पूर्वान्ह कालीन विनती
भावार्थ:- हे संतपति शिवनारायण! आप निर्मल-निष्पाप, ममता-मोह शून्य एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में पारब्रह्म सद्गुरूदेव हैं। अतः आप दया करके मेरे समस्त ( मन-वच कर्म से होनेवाले) ऐबों-अवगुणों को अपहृत कर लिजिए। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
* हे नाथ ! आप दया के सिन्धु, पतितों को तारनेवाले, दुष्टों का संहार करनेवाले, भव बंधन से छुड़ानेवले और समस्त प्राणियों के घट-घट में रहनेवाले अन्तर्यामी प्रभु हैं। हे देव! आप मुझे अपनी स्वर्णिम प्रेमा-भक्ति दीजिए (जिसे करके मैं मुक्त हो जाऊँ)।
* हे परमानन्द श्री सद्गुरू देव जी! अपना हाल क्या सुनाऊँ! मैं युग-युगों में जन्म ले-लेकर भ्रम के फन्दे में फँसकर भ्रमता रहा हूँ और नित (सर्वदा) महाकष्ट पाता रहा हूँ।
* हे कृपा सिन्धु सद्गुरूदेव भगवान! आपकी कृपा के बिना इस जगत का कोई आधार (आश्रय) नहीं है। हे आश्रयदाता! आप अपने दास (गुरू-भक्त) पर दया कीजिए।
* हे जगदाधार श्रीसद्गुरूदेव स्वामी! आप निरलिप्तऔर निष्कपट हैं। आप मेरे अवगुणों को क्षमा करें और अपनी शरण में स्थान) दीजिए।
* हे संतपति! मैं अति अज्ञानी हूँ। आप अपने चरण कमल में स्थान दीजिए और मुझ डूबते हुए को भव से उबारिए।
* हे प्रभु ! मैंने (माता के गर्भ में) प्रतिज्ञा की थी (कि संसार में जाकर आपकी भक्ति करूँगा)। लेकिन इस जग में आकर (भक्ति करना) भूल गया। क्योंकि माया ने हीरा (अति उत्तम वस्तु भक्ति) को चुरा लिया। इसलिए अब मैं खड़ा खड़ा पश्चाताप कर रहा हूँ।
* हे गुरूदेव जी! मेरी विनती माने और मुझपर दया करें। आपके बिना (सिवा) इस जग में जीवन-नौका का खेवनहार कोई दूसरा नहीं है।
* हे मेरे स्वामी! मैं भवसागर में वह (डूब) रहा हूँ। आप क्षमारूपी दृष्टि को खोलकर मुझे (भवसागर से) पार लगाइए।
* हे दया-सिन्धु के भंडार गुरूदेव जी! मेरी करोड़ों भूलों (गलतियों) को क्षमा करें और मुझे ज्ञान चक्षु प्रदान कर मेरे अज्ञानान्धकार को दूर करें।
* हे प्रभु ! अष्टादश पुराण (स्कन्ध पुराण, कुर्म पुराण, गरूड़ पुराण, लिंग पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण, अग्नि पुराण, मत्यस्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, भविष्य पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्म पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, वावन पुराण और बराह पुराण), षष्ट शास्त्र (मीमांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग) और चारो वेदों (ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) के कथन हैं कि समस्त प्राणियों में(एकः देवः सर्व भूतेषु) स्वामी (परमात्मा) को देखो। श्री गुरूदव भी यही भेद (रहस्य) की वाणी (बात) कहते हैं, "एके ब्रह्म सकल घट माहीं"।
* हे स्वामी! आप सबमें हैं। परन्तु मैं देख नहीं पाता। आप मुझे वही दृष्टि (ज्ञान चक्षु) दीजिए जिससे प्रभु (आप) दिखाई पड़ते हैं॥
("इस तन के अन्तिम तह में गुरू हैं, मन पता पाता नहीं" - परमहंस मेंही जीमहाराज)
* हे स्वामी! आप तो सर्वगुण सम्पन्न (सर्व समर्थ) हैं। लेकिन मैं अशक्त और अज्ञानी हूँ। आप भी सभी संतों की तरह अपने दासों (गुरू भक्तों) को अपने चरण में स्थान दीजिए।
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