~ संत शरण ~
दोहा - तीनो युग की भक्ति, स्वामी हृदय-लीन ।
अधम हेतु के कारने,यह युग आज्ञा दीन ॥ 18 ॥
चौपाई -
अब जो तुम पूछहु जग व्यवहारा ।
सब हम कहब अपन अवतारा॥ 98॥
ब्रम्हा के वंश कश्यप भयऊ।
हरणाकुश ताकर सुत रहऊ ॥ 99॥
नल कुँअर ताकर सुत आही ।
बाघराय तेहिके घर माही ॥ 100॥
घर सम्वत सोलह सो अठसा होई ।
बाघराय के जन्म भये सोई ॥ 101॥
भावार्थ - ऊपर कहे अनुसार तीनों युगों में जन्म लेकर मैंने गुरू सन्तपती भगवान का ध्यान हृदय में रक्खा। तब इस कलयुग में सन्सार को चेतावनी देने के लिये गुरू सन्तपती की आज्ञा से जन्म लिया । अब मैं तुम्हारे पूछने के अनुसार कलयुग अपने 'में जन्म लेने का वर्णन सिलसिलेवार कहता हूँ । ब्रह्मा वंश (गोत्र) में कश्यप नाम के मेरे पूर्वज ने जन्म लिया। उनके पुत्र हररणाकुश हुये तथा हरणाकुश के पुत्र नल- कुंवर हुये। इसी पीढ़ी में सम्बत सोलह सौ अट्ठासी (1688
)में बाघराय का जन्म हुआ।
दोहा - बाघराय के घर मा ,
नारी तीन कहाय ।
गौरा, यमुना, सुन्दरी,।
कहऊँ सकल समुझाय ॥ 19 ॥
चौपाई -
बाघराय एक गाँव के नाऊ ।
तहा बसे महेश्वर राऊ ॥ 102 ॥
ताकर कन्या गौरा आहो ।
बाघराय संग ब्याह कराई ॥ 103 ॥
नदरा नगर दीनसिंह राजा।
तिनकी कन्या यमुना साजा ॥ 104॥
सिंहापुर एक ग्राम कहावे ।
घूमनसिंह तहाँ राव कहावे ॥ 105 ॥
तेहि की कन्या सुन्दरि नाऊ ।
बाघराय संग व्याह रचाऊ ॥ 106॥
भावार्थ- वाघराय के गौरा, यमुना, सुन्दरि नाम की तीन धर्मं पत्नियाँ थीं । गौरा के पिता महेश्वर राव वाघराय नाम के गाँव के निवासी थे । इसी प्रकार यमुना के पिता दीनासिंह नदरा नगर के राजा थे। और सुन्दरि के पिता घूमनसिंह सिंहा- पुर के राव थे ।
चौपाई -
जन्म भूमि है कनऊज देशा ।
बाघराय तहां बसत नरेशा ॥ 107 ॥
चन्दीराय चन्द्रवार में रहई ।
बाघराय के मित्र कहाई ॥ 108 ॥
कनऊज देश मा पड़ा अकाला ।
छोड़ नगर चले भुवाला ॥ 109 ॥
गये चन्द्रवार चन्दीराय के पासा ।
करत जहाँ सुख राव विलासा ॥ 110॥
चन्दीराय मिले हरषाय ।
देई जमीन मित्रहिं ठहराई ॥ 111 ॥
भावार्थ -- स्वामी शिवनारायण के पूर्वज को जन्म भूमि कनउज (कनौज) देश में थी । उनके एक मित्र वंग देश के चन्द्रवार नाम के गाँव में रहते थे । जिनका नाम चन्दीराय था। एक समय की बात है कि कनउज देश में अकाल पड़ा इस लिये वाघराय आदि सपरिवार कनउज देश छोड़कर अपने मित्र चन्दीराय के पास चन्द्रवार चले गये । चन्दीराय अपने मित्र वाघराय का प्रसन्नता पूर्वक स्वागत किया और उन्हें रहने और खेती आदि करने की जगह देकर उन्हें ठहरा लिया ।
चौपाई -
बाघराय के घर निज कर आये ।
सन्त - सन्देशा सकल सुनाये ॥ 112 ॥
बाघराय के पुत्र कहाई ।
जन्मत माया गुरू उपजाई ॥ 113 ॥
सुन्दरि कोंख लीन्ह अवतारा ।
शिवनारायण नाम हमारा ॥ 114 ॥
पहिला पुत्र थम्मन अवतारा ।
मदनसिंह दूसर विस्तारा ॥ 115 ॥
तीसर एक कन्या उपजाई ।
ताकर नाम सुभद्रामतो आही ॥ 116 ॥
