The Path to Moksha

योगदर्शन में दिया मोक्ष का मार्ग

योगदर्शनकार पतञ्जलि ने योग के चार व्यूह, अर्थात् विषय-विभाग, बताये हैं । वस्तुतः, ये जीवन के सत्य हैं, और मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग हैं । ये हैं - हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय । आइये इनको विस्तृत रूप से समझते हैं ।

१. हेय - अर्थात् त्याज्य वस्तु । ये वह दुःख है जो भविष्य में भोगना है (हेयं दुःखमनागतम् (२।१६)) । बीते कल में जो हो गया, वह तो अब हमारे वश के बाहर है । केवल हम अपने कल को सुधार सकते हैं । सुधार के साधन ही योगदर्शन का एक मुख्य विषय-क्षेत्र है । आने वाले कल को सुधारने के लिए, पहले इस ’हेय’ के कारण को समझना भी आवश्यक है । इसलिए कहते हैं -

२. हेयहेतु - अर्थात् उपर्युक्त हेय दुःख का कारण । पतञ्जलि इसे बड़ी सरलता से समझाते हैं । यह कारण है - देखने वाले (द्रष्टा) और देखे जाने वाले (दृश्य) का संयोग (द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः (२।१७)), अर्थात् जीवात्मा का शरीर धारण करना । शरीर के संयोग से भोगों की शृंखला प्रारम्भ हो जाती है । अन्ततः, ये सभी भोग - अच्छे या बुरे - दुःख देने वाले ही होते हैं । जहां एक ओर दुःख द्वेष उत्पन्न करता है, वहां सुख राग उत्पन्न करता है । दोनों ही क्लेश हैं । इन क्लेशों के कारण हम इष्ट वस्तु को पाने और अनिष्ट वस्तु से दूर रहने के लिए कर्म करते हैं । इससे हम कर्म-व्यवस्था (देखिए मेरा लेख) में फंस जाते हैं, और फल भोगने के लिए शरीर धारण करते हैं । इस प्रकार दुःख का कारण कर्म है, परन्तु उसका भी कारण शरीर है । इसी को पतञ्जलि ने सूत्र में बताया है ।

परन्तु, जहां एक ओर शरीर के कारण होने वाले भोग हेय दुःख के कारण होते हैं, वहीं दूसरी ओर शरीर अपवर्ग या मोक्ष को भी प्राप्त कराता है । पतञ्जलि स्वयं बताते हैं कि यह इसलिए है कि प्रकृति और जीवात्मा की स्व-शक्ति और स्व-रूप को जानने के लिए शरीर-धारण अनिवार्य है (स्वस्वामिशक्तयोः स्वरूपोलब्धिहेतुः संयोगः (२।२३)) । शरीर के माध्यम से, अपने दोषों पर विजय पाकर, हम ब्रह्म को प्राप्त करने के अधिकारी बन पाते हैं । इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करने का शरीर ही प्रमुख साधन है ।

संयुक्त होने पर भी, द्रष्टा केवल दृश्य को देखता और अनुभव करता है, उसका कोई भी भाग ग्रहण नहीं करता है । इसलिए वह स्वयं शुद्ध ही रहता है (द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः (२।२०)) । जब वह अपने इस शुद्ध स्वरूप को देख लेता है, तब वह शरीर से, और साथ-साथ प्रकृति के सभी भोगों से, मुक्त हो जाता है । इस स्वरूप-दर्शन को योग की भाषा में विवेक-ख्याति (सम्पूर्ण विवेक हो जाना) कहा गया है ।

वस्तुतः, यह ब्रह्माण्ड जीवात्मा के प्रयोजन के लिए ही है (तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा (२।२१)) । जब उसे विवेक-ख्याति प्राप्त हो जाती है, तब यह प्रकृति का नाच उसके लिए जैसे बन्द हो जाता है । परन्तु, अन्य जनों के लिए यह संसार फिर भी बना रहता है (कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्)

