई पड़ेगा? ('तिथि तीज प्रकासा' से मतलब है कि कार्तिक सुदी (शुक्ल पक्ष) की तीज तिथि को आधी रात में रोहिणी नक्षत्र दिखाई पड़ता है। इसलिए कार्तिक सुदी तीज को जन्मोत्सव मनाया जाता है।" यह तो बिना सिर पैर अथवा बिना खोपड़ी की बात हुई। यह कोई तर्क सम्मत और बुद्धि सम्मत युक्ति-युक्त बात नहीं हुई।
हमलोग प्रतिमाह देखते हैं कि किसी भी मास. के कृष्ण पक्ष तीज तिथि को प्रथम तीन घड़ी तक अंधेरा रहता है और उसके बाद रात भर उजाला (प्रकाश) रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की तीज तिथि को प्रथम तीन घड़ी तक उजाला (प्रकाश) रहता है और उसके बाद रात भर अंधेरा रहता है। अब बताइये, अंधेरी रात में रोहिणी नक्षत्र कैसे दिखाई पड़ेगा।
जहाँ शुक्ल पक्ष की तिथि तीज को स्वामी जी का जन्मोत्सव मनाया जा रहा हो वहाँ उपरोक्त दोहा-चौपाई लिखकर लटका दिया जाय तो पढ़ने वाले क्या सोचेगे? जन्म हुआ कृष्ण पक्ष की तिथि तीज को और जन्मोत्सव मनाया जा रहा है शुक्ल पक्ष की तिथि तीज को । इसका क्या औचित्य है?
हमें लकीर का फकीर नहीं होना चाहिए। वास्तव में स्वामी जी का जन्मोत्सव कृष्ण पक्ष की तिथि तीज को ही मनाना चाहिए।
(2) अगहन सुदी त्रयोदशी
इस दिन बड़ी धूम धाम से ग्रंथ जयन्ती मनायी जाती है।
स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने अपने प्रमुख ग्रंथ 'गुरू अन्यास' का रचना काल (समय) का उल्लेख करते हुए लिखा है- सम्वत् सतरह सौ इक्कानवे होई। ग्यारह सौ सन् पैंतालीस सोई॥ अगहन मास पक्ष उजियारा। तिथि त्रयोदसी शुक्र सै वारा॥ तेहि निद निरमेउ कथ पुनिता । गुरु अन्यास कथा सब हीता ॥
भावार्थ - स्वामी शिवरारायण जी महाराज कहते हैं कि मैंने सम्वत् 1791 और हिजरी सन् 1145 में अगहन मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि दिन शुक्रवार को पुनित 'गुरु अन्यास' की रचना समस्त प्राणियों के हितार्थ की।
इससे स्पष्ट होता है कि गुरु अन्यास की रचना सम्वत् 1791 और हिजरी सन् 1145 में हुई थी। लेकिन रचना काल की गणना सम्वत् 1791 तो ठीक। किन्तु गणनानुसार हिजरी सन् 1145 गलत है। वर्तमान सम्वत् 2064 में 1791 घटाने पर 273 वर्ष होता है और वर्तमान हिजरी सन् 1428 में 1145 (घटाने पर 283 वर्ष होता है। इन दोनों में किसको सत्य माना जायगा ? गुरू अन्यास की रचना 273 वर्ष पहले हुई थी या 283 वर्ष पहले?
1. सम्वत् और हिजरी सन् में अन्तर - 2064-1428 = 636 वर्ष
2. सम्वत् और फसली सन् में अन्तर- 2064-1414 = 650 वर्ष
3. 1145 से 636 जोड़ने पर 1781 सम्वत् बनता है।
4. 1145 में 650 जोड़ने पर 1795 सम्वत् बनता है। यह भी प्रमाणित करता है कि हिजरी सन् 1145 गलत है। फिर सत्य क्या है?
