सृष्टि-तत्त्वों का अनुमान से ज्ञान
विश्व-भर में सृष्टि के मूल पांच तत्त्व प्रसिद्ध हैं - आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी । ये ज्ञान भारत से ही शेष संसार में जाने से, यह तो स्पष्ट ही है कि भारतीय वाङ्मय में इस विषय में और अधिक ज्ञान उपलब्ध होगा । हां, यह ज्ञान उपलब्ध है, और हमारे पूर्वजों की अत्यन्त सूक्ष्म सोच का परिचायक है । साङ्ख्य-दर्शन में सृष्टि के तत्त्वों की उत्पत्ति का सबसे विषद वर्णन है । वहां कपिल मुनि बताते हैं कि कैसे इन तत्त्वों की प्रथम जननी मूल प्रकृति है, जो कि अनेकों विकारों को प्राप्त होते हुए इन्द्रियों से प्राप्य बन जाती है - इस जगत् के रूप में । वे बताते हैं कि इन मध्य के विकारों को अनुमान से जाना जा सकता है, जबकि ये प्रत्यक्ष नहीं हैं । परन्तु, इस अनुमान का उन्होंने बहुत संक्षिप्त परिचय दिया है । साङ्ख्य की विभिन्न व्याख्याओं में इस अनुमान को समझाने की चेष्टा तो की गई है, परन्तु पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं किया गया है । यह लेख उस को स्पष्ट करने का प्रयास करता है ।
सृष्टिक्रम देते हुए, साङ्ख्यकारक कपिल मुनि कहते हैं - सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः (साङ्ख्य० १।२६) - अर्थात् सत्त्व, रजस् और तमस् की साम्यावस्था (equal distribution) को (मूल) प्रकृति कहते हैं । प्रकृति से महत् उत्पन्न होता है । महत् से अहङ्कार, अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राएं और दोनों (बाह्य और आभ्यन्तर) इन्द्रियां, पञ्चतन्मात्राओं से (पांच) स्थूलभूत - इस क्रम से उत्पन्न होते हैं । एक (इन सब से भिन्न) पुरुष (जीवात्मा) को मिलाकर, यह २५ तत्त्वों का गण है - जिससे यह संसार बनता है । अब इन अंशों को विस्तार से देखते हैं । इसके लिए उल्टी दिशा में परीक्षा करना अधिक लाभकर है, जैसा कि मार्ग कपिल ने स्वयं दिखाया है ।
सर्वप्रथम, वह जो हमें दिखता है, उसे हम स्थूलभूत कहते हैं । सो, ये पांच ही क्यों माने जाएं ? क्योंकि हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां - कान, त्वचा, आंख, जीभ और नाक - अपने-अपने पांच विषय - क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध - प्रत्यक्ष दिखाती हैं । और स्पष्ट है कि ये भिन्न-भिन्न गुणों को प्रकाशित कर रही हैं - ऐसा नहीं है कि गन्ध का कोई अंश छूआ जा सकता हो, या छूअन का कोई अंश दूसरी इन्द्रिय भी जनाए (आंख से हम स्पर्श का कुछ अनुमान लगा सकते हैं, परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान रूप का ही होता है, स्पर्श का नहीं) । सो, ये पांच mutually exclusive ज्ञान हैं, और इनके सिवा हमें और कोई (बाह्य) ज्ञान नहीं होता । इसलिए इनको ही हम पूर्ण समझ कर आगे बढ़ते हैं, यह आशा करते हुए कि इनके बाहर जो गुण हैं, जैसे - गुरुत्वाकर्षण, विद्युत्, चुम्बकीय-शक्ति, ultra-violet, infra-red rays, आदि - वे किसी न किसी तरह इनके अन्तर्गत आ जाते हों, जैसे विद्युत् का प्रचण्ड रूप हम देख पाते हैं, या गुरुत्वाकर्षण को भार रूप में स्पर्शेन्द्रिय से जान लेते हैं । अर्थात् भारतीय ज्ञान-परम्परा में माना गया है कि इन पांच स्थूलभूतों को छोड़कर और कोई अतीन्द्रिय (प्राकृतिक) वस्तु है ही नहीं । विचार करने पर, मैंने पाया है कि यह सही भी है । जबकि नवीन विज्ञान के अनुसार अगणित इन्द्रियागोचर वस्तुएं हैं, परन्तु किसी न किसी प्रकार से ये इन पांचों के अन्तर्गत आ ही जाती हैं, जैसे विद्युत् अग्नि में, चुम्बक पृथिवी में, गुरुत्वाकर्षण जल और पृथिवी में, ultraviolet, infra-red rays अग्नि के ही अन्तर्गत क्योंकि वे ऊर्जा के प्रकार हैं, चाहे उनमें रूप नहीं है, आदि, आदि । ये विषय हमारे पूर्वजों को अज्ञात भी नहीं थे, तो अवश्य उन्होंने इन सब पर विचार किया था । फिर भी, आप भी नई दृष्टि से इस विषय पर विचार अवश्य करें !
