हिंदी की कुछ संज्ञाएँ – परिभाषाओं एवं उदाहरणों के साथ : ३१ - ४० 

३१) नियम / कानून को ताक पर रखना = कानून को बेकार समझ कर अलग करना / नियमों का पालन ना करना | जैसे, “ https://youtu.be/LtvxeE0v1ag

३२) आधुनिकीकरण = आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का समाज मे प्रचार एवं प्रसार होता है। जिससे समाज मे व्यक्तियों के स्तर मे सुधार होता है और समाज अच्छाई की तरफ बढ़ता है। जैसे, “अपने बुलंद हौसले, अदम्य साहस, पराक्रम व शौर्य के बलबूते सम्पूर्ण विश्व में 'भारतीय वायुसेना' के जांब़ाजों की अलग ही धाक है, हमारी वायुसेना के जांब़ाज बेहद विकट से विकट व बेहद विषम परिस्थितियों के बीच एक क्षण में ही दुश्मन को आश्चर्यचकित करके रणभूमि में धूल चटाने में माहिर हैं। भारतीय वायुसेना का स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 8 अक्तूबर को वायुसेना के जांब़ाजों के द्वारा बहुत साहसिक कार्यक्रमों का आयोजन करके बेहद गरिमापूर्ण गौरवशाली माहौल में धूमधाम से हर वर्ष मनाया जाता है। 'भारतीय वायुसेना' को दुनिया की चौथी सबसे बड़ी वायुसेना माना जाता है। वैसे 'भारतीय वायुसेना' को देश की सुरक्षा में लगी भारतीय सशस्त्र सेनाओं का सबसे नया अंग माना जाता है।

8 अक्तूबर 1932 को तत्कालीन भारतीय विधायिका द्वारा 'भारतीय वायुसेना' विधेयक पारित करने के साथ ही वायुसेना अस्तित्व में आई। पुराने और घिस चुके वायुयानों व उपकरणों को वायुसेना से हटा दिया गया और उन्हें धीरे-धीरे बेहद अत्याधुनिक व बेहतरीन वायुयानों व उपकरणों से बदला गया। कुछ वर्ष पूर्व शामिल हुआ स्वदेशी तेजस विमान व अभी हाल ही में वायु सेना में शामिल हुआ राफेल विमान इसके आधुनिकीकरण का सशक्त उदाहरण हैं।

हमारी गौरवशाली 'भारतीय वायुसेना' का ध्येय वाक्य संस्कृत में ‘नभस्पर्श दीप्तम्’ और अंग्रेजी में ‘टच दी स्काई विद ग्लोरी’ है। जबकि वायुसेना रक्षा का ध्येय वाक्य संस्कृत में ‘आकाशे शुत्रन् जहि’ और अंग्रेजी में ‘किल दी इनेमी इन दी स्काई’ है। अपने इन ध्येय वाक्यों के जबरदस्त उद्घोष के साथ ही हमारी वायुसेना के साहसी जांबाज दुश्मन पर साक्षात मौत बनकर टूट पड़ते हैं और युद्ध में अदम्य साहस पराक्रम का परिचय देकर विजय की नित नई शौर्यगाथा लिखकर देश के आम जनमानस को हमेशा गर्व करने का मौका बार-बार प्रदान करते हैं। 'भारतीय वायुसेना' के जांबाज रणबांकुरों ने अपने साहस शौर्य और पराक्रम के बल पर वीरता पदकों के मामले में भी अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। आज 'परमवीर चक्र', 'महावीर चक्र', 'वीर चक्र', 'अशोक चक्र', 'कीर्ति चक्र', 'शौर्य चक्र' जैसे वीरता के सर्वोच्च सम्मान वायु सेना की शान को नये आयाम प्रदान कर रहे हैं। इसके अलावा हजारों जाब़ाज भारतीय वायु सैनिकों को उनकी अनूठी बहादुरी के लिए ‘वायुसेना मैडल', ‘एम. इन डी.’, ‘परम विशिष्ट सेवा मैडल’, ‘अति विशिष्ट सेवा मैडल’, ‘विशिष्ट सेवा मैडल’, ‘सर्वोत्तम युद्ध सेवा मैडल’, ‘उत्तम सेवा मैडल’, ‘युद्ध सेवा मैडल’ आदि से पुरस्कृत किया जा चुका है।