भावार्थ - इन्हीं बाघराय के घर में सुन्दरि माता की कोख से जन्म लेकर मैं बाघराय का पुत्र कहाया। मेरा नाम शिव- नारायण रक्खा गया मुझे पहिले माता की कोख से थम्मनसिंह, मदनसिंह नाम के दो पुत्र तथा सुभद्रामती नाम की एक कन्या तीसरी सन्तान उत्पन्न हो चुकी थी मैं उनकी चौथी सन्तान था । जन्म लेते ही गुरू ने अपनी अद्भुत शक्ति मेरे में पैदा कर दी थी। क्योंकि मुझे सन्सार को चेताना था । सब को सन्त-सन्देशा सुनाना था।
दोहा - सम्बत सत्रह सौ तिहत्तर में,
हुवा जन्म हमार ।
कृष्ण पक्ष तिथि तीज थी,
कार्तिक मास गुरुवार ॥ 20 ॥
🙏🙏🙏🙏🙏
चौपाई -
आधी रात कार्तिक मासा ।
कृष्ण पक्ष तिथि तीज प्रकाशा ॥ 117 ॥
रोहिणी नक्षत्र तेहि वारा ।
वृहस्पतिवार जन्म हमारा ॥ 118 ॥
सम्बतसत्रह सौ अस्सी रहेऊ ।
गुरू का ध्यान हिया मा भयऊ ॥ 119 ॥
उमर सात वर्ष को जब होई ।
दुःखहरण गुरु शब्द सुनाई ॥ 120 ॥
हृदय लगाय शब्द मोहि सुनावा ।
खुलि गई दृष्टि ज्ञान मोहिं आवा ॥ 121 ॥
भावार्थ-- - हमारा जन्म सम्वत सत्तरह सौ तिहत्तर के कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की तीज तिथि की अर्धरात्रि को जब सारा आकाश प्रकाशमान था तब हुआ था। उस समय गुरूवार का दिन था और रोहिणी नक्षत्र था। सात वर्ष की उम्र होने पर यानी सम्बत सत्रह सौ अस्सी में मुझे गुरू करने की जिज्ञासा बढ़ी तो गुरू सन्तपती भगवान ने मुझे हृदय लगाकर गुरू शब्द (गुरु मंत्र) सुनाया जिससे मेरे हृदय में ज्ञान का प्रकाश हुआ और मैंने उनकी दुःखहरण नाम से बन्दना की ।
दोहा - मदनसिंह कुँवर के,
व्याह करायऊ राव ।
सुभगसिंह की कन्या,
ताहि सुलोचना नाम ॥ 21 ॥
चौपाई -
सात वर्ष की सुभद्रा होई ।
तेकर व्याह का यतन करे सोई ॥ 122॥
ससना गाँव शोभासिंह राऊ ।
तेहि संग सुभद्रामती व्याहू ॥ 123 ॥
हमरे व्याह का कीन्ह विचारा ।
बरजि रहे नहि माने भुवारा ॥ 124 ॥
गाँव पिताम्बारपुर एक आही ।
गंगासिंह राजा रहे ताहीं ॥ 125 ॥
गनपत राय पुत्र के नाऊ ।
नारि दुर्गावती ताहि कहाऊ ॥ 126॥
कन्या एक ताहि घर सुहाई ।
सुमति कुमारि तेहि नाम कहाई ॥ 127 ॥
सुमति कुमारि संग व्याह हमारा ।
बरणि न जाय रूप अधिकारा ॥ 128 ॥
कछुक समय बीत जब गयऊ ।
एक बालक एक कन्या भयेऊ ॥ 129 ॥
भावार्थ - इसके पश्चात् मदनसिंह कुँवर का व्याह सुभगसिंह की कन्या सुलोचना के साथ हुआ । अब सुभद्रामती की उम्र सात वर्ष की हो चुकी थी । इसलिये उसके विवाह की चिन्ता परिवार के सब लोगों को हुई । अतः ससना गाँव के राजा शोभासिंह के साथ उसका विवाह कर दिया गया। अब हमारे (स्वामी शिवनारायण जी के) विवाह का बिचार होने लगा । तब स्वामी जी ने इसका विरोध किया। क्योंकि आप वैवाहिक बन्धन यानी गृहस्थाश्रम में फसना नहीं चाहते थे । परन्तु माता पिता के हठ के आगे आप को झुकना पड़ा। पीताम्बरपुर एक गाँव था वहाँ के राजा गंगासिंह की स्त्री का नाम दुर्गावती था उनके पुत्र का नाम गनपतराय था । उनकी कन्या का नाम सुमतिकुमारि था जो रूप रंग में अति सुन्दरी थी। उसके साथ स्वामी शिवनारायण जी महाराज का विवाह हुआ कुछ समय व्यतीत होने पर स्वामी जी को एक पुत्र और एक कन्या के रूप में दो रत्न प्राप्त हुये ।
दोहा - कन्या के नाम सहिता परे ।
