Reincarnation

पुनर्जन्म को क्यों मानें

महर्षि दयानन्द ने अपने छठे पूना प्रवचन में पुनर्जन्म के विषय में बोला था । अन्यों की एक-जन्म मान्यता के विरुद्ध उन्होंने युक्तियां दी थीं । ये युक्तियां प्रधान-रूप से न्यायदर्शन से हैं । न्यायदर्शन में इस विषय पर और भी तर्क प्रस्तुत किया गया है, जो कि जानने योग्य है । उन्हीं को इस लेख में निरूपित करते हुए, मैंने अपने भी कुछ विचार प्रस्तुत किए हैं ।

पुनर्जन्म का पहला उल्लेख आत्मा के नित्यत्व के प्रकरण में आता है -

पूर्वाभ्यस्तस्मृत्युनिबन्धाज्जातस्य हर्षशोकसम्प्रतिपत्तेः ॥ न्यायदर्शनम् ३।१।१९ ॥

सिद्धान्ती कहता है - पूर्व में अभ्यस्त होने की स्मृति से बद्ध होकर, नवजात शिशु में हर्ष, भय व शोक उत्पन्न होते हैं - इससे सिद्ध है कि आत्मा नित्य है और उसका इस जन्म से पूर्व भी जन्म हुआ था ।

स्वामी दयानन्द इस विषय में कहते हैं - "पूर्व-जन्म विषयक ... एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी है । जीव की शरीर-चेष्टा होने से पूर्व प्रथम हमें प्रत्यक्ष होता है, फिर स्मृति होती है, और पश्चात् किसी कार्य के विषय में प्रवृत्ति-निवृत्ति होती है । यह प्रकार सर्वत्र प्रतीत होता है । अब देखो कि शरीर योनि में से बच्चा बाहर पड़ने के पूर्व पेट में था । बाहर गिरते ही श्वास लेने वा रोने लगता है । तो यह प्रवृत्ति उसे पूर्व संस्कारों से बिना कैसे होगी ? माता का स्तन खींचकर दूध पीने लग जाता है । यह प्रवृत्ति कहां से हुई ? दूध के विषय में तृप्त होने पर निवृत्त होता है । तो यह निवृत्ति भी किस प्रकार की है ? माता ने कुछ धमकी दी, तो झट बच्चा समझता है । तो यह पूर्व संस्कारों के बिना कैसे होगा ? इससे निश्चयपूर्वक पूर्वजन्म था - यह प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों दोनों से सिद्ध होता है ।"

न्यायदर्शन में पूर्वपक्षी इसका खण्डन करता है -

पद्मादिषु प्रबोधसम्मीलनविकारवत् तद्विकारः ॥३।१।२०॥

अर्थात् जैसे कमल का खुलना और बन्द होना होता है (प्राकृतिक कारणों से, उसमें स्मृति की आवश्यकता नहीं है), उसी प्रकार शिशु में उपर्युक्त विकार उत्पन्न होते हैं ।

सिद्धान्ती उत्तर देता है -

नोष्णशीतवर्षाकालनिमित्तत्वात् पञ्चात्मकविकाराणाम् ॥३।१।२१॥

आपका हेतु सही नहीं है क्योंकि पञ्चभूतों में विकारों के निमित्त गर्मी, सर्दी, वर्षाकाल, आदि होते हैं । अर्थात् कमल की पत्तियों का खुलना, बन्द होना पाञ्चभौतिक विकार है । वह तो भौतिक कारणों से होता है । लेकिन हर्ष, शोक, भय, आदि, भौतिक विकार नहीं हैं - वे चैतन्य के विकार हैं । इसलिए इन दोनों को समान नहीं माना जा सकता ।

सिद्धान्ती एक और हेतु देता है -

प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात् ॥३।१।२२॥

मरकर (पुनरुत्पन्न शिशु) आहार का अभ्यस्त होने से, मां के स्तन की अभिलाषा करता है (इससे भी पुनर्जन्म और आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है) ।

तो पूर्वपक्षी आक्षेप करता है -

अयसोऽयस्कान्ताभिगमनवत् तदुपसर्पणम् ॥३।१।२३॥

जैसे लोहा चुम्बक की ओर खिंचता है, वैसे ही शिशु स्तन की ओर खिंचता है, अर्थात् उसमें आहार का अभ्यास मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

