The Law of Karma

कर्म-व्यवस्था के आयाम

सामान्य रूप से हम सभी कर्म-व्यवस्था (Law of Karma) को समझते हैं - अच्छे कर्म करने से हम पुण्य अर्जित करते हैं, और बुरे कर्मों से पाप । पुण्य का फल सुख होता है, और पाप का दु:ख । परन्तु हमारे शास्त्रों में इस विषय पर गहन रूप से विचार हुआ है, और इसके बहुत आयामों पर चर्चा की गई है । उनमें से कुछ मैंने इस लेख में दिए हैं ।

सबसे पहले, ’कर्म’ होता क्या है - हमें यह समझना पड़ेगा । कर्मों को तीन में विभाजित किया गया है -

१) शारीरिक - शरीर के अवयवों के द्वारा की गई कोई भी क्रिया, जैसे - उछलना, कूदना, देना, लेना, उठना, बैठना, इत्यादि ।

२) वाचिक - वाणी से किए गए कर्म, जैसे - सच बोलना, झूठ बोलना, प्रशंसा करना, चुगली करना, डांटना, इत्यादि । वैसे तो जिह्वा भी शरीर का अवयव है, परन्तु इससे किए गए कर्म इतने विशेष होते हैं कि इनको शारीरिक कर्मों से अलग रखा गया है । जहां शारीरिक कर्म से हम वस्तुओं पर प्रभाव डालते हैं, वहां वाणी से हम दूसरे के मन पर प्रभाव डालते हैं, जिससे उसकी आत्मा पर प्रभाव पड़ता है । यहां तक कि हम अपने मन और आत्मा पर भी वाणी से प्रभाव डालते हैं - जप आदि का यही महत्त्व है । मन में जप करने से मन इतना एकाग्र नहीं होता जितना कि बोल कर जप करने से । अपने मन का हाल भी (जो कि आंखों से सर्वदा प्रकट नहीं हो पाता) हम वाणी से दूसरे को अवगत कराते हैं । इस प्रकार वाणी का कर्म बहुत ही विशेष होता है ।

३) मानसिक - मन भी शरीर का अवयव है । परन्तु, वाणी की तरह, यह भी अति-विशिष्ट है । मन सीधा आत्मा से सम्बद्ध होता है । ज्ञान का वह मुख्य साधन है । मन से किए गए कर्म कुछ तो केवल मन ही करता है, जैसे - सोचना, सीखना, ईर्ष्या करना, सुखी होना, इत्यादि; और कुछ शरीर के अन्य अवयवों के साथ मिलकर करता है, जैसे - देखना, सुनना, छूना, इत्यादि । यहां संशय हो सकता है कि देखना, सुनना, आदि तो शारीरिक कर्म हैं ? किन्तु, नहीं, इनको मानसिक में ही गिना जाता है, क्योंकि इनमें मन की क्रिया अधिक होती है । हम सभी ने अनुभव किया है कि, गम्भीर विचार में मग्न होने पर, आंखें खुली होते हुए भी नहीं देखतीं । यह इसी कारण से है कि आंखों से आते हुए चित्र पर जब तक मन ध्यान देकर उसको पहचानेगा नहीं, तब तक आंखें अपना काम सही रूप से करते हुए भी हमें कुछ नहीं बताएंगी । इसी प्रकार, पांचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त signals मन के analysis के बिना व्यर्थ हो जाते हैं ।

वास्तव में, मन के बिना कोई कर्म होता ही नहीं । जिन भयंकर रोगों में मन काम करना बन्द कर देता है, वहां मानसिक ही नहीं, शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी बन्द हो जाती हैं । दूसरी ओर, जिस क्रिया से मन युक्त नहीं होता, वह कर्म होता ही नहीं, जैसे - हृदय का धड़कना, पलक का झपकना । यहां तक कि अन्यमनस्क भाव से पैर या हाथ हिलाना आदि क्रियाएं कर्म नहीं होतीं (उस समय जो मन सोच रहा होता है, वही कर्म होता है, शारीरिक हिलना नहीं) । सभी कर्मों में तीनों प्रकार का अंश होने पर भी, जिस क्रिया में जिस अवयव की प्रधानता होती है, हम उसे उसी नाम से पुकारते हैं ।

अब देखते हैं कर्म के गुण । गुण की दृष्टि से कर्म चार प्रकार का होता है, जैसा कि व्यास मुनि ने पातञ्जल योगदर्शन के भाष्य में लिखा है (कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ॥ योगदर्शनम् ४।७ और उसकी व्याख्या ॥) । ये विभाजन मुख्यत: कर्म-फल की दृष्टि से है ।

अ) कृष्ण - कृष्ण का अर्थ है ’काला’ । नाम के अनुसार ही, ये दुष्ट लोगों के द्वारा किए गए पूर्णतया हिंसात्मक कर्म होते हैं, जैसे - हत्या, चोरी, ईर्ष्या, द्रोह, इत्यादि । यदि ये अच्छे लक्ष्य के लिए हों (या, दूसरे शब्दों में, शास्त्र-विहित हों), तो ये शुक्ल-कृष्ण कर्म में बदल जाते हैं, जैसे - राजा के द्वारा हत्यारे को मारने की आज्ञा, स्वतन्त्रता के लिए आततायिओं से द्रोह ।