पुत्र के जयमल नाम ।
जगत रीति जग करत रहे,
गुरू सन्त पती से काम ॥ 22॥
चौपाई -
सोहन सिंह गाँव राय एक आही ।
व्याह सलिता के संग कराई ॥ 130॥
सिंहुली नन्दासिंह राऊ ।
ताकर कन्या लक्ष्मिन नाऊँ ॥ 131॥
तेहि संग पुत्र के व्याह कराई ।
सुख सम्पति कन्या लै आई ॥ 132 ॥
भावार्थ- - पुत्र का नाम जयमल और कन्या का नाम सलिता था। सोहनसिंह राय के साथ सलिता का विवाह कर दिया गया । और सिहुली गाँव के राजा नन्दासिंह की पुत्री के साथ जयमल का विवाह हो गया । बधू के साथ बहुत सा धन भी प्राप्त हुआ ।
चौपाई -
जहाँ लगि कुल मैं सबहिं भाखा ।
अब सुनहू औरहु शाखा ॥ 133॥
बलख बुख़ारों शाह सुल्ताना ।
मोहम्मद पुत्र तेहि के जाना ॥ 134॥
सो दिल्ली मे करे बादशाही ।
अकबर कुल सब गये पराई ॥ 135 ॥
काशी वोच में चन्द्रसेन राजा ।
चले क्षत्र सिर सोंहै ताजा ॥ 136 ॥
जहूराबाद परगना के माही ।
आसकरन टापा रहे ताही ॥ 137 ॥
टाँक नगर सुन्दर स्थाना ।
फैय्ज्जुला तहाँ बसे पठाना ॥ 138 ॥
मकसूदाबाद रहेउ स्थाना ।
साहेब दाद नवाव बखाना ॥ 139 ॥
भावार्थ - अब तक मैंने अपने ही परिवार व कुल की बातें तुम्हें बतलाई । अब उस समय जो देश की राजनैतिक दशा थी । उसे संक्षेप में कहता हूँ । उस समय बलख बुखारे देश के बाद- शाह की सन्ताने दिल्ली तख्त पर शासन कर रही थीं। अकबर के कुल का एक बादशाह मोहम्मद शाह के नाम से उस समय तख्त पर आसीन था । काशी में चण्द्रसेन राजा राज्य करते थे । जहूराबाद परगना के अन्तरगत आसकरण नाम का एक टप्पा था टाँक नगर (जिसे अब ढाका कहते हैं) में फैयज्जुला पठान और मकसूदाबाद में साहब दाद नवाब की अमलदारी थी।
दोहा - ताहि समय के बीच में,
कछुक जल नहि होय।
अन्न बिना सवनगर दुखी,
दोन्हा पोत न कोय ॥ 23॥
चौपाई -
शाह मोहम्मद भेजा हलकारा ।
आये वाघराय के दुआरा ॥ 140 ॥
बादशाह तोहरे पास पठाये।
तीन बरस के पोत मंगाये ॥ 141 ॥
सुनके बाघराय डर कीन्हा।
तब हम मन में अचरज कीन्हा ॥ 142 ॥
हलकारा से कहऊ बुझाई ।
लई चलु मोहिं शाह के ठांई ॥ 143 ॥
भावार्थ- - उस समय वर्षा न होने के कारण सूखा पड़ गया इस अकाल से पीड़ित जनता में से किसी ने भी राज्य कर नहीं दिया । तब बादशाह ने अपने दूत देश के कोने कोने में राज्य कर वसूल करने के लिये भेजे उनमें से एक दूत वाघराय जी के पास भी आया । और राजाज्ञा सुना कर तीन वर्ष का राज्य-कर मांगा । यह सुनकर वाघराय जी सहम गये कि ऐसी मुसीबत में तीन बर्ष का एक वर्ष का भी राज्य कर नहीं दिया जा सकता तब बादशाह के कोप भाजन होने का डर होने लगा । स्वामी शिवनारायण जो यथार्थ वादी थे उन्हें यह देख कर बड़ा अचम्भा हुआ कि अकाल पड़ने का हाल सब कोई जानता है फिर इस मजबूरी को बादशाह क्यों न समझ पावेगा सिर्फ उन्हें जतलाने की बात है फिर पिता जी दुखी और भयभीत क्यों हो रहे हैं । इस लिये उन्होंने दूत से वार्तालाप की और अपना तर्क बादशाह के सम्मुख रखने की इच्छा से अपने को बादशाह के सामने ले चलने को दूत को राजी कर लिया ।
दोहा - हलकारा के संग मा,
गये शाह के पास ।