सिद्धान्ती कहता है -

नान्यत्र प्रवृत्त्याभावात् ॥३।१।२३॥

आपका कहना सही नहीं है, क्योंकि शिशु की कहीं और प्रवृत्ति नहीं होती - वह माता के स्तन की ओर ही खिंचता है । और यहीं पर सिद्धान्ती की विजय मानकर वाद समाप्त कर दिया जाता है ।

मेरी टिप्पणी यहां यह है - पहले तो लोहे का भी सरकना एक ओर ही होता है - चुम्बक की ओर । सो, उपर्युक्त हेतु सही नहीं । दूसरे, शिशु को पिछले जन्म से और कुछ तो याद है नहीं, तो उसको केवल भूख लगना क्यों याद रह गया, या डरना क्यों याद रह गया ? डरना तो फिर भी मानसिक विकार है, भूख तो स्थूल शरीर के कारण है ! महर्षि स्वयं (छठे प्रवचन में ही) कहते हैं - "अब जीव को - "मैं हूं" - अर्थात् अपने अस्तित्व का जो ज्ञान है, वह स्वाभाविक ज्ञान है, परन्तु चक्षु, श्रोत्र, इत्यादि इन्द्रियों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आत्मा का नैमित्तिक ज्ञान होता है । वह नैमित्तिक ज्ञान तीन कारणों से होता है - देश, काल और वस्तु । .. अब जैसे-जैसे ये निमित्त निकल जाते हैं, वैसे-वैसे इस नैमित्तिक ज्ञान का नाश होता है, अर्थात् पूर्व जन्म का देश, काल, शरीर का वियोग होने से, उस समय का नैमित्तिक ज्ञान नहीं रहता ।" इससे तो स्पष्टतः भूख लगने का ज्ञान भी आत्मा को नहीं रहना चाहिए । तीसरे, यदि पिछले जन्म में आत्मा मनुष्य न था, तो सम्भवतः स्तनपान भी न करता हो । तो फिर उसकी कुछ और प्रवृत्ति होनी चाहिए । और यह तो हर योनि के बदलने पर सही होगा । अण्डे से निकलने वाले प्राणी किसी और प्रकार से खाना खाते हैं, जमीन पर रेंगने वाले अन्य प्रकार से । और भूख तो शरीर की आवश्यकता है, आत्मा की नहीं । उसका ज्ञान तो परमात्मा जीव में जन्म से डाल देते हैं, यह मानना अधिक तर्क-संगत लगता है । इसी प्रकार, अधिकतर योनियों में जन्तु इतना हर्ष-शोक नहीं अनुभव करते, जितना मनुष्य योनि में करते हैं । उनके बच्चे बाहर निकलकर रोते भी नहीं ! तो, इसे भी अभ्यास मानना सही नहीं । इस प्रकार, यह हेतु पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है ।

न्यायदर्शन में पुनर्जन्म से सम्बद्ध एक और मह्त्त्वपूर्ण चर्चा होती है, जिसमें से पुनर्जन्म का एक और हेतु प्राप्त होता है । सिद्धान्ती कहता है -

पूर्वकृतफलानुबन्धात्तदुत्पत्तिः ॥३।२।६२॥

पूर्वजन्म में किये गये कर्मों के फलों के अनुसार भौतिक शरीर की उत्पत्ति होती है, अर्थात् पूर्व जन्म के कर्म इस जन्म के शरीर के निमित्त कारण हैं ।

पूर्वपक्षी अन्य हेतु देता है -

भूतेभ्यो मूर्त्युपादानवत् तदुपादानम् ॥३।२।६३॥

जैसे महाभूतों से अन्य मूर्त वस्तुओं की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार शरीर की भी उत्पत्ति होती है । अर्थात् शरीर और अन्य अचेतन वस्तुओं में कोई भेद नहीं है - जिस प्रकार वे विभिन्न गुणों वाली होती हैं, वैसे ही शरीर भी विभिन्न गुणों वाले होते हैं, कर्मों को निमित्त मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

सिद्धान्ती कहता है -

न, साध्यसमत्वात् ॥३।२।६४॥

तुम्हारा उपर्युक्त हेतु सही नहीं है, क्योंकि जो हमें सिद्ध करना है, वह उसी को उल्टा करके कह रहा है । हम यही तो चर्चा कर रहें हैं कि शरीर के लिए कोई निमित्त आवश्यक है या नहीं । "नहीं है" कह देने से सिद्धि नहीं हो जाती ।