'भारतीय वायुसेना' के साहसी जांब़ाजों ने युद्ध के समय रणभूमि में अपना अतुलनीय योगदान देने के साथ-साथ दुनिया में शांति बहाली के अभियान में भी हमेशा अपना बेहद सराहनीय अनमोल योगदान दिया। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों व अन्य प्रकार के सभी मिशनों में तो 'भारतीय वायुसेना' का हमेशा उत्कृष्ट प्रदर्शन रहा है। जिसके चलते सम्पूर्ण विश्व 'भारतीय वायुसेना' की कार्यप्रणाली व वीरता का बेहद कायल है। जब भी देश में कोई भी प्राकृतिक आपदा आई है चाहे वो केरल की बाढ़ हो या उत्तराखंड त्रासदी हो, इस दौरान वायुसेना के जांब़ाजों ने हमेशा उच्च कोटि का प्रदर्शन करके लोगों की जान बचाने का कार्य किया है। हमेशा वायुसेना के जांब़ाजों ने दुर्गम जगह पर राहत सामग्री पहुंचा कर लोगों के जीवन को सुरक्षित रखने में अपना अनमोल योगदान दिया है। इसके लिए हमारी वीर वायुसेना की जितनी सराहना की जाए वह बेहद कम है।

आज हमारी 'भारतीय वायुसेना' तेजी से समयानुसार अपना आधुनिकीकरण करके विश्व की सर्वोच्च श्रेष्ठ सेनाओं में से एक बन गयी है। आज अपने वीर शौर्यवान महावीर योद्धाओं के बलबूते और देश सेवा एवं देश सुरक्षा का जज्बा लेकर वो सशक्त राष्ट्र प्रहरी बन गयी है। हमारे देश की शान 'भारतीय वायुसेना' की पहचान सम्पूर्ण विश्व में अदम्य साहस, विपरीत परिस्थितियों में कार्य करने की अद्भुत क्षमता, निड़रता, जांबाजी, जल्द तैयारी की क्षमता, आक्रामक शैली, पलक झपकते ही शत्रुओं को मार गिराने की क्षमता एवं हमारे देश की नभ सीमा को सुरक्षित रखने की असाधारण क्षमता और अपनी उत्कृष्ट अनूठी सेवा एवं अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था करने वाली जांब़ाज वायुसेना के रूप में होती है। आज प्रत्येक देशभक्त देशवासी 'भारतीय वायुसेना' के जांब़ाजों को वायुसेना दिवस की बधाई दे रहा है और देश पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले वायुसेना के सभी वीर जांब़ाजों को दिल से कोटि-कोटि नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। https://www.prabhasakshi.com/currentaffairs/indian-air-force-day-2020

३३) उपलब्धि = (प्राप्त की हुई) सफलता या सिद्धि। जैसे, “सीताराम गोयल की सबसे प्रसिद्ध किताब शायद “हिन्दू टेम्पल्स – व्हाट हेप्पेनड टू देम” को कहा जा सकता है। 1990 में इसे उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित करने का प्रयास हुआ था। अगर “हिन्दू टेम्पल्स – व्हाट हेप्पेनड टू देम” को देखा जाए, तो इसका विषय वो हजारों मंदिर हैं, जो इस्लामिक जिहाद के दौरान भारत में तोड़ डाले गए। एक साथ इतने मंदिरों का प्रमाणिक दस्तावेज प्रस्तुत कर देना शायद सीताराम गोयल के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। ये पुस्तक आज भी प्रमाणों के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। सेकुलरिज्म और नरसंहारों को नकारने की तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की आदत को वो अपने दौर में आड़े हाथों लेते रहे। उनका जन्म 16 अक्टूबर 1921 को हुआ था और आज उनकी जन्मतिथि भी है। किस्मत से काफी कम लोग आज उन्हें याद करते नजर आए।