सन्मुख जायके ठाड़ भये,
बचन कीन्ह प्रकाश ॥ 24 ॥
चौपाई -
शाह मोहम्मद कहत पुकारा ।
काहे न दीन्हा पोत हमारा ॥ 144 ॥
दोहा -
शिवनारायण कहत भये,
सुनो मोहम्मद शाह ।
जहाँ लगि जीव जगत मह,
सब पर राखु निगाह ॥ 25 ॥
चौपाई -
साहब शाह एक है साहू।
सकल सृष्टि पर राखु निगाहू ॥ 145 ॥
हलकारा तव कहे विचारी ।
हमसे रार कीन्ह इन भारी ॥ 146 ॥
तब कहे शाह, कौन तुम भाई ।
आपन भेद कहो समुझाई ॥ 147 ॥
तब कहेऊँ आपन नाम तुरन्ता ।
शिवनारायण कहें हम सन्ता ॥ 148 ॥
भावार्थ- दूत के साथ श्री शिवनारायण जी महाराज मोहम्मदशाह के पास गये । और उनके सम्मुख अपना प्रजा के रूप में परिचय दिया । तब शाह मोहम्मद ने उनसे सवाल किया कि उन्होंने अभी तक राज्य कर क्यों नहीं अदा किया। तब श्री स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने उत्तर दिया कि ईश्वर और राजा (खुदा और बादशाह) एक ही स्तर पर माने जाते हैं । उन्हें छोटे बड़े जितने भी इस सन्सार में हैं या उनके राज्य में हैं उनपर समभाव से प्रेम रखकर व्यवहार करना चाहिये । स्वामी जी को इस प्रकार तर्क उपस्थित करते देख दूत ने शिकायत की कि जहाँपनाह इसी प्रकार की बहस यह शख्स मुझसे भी करता चला आया है। अब शाह के कान खड़े हुये। उन्होंने दुबारा प्रश्न किया कि तुम साधारण ( मामूली ) व्यक्ति नहीं मालूम होते अपना भेद ठीक ठीक बयान करो कि तुम हो कौन ? तब स्वामी जी ने तुरन्त अपना नाम शिवनारायण और अपना धर्म सन्त बतलाया ।
दोहा - सन्त का नाम ही मूल है,
सब नामन में नाम ।
दुःख हरण सतगुरु हुये,
पूरण करिहैं सब काम ॥ 26॥
चौपाई -
मोहम्मद शाह तुमहु होऊ सन्ता ।
सन्त देश के सुनहु निज मन्ता ॥ 149 ॥
शाह तब हँसा ठठाई ।
सुनके यहां सन्त सव पीसत आहीं ॥ 150 ॥
तुम जाँत अब पीसहु जाई ।
तब तुम पूरे सन्त कहाई ॥ 151 ॥
वारहु भेष पीसई बन्दीखाना ।
तुमहु पीसहू सन्त सुजाना ॥ 152 ॥
भावार्थ - श्री स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने शाह मोहम्मद को बतलाया कि सन्त का नाम ही गुरू सन्तपती भग वान का वास्तविक नाम है जिस पर विश्वास करने से समस्त कार्य पूर्ण होते हैं । और सारे दुःखों का नाश हो जाता है इस कारण दुखहरण नाम से ईश्वर की बन्दना करनी चाहिये । हे बादशाह ! मैं तुम्हें नेक सलाह देता हूँ कि तुम इस सन्त पन्य पर विश्वास लाकर इसके अनुयायी बनजाओ ।
इस प्रकार की शिक्षा सुनकर बादशाह ठहाका मार कर हँसा । और कहने लगा कि तुम्हारे ऐसे कितने ही सन्त हमारे यहाँ जेलखाने में चक्की पीस रहे हैं। तुम भी चक्की पीसकर सन्त की पदवी यथार्थ करो। क्योंकि वारहो भेष के सन्त लोग चक्की पीसते हुये अपने को सन्त प्रमाणित कर रहे हैं।
दोहा -इतने जाँत पिसावहू,
अन्न देहु दस सेर ।
सन्तपती अब देखहू,
काहे करत अवेर ॥ 27 ॥
चौपाई -
शिवनारायण के लै गयऊ ।
जाँत पास पहुँचावत भयऊ ॥ 152 ॥
बारहो भेष पीसत तेहि ठाई ।
शिवनारायण रहे मुसकाई ॥ 154 ॥
काहे सन्तो रहेऊ भुलाई ।
कण्ठी मालो झूठे लगाई ॥ 155 ॥
दुःखहरण से ध्यान लगावो ।
सन्तपती निश्चय मन लावो ॥ 156 ॥