अब अप्रत्यक्ष प्राकृतिक विकारों की शृङ्खला । कपिल कहते हैं - स्थूलात् पञ्चतन्मात्रस्य (१।२७), अर्थात् स्थूलभूतों से उनके कारण - सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं - का अनुमान होता है । वह ऐसे - जब हमने मान लिया कि पांच प्रकार के तत्त्व होते हैं, तो उनको काटते-काटते हम उनके सबसे छोटे अंश (अणु) तक पहुंचेंगे । उससे आगे काटने पर, पृथिवी तत्त्व पृथिवी न रहकर, कुछ और मिलेगा (जैसे परमाणु को काटने पर electron, proton, neutron मिलते हैं) । इस अंश को ही तन्मात्र बताया गया है । इस प्रकार हर स्थूलभूत का एक-एक तन्मात्र होने से, पांच तन्मात्राओं का अनुमान हम कर सकते हैं ।
आगे कपिल कहते हैं - बाह्याभ्यन्तराभ्यां तैश्चहङ्कारस्य (१।२८) - अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर इन्द्रियों और पांच स्थूलभूतों से अहङ्कार का अनुमान होता है । यहां (१।२६ से) जो ग्यारह इन्द्रियां गिनाई गई हैं, वे सूक्ष्म इन्द्रियां हैं, बाहर दिखने वाले गोलक नहीं, जो कि स्थूलभूतों के बने हुए हैं । ये ११ इन्द्रियां हैं - ५ कर्मेन्द्रियां (वाक्, बाहु, पाद, गुदा और उपस्थ), ५ ज्ञानेन्द्रियां (चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, घ्राण और त्वक्) - ये मिलकर १० बाह्येन्द्रियां और १ आभ्यन्तर इन्द्रिय - मन । अब इनसे और तन्मात्राओं से अहङ्कार का कैसे अनुमान होता है ? व्याख्याकार यह कहकर छोड़ देते हैं कि "ये कार्य हैं, इसलिए अपने उपादान कारण - अहङ्कार - का बोध कराती हैं ।" लेकिन इससे यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं होता कि इन्द्रियों और तन्मात्राओं का एक उपादान क्यों माना गया ? और न ही यह कि उसका नाम ’अहङ्कार’ क्यों है, वह शब्द जिसका अर्थ हम ’जीव का अहंभाव’ समझते हैं ? और इन्द्रियों को तन्मात्राओं से जनित, या तन्मात्राओं से इन्द्रियों कि उत्पत्ति क्यों नहीं मानी गई ? बल्कि, इन्द्रियों और तन्मात्राओं को कार्य माने ही क्यों ? उन्ही को कारण मान लेने में क्या आपत्ति है ? नहीं, इस छोटे से वाक्य में कपिल क्या कुछ कह गये, उसको समझने के लिए और श्रम करना पड़ेगा !