जो आज के दौर में भी हिन्दुओं के पक्ष से लिखते हैं, उन्हें अच्छी तरह अंदाजा होगा कि ये काम कितना मुश्किल है। प्रकाशकों का ना मिलना, सोशल मीडिया पर विरोध, ये सब मामूली बाते हैं। अक्सर संगठित गिरोहों के खिलाफ जाने पर मुक़दमे और मनगढ़ंत यौन शोषण जैसे आरोप भी झेलने पड़ सकते हैं। चरित्र हनन और आर्थिक नुकसान पहुँचाने की कोशिशें सबने देखी हैं। हाल ही में सच बोलने के कारण ‘इस्लामोफोबिया’ का आरोप लगा कर एक शेफ को नौकरी से निकलवाने के लिए गिरोहों का पूरा आंदोलन चलाना भी याद होगा। इसके अलावा भी कई बार मध्य-पूर्वी देशों में ऐसी बातों के लिए गिरफ़्तारी-नौकरी से निकाले जाने जैसी घटनाएँ होती रही हैं। ऐसे में 1990-2000 के दौर में आज से करीब दो दशक पहले जब ख़बरें इतनी तेजी से सफ़र नहीं करती थीं, तब कितनी मुश्किल से सीताराम गोयल टिके रहे होंगे, ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं।

बाकी जिन्हें आज के कोइनार्ड एल्स्ट और राजीव मल्होत्रा जैसे लेखक भी शुरूआती दौर का “बौद्धिक क्षत्रिय” मानते हैं, उन्हें उनकी आगे की पीढ़ी, यानी हम जैसे लोगों को भी एक बार नमन तो करना ही चाहिए! https://hindi.opindia.com/opinion/social-issues/sitaram-goel-a-hindu-writer-among-communist-gang/

३४) आत्म-निर्भरता = 1. आत्मावलंबन 2. आत्मविश्वास 3. अपने बूते पर जीवन-यापन करना। जैसे, “21वीं सदी में यदि भारत को पुनः एक वैश्विक शक्ति बनाना है तो हर क्षेत्र में हमें आत्म निर्भरता हासिल करना ज़रूरी है। आत्म निर्भरता का सामान्यतः शाब्दिक अर्थ यह लगाया जाता है कि देश अर्थ केंद्रित स्वतंत्रता हासिल कर ले। अर्थात्, सभी उत्पादों को हम हमारे देश में ही निर्मित करने लगें एवं आयात पर हमारी निर्भरता कम से कम हो जाए। परंतु, वास्तव में आत्म निर्भरता हासिल करने के मायने इस सामान्य शाब्दिक अर्थ से कहीं आगे है। दरअसल, भारत की संस्कृति और भारत के संस्कार उस आत्मनिर्भरता की बात करते हैं जिसकी भावना विश्व एक परिवार के रूप में रहती है। भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है तो आत्म केंद्रित आत्मनिर्भरता की वकालत नहीं करता बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख सहयोग और शांति की चिंता समाहित होती है। जो भारतीय संस्कृति, जीव मात्र का कल्याण चाहती हो, जो भारतीय संस्कृति पूरे विश्व को परिवार मानती हो, ऐसी सोच रखती हो, जो पृथ्वी को अपनी माँ मानती हो, वो भारतीय संस्कृति जब आत्मनिर्भर बनती है तो उससे एक सुखी विश्व की भावना भी बलवती होती है और इसमें विश्व की प्रगति भी समाहित रहती है। इसी कारण से आज विश्व के सामने भारत का मूल चिंतन आशा की एक किरण के रूप में नज़र आता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में आत्म निर्भरता केवल अर्थ केंद्रित नहीं होना है ब्लिक़ यह मानव केंद्रित भी होनी चाहिए। अर्थात्, इस धरा पर रहने वाला प्रत्येक प्राणी सुखी एवं प्रसन्न रहे यही हमारा अंतिम लक्ष्य भी है।