1. वर्तमान सम्वत् 2064 में 1791 घटाने पर 273 वर्ष होता है।
2. वर्तमान हिजरी सन् 1428 में 1155 घटाने पर 273 वर्ष होता है।
3. वर्तमान फसली सन् 1414 में 1141 घटाने पर 273 वर्ष होता है।जो महाराज समाधिस्थ हुए थे अर्थात् संत देश गमन किया था। इस दिन को मोक्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन पर्वो के अलावे गुरु पूर्णिमा, जन्माष्टमी, दशहरा और होली के शुभावसर पर भी सत्संग, प्रवचन, पूजन और मिलन समारोह का आयोजन किया जाता है।
8. पंथ के लेखक
शिवनारायणी सम्प्रदाय के संबंध में समय-समय पर जिन विद्वानों ने अपने-अपने साहित्य में वर्णन किया है, उनका नामोल्लेख मात्र किया जा रहा है-
(क) अंग्रेजी के विद्वानों में जिन्होंने शिवनारायणी पंथ के बारे में लिखा है,वे हैं स्वनाम धन्य सर्वश्री 'एच. एच. विल्सन, एच.एच. रिजली, डब्ल्यू. क्रुक, एच. आर. नेवोल, जी.एच. ग्रियर्सन, जे. एन. फर्कुहर, ब्रिग्स, एडविन ग्रीन्स, एफ.ई. और बार्थ।
(ख) हिन्दी के प्रख्यात संत-साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों में बाबू श्याम सुन्दर दास, मिश्र बन्धु, शिव प्रसाद गुप्त, आचार्य क्षिति मोहन सेन, शिव व्रतलाल, डॉ० बड़थ्वाल, डॉ० राम कुमार वर्मा, प्रसिद्ध नारायण सिंह, प्रो० ताराचन्द, पं० परशुराम चतुर्वेदी, डॉ० रामचन्द्रतिवारी, डॉ० रामेश्वर प्रसाद, सिंह और दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने शिवनारायणी सम्प्रदाय के संबंध में तथ्यपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया है।
(ग) वे सम्प्रदाय के पदाधिकारी एवं अधिकारी विद्वान जो सम्प्रदाय के ग्रंथों की टीकाएं लिखी हैं और सम्प्रति उन पर आधारित लेख लिखने में संलग्न हैं, सर्वश्री-
(1) रघुनाथ राम, अध्यक्ष ( चन्द्रवार धाम उत्तर प्रदेश)
"गुरू अन्यास की टीका और 'लौ परवाना' की टीका।
(2) देवराज महंथ (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश)
'भारतीय संत परम्परा में शिवनारायण पंथ' ।
(3) डॉ० रामरवि राम स्वरूप, पी. एच डी, हु०म० (राँची, झारखण्ड)
'लौ परवाना' की टीका, 'सन्त आखिरी' की टीका, 'संत दर्शन' और 'सन्त श्री शिवनारायण जीवन चरित'।
(4) प्रयाग राम, प्रा०हु० महंत (मुजफ्फरपुर, बिहार प्रदेश)
कानपुर से प्रकाशित 'संत-संदेश' में महत्त्वपूर्ण लेखों का प्रकाशन।
(5) लखन लाल जि०अ० (सालमारी, कटिहार, बिहार)
'गुरु अन्यास' की टीका, 'पाती परवाना' की टीका 'शिवनारायण मत पंथ के सिद्धान्त एवं नियम का निर्माण'
(6) हृदया लाल, अ० भा० अ० (अखिल भारतीय अध्यक्ष),(मनेर, पटना,बिहार)
'लौ परवाना' की' टीका, 'सन्त साधना-विधि'सरल पूजन विधि', 'स्तुति-वन्दना' सटीक कानपूर से प्रकाशित 'संत-संदेश' और डॉ० प्रदीप 'पंकज' आरा, भोजपुर द्वारा प्रकाशित 'भोजपुर कंठ' में सारगर्भित लेखों का प्रकाशन।
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