भावार्थ- इतना कह कर बादशाह ने हुक्म दिया कि इनको भी लेजाकर दस सेर अन्न देकर चक्की पीसने को दो अब हम देखेंगे कि इनके सन्तपती इनकी क्या मदद करते हैं । इस काम में देरी मत करो ।
इतना सुनते ही दूत स्वामी शिवनारायण जी को लेकर जेल- खाने पहुचा जहाँ बारहो भेष के सन्त साधू लोग चक्की पीस रहे थे । यह दृश्य देखकर स्वामी शिवनारायण को उनकी दय- नीय दशा पर तरस आया तथा उनकी अज्ञानता पर हंसी भी आई । उन्होंने सन्तों को सम्बोधन करके कहा कि आप लोगों ने व्यर्थ में कण्ठी माला पहन कर सन्त होने का ढोंग रच रक्खा है । यदि आप लोग वास्तव में सन्त हैं तो उस पारब्रह्म परमात्मा से ध्यान लगावो जो अपने भक्तों के समस्त दुःख हरने वाले हैं तो तुम निश्चय ही विश्वास करलो कि वे तुम्हारे दुख का निवारण अवश्य करेंगे ।
दोहा -सकल छोड़ि देहु जाँत को,
जपो सन्त पती नाम ।
दुःख हरण दुःख काटि हैं,
सव पूरण होई हैं काम ॥ 28 ॥
चौपाई -
जाँत छाँड़ सब ध्यान लगाई ।
सन्तपतो तब भये सहाई ॥ 157 ॥
जाँत चलत आपुहि आप ।
सकल भेष के कटे सन्ताप ॥ 158 ॥
दोहा - प्यादा पहुँचे शाह ढिग,
वचन कीन्ह प्रकाश ।
जाँत चलत है आप ते,
मानो शाह विश्वास ॥ 29 ॥
चौपाई -
सुनि के शाह गये तेहि ठाँई ।
चलत जाँत देखि रहे लजाई ॥ 159 ॥
सब भेषन को एक पाँति बिठाये ।
तब शाह भोजन मंगवाये ॥ 160 ॥
सब के आगे भोजन आवा ।
शिवनारायण फेरि पठावा ॥ 161 ॥
भावार्थ- इतना कह कर स्वामी शिवनारायण महाराज ने आदेश दिया कि आप लोग चक्कियों को छोड़ कर सन्तपती भग- वान में ध्यान लगाओ । वे ही आप लोगों के सब दुःखों का नाश करके समस्त कार्य को पूरण करेंगे। सन्त मण्डली स्वामी जी के इस ओजस्वी भाषण उपदेश तथा आदेश से बड़ी प्रभावित हुई । सबों ने अपनी अपनी चक्की छोड़ कर सन्तपती के चरणों में ध्यान लगाया। उन सब की पुकार दुखहरण भगवान ने सुनला । फलस्वरूप समस्त चक्कियाँ आपुहि आप चलने लगीं ।
यह चमत्कार देख कर जेल का रखवाला चकित हो उठा वह भाग कर बादशाह के पास पहुंचा और हाथ जोड कर विनय करने लगा कि जहाँपनाह आप यकीन करें कि इस नये बन्दी की सलाह मानकर सब बन्दियो ने चक्की चलाना छोड़ दिया फिर भी चक्कियां आप से आप चल रही हैं।बादशाह को यकीन न आया। परन्तु जब खुद जाकर देखा तो चक्कियां आप से आप चल रही थीं। तो उसे अपनी करनी पर बडी आत्मग्लानि हुई। उसने स्वामी शिवनारायण जी महा राज से मांफी मांगी। सब सन्त मण्डली को जेलखाने से निकाल कर एक पांति में बैठाया और उनके लिये भोजन मंगवाया । चूंकि भोजन सात्विक न था इस लिये स्वामी शिवनारायण जी ने उसे लौटाल दिया ।
दोहा - यह भोजन सब काग के,
सन्त के भोजन नाहि ।
सन्त हन्स एक जानहू,
मोती भोजन आहि ॥ 30 ॥
चौपाई -
सुनि के शाह हलकारा बुलाया ॥
भरिके थाल मोतो मंगाया ॥ 162 ॥
तबहिं मन में कीन्ह ध्याना ॥
मोती भोजन केहि विधि पाना ॥ 163 ॥
थाल के ऊपर परदा डाला ।
मोती भये गंगाजल धारा ॥ 164 ॥
इच्छा भरि सब भोजन कीन्हा ।
मोतिन थार फिर वैसेही भर दीन्हा ॥ 165 ॥