भारतीय संस्कृति में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद दोनों में समन्वय स्थापित करना सिखाया जाता है एवं व्यापार में भी आचार-विचार काभारतीय संस्कृति में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद दोनों में समन्वय स्थापित करना सिखाया जाता है एवं व्यापार में भी आचार-विचार का पालन किया जाता है। भारतीय जीवन पद्धति में मानवीय पहलुओं को प्राथमिकता दी जाती है। अतः आज देश में भारतीय जीवन पद्धति को पुनर्स्थापित करने की अत्यधिक आवश्यकता है। देश के आर्थिक विकास को केवल सकल घरेलू उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय से नहीं आँका जा सकता है बल्कि इसके आँकलन में रोज़गार के अवसरों में हो रही वृद्धि एवं नागरिकों में आनंद की मात्रा को भी शामिल किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आर्थिक विकास हेतु एक शुद्ध भारतीय मॉडल को विकसित किए जाने की आज एक महती आवश्यकता है। इस भारतीय मॉडल के अंतर्गत ग्रामीण इलाक़ों में निवास कर रहे लोगों को स्वावलंबी बनाया जाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। गाँव, जिले, प्रांत एवं देश को इसी क्रम में आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। साथ ही, भारतीय मॉडल में ऊर्जा दक्षता, पर्यावरण की अनुकूलता, प्रकृति से साथ तालमेल, विज्ञान का अधिकतम उपयोग, विकेंद्रीयकरण को बढ़ावा एवं रोज़गार के नए अवसरों का सृजन, आदि मानदंडो को शामिल करना होगा। सृष्टि ने जो नियम बनाए हैं उनका पालन करते हुए ही देश में आर्थिक विकास होना चाहिए। अतः आज भी देश की संस्कृति, जो इसका प्राण है, को अनदेखा करके यदि आर्थिक रूप से आगे बढ़ेंगे तो केवल शरीर ही आगे बढ़ेगा प्राण तो पीछे ही छूट जाएँगे। इसलिए भारत की जो अस्मिता, उसकी पहिचान है उसे साथ में लेकर ही आगे बढ़ने की ज़रूरत है।

आर्थिक विकास के इस भारतीय मॉडल में कुटीर उद्योग एवं सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को गाँव स्तर पर ही चालू करने की ज़रूरत है। इसके चलते इन गावों में निवास करने वाले लोगों को ग्रामीण स्तर पर ही रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे एवं गावों से लोगों के शहरों की ओर पलायन को रोका जा सकेगा। देश में अमूल डेयरी के सफलता की कहानी का भी एक सफल मॉडल के तौर पर यहाँ उदाहरण दिया जा सकता है। अमूल डेयरी आज 27 लाख लोगों को रोज़गार दे रही है। यह शुद्ध रूप से एक भारतीय मॉडल है। देश में आज एक अमूल डेयरी जैसे संस्थान की नहीं बल्कि इस तरह के हज़ारों संस्थानों की आवश्यकता है।

