आचार्य और ब्रह्मचारी
अथर्ववेद में एक मन्त्र है, जो उपनयन-संस्कार के विषय में प्रसिद्ध है । महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र का उल्लेख संस्कार-विधि में वेदारम्भ-संस्कार के अन्तर्गत किया है । इस मन्त्र में आचार्य की भूमिका पर, और उसके कर्तव्यों पर बहुत ही सुन्दर आलंकारिक भाषा में प्रकाश डाला गया है । इस मन्त्र के, सरल अर्थों के साथ-साथ, अत्यन्त गूढ़ अर्थ भी हैं ।
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ।
तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ॥ अथर्व० ११।५।३ ॥
देवता - ब्रह्मचारी
शब्द-व्याख्या शब्द धातु + मुख्य अर्थ
प्रत्यय/उपसर्ग
आचार्य: आङ् + चर गतौ + ण्यत् जो शास्त्रों के अर्थों का ग्रहण करे, उनके अनुसार
आचारं ग्राह्यति, आचिनोत्यर्थान् आचरण करे, और शिष्यों को जनाए व कराए
आचिनोति बुद्धिमिति वा
(निरु० यास्क भूमिका १।५)
उपनयमानः उप + नी प्रापणे + शानच् (विद्या या ब्रह्म के) पास लाते हुए (प्राप्त कराते हुए),
या उपनयन संस्कार के द्वारा गुरुकुल में लाते हुए
ब्रह्मचारिणम् बृहि वृद्धौ+मनिन्+चर गतौ+णिनि सदा परमात्मा या वेद-विद्या में विचरने वाले
ब्रह्मणि वेदे चरितं शीलं यस्य सः विद्यार्थी को
कृणुते कॄञ् हिंसायाम् करता है
गर्भम् ग्रह् ग्रहणे + घ (अपने) गर्भ के
यदा हि स्त्री गुणान् गृह्णाति गुणाश्च (ग्रहण करता है)
गृह्यन्तेऽथ गर्भं भवति (निरु० १०।२३)
अन्तः अव्ययम् अन्दर
तम् सर्वनाम उस विद्यार्थी को
रात्रिः रा दाने + त्रिप् रातों तक
(विश्रान्ति, सुख देने वाली)
तिस्रः सङ्ख्या तीन
उदरे उत् + दॄ विदारणे + अल्/अच् तोड़-फोड़ करने वाले उदर में
बिभर्ति भृञ् धारणपोषणयोः धारण और पोषण करता है
तम् सर्वनाम उसको
जातम् जनी प्रादुर्भावे + क्त (गुरु से) जन्मे विद्यार्थी को
द्रष्टुम् दृशिर् प्रेक्षणे + तुमुन् देखने के लिए
अभिसंयन्ति अभि + सम् + या प्रापणे अभिमुख होकर आते हैं
देवाः दिवु क्रीडा आदि अर्थों में, विद्वज्जन
देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा, आदि (निरु०७।१५)
(यहां द्योतनार्थक अर्थात् विद्वान्)
अन्वय: - उपनयमानः आचार्यः ब्रह्मचारिणं गर्भम् अन्तः कृणुते । (सः) तं तिस्रः रात्रीः उदरे बिभर्ति । (विद्याभ्यासान्ते) देवाः तं जातं (ब्रह्मचारिणं) द्रष्टुम् अभिसंयन्ति ॥
अर्थ: - आचार्य ब्रह्मचारी को, गुरुकुल और परमात्मा की ओर ले जाते हुए, माता की तरह, अपने गर्भ के अन्दर कर लेते हैं । वहीं उदर में वे तीन रातों तक उसका धारण और पोषण करते हैं । इसके अनन्तर, उस ब्रह्मचारी का पुनः जन्म होता है, जिस पर हर्षित होते हुए, विद्वज्जन साधुवाद करने आते हैं ।
भावार्थ: - इस मन्त्र में अनेक विचारणीय उपदेश हैं, कुछ सरल और कुछ गूढ़ -