पूर्वपक्षी समझाता है -

नोत्पत्तिनिमित्तत्वात् मातापित्रोः ॥३।२।६५॥

नहीं, निमित्त नहीं है ऐसा मैं नहीं कह रहा । माता-पिता निमित्त हैं शरीर के - शुक्र और शोणित के संयोग से नये शरीर का निर्माण होता है । (देखा जाए तो आजकल के वैज्ञानिकों का भी आत्मा और पुनर्जन्म के विषय में यही आक्षेप है ।)

तथाहारस्य ॥३।२।६६॥

उसी प्रकार से आहार भी निमित्त है । शुक्र-शोणित संयोग के बाद, आहार से शरीर की वृद्धि होती है । सो, आहार शरीर का दूसरा निमित्त है ।

प्राप्तौ चानियमात् ॥३।२।६७॥

और सदा ही संयोग से शरीर प्राप्त हो ही जाए, इसका कोई नियम नहीं है - इससे भी पता चलता है कि कर्म शरीर के निमित्त नहीं हैं, अपितु यहां प्राकृतिक हेतु ही काम कर रहे हैं । मिट्टी में बीज जैसे कभी-कभी पनप जाता है, कभी-कभी मर जाता है, वैसे ही कभी-कभी माता-पिता के संयोग से शिशु होता है, कभी नहीं ।

सिद्धान्ती स्पष्ट करते हैं -

शरीरोत्पत्तिनिमित्तवत् संयोगोत्पत्तिनिमित्तं कर्म ॥३।२।६८॥

जिस प्रकार शरीर की उत्पत्ति का निमित्त कर्म होता है, वैसे ही संयोग से शरीर की उत्पत्ति का निमित्त भी कर्म होता है । अर्थात् माता-पिता के कर्मों के अनुसार उन्हें सन्तान-प्राप्ति होती है या नहीं होती ।

एतेन नियमः प्रत्युक्तः ॥३।२।६९॥

इस उपर्युक्त से ही जिस अनियम की आपने ३।२।६७ में चर्चा की थी उसका प्रत्युत्तर हो गया ।

उपपन्नश्च तद्वियोगः कर्मक्षयोपपत्तेः ॥३।२।७०॥

और कर्मों के क्षय की सिद्धि से शरीर से वियोग भी सिद्ध हो जाता है । शरीर की उत्पत्ति में जो कर्म कारण होते हैं, उनका क्षय होता है; जो दुःख-सुख भोग चुके, उनके कारण-कर्म उसी के साथ क्षय हो जाते हैं । जीवन में कितने कर्म क्षय होने हैं, वह नियत है । उनके क्षय होते ही देहपात हो जाता है । इस प्रकार कर्म को शरीर का कारण मानने से शरीर से संयोग ही नहीं, अपितु वियोग का भी कारण मिल जाता है ।

वस्तुतः, यही हेतु सही लगता है, और इससे ईश्वर की न्यायबद्धता भी सिद्ध हो जाती है, अन्यथा परमात्मा में पक्षपात का दोष लगे । महर्षि इसको ऐसे कहते हैं - "देखो, एक ही मां-बाप के दो पुत्र हुए और उन्हें एक ही गुरु के पास अध्ययन के लिए रखा और उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी एक ही सी रखी । ऐसा होते हुए भी एक लड़के की धारणाशक्ति उत्तम होने से वह बड़ा विद्वान् और नीतिमान् होता है, और दूसरा भूलने वाल मूर्ख ऐसा ही रहता है । सो बतलाओ इसका कारण क्या है ? इस बुद्धि-भेद का कारण इस जन्म में तो कुछ भी नहीं है, और भेद तो प्रतीत होता है । ऐसा निरर्थक भेद ईश्वर ने किया, ऐसा कहें तो ईश्वर पक्षपाती ठहरता है । ईश्वर ने नहीं किया, ऐसा कहें तो भेद की उत्पत्ति होती नहीं । इससे पूर्व-जन्म है, ऐसा ही मानना अवश्य होता है । पूर्व जन्मार्जित पाप-पुण्य के अनुसार ही यह व्यवस्था होती है, ऐसा माने बिना दूसरी कोई कल्पना जमती भी नहीं, अस्तु ।"

इस प्रकार, पुनर्जन्म पूर्णतया न्याय-सिद्ध है, और उसको न मानने वाले कहीं न कहीं अपने ही शब्दों में जाकर फंस जाते हैं । इसके विपरीत, पुनर्जन्म और कर्म-व्यवस्था समझने से, हम जन्म-मृत्यु-चक्र से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं । जो पुनर्जन्म न माने उसकी जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्ति कहां ?!