वास्तव में, कुटीर एवं लघु उद्योंगों के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने उत्पाद को बेचने की रहती है। इस समस्या का समाधान करने हेतु एक मॉडल विकसित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत लगभग 100 ग्रामों को शामिल कर एक क्लस्टर (इकाई) का गठन किया जाय। 100 ग्रामों की इस इकाई में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना की जाय एवं उत्पादित वस्तुओं को इन 100 ग्रामों में सबसे पहिले बेचा जाय। सरपंचो पर यह ज़िम्मेदारी डाली जाय कि वे इस प्रकार का माहौल पैदा करें कि इन ग्रामों में निवास कर रहे नागरिकों द्वारा इन कुटीर एवं लघु उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का ही उपयोग किया जाय ताकि इन उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं को आसानी से बेचा जा सके। तात्पर्य यह है कि स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्तुओं को स्थानीय स्तर पर ही बेचा जाना चाहिए। ग्रामीण स्तर पर इस प्रकार के उद्योगों में शामिल हो सकते हैं- हर्बल सामान जैसे साबुन, तेल आदि का निर्माण करने वाले उद्योग, चाकलेट का निर्माण करने वाले उद्योग, कुकी और बिस्कुट का निर्माण करने वाले उद्योग, देशी मक्खन, घी व पनीर का निर्माण करने वाले उद्योग, मोमबत्ती तथा अगरबत्ती का निर्माण करने वाले उद्योग, पीने की सोडा का निर्माण करने वाले उद्योग, फलों का गूदा निकालने वाले उद्योग, डिसपोज़ेबल कप-प्लेट का निर्माण करने वाले उद्योग, टोकरी का निर्माण करने वाले उद्योग, कपड़े व चमड़े के बैग का निर्माण करने वाले उद्योग, आदि इस तरह के सैंकड़ों प्रकार के लघु स्तर के उद्योग हो सकते है, जिनकी स्थापना ग्रामीण स्तर पर की जा सकती है। इस तरह के उद्योगों में अधिक राशि के निवेश की आवश्यकता भी नहीं होती है एवं घर के सदस्य ही मिलकर इस कार्य को आसानी सम्पादित कर सकते हैं। परंतु हाँ, उन 100 ग्रामों की इकाई में निवास कर रहे समस्त नागरिकों को उनके आसपास इन कुटीर एवं लघु उद्योग इकाईयों द्वारा निर्मित की जा रही वस्तुओं के उपयोग को प्राथमिकता ज़रूर देनी होगी। इससे इन उद्योगों की एक सबसे बड़ी समस्या अर्थात उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बेचने सम्बंधी समस्या का समाधान आसानी से किया जा सकेगा। देश में स्थापित की जाने वाली 100 ग्रामों की इकाईयों की आपस में प्रतिस्पर्धा भी करायी जा सकती है जिससे इन इकाइयों में अधिक से अधिक कुटीर एवं लघु उद्योग स्थापित किए जा सकें एवं अधिक से अधिक रोज़गार के अवसर निर्मित किए जा सकें। इन दोनों क्षेत्रों में राज्यवार सबसे अधिक अच्छा कार्य करने वाली इकाईयों को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्रदान किए जा सकते हैं। इस मॉडल की सफलता सरपंचों एवं इन ग्रामों में निवास कर रहे निवासियों की भागीदारी पर अधिक निर्भर रहेगी।

आज जब भारत को आत्म निर्भर बनाने की बात की जा रही है तो सबसे पहिले तो हमें चीन पर अपनी निर्भरता को लगभग समाप्त करना होगा। इसके लिए भारतीय नागरिकों भी अपनी सोच में गुणात्मक परिवर्तन लाना होगा एवं चीन के निम्न गुणवत्ता वाले सामान को केवल इसलिए ख़रीदना क्योंकि यह सस्ता है, इस प्रकार की सोच में आमूलचूल परिवर्तन लाना होगा। भारत और केवल भारत में निर्मित सामान, चाहे वह थोड़ा महँगा ही क्यों न हो, को ही उपयोग में लाना होगा, ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की ओर तेज़ी से आगे बढ़ाया जा सके एवं रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर भारत में ही उत्पन्न होने लगें। स्थानीय उत्पादों को आगे बढ़ाने की भी हम सभी भारतीयों की ज़िम्मेदारी है। स्थानीय उत्पादों को हमें ही अब वैश्विक स्तर पर ले जाना होगा। आज हर भारतवासी को अपने स्थानीय उत्पाद के लिए वोकल बनने की ज़रूरत है। अर्थात्, न केवल स्थानीय उत्पाद ख़रीदने हैं बल्कि उनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्व से प्रचार प्रसार करना भी आवश्यक है।  

https://www.prabhasakshi.com/politics-articles/everyone-must-take-the-responsibility-to-promote-local-products

