स्तुति भावार्थ
॥दोहा॥
* हे सद्गुरूदेव स्वामी! मैं आपका भेद (रहस्य, क्षमता, महत्ता, विशेषता और पहुँच) को नहीं जानता हूँ। क्योंकि मैं पापपुञ्ज और अधम (नीच) हूँ। मेरे पापों और दुष्कर्मों का कोई ओर-छोर नहीं है। ऐसी परिस्थिति में भवसार से पार उतरने का एक मात्र उपाय आपका शरणागत है। अतः आप मुझे अपनी शरण में ले लिजिए ताकि भवसागर से पार उतर सकूँ।
॥चौपाई॥
* हे स्वामी! आप मुझ पर दया कीजिए। मेरे अपराधों, पापों एवं अवगुणों पर ध्यान न देकर प्रसन्न होइये और मेरा प्रतिपालन कीजिए। आप प्रतिदिन मुझे दर्शन दीजिए ताकि मैं जब चाहूँ तब अपना मनोवांछित फल पा सकूँ। आप अपने मुखारविन्द से कह दीजिएकि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण रूपेण सत्य हो, जिससे मेरी इच्छा की पूर्ति हो जाय।
॥दोहा॥
* हे स्वामी! मैं जो मांग रहा हूँ मेरी विनती मानकर, दया करके दीजिए। वह यह कि मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मैं प्रतिदिन शैया से उठूं तो सर्व प्रथम आपके दर्शन हों ताकि मैं इच्छित चार (दर्शन, पर्शन, मञ्जन अरू पान) फल पा सकूँ अर्थात् मुझे आपके दर्शन करने, आपके चरण स्पर्श करने, आपके सत्संग-सरोवर में स्नान करने और आपके उपदेशामृत का पान करने का लाभ (सुअवसर) मिल सके।
॥चौपाई॥
* हे स्वामी मैं दोनों हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना (निवेदन) करता हूँ कि मेरी जड़ता (मूर्खता, अज्ञानता) को क्षमा करें।
* हे गुरुदेव ! आप धन्य हैं ,और आपका नाम (यश, महिमा) भी धन्य है। वे 'पुरुष' भी धन्य हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की है।
* हे गुरुदेव ! सृष्टि में वे प्राणी भी धन्य हैं, जिन्होंने 'नाम' को जान लिया है, क्योंकि नाम ही भवसागर से पार उतारता है।
* हे गुरुदेव! पूजा-पाठ, तीर्थ-व्रत, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य इत्यादि करके कोई भवसागर से पार नहीं उतरते हैं। लेकिन आप उन्हें दया करके पार लगा देते हैं- उद्धार कर देते हैं। कारण कि- 'गुरु बिनु भवनिधि तरई न कोई। जो विरंची शंकर सम होई' -मानस ।
* हे गुरुदेव! आपका गुण (लीला) और यश (कीर्ति) अपरम्पार है। आपकी महिमा का वर्णन कौन कर सकेगा और निर्णय कर सकेगा कि गुरु की महिमा मात्र इतनी ही है।
* हे गुरुदेव ! मैं अल्पज्ञ और अज्ञानी आपको भेद (लीला) को क्या जानूँ? क्योंकि मैंने वेदों का अध्ययन नहीं किया। (कि उनमें क्या लिखा है?) और न ही इनकेसंबंध में विशेष जानकारी है।
* हे गुरुदेव ! मैं अज्ञानी हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ। मुझमें ज्ञान का अभाव है। मुझे गुरू महिमा का थोड़ा सा ही ज्ञान है। इसलिए हे प्रभु! मेरे सभी (मन-वच-कर्म से होनेवाले) अपराधों को क्षमा करें। अर्थात् मैंने मन से, वचन से और कर्म से यदि कोई अपराध किया हो तो मुझे क्षमा कर दें।
॥दोहा॥
* हे गुरूदेव ! जगत् में जितने ऋषि-मुनि, साधु- संत ज्ञानी ध्यानी आये, सबों ने गुरू महिमा का बखान किया और बखान करके चले गये। मैं उनकी तरह आपकी महिमा का वर्णन कैसे करूँ? आप मुझे जड़ (मूर्ख) और बपुरा (अज्ञानी) जानकर मेरे सभी अज्ञानों को हर लें, दूर कर दें और क्षमा करें।
* हे गुरुदेव! मुझे 'शब्द' की चाह है, लेकिनअज्ञानी होने के कारण उसकी जानकारी नहीं है। साथ हो मुझमें अनगिनत और भयंकर अवगुण हैं। अब आपकेही हाथ में है मेरा निर्वाह करना और भवसागर से पार करना-उद्धार करना।
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