भावार्थ- स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने कहा कि यह तामसी भोजन साधु सन्तों के लिये नहीं होता यह तो राक्षसी भोजन है | सम्त तो हन्स के समान हैं जो मोती चुनते हैं । बादशाह इस व्यंग को सुन कर अज्ञानवश फिर क्रोधित हो उठा । उसने नौकर को बुलाकर मोतियों से थाल भर लाने को कहा । इस प्रकार दुबारा परीक्षा लेने की उसकी मनोवृति हो उठी ।
जब मोतियों से भरा थाल स्वामी जी के सामने आया तो स्वामी जी के मन में दुविधा उठी कि मैंने तो हन्स और मोती का केवल उदाहरण ही दिया था। परन्तु बादशाह उसे सत्य मान कर अब मेरे सामने मोती रख दिये हैं इन्हें कैसे पान किया जावे ? परन्तु उनको अपने गुरू सन्तपती पर अटल विश्वास था । उन्होंने थाल को रूमाल से ढक दिया और सन्तपती ही का स्मरण किया । थाल के समस्त मोती जिस प्रकार अनेक प्रकार की धाराओं से मिलकर गंगाजल की धारा पवित्र हो जाती है उसी प्रकार अनेक प्रकार सुन्दर स्वादिष्ट भोजन में परिवर्तित हो गये । सब सन्तों ने अपने मन चाहे स्वाद के अनुसार इच्छा और पेट भर भोजन कर लिया। तब स्वामी ने फिर थाल पर रूमाल डाल कर सन्तपती भगवान का स्मरण किया तो थाल में मोती ज्यों के त्यों भर गये ।
चौपाई -
तबहिं शाह निश्चय मन लावा ।
शिवनारायण को शीश नवावा ॥ 166 ॥
अब मोहि राम नाम गुरू दीजै ।
दास मोहिं करि लीजै ॥ 167 ॥
सम्वत सत्तरह सौ नवासी रहेऊ ।
मोहम्मद शाह गुरुमुख तब भयऊ ॥ 168 ॥
तबही शाह को शब्द सुनाया ।
मोहर लेकै पन्थ चलाया ॥ 169 ॥
हीरा मोतिन से गुरू-पूजन कीन्हा ।
शाह मोहम्मद स्तुति कीन्हा ॥ 170 ॥
जाव भेष अब पन्थ चलावो ।
सन्त देश को खबर सुनावो ॥ 171 ॥
सुनिके भेष परतीत बढाई ।
सकल भेष चले हरषाई ॥ 172 ॥
शिवनारायण कहा बुझाई |
यहि बिधि शाह को शब्द सुनाई ॥ 173 ॥
+++ अब इस चमत्कार को देख कर शाह मोहम्मद को भली प्रकार विश्वास हो गया कि ये अलौकिक पुरुष हैं तब वह स्वामी शिवनारायण जी महाराज के चरणों पर गिर गया।और अपने को चेला बनाने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार सम्वत सत्तरह सौ नवासी में श्री स्वामी शिवनारायण महाराज ने दिल्ली के सुल्तान शाह मोहम्मद को शिष्य बनाया बादशाह ने होरा मोतियों से भरे थालों द्वारा गुरू की चरण-पूजा करते हुये प्रार्थना की कि हे गुरू जिस प्रकार हुजूर ने मुझे बन्दा बनाके नसीहत दी है। उसी प्रकार मेरी रियाया को भी सन्तों का संदेश सुनाइये | मैं आपको अपनी मोहर शुदा फरमान देता हूँ कि आप बिना रोक टोक के सन्त मजहब का प्रचार करें। इतना सुन कर सब भेष के साधु सन्त धन्य धन्य करते हुये अपनी सह- मति प्रकट की और खुशी खुशी अपने अपने स्थान चले गये ।
दोहा - एक सौ एक की उमर में,
पिता गये स्वर्गधाम ।
तब हम सोलह वरस के,
जपत रहे गुरु नाम ॥ 31 ॥
चौपाई -
सम्वत सतरह सौ नवासी रहेऊ ।
सन्तदेश पिता तब गयेऊ ॥ 174 ॥
रामनाथ तुम ध्यान लगावो ।
तुमहू राम नाम गुण गावो ॥ 175 ॥
रामनाथ तुम जन्मे आई ।
क्षत्री के पुत्र कहाई ॥ 176 ॥
लखनराम क्षत्री घर आवा ।
सदाशिव ब्राह्मण कहावा ॥ 177 ॥
लेखराज तो भाट कहाई ।