३५) औंधे मुँह गिरना = जब कोई व्यक्ति निरंतर चल रहे कार्य में बुरी तरह से धोखा खा जाए तथा उसे भारी नुकसान झेलना पड़े तब इस प्रकार की स्थिति को औंधे मुँह गिरना कहा जाता है। औंधे मुँह गिरना मुहावरे का मतलब होता है बुरी तरह से धोखा खाना। औंधे मुँह गिरना अर्थात उल्टा होकर गिरना; जैसे कोई व्यक्ति चलता-चलता ठोकर लगने से मुँह के बल गिर जाता है तो उसे औंधे मुँह गिरना कहा जाता है। जो कि एक भयकंर रूप से व अचानक लगी चोट को दर्शाता है। इसी प्रकार जब कोई काम प्रगति की राह पर ऊपर की ओर बढ़ते-बढ़ते अचानक से डगमगा कर एकदम नीचे के स्तर पर आ गिरे जिससे व्यक्ति को वोही मेहनत दोबारा करनी पड़े ऐसी स्थिति औंधे मुँह गिरना मुहावरे का पर्याय होती है। जैसे, “ https://youtu.be/C3-O2EgZX0E

३६) तुष्टीकरण = किसी सत्ता या शक्ति अथवा वर्ग को येनकेन प्रकारेण संतुष्ट और शांत रखने की नीति | जैसे, “ https://youtu.be/K0J-fnlhsu8

३७) वामपंथी = वह पक्ष या विचारधारा जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक और जातीय समानता लाना चाहते हैं। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जतलाई जाती है, जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों, या शक्तिहीन हों। जैसे, “भारत में हिंदुओं की चिंता करने वाले को आमतौर पर ‘दक्षिणपंथी’ कहा जाता है। लेकिन यहां की हिंदू-चिंताएं अमेरिका या अफ़्रीका के मूल निवासियों की चिंताओं से अलग नहीं हैं। पश्चिमी सांस्कृतिक, व्यापारिक, धार्मिक दबावों के खिलाफ़ हिंदुओं का विरोध उसी तरह का है, जो अमेरिका में रेड-इंडियन या ऑस्ट्रेलिया में एबोरिजनल समुदायों का है। दोनों अपनी संस्कृति का बचाव करना चाहते हैं।

दोहरे हैं मानदंड

अजीब बात यह है कि पश्चिमी वामपंथी अमेरिकी या अफ़्रीकी मूल निवासियों की चिंताओं के समर्थक हैं। लेकिन भारत में वैसी ही हिंदू-चिंताओं को ‘सांप्रदायिक’ और ‘दक्षिणपंथी’ कह कर ख़ारिज किया जाता है। अमेरिका में मूल निवासियों की अपने पवित्र श्रद्धास्थल वापस करने की मांग से वहां वामपंथियों की सहानुभूति है। लेकिन हिंदुओं की काशी, मथुरा, जैसे महान श्रद्धास्थलों की वापसी की मांग को वामपंथी ‘असहिष्णुता’ बताते देते हैं। रेड-इंडियनों की संस्कृति में क्रिश्चियन मिशनरियों के दखल का अमेरिकी वामपंथी विरोध करते हैं। पर उन्हीं मिशनरियों के भारत में हिंदुओं, ख़ासकर दूर देहातों, जंगलों में रहने वालों को धर्मांतरित करने के प्रयासों का यहां वामपंथी बचाव करते हैं। उलटे विरोध करने वालों को सज़ा दिलवाना चाहते हैं। उसी तरह अफ़्रीका, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में इतिहास के पुनर्लेखन की मांग का पश्चिमी वामपंथी समर्थन करते हैं, ताकि विदेशी विजेताओं, मिशनरियों के लिखे इतिहास में सुधार कर देसी और सताए गए लोगों की दृष्टि से इतिहास लिखा जाए। लेकिन भारत में सदियों से सताए गए हिंदुओं की दृष्टि से इतिहास लिखने के प्रयास को ‘भगवाकरण’ कहकर वामपंथी मज़ाक उड़ाते हैं। वे यहां इस्लामी शासन की प्रशंसा करने के लिए इतिहास की पोथियों में थोक भाव से झूठ लिखने से नहीं हिचकते।