आ) शुक्ल-कृष्ण - भले उद्देश्य से किए गए सांसारिक शारीरिक और वाचिक कर्मों में सदा ही हिंसा का लेश होता ही है । जैसे - झाड़ू लगाते समय हम कुछ चींटी, कीड़ों, आदि को जाने-अनजाने में मार देते हैं । ज्ञानार्जन में भी कागज बनाने के लिए पेड़ कटते हैं, स्याही बनाने में पर्यावरण दूषित होता है । इसी प्रकार बोलने के लिए मुंह खोलते समय हम मुंह या नाक से कीटाड़ुओं को अन्दर ले लेते हैं, जो अन्तत: पेट में मर जाते हैं । सो उपदेश देने में भी हिंसा है ! मनु ने मनु-स्मृति में बताया है कि गृहस्थ के कार्यों में थोड़ी हिंसा अवश्य होती है -

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्कर: ।

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ॥ मनुस्मृति: ३।६८ ॥

अर्थात् चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली और पानी का घड़ा - इन पांचो से की गई हिंसा के द्वारा गृहस्थी (संसार से, जन्म के क्रम से) बन्ध जाता है । वानप्रस्थियों के अभक्ष्य पदार्थों में वे बताते हैं -

न फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि केनचित् ।

न ग्रामजातान्यार्तोऽपि मूलानि च फलानि च ॥ मनुस्मृति: ६।१६ ॥

अर्थात् हल से जोती हुई भूमि से उत्पन्न अन्नादि को वानप्रस्थी न ग्रहण करे, चाहे वह उसे कोई भी दे । भूख से पीड़ित होने पर भी, ग्राम में उत्पन्न फल और मूल न खाए । यह उन्होंने इसीलिए कहा है कि इन पदार्थों में हिंसा लिप्त है । और हिंसा से उत्पन्न वस्तु का उपभोक्ता भी पापी होता है ।

इस प्रकार, सामान्य लौकिक कर्म थोड़े श्वेत = सफेद (पुण्यात्मक), और थोड़े कृष्ण = काले (पापात्मक) होते हैं ।

इ) शुक्ल - ये वे पुण्यात्मक कर्म हैं जिनमें हिंसा का लेशमात्र भी नहीं होता, केवल अपने या दूसरे के लिए उपकार ही होता है । इनको करने में केवल मन का उपयोग होता है, जैसे - तप, स्वाध्याय, ध्यान । इस प्रकार कोई भी हितकारी विचार शुक्ल होती है ।

ई) अशुक्लाकृष्ण - जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, ये कर्म न तो पुण्य देते हैं, न पाप के भागी बनाते हैं । हम इनको निष्काम कर्म के रूप में जानते हैं । लेकिन इनको सामान्य जन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, और कुछ नहीं तो, हम पुण्य की ही कामना करते हुए शास्त्रविहित कर्म करते हैं । ये कर्म वे योगी जन ही कर पाते हैं जिन्होंने अपने को जान लिया है, परमात्मा की झलक पा ली है । उसके उपरान्त उनके लिए शारीरिक कर्म व्यर्थ हो जाते है । वे जो कर्म करते हैं, वे या तो अपने शरीर को बनाए रखने के लिए करते हैं, या फिर दूसरों के उपकार के लिए करते हैं - लेकिन किसी पाप-पुण्य की कामना के बिना । इसलिए इन कर्मों के कोई फल नहीं होते ।

कृष्ण, शुक्लकृष्ण व शुक्ल कर्मों के पुण्य वा पापरूपी फल होते हैं । वास्तव में, ’पुण्य’ और ’पाप’ - ये कर्म करने के बाद और फल देने से पूर्व की अवस्थाएं होती हैं, जिसको शास्त्र में ’कर्माशय’ या ’अदृष्ट’ कहा जाता है । हमारे किए हुए कर्म जैसे प्रकृति के ताने-बाने में बुन जाते हैं, और समय आने पर फल देते हैं । इस अवस्था में कर्मों को तीन वर्गों में समझा जाता है, जिनको कि हम बैंक के account के रूप में समझ सकते हैं -

च) सञ्चित - यह एक savings account की तरह होता है, जिसमें कि जन्म-जन्मान्तरों से किए गये हमारे कर्म जुड़ते जाते हैं - पुण्य positive account balance में और पाप negative account balance में ।

छ) प्रारब्ध - सञ्चित में से जो कर्म इस जन्म में फलित होने वाले हैं, गर्भाधान होते ही, वे इस current account में transfer हो जाते हैं । जैसे जैसे फल मिलता जाता है, वैसे वैसे कर्माशय debit होकर, current account balance कम हो जाता है ।

ज) क्रियमाण - इस जन्म में जो हम कर्म करते जा रहे हैं, उनके कर्माशय इसमें जुड़ते जाते हैं । इनमें से कुछ कर्म इसी जन्म में फल देंगे । वे प्रारब्ध में transfer हो जाते हैं । जो अन्य जन्मों में फल देंगे, वे मृत्यु के बाद सञ्चित कर्मों में जुड़ जायेंगे ।

