Submarine Cable

Submarine communications cable

एक पनडुब्बी संचार केबल एक केबल है जो समुद्र के चारों तरफ दूरसंचार संकेतों को ले जाने के लिए भूमि आधारित स्टेशनों के बीच समुद्र के बिस्तर पर रखी जाती है। पहली पनडुब्बी संचार केबल, 1850 के दशक में रखी गई, टेलीग्राफी यातायात किया। तारों के बाद की पीढ़ियों को टेलीफोन यातायात, फिर डेटा संचार यातायात। आधुनिक केबल डिजिटल डेटा ले जाने के लिए ऑप्टिकल फाइबर तकनीक का उपयोग करते हैं, जिसमें टेलिफोन, इंटरनेट और निजी डेटा ट्रैफ़िक शामिल है।


आधुनिक केबल आमतौर पर व्यास में लगभग 1 इंच (25 मिमी) है और करीब-करीब 2.5 टन प्रति मील (1.4 टन प्रति किमी) का वजन गहरा समुद्र के हिस्सों के लिए होता है, जो कि अधिकांश भाग होता है, हालांकि बड़े और भारी केबलों का उपयोग उथले- तट के पास पानी के वर्ग। [1] [2] ऑस्ट्रेलियाई ओवरलैंड टेलीग्राफ लाइन को 1872 में एडिलेड, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया से जोड़ने और बाकी के बाकी हिस्सों में जोड़ने से पूर्व ऑस्ट्रेलियाई ओवरलैंड टेलीग्राफ लाइन की पूर्ति के अनुमान में 1871 में डार्विन, नॉर्दर्न टेरिटरी, ऑस्ट्रेलिया से जुड़ा हुआ था, जब अंटार्कटिका को छोड़कर सभी दुनिया के महाद्वीपों को जोड़कर पनडुब्बी केबलों का इस्तेमाल किया। [ 3] 

यह जाल पूरी दुनिया को एक-दूसरे से कनेक्ट करता है। नीचे दिए गए मैप के जरिए आप समझ सकते हैं कि दुनिया समुद्र के नीचे बिछे केबल्स के जरिए कैसे वर्चुअल कनेक्शन स्थापित करती है। इस अंडरग्राउंड दुनिया के बारे में कुछ बातें।


• 99% दुनिया में कम्यूनिकेशन और डाटा ट्रांसफर समुद्र के नीचे बिछे कम्यूनिकेशन केबल्स के जरिए होता है। इन केबल्स को सबमरीन कम्यूनिकेशन केबल कहते हैं।


• पूरी दुनिया में इस तरह के 331 कम्यूनिकेशन केबल हैं। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक जैसी बड़ी इंटरनेट कंपनियां इन्हें बिछाती हैं।


• सैटलाइट सिस्टम की तुलना सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल डाटा ट्रांसफर के लिए काफी सस्ते पड़ते हैं। इनका नेटवर्क भी ज्यादा फास्ट होता है।


• 100-200 किमी. केबल ही आमतौर पर एक दिन में बिछाए जाते हैं। इनकी चौड़ाई 17 मिलीमीटर के आसपास होती है।


• ये केबल हजारों किलोमीटर लंबे होते हैं और एवरेस्ट जितनी गहराई में बिछे होते हैं। इन्हें एक खास नाव- ‘केबल लेयर्स’ के जरिए समुद्र की सतह पर बिछाया जाता है।

• हाई प्रेशर वाटर जेट तकनीक के जरिए इन केबल को समुद्र की सतह के अंदर गाड़ दिया जाता है। ताकि कोई समुद्री जीव या सबमरीन इन्हें नुकसान न पहुंचा सके।


• कई बार समुद्री शार्कों ने इन केबल्स को चबाने की कोशिश की है। इसके बाद केबल्स के ऊपर शार्क-प्रूफ वायर रैपर लगाना शुरू किया गया।


• 2013 में कुछ शरारती तैराकों ने यूरोप और अमेरिका से इजिप्ट पहुंचने वाले चार केबल्स को काट दिया था। इससे पूरे इजिप्ट की इंटरनेट स्पीड 60 फीसदी धीमी हो गई थी।


• केबल कहां से कटा इसका पता लगाने के लिए रोबॉट्स को भेजा जाता है। एक केबल की जीवनकाल 25 साल होता है।


• सिंगापुर सबमरीन केबल्स का जंक्शन कहा जाता है। यहां से 16 केबल गुजरते हैं।


• 1854 में पहली बार समुद्र के नीचे केबल बिछाए गए थे। तब न्यूफाउंडलैंड और आयरलैंड के बीच एक टेलिग्राफ केबल बिछाया गया था।

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आसियान के साथ पहला समुद्री केबल बिछा रहा है चीन

बीजिंग : चीन पहला अंतरराष्ट्रीय समुद्री केबल बिछा रहा है जो चीन-आसियान देशों के बीच सूचनाओं व डेटा के प्रवाह के काम आएगा। सरकारी कंपनी चाइना यूनिकॉम इसके लिए म्यांमार की दूरसंचार कंपनियों के साथ सहयोग कर रही है। चाइना यूनिकॉम की पैतृक चाइना यूनाइटेड टेलीकम्युनिकेशंस कोर्प के उप महाप्रबंधक च्यांग चेंगक्सिन ने यह जानकारी दी। शिन्हुआ संवाद समिति के अनुसार समुद्र के भीतर बिछाया जा रहा यह केबल चीन व दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन  आसियान देशों के बीच सूचनाओं व डेटा का प्रवाह करेगा। उन्हाेंने हालांकि इस परियोजना का ब्यौरा नहीं दिया। 


          केबल तारों को किन चीज़ों से ख़तरा? 