पश्चिम से समानता

हिंदू लोग शाकाहार और जीव-रक्षा को प्रोत्साहन देते हैं। हिंदू धर्म पशु-पक्षी-वन-नदी में भी जीवात्मा की मौजूदगी और नदियों, वनों को देवताओं का निवास मानता है। धरती को माता कहता है। उसे गाय की तरह ही पूजता है। वन, पर्यावरण, पशुओं की रक्षा से हिंदुओं की सहानुभूति है। वे मांसाहार आधारित विदेशी फास्ट-फूड ब्रैंडों के प्रति उत्साही नहीं हैं। पर्यावरण और आहार संबंधी यह रुख भी पश्चिमी देशों में वामपंथियों के समान है। पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथ बीफ-उद्योग के साथ जुड़ा रहा है। जिन दलाई लामा और तिब्बतियों को दुनियाभर के वामपंथी प्रेम से आदर-समर्थन देते हैं, वही भारत में वामपंथियों की आलोचना के शिकार होते हैं। भारतीय वामपंथी दलाई लामा को ‘दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी’ कहते हैं, जबकि अमेरिकी वामपंथी उनका सम्मान करते हैं। इन उदाहरणों से भी भारत में वामपंथ और दक्षिणपंथ विशेषणों की उलटबांसी समझी जा सकती है। हिंदुओं का इतिहास और वर्तमान और मुस्लिम इतिहास और वर्तमान को एक मानदंड से देखने पर सचाई दिखेगी। अभी तक तो पीड़ित और शोषक का मुंह देख-देख कर सारा शोर-शराबा होता है।

परंपरा को लेकर ओछी निगाह

दरअसल, अमेरिका, अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया में मूल धर्म-संस्कृति वाले लोग बहुत कम बचे। यूरोपीय औपनिवेशिक सेनाओं और उनके साथ गए क्रिश्चियन मिशनरियों ने उनका लगभग सफ़ाया कर डाला। उससे हमारा अंतर मात्र यह है कि यहां की मूल धर्म-संस्कृति सदियों से हमले, विनाश, जबरन धर्मांतरण, देश के टुकड़े काट-काट तोड़ने के बाद भी बचे भारत में बहुसंख्यक है। तो क्या हिंदुओं को अपने संघर्ष, दृढ़ता और धर्म-रक्षा का दंड दिया जाना चाहिए? एक जैसी घटनाओं पर दोहरे मानदंड क्यों? अगर मिशनरियों का अमेरिका, अफ़्रीका में जबरन या छल-कपट से धर्मांतरण कराना ग़लत है, तो वही काम भारत में भी अनुचित है। पर भारतीय वामपंथी अज्ञान या स्वार्थवश यहां की देसी परंपरा को ओछी निगाह से देखते हैं। दुनिया में कहीं वामपंथी ऐसा नहीं करते। भारत में एक भी हिंदू चिंता से वामपंथियों की सहानुभूति नहीं है। उलटे वे विस्तारवादी, देश-विरोधी, हिंदू-विरोधी घोषणाएं करने वाले नेताओं को ‘मायनोरिटी’ कहकर अपना समर्थन देते हैं। इसलिए भारत में हिंदू हित की बात सताई हुई बहुसंख्यक जाति की आत्म-रक्षा की चिंता है। केवल संख्या के तर्क से इसे असहिष्णु, शोषक नहीं कहा जा सकता। हजार वर्ष का इतिहास यही है कि अल्पसंख्यक समूहों ने ही यहां हिंदुओं का संहार, विध्वंस, शोषण किया।"

https://navbharattimes.indiatimes.com/navbharatgold/day-today/indian-left-is-anti-hindu/story/76247029.cms

३८) उम्मीद की किरण = वह जिससे कोई आशा पूरी होती जान पड़े या पूरी हो जाए | जैसे, “ https://youtu.be/rkgCfbu-_xY