अब कर्म-फल पर दृष्टि दौड़ाते हैं । योगदर्शन में पतञ्जलि बताते हैं कि फल तीन रूपों में प्राप्त होते हैं (सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा: ॥ योग० २।१३ ॥) -

ट) जाति - यह हमारी योनि है - पेड़, कीड़ा, मछली, आदि से लेकर मनुष्य तक । इस सीढ़ी पर पेड़ सबसे नीचे हैं, और मनुष्य सबसे ऊपर । जैसे-जैसे हम इस सीढ़ी पर ऊपर चढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है, और हमारे भोग के प्रकार बढ़ते जाते हैं । और मनुष्य जन्म पर पहुंच कर, ये भी अपनी पराकाष्ठा को पहुंच जाते हैं ।

मनुष्य जन्म कई प्रकार से बहुत ही विशेष है । जानवरों में प्रधानत: खाना-पीना, प्रजनन करना और निद्रा के सिवा, अन्य क्रियाएं बहुत कम पाई जाती हैं । दूसरी ओर, मनुष्य अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त कर सकता है - भौतिकी, गणित, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कृषि, लोहकारी, आदि । और उसके मनोरंजन-रूपी भोगों का तो जैसे कोई अन्त ही नहीं है, जैसे - संगीत, नाटक, पहेली, क्रिकेट, आदि शारीरिक व मानसिक अनेकों क्रीडाएं । एक यही योनि है जिसमें हम इतना ज्ञानार्जन कर सकते हैं कि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसीलिए मनुष्य जीवन को व्यर्थ मत जाने दो - ऐसा उपदेश बारम्बार हमारे शास्त्रों में पाया जाता है ।

ठ) आयु - जाति के समान, यह भी अगले विभाग - भोग - पर सीमा लगाती है । यही नहीं, मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी जो अत्यन्त परिश्रम की आवश्यकता है, वह लम्बी आयु के बिना सम्भव नहीं है । इसलिए वेदों में परमात्मा ने मनुष्यों से सदा लम्बी आयु के लिए प्रयत्न करने का उपदेश दिया है - ’जिजीविषेच्छतं समा: (यजु० ४०।२)’

ड) भोग - ये अन्य सभी भौतिक सुख-दुख हैं जो हमारे दैनिक जीवन का अंश हैं ।

यहां यह समझना आवश्यक है कि एक कर्म का एक फल नहीं होता । हो सकता है कि कई कर्म जुड़ कर एक फल दें, जैसे - हमारी योनि । या हो सकता है कि एक कर्म अनेक फल दे, जैसे - ज्ञान-प्राप्ति में किया गया आलस हमें कई प्रकार से पीछे घसीटता है, दु:ख देता है । यह व्यवस्था पूर्णतया परमात्मा के हाथों में है । हम तो इसे समझने में भी असमर्थ हैं क्योंकि यह इतनी क्लिष्ट है ।

परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपना धर्म जानने से बच सकते हैं ! हममें से जो समझते हैं कि अनजाने में किया गया पाप, पाप नहीं है - वे गलत समझते हैं ! देखिए, किसी देश में रहने के लिए हमारे द्वारा उस देश के कर्तव्य-सम्बन्धी कानून जानने आवश्यक हैं । इन्कम-टैक्स कितना है, कैसे भरना है, जन्म-मरण की रजिस्ट्री कैसे करवानी है - क्या ये सब कानून जाने बिना किसी का गुजारा हो सकता है? यदि आप इन्कम-टैक्स वाले को कहते है कि "भाई, मैंने टैक्स नहीं भरा क्योंकि मुझे नियम मालुम नहीं था" तो आप जानते हैं कि वह क्या कहेगा, और आपको जुर्माना भी देना पड़ेगा ! ठीक इसी प्रकार जीवन जीने के लिए परमात्मा ने वेद के रूप में धर्म और अधर्म का पूर्णतया उपदेश कर दिया है । और फिर यदि आप अपना कर्तव्य जानने में आलस करते हैं, तो जुर्माना तो आपको देना ही पड़ेगा !

कई बार हम यह भी सुनते हैं कि भला करने के लिए बुरा भी करना पड़े, तो वह ठीक है, उसमें कोई पाप नहीं है । स्मरण करिये युधिष्ठिर की कहानी जहां भले के लिए ’धृष्टद्युम्न (हाथी) मारा गया’ - यह आधा सत्य कहने के लिए भी उन्हें नर्क में समय काटना पड़ा ! परमात्मा की व्यवस्था यही है कि छोटे से छोटे कर्म का फल हमें मिलकर ही रहता है ।

कर्मों, उनके आशयों और उनके फलों को इस प्रकार जानकर, हमें धर्म-अधर्म को समझने की, सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलती है, और बुरे मार्ग को छोड़ने का कारण स्पष्ट हो जाता है । सांसारिक सुखों से धीरे-धीरे विरक्ति होकर, हमारा संसार से बन्धन क्षीण होने लगता है, और परमात्मा से बन्धन दृढ़ होने लगता है ।