पतञ्जलि बताते हैं कि इस संयोग का कारण अविद्या है (तस्य हेतुरविद्या (२।२४)) । यह वही अविद्या है जो क्लेशों में गिनी गई है, और अन्य क्लेशों (अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) की जड़ बताई गई है (देखिए मेरा लेख) । संक्षेप में, यह ’अविद्या क्लेश’ है - जैसे को तैसा न जानना या मानना ।

३. हान - अर्थात् हेय (दुःखों) से छुटकारा, अर्थात् मोक्ष । अविद्या के अभाव से, अर्थात् विद्या की प्राप्ति से, हेयहेतु संयोग का अभाव हो जाता है, अर्थात् जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाता है (तदभावात् संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम् (२।२५)) । वेदों में भी बिल्कुल इसी प्रकार कहा गया है - "अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते (यजु० ४०।१४) - अविद्या से मृत्यु को पार करके, विद्या से अमृत को जीवात्मा प्राप्त करता है । हान होने पर, द्रष्टा, प्रकृति से छुटकारा पाकर, अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । इस केवल अपने साथ रहने को ’कैवल्य’ कहते हैं । इस अवस्था का वर्णन योगदर्शन के अन्तिम ’कैवल्य-पाद’ में किया गया है ।

४. हानोपाय - हान (मोक्ष) का उपाय है - अविचल विवेकख्याति (विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः (२।२६)) । सम्पूर्ण योग-शास्त्र इसी अन्तिम लक्ष्य के लिए लिखा गया है । प्रथम और द्वितीय पादों में इसके साधनों को बताया गया है । ये साधन योग के अष्टाङ्ग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि (देखिए मेरा लेख) । इन साधनों को निरन्तर करते-करते धीरे-धीरे आत्मा की अशुद्धि, अर्थात् दोषों और अविद्या, का क्षय होता जाता है, और वह अपनी झलक पाने लगता है (योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः (२।२८)) । पहले तो समाधि में यह झलक रुक-रुक कर प्राप्त होती है - कुछ समय दिखी, फिर लुप्त हो गई । बहुत अभ्यास के उपरान्त, यह अनुभव बिना अवसान के होने लगता है । यह ’अविचल विवेकख्याति’ है । इसके बाद, कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता है !

इस प्रकार, मोक्ष को प्राप्त करने के लिए, पतञ्जलि ने चार विषय समझने पर जोर दिया है -

१) जीवन दुःख है ।

२) दुःखों का कारण शुद्ध आत्मा का अशुद्ध प्रकृति से बने शरीर का संयोग है । वैसे, प्रकृति में कोई बुराई नहीं है, परन्तु जीवात्मा और उसके गुण-कर्म-स्वभाव में भेद होने के कारण, वह जीवात्मा के लिए दुःखदायी हो जाती है ।

३) इन दुःखों के पार जाना जीवन का लक्ष्य है ।

४) इनसे पार जाने के लिए, योगाङ्गों का अनुसरण करते हुए, अपने दोषों को निकाल कर, अपने स्वरूप में अवस्थित होने पर कैवल्य, और मृत्योपरान्त मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

अब कुछ चर्चा । हेयहेतु का क्या हेतु है, इस विषय पर पतञ्जलि ने अधिक चर्चा न करते हुए, "अविद्या है" - ऐसा कह कर छोड़ दिया है । परन्तु यह बिन्दु भी विचारणीय है क्योंकि, अविद्या तो शरीर के कारण ही उत्पन्न होती है । शरीर से संयोग के बिना हम शरीर से एकत्व कैसे अनुभव कर सकते हैं, जो कि अविद्या का मूल है ?! सो, यदि अविद्या के कारण शरीर से बन्ध मानें तो यहां अनवस्था दोष आ जायेगा - अविद्या और शरीर एक दूसरे के कारण होने से उनका अन्त असम्भव हो जायेगा । और यदि किसी प्रकार अविद्या आरम्भ में उत्पन्न हो भी जाए, तो विवेकख्याति और मोक्ष होने के उपरान्त पुनः जन्म नहीं होना चाहिए, क्योंकि एक बार हम एक बात जान गए (जैसे कि ’पृथ्वी गोल है’), तो इस ज्ञान का अन्त क्यों और कैसे होगा (जैसे ’पृथ्वी गोल है’ का ज्ञान समाप्त नहीं होता) ?! परन्तु अनन्त मोक्ष महर्षि दयानन्द आदि ऋषियों को मान्य नहीं है ।