भाट के घर युवराजहु आई ॥ 178 ॥
तुन पाँचो सुनौ सन्त सन्देशा |
फैलावो जग में उपदेशा ॥ 179 ॥
रामनाथ की पहिली सेवकाई ।
दुसरे लखनराम मोहिं पाई ॥ 180 ॥
भावार्थ - इसी वर्ष यानी सतरह सौ नवासी सम्बत में स्वामी जी के पिता श्री वाघराय जी का स्वर्गवास एक सो एक की उम्र में होगया । उस समय स्वामी जी की उम्र सोलह वर्ष की थी ।रामनाथ अब तुम भी ध्यान लगाकर ईश्वर का गुण गान करो । रामनाथ और लखनराम क्षत्री कुल में जन्में थे, सदाशिव ब्राह्मण कुल में युवराज और लेखराज ने भाट के घर में जन्म लिया था तुम मेरे पाँचो शिष्य इस सन्त धर्म का प्रचार सन्सार में करो । पहिले रामनाथ शिष्य हुये । इसके पश्चात लखनराम ने दीक्षा ली ।
दोहा - तिसरे भये सदाशिव,
चौथे भये युवराज ।
सबहिं चेता येऊ नाम का,
पाँचवे भये लेखराज ॥ 32 ॥
चौपाई -
पाँचो सेवक करे सेवकाई ।
सेवा करें वहु प्रीति लगाई ॥ 181 ॥
शिवनारायण करत बखाना ।
सुनहु शिष्य तुम धरके ध्याना ॥ 182 ॥
पाँचो हो अङ्ग हमारा |
चोन्ह लेहु तुम यहि सन्सारा ॥ 183॥
तुम लखन राम संग जात मैं रहेऊ ।
जगन्नाथ के दर्शन करेऊ ॥ 184॥
बीच डगर पीपर को छाँही ।
ठाड़ सदाशिव तेहि के माँही ॥ 185॥
तहाँ जाय सुख आनन्द पाई ।
देखि सदाशिव तहाँ चलि आई ॥ 186 ॥
भावार्थ- इसके पश्चात तीसरे शिष्य सदाशिव हुये चौथे युवराज तथा पाँचवे शिष्य लेखराज हुये । पाँचों शिष्यों ने बड़े प्रेम प्रतीत से गुरू की सेवा की। स्वामी शिव- नारायण जी महाराज अपने सब शिष्यों को एक समान प्यार करते थे ।एक समय की बात है कि स्वामी शिवनारायण जी महाराज, श्री लखनराम को साथ लिये सन्सार भ्रमण के हेतु जगन्नाथ पुरी जा रहे थे। तो रास्ते में पीपल के वृक्ष की छाया में सदाशिव को खड़े हुये देखा । ये दोनों साहबान भी उसी छाया में विश्राम कर लेने के हेतु ठहर गये । तो सदाशिव इनके पास आगये ।
दोहा - सदाशिव को देखि के,
हृदय बीच लखे सोय ।
मन ही मन जान लीन,
यही सदाशिव होय ॥ 33 ॥
चौपाई -
कहे सदाशिव कहाँ ते आये ।
नाम आपन कहो बुझाये ॥ 187 ॥
शिवनारायण नाम सुनाई।
जल की त्रिखा लागि मोहिं भाई ॥ 188 ॥
कहैं सदाशिव पीयहु नीरा ।
ब्राह्मण कुल हम धरा शरीरा ॥ 189 ॥
भावार्थ-- जब स्वामी शिवनारायण जी ने सदाशिव को देखा तो देखते हो ताड़ गये कि यही सदाशिव है। तब तक सदाशिव ने स्वामी जी महाराज से परिचय पूछा। स्वामी जो अपना परिचय देने के पश्चात सदाशिव से प्यासे होने के कारण जल पीने की इच्छा प्रकट की । सदाशिव ने कहा कि हम ब्राह्मण जाति के हैं । आप को जल पिला सकते हैं ।
दोहा - सुनो सदाशिव वचन यह,
हृदय धरि धीर ।
गुरुमुख हौ कि नहीं,
तब पियव हम नीर ॥ 34 ॥
चौपाई -
सुनिके वोले सदाशिव तबहीं।
सन्त के पन्थ जोहत हम रहई ॥ 190 ॥
हृदय वीच होय सञ्चारा ।
कतहुँ संत लीन अवतारा ॥ 191 ॥
शिवनारायण कहैं विचारा |
वाघराय घर जन्म हमारा ॥ 192 ॥
तबहिं सदाशिव शोश नवाई ।
धन्य भाग्य दर्शन पाई ॥ 193 ॥
कहें सदाशिव कर जोरी ।
स्वामी इच्छा पुरवहु मोरी ॥ 194 ॥
अब मोहिं शब्द सुनावहु गोसाई ।
जेहिते इच्छा पूरण होई ॥ 195 ॥