३९) अल्पसंख्यक = संस्कृत के दो शब्दों अल्प यानि थोड़ा (या कम) एवं संख्या इस सामासिक शब्द का अर्थ होता है दूसरे समूहों की तुलना में कम संख्या में होना। जैसे, “भारत में अल्पसंख्यक कौन ? यह सवाल अकसर उठता रहता है लेकिन इसका माकूल जवाब अभी तक नहीं मिल सका है. सुप्रीम कोर्ट में जम्मू-कश्मीर के एक वकील द्वारा दायर की गयी जनहित याचिका में इस संबंध, भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय के पहचान को परिभाषित करने की मांग की गयी है. चूंकि 2011 की जनगणना के आंकड़ों में मुताबिक जम्मू-कश्मीर में 68 फीसद जनसंख्या मुसलमानों की है. अत: जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं. अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हित नहीं करने की वजह से जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला हर लाभ मुसलमानों को मिल रहा है जबकि वहां जो समुदाय वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक है, वो उन सुविधाओं से महरूम हैं. एक टीवी चैनल की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016-17 में अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप का फायदा जिन छात्रों को मिला है उनमें 1 लाख 5 हजार से अधिक छात्र मुसलमान समुदाय से आते हैं जबकि सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के 5 हजार छात्रों को इसका फायदा मिल सका है. इसमें भी हिन्दू समुदाय के किसी भी छात्र को इसका फायदा नहीं मिला है जबकि जनसंख्या के आधार पर जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मुसलमानों से बहुत कम हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन लोगों के लिए कुछ अलग से प्रावधान किया गया है जो भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं. लेकिन इसकी सटीक व्याख्या और परिभाषा नहीं होने की वजह से इसका बड़े स्तर पर दुरुपयोग भी हो रहा है. जमू-कश्मीर इसके दुरुपयोग का ताजा उदाहरण है. हालांकि ऐसा नहीं है कि यह मामला महज जम्मू-कश्मीर तक सीमित है. इसको अगर ध्यान से देखें तो भारत के तमाम हिस्सों में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किए जाने की वजह से किसी समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है.

दरअसल अल्पसंख्यक उस समुदाय को माना जाता है जिसे अल्पसंख्यक कानून के तहत केंद्र की सरकार अधिसूचित करती है. भारत में मुस्लिम, सिख, बौध, इसाई, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक के तौर पर अधिसूचित किया गया है. हालांकि केंद्र के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की तर्ज पर राज्यों में भी अल्पसंख्यक आयोग की शुरुआत हुई लेकिन अभी भी देश के 15 से ज्यादा राज्य ऐसे हैं जहां राज्य अल्पसंख्यक आयोग काम नहीं कर रहा है. इसी वजह से जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर भ्रम की स्थिति कायम है और जिस समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए उसके उलट लोगों को लाभ मिल रहा है. दरअसल तमाम राज्यों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अधिसूचित समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है जबकि जनगणना के आंकड़े कुछ और बयां करते हैं. इस संबंध में एक रोचक तथ्य और है जिसपर गौर किया जाना चाहिए.

जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 17 करोड़ 22 लाख है, जो कि कुल आबादी का 14.2 फीसद है. पिछली यानि 2001 की जनगणना में यह आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद थी. अर्थात मुसलमानों की आबादी में आनुपातिक तौर पर .8 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीं देश का बहुसंख्यक समुदाय अर्थात हिन्दू समुदाय कुल जनसंख्या का 79.8 फीसद है, जो कि 2001 में 80.5 फीसद था. अर्थात, कुल जनसंख्या में हिन्दुओं की हिस्सेदारी कम हो रही है. इसके अतिरिक्त अगर अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की बात करें तो इसाई समुदाय और जैन समुदाय की स्थिति में कोई कमी नहीं आई है जबकि सिक्ख समुदाय की हिस्सेदारी में .2 फीसद की मामूली कमी आई है. कमोबेश ऐसी ही स्थिति बौध समुदाय की भी है. अब अगर कुल जनसंख्या में इन समुदायों की वृद्धि दर अथवा कमी गिरावट की दर का विश्लेषण करें तो मुस्लिम समुदाय की वृद्धि दर कुल जनसंख्या की वृद्धि दर से 6.9 फीसद ज्यादा है. देश की जनसंख्या इन वर्षों में 17.7 फीसद की दर से बढ़ी है जबकि मुसलमान समुदाय की वृद्धि दर 24.6 फीसद रही है.”

https://www.ichowk.in/society/who-are-minorities-in-india/story/1/6277.html

४०) औकात = कुछ कर सकने की शक्ति | जैसे, “ https://youtu.be/XXKCo-BCIXw