इन केबल का इतिहास पुराना है. 1850 के दशक में बिछाई गई पहली सबमरीन कम्युनिकेशन केबल टेलीग्राफ़िक ट्रैफ़िक के लिए इस्तेमाल होती थी जबकि आधुनिक केबल, डिजिटल डाटा के लिए ऑप्टिकल फ़ाइबर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती है. इनमें टेलीफ़ोन, इंटरनेट और प्राइवेट डाटा ट्रैफ़िक शामिल है.

आधुनिक केबल की बात करें, तो इनकी मोटाई क़रीब 25 मिलीमीटर और वज़न 1.4 किलोग्राम प्रति मीटर होता है. किनारे पर छिछले पानी के लिए ज़्यादा मोटाई वाली केबल इस्तेमाल होती है. अंटार्कटिका को छोड़कर सारे महाद्वीप इन केबल से जुड़े हैं.

लंबाई की बात करें, तो ये लाखों किलोमीटर में है और इनकी गहराई कई मीटर है. दुनिया कम्युनिकेशन, ख़ास तौर से इंटरनेट के मामले में इन केबल पर निर्भर करती है और इन तारों को नुकसान पहुंचने के कई कारण हो सकते हैं.

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चेन्नई के तूफ़ान जैसे कुदरती हादसे तो अपनी जगह हैं, लेकिन अतीत में शार्क मछलियों से लेकर समुद्र में निर्माण संबंधी उपकरण और जहाज़ों के लंगर भी इन तारों के लिए ख़तरा पैदा कर चुके हैं.

इन ख़तरों के बावजूद सबमरीन केबल, सैटेलाइट इस्तेमाल करने की तुलना में कहीं ज़्यादा सस्ती हैं. ये सही है कि सैटेलाइट के ज़रिए दूर-दराज़ के इलाकों तक पहुंचा जा सकता है, लेकिन दुनिया भर के देश अब नए फ़ाइबर-ऑप्टिक केबल बिछाने में निवेश कर रहे हैं.

मौजूदा केबल नेटवर्क को मज़बूत बनाने के लिए बैकअप के लिए केबल भी बिछाई जा रही हैं. साल 2011 में जापान में आई सुनामी ने केबल तारों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया था, लेकिन मज़बूत बैकअप के बूते वो ऑनलाइन रहने में कामयाब रहा.


अब बात करें भारत की. सबमरीन केबल नेटवर्क के मुताबिक़ देश में 10 सबमरीन केबल लैंडिंग स्टेशन हैं, जिनमें से चार मुंबई, तीन चेन्नई, एक कोच्चि, एक तुतीकोरिन और एक दिघा में है.

इनमें अगर भारत के दो प्रमुख अंतरराष्ट्रीय इंटरनेट गेटवे की बात करें, तो इस लिहाज़ से मुंबई और चेन्नई काफ़ी अहम हैं. और चेन्नई के तूफ़ान ने समंदर में ऑप्टिक फ़ाइबर को नुकसान पहुंचाकर साउदर्न इंडियन गेटवे को प्रभावित किया है.

कई अहम तारों से जुड़ी चेन्नई

सबमरीन केबल मैप के अनुसार अलग जगहों से अलग अलग फ़ासले का केबल नेटवर्क जुड़ा है.

चेन्नई बे ऑफ़ बंगाल गेटवे (8,100 किलोमीटर), सीमीवी-4 (20 हज़ार किलोमीटर), टाटा टीजीएन-टाटा इंडिकॉम (3175 किलोमीटर) और आई2आई केबल नेटवर्क (3200 किलोमीटर) जैसे केबल नेटवर्क से जुड़ा है. ये नेटवर्क उसे यूरोप और दक्षिण एशिया से जोड़ते हैं.


इसके अलावा मुंबई को जोड़ने वाले अहम केबल नेटवर्क का नाम है यूरोपा इंडिया गेटवे, जिसकी लंबाई क़रीब 15 हज़ार किलोमीटर है.

मोबाइल नेटवर्क कंपनियों के मुताबिक उनके इंजीनियर केबल में आई ख़ामियों को दूर करने की कोशिश में जुटे हैं और जल्द ही इस समस्या को दूर कर दिया जाएगा.

लेकिन जब तक वरदा की चपेट में आई केबल ठीक नहीं होतीं, आपका इंटरनेट हौले-हौले ही चलेगा.