१) यह प्रसिद्ध उपनयन संस्कार का मूल-मन्त्र है, जहां बताया गया है कि बच्चे को एक अवस्था पर गुरु के पास भेज देना चाहिए, घर में नहीं रखना चाहिए, क्योंकि गुरु को बच्चे के सभी बुरे संस्कारों को तोड़-फोड़कर निकालना होता है, और सुन्दर संस्कारों का बीजारोपण करना होता है । घर में रहते हुए, बच्चे के पूरी तरह से संस्कार बदले नहीं जा सकते ।
२) यहां दी गई गुरु के गर्भ से जन्म की उपमा से ही ’द्विज’ = दो बार जिसका जन्म हुआ हो, एक बार शारीरिक, दूसरी बार आध्यात्मिक - यह सञ्ज्ञा निकली है ।
३) मन्त्र में समावर्तन-संस्कार का भी बीज है । विद्याग्रहण पूर्ण होने पर, सभी विद्वानों को उपस्थित होकर युवक का, साधुवाद करके, प्रोत्साहन करना चाहिए कि एक और बालक सुसंस्कृत हो गया ।
अब गूढ़ अर्थ ।
४) ’आचार्य के द्वारा गर्भ में धारण कर लिया गया’ - इसका क्या अर्थ है ? माता के गर्भ कि यह विशेषता होती है कि वह पचा हुआ अन्न अपने शिशु को पहुंचाती है । उसे पा कर शिशु को केवल बढ़ने का कार्य करना होता है । इसी प्रकार गुरु सारे शास्त्रों का अध्ययन करके, उन्हें प्रत्यक्ष जानकर, ब्रह्मचारी को सार-रूप में सब देता है । यही नहीं - जिस प्रकार माता बच्चे को वही देती है जो शिशु के लिए सबसे लाभकारी होता है, विष को अपने अन्दर ही रोक लेती है, उसी प्रकार आचार्य भी मिथ्या को छान कर, केवल सत्य ही विद्यार्थी को देता है । और उस रूप में देता है, जिस रूप में विद्यार्थी उसका ग्रहण कर सके । यदि विद्यार्थी मन्द-बुद्धि है, तो आचार्य को उसे भिन्न प्रकार से पढ़ाना पड़ेगा, यदि तीक्ष्ण-बुद्धि है तो भिन्न प्रकार से, अर्थात् बालक की आवश्यकतानुसार, उसकी अभिरुचि या निपुणता के अनुसार आचार्य की पाठन-विधि परिवर्तित हो जानी चाहिए । और वह भी पूर्ण वात्सल्य के साथ । आजकल स्कूलों में जो आचार्यों को बच्चे पर डण्डा चलाना अधिक लाभकारी लगता है, और अपने पढ़ाने के प्रकार को बदलना कठिन लगता है, उसी के कारण बच्चे भी उनसे द्रोह करते हैं ।
५) तीन रात्रियों का यहां क्या अर्थ है ? विद्यार्जन में तो वर्षों लगते हैं ! पहले तो यह ’रात्रि’ अन्धकार, अर्थात् अज्ञान का सूचक है । सो, तीन प्रकार के अन्धकारों से गुरु ब्रह्मचारी को छुड़ाता है । ये हैं - प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा के विषय में अज्ञान, जिनको योगदर्शन में पञ्चक्लेश के रूप में वर्णित किया गया है । इन अन्धकारों को दूर कर दिया तो फिर प्रकाश के सिवा क्या बच रहा ? सूर्य जगमगा उठा ! रात्रि की उपमा यहां गर्भ में अन्धकार - इन्द्रियों का और अज्ञान का - भी द्योतक है ।
गर्भ की और तीन रात्रियों की उपमाएं ही इस मन्त्र के प्राण हैं । ऐसा सुन्दर उपदेश, वेदों से अन्यत्र, क्या किसी और ग्रन्थ में मिलता है? मिल सकता है ??