पहले लीजिए - "इन्द्रियों को तन्मात्राओं से जनित, या तन्मात्राओं से इन्द्रियों कि उत्पत्ति क्यों नहीं मानी गई ?" यह भी विचार कर सकते हैं कि इन्द्रियों को स्थूलभूतों से उत्पन्न क्यों न मानें ? तो, भारतीय परम्परा में यह एक सिद्धान्त है कि जो जिसका ग्रहण करती है, वह उससे सूक्ष्म होती है । इसको हम इस प्रकार समझ सकते हैं, कि यदि हमको लम्बाई नापनी है, तो हमारी माप-पट्टिका पर यदि मीटर से छोटा अंक नही है, तो हम मीटर से छोटी लम्बाई नहीं नाप सकते । एक अन्य उदाहरण - हम प्रकाश से वस्तुओं को देखते हैं । प्रकाश का सबसे छोटा कण होता है photon । अब यदि हमें photon से छोटी वस्तु देखनी हो, तो हम उसे प्रकाश से नहीं देख सकते । इसी प्रकार photon आदि को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों को उन से भी सूक्ष्म होना आवश्यक है । दूसरी प्रकार से हम ऐसे समझ सकते हैं कि, मान लीजिए कि इन्द्रिय स्थूलभूत की बनी है । तब वह पहले अपना ग्रहण करने लगेगी - नाक पहले अपनी गन्ध को ग्रहण करेगी ! इसलिए इन्द्रियों को तन्मात्राओं से सूक्ष्म मानना पड़ेगा ।
अब जब हमने तन्मात्राओं और इन्द्रियों को भिन्न तत्त्व मान लिया, तो उनका कार्य होना भी स्पष्ट हो जाता है । क्योंकि श्रुति कहती है कि एक ही कारण से जगत् उत्पन्न हुआ है - "तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (१।४२)" ।
तो पांचों इन्द्रियों का एक उपादान क्यों माना जाए ? ज्ञानेन्द्रियों के output signal और कर्मेन्द्रियों के input signal एक ही इन्द्रिय ’मन’ से आते-जाते हैं । सो वे एक ही तत्त्व के विकार होंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है ।
परन्तु अहङ्कार-नामक उपादान दोनों इन्द्रियों और तन्मात्राओं का उपादान है, यह कैसे मानें ? इसके लिए पहले अहङ्कार को समझना पड़ेगा । अहङ्कार वह है जो हममें ’अहम्’ - "ये मैं हूं" - अर्थात् शरीर से आत्मीयता का भाव उत्पन्न कराता है । जो शरीर हमसे भिन्न है, वो अब हमें अपना लगने लगता है । यह प्रतीति इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान से होती है । जिस वस्तु पर हमारा पूर्ण वश है - हम किधर देखना चाहते हैं, हम कैसे हाथ हिलाना चाहते हैं, यह पूर्णतया हमारे वश में होने से, हम इन्हें अपना भाग मानते हैं । फिर भी इस प्रतीति को उत्पन्न करने के लिए, एक चिपकाने वाली वस्तु की आवश्यकता है । वही अहङ्कार है, और इस प्रकार अहङ्कार का इन्द्रियों से अनुमान लगाया जा सकता है । इसी प्रकार, तन्मात्राओं से बने इस स्थूल शरीर में भी हमारी अहम्-भाव है । इसलिए तन्मात्राओं का कारण भी अहङ्कार ही है, ऐसा अनुमान सम्भव है ।