महर्षि दयानन्द ने कहा है कि क्योंकि कर्म अनन्त नहीं होते, तो उनसे प्राप्त मोक्ष-सुख भी अनन्त नहीं हो सकता । परन्तु, विवेकख्याति कर्मों का फल नहीं है, यह तो ज्ञान है, और ज्ञान प्रयत्न से अवश्य प्राप्त होता है, परन्तु उसको कर्म-फल की कोटि में नहीं रखा जाता है । इसका कारण यह है कि फिर वह समाप्त नहीं होता, न ही उससे आत्मा को राग-द्वेष होते हैं । विपरीत उदाहरण के लिए - जलेबी खाने को मिलना कर्म-फल है । उसके स्वाद का आनन्द लेना कर्म-फल है । पुनः उस अनुभव को प्राप्त करने की इच्छा करना उसके प्रति राग है । कर्म-फल से यह संस्कार उत्पन्न होना अवश्यम्भावी है । परन्तु जलेबी जैसी कोई वस्तु होती है, इस ज्ञान से कोई संस्कार नहीं उत्पन्न होता । कुछ ज्ञान तो अनायास ही हो जाते हैं, जैसे - बच्चे को माता का ज्ञान ; कुछ में प्रयत्न आवश्यक होता है, जैसे - वेदों का ज्ञान । ये दोनों ही प्रकार के ज्ञान कर्म-फल नहीं माने जाते । जीवन्मुक्त आत्माओं के लिए प्रकृति के नाच का बन्द हो जाने का यही अर्थ है कि वे शरीर के लिए आवश्यक कर्म अवश्य करते हैं, परन्तु उन्हें उनमें कोई सुख या दुःख की प्रतीति नहीं होती, परन्तु ज्ञान तो बढ़ता ही जाता है । इस प्रकार ज्ञान और कर्म-फल भिन्न हैं ।

साङ्ख्य दर्शन ने इस विषय पर विचार किया और कपिल ने विभिन्न आचार्यों के मत प्रस्तुत किए, फिर यह कह कर ग्रन्थ का उपसंहार कर दिया कि, प्रकृति-पुरुष का संयोग किसी भी कारण से हुआ हो, उसका भेदन करने के लिए तो महान पुरुषार्थ करना पड़ता है । कठोपनिषद् में एक उत्तर प्राप्त होता है । वहां बताया गया है कि, जीवात्मा कितना भी प्रयत्न कर ले, उसको परमात्मा का ज्ञान परमात्मा की कृपा से ही होता है -

"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो

न मेधया न बहुना श्रुतेन ।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्-

तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ कठ० १।२।२३, मुण्डक० ३।२।३)

तब हम यह मान सकते हैं कि जो परमात्मा ने अपनी कृपा से ज्ञान दिया, वह ज्ञान कुछ समय के बाद वे ले भी लेते हैं, और जीवात्मा को पुनः अविद्या से संयुक्त कर देते हैं । इससे लौकिक ज्ञान भी समझ में आ जाता है - हम देखते हैं कि दो विद्यार्थी तन-मन-धन से कोई विषय पढ़ते हैं, परन्तु एक को समझ में आ जाता है, दूसरे को नहीं । परमात्मा एक को वह ज्ञान दे देता है, दूसरे को नहीं । और फिर, विस्मृति, बुद्धि-ह्रास, आदि कारणों से वह ज्ञान कभी-कभी हर भी लेता है ।