लोटा भर जल मंगवाई।
सदाशिव के शब्द सुनाई ॥ 196 ॥
दोहा -
यहि विधि सेवक कीन्ह,
दीन्ह सन्त उपदेश ।
जो जन गहे गुण जानिके,
छूटत सकल कलेश ॥ 35 ॥
भावार्थ- सदाशिव के यह वचन सुनकर श्री स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने कहा कि सदाशिव हृदय धारण करके में धर्य यह बतलावों कि तुमने गुरू दीक्षा ग्रहण की है। या नहीं। इसका उचित उत्तर पाकर ही हम जल पीना स्वीकार करेंगे ।
सदाशिव झट बात को ताड़ गये उन्होंने बड़े अनुनय बिनय के साथ निवेदन किया कि हम अभी तक गुरू की खोज में ही भटक रहे हैं । मेरे हृदय में यह बात उठ रही थी कि सन्तावतार हो चुका है ।
तब श्री स्वामी शिवनारायण जी महाराज ने बतलाया कि वाघराय के घर में हमारा जन्म हो चुका है और मेरा नामशिवनारायण है। इतना सुनते ही सदाशिव साहब श्री शिव- नारायण जी महाराज के चरणों में लोट गये और कहा कि मैं बड़ा भाग्यवान हैं कि मुझे गुरू के दर्शन हो गये । हे स्वामी जी अब मुझ पर दया कीजिये मुझे गुरू दीक्षा देकर मेरी अभिलाषा को पूर्ण कीजिये । तब स्वामी जी लोटा भरके जल मंगवाकर सदाशिव को शिष्य बनाया । इस प्रकार जो व्यक्ति सच्चे गुरू का खोज करता है । उसे गुरू अवश्य मिल जाते हैं । और उनके समस्त भव बाधायें दुःख कष्ट समाप्त हो जाते हैं
दोहा -
कहु स्वामी समुझाय के,
सब भेषन को व्यवहार ।
कैस जग समझायहु,
कैसे कीन उद्धार ॥ 36 ॥
चौपाई -
जो पूछेऊ सब कछु भाखा ।
अब सुनहु अगली साखा ॥ 197 ॥
जवहो बसन्त गयो नियराई ।
कहों सकल सन्सार बुझाई ॥ 198 ॥
नगर अयोध्या राज्य एक आहो ॥
जहां जयमलसिंह राज्य कराही ॥ 199 ॥
राजा जयनल एक यज्ञ करावें ।
सकल भेप के नेवति बोलावें ॥ 200 ॥
सकल भेष मिलि दुरनति ठाना ।
शिवनारायण को नहिं माना ॥ 201 ॥
सब साधु मिलि राजहि समझावें ।
शिवनारायण को नाहिं बुलावें ॥ 202॥
भावार्थ - इत - इतना सुनकर यो रामनाथ ने कहा कि स्वामी सत्र मत पत्य वालों एवं सन्सार वालों को समझाकरआपने किस प्रकार उनका उद्धार किया । सो भलीप्रकार समझा कर मुझे बतलाये तब स्वामी शिवनारायण महाराज ने कहा कि सब कुछ तो तुझे बतला दिया अब जो तुम मुझसे पूछते ही हो तो एक घटना और में तुमको बतलाता हूँ। कि बसन्त का पर्व नजदीक आ गया था। तब अयोध्या नगर के राजा जयमल- सिंह ने बसन्त के दिन एक यज्ञ करने का निश्चय किया । और समस्त भेष के साधु महात्माओं को निमन्णत्र दिया । सब साधु महात्मा लोग शिवनारायण साहेब से दिल्ली और काशी में लज्जित हो चुके थे। इसलिये वे द्व ेष रखते थे कि यदि शिव- नारायण जी यहाँ आजायेंगे तो उनका ही आदर सत्कार मान मर्यादा होगा । हम लोग उनके सामने पूज्यनीय न हो पायेंगे । इस लिये सब ने मिलकर राजा को सलाह दी कि शिवनारायण कोई माननीय सन्त साधू नहीं है उन्हें निमन्त्रण न दिया जावे 1 राजा जयमल सिंह उनकी राय से सहमत हो गये । और उन्होंने शिवनारायण जी महाराज को निमन्त्रण नहीं दिया ।
चौराई-
तहाँ आपुहिं आपु रचो उपाई । महा अघोरी रूप वनाई ॥ 203 ॥
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