अब अहङ्कार और बुद्धि में भेद क्यों मानें ? इसके लिए पहले बुद्धि को समझते हैं । वैसे तो, कई अन्य प्रकरणों में बुद्धि और अहङ्कार को अन्तःकरण के दो भेद ही माने गये है, जिससे उनकी समीपता ज्ञात होती है । परन्तु कपिल एक को दूसरे का कार्य मानते हैं । वे कहते हैं - "तेन अन्तःकरणस्य (१।२९)" - अर्थात् अहङ्कार से अन्तःकरण का अनुमान होता है । यहां भी हम देखते हैं कि महत् विकार का अन्य नाम ’अन्तःकरण’ या ’बुद्धि’ या ’मन’ (१।३६ से) है, जिससे हम निश्चयात्मक-वृत्ति समझते हैं । उदयवीर शास्त्री कहते हैं - "बुद्धि का चेतन के साथ सीधा सम्पर्क है ।" यह धारणा कहां से आई है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन सही लगती है, क्योंकि यदि जीवात्मा मूल प्रकृति से connected होता (न कि उसके विकार बुद्धि से), तो उसमें स्वभाव के अनुरूप विकार सम्भव नहीं थे, सब की बुद्धियां सदा समभाव लिये होतीं । परन्तु, हम देखते हैं कि बुद्धि में तीन गुण होते हैं - ’सत्त्व’ जिससे सुख, शान्ति और ज्ञान की अनुभूति होती है; ’रजस्’ जिससे प्रेरित होकर जीव दुःख, अशान्ति और कर्म करता है; और ’तमस्’ से अज्ञान, मोह, क्रूरता, आदि की प्रवृत्ति होती है । सो, बुद्धि प्रकृति का कोई विकार अवश्य है, और अति सूक्ष्म जीवात्मा से connect होने के लिए उसका अति सूक्ष्म होना आवश्यक है । बल्कि उससे सूक्ष्म किसी विकार का हम प्रयोजन नहीं जानते, इसलिए इसको प्रकृति का प्रथम विकार माना गया है । इसी बात को कपिल ने इस प्रकार कहा है - "पारम्पर्येऽप्येकत्र परिनिष्ठेति सञ्ज्ञामात्रम् (१।३३)" - अर्थात् उपादान कारणों की परम्परा होने पर भी, एक स्थान पर उनकी समाप्ति माननी पड़ेगी, सो भेद केवल सञ्ज्ञा का होगा । जो बुद्धि और प्रकृति के बीच में अन्य विकार मानें, तो उनमें भेद कैसे करें ?! केवल नई-नई संज्ञाएं देने से कुछ भी ज्ञान में बढ़ोतरी नहीं होती !
फिर कपिल कहते हैं - "ततः प्रकृतेः (१।३०)" - अर्थात् बुद्धि से कारण प्रकृति का अनुमान होता है । सो, तीन गुणों के सद्भाव को देखकर, उनके समभाव का अनुमान होता है । वही प्रकृति है जो एकरस है ।
पुनः प्रश्न पर लौटते हैं - अहङ्कार और बुद्धि में भेद क्यों मानें ? यदि अहङ्कार वह वृत्ति है जो शरीरोन्मुख है, जो शरीर में और शेष वातावरण में भेद कराती है, और बुद्धि वह वृत्ति है जो जीवात्मा को शरीर से जोड़ती है और उसके स्वभाव को कार्यान्वित करती है, तो बुद्धि अहङ्कार से सूक्ष्म होगी । इस प्रकार, अहङ्कार से बुद्धि का अनुमान होता है ।
अन्त में, साङ्ख्य के अनुसार, इन्द्रियों से उपलब्ध स्थूलभूतों और प्रकृति जैसे मूल तत्त्व के श्रौत-प्रमाण से, हम बीच के अचाक्षुष तत्त्वों की सम्पूर्ण परम्परा का अनुमान लगा सकते हैं, और उनके बीच में कार्य-कारण सम्बन्ध जान सकते हैं । केवल "यह कार्य है, इसलिए यह दूसरा इसका उपादान कारण होगा" कहकर बात को उड़ा देने की आवश्यकता नहीं है । ’अहङ्कार’ और ’बुद्धि’ - ये नाम तत्वों को क्यों दिये गए हैं, यह भी समझना महत्त्वपूर्ण है । ये नाम हमें confuse करने के लिए नहीं हैं, अपितु हमें वस्तु-स्थिति बताने के लिए हैं ।