The Eternal Dharma of Mankind

सनातन मानव-धर्म

धर्म का अर्थ प्राय: सभी भारतीयों को स्पष्ट है - कर्तव्य, जीने का सही मार्ग, पक्षपात-रहित व्यवहार, व्यावहारिक मर्यादाएं । परन्तु संस्कृत में इसका अर्थ बहुत विशाल है, और स्वायम्भुव मनु-रचित मनु-स्मृति में इन सभी अर्थों में धर्म का प्रवचन है । इस लेख में मैंने धर्म के विभिन्न अर्थों, और विशेष रूप से मनु के दश-लक्षण युक्त धर्म के विषय में बताया है ।

धर्म शब्द ’धृञ् धारणे’ धातु से मन् प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न होता है । इसलिए इसका अर्थ है - जो धारण - व्यवहार में लाने या ग्रहण करने - योग्य है । इस परिभाषा से पहला अर्थ निकला - हमारा जाना-पहचाना कर्म । मनु कहते हैं - "आचार: परमो धर्म: ॥ मनुस्मृति: १।१०८ ॥ जहां आचार का अर्थ है - सदाचार, न कि दुराचार । इसको उन्होंने और भी स्पष्ट किया -

वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन: ।

एतच्चातुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् । २।१२ ॥

अर्थात् धर्म के साक्षात् लक्षण (प्रमाण) हैं - चारों वेद, मनु/याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियां, सत्पुरुषों का सदाचार और अपनी आत्मा को प्रिय लगने वाला व्यवहार ।

अन्यत्र मनु ने मनु-स्मृति में सभी प्रकार के धारण करने योग्य अंश लिख दिए हैं । जैसे - चारों वर्णों और आश्रमों से सम्बद्ध दिनचर्या और विशेष कर्तव्य, क्या खाने योग्य है, किसमें खाने योग्य है, राजा को कितना कर लगाना चाहिए, विवादास्पद विषय क्या हैं और उन्हें कैसे निपटाने चाहिए, प्रायश्चित्त कैसे करना चाहिए, आदि, आदि ।

दूसरा धर्म का अर्थ निकला - गुण या स्वभाव । संस्कृत में "जल का धर्म शीतलता है" - ऐसा कहा जाता है । यहां धर्म से ’गुण’ लक्षित है । योगदर्शन में कहा गया है - "शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी (योग० ३।१४)" - अर्थात् जिसमें (यहां पर - चित्त या इन्द्रिय में) शान्त (भूतकालीन), उदित (वर्तमान्) और अव्यपदेश्य (भावी) धर्म पाए जाते हैं, वह धर्मी होता है । यहां धर्म का ’स्वभाव’ अर्थ है । मनु के दश-लक्षणात्मक धर्म में - जिसकी मैंने आगे विस्तृत व्याख्या दी है - में भी मनुष्य के उन गुणों का वर्णन है, जो कि मनुष्यों के द्वारा धारण करने योग्य हैं ।

तीसरा अर्थ है - पुण्य या पाप - मनुष्य के कर्मों का फल । जैसे-

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽपि याति य: ।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ॥ ८ । १७ ॥

अर्थात् एक धर्म ही एसा मित्र है जो कि मरने पर भी हमारे साथ जाता है क्योंकि शरीर के साथ बाकी सब नष्ट हो जाता है । यहां धर्म का अर्थ ’कर्मों के फल’ है ।

इस प्रकार ’धर्म’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । इस लेख में हम ’करने योग्य’ या ’स्वभाव में लाने योग्य’ की ही चर्चा करेंगे ।

उस ग्रहण करने योग्य धर्म को दो भागों में बांटा जा सकता है - शाश्वत् / सनातन और सामाजिक / अनित्य । अनित्य धर्म परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है, परन्तु शाश्वत् धर्म कूटस्थ रहता है । इसके तीन लक्षण होते हैं -

१) सार्वभौम - सारी भूमि पर लागू होने वाला । कोई ऐसा देश नहीं होता, जहां इससे छुटकारा पाया जा सकता है । जैसे - सत्य बोलना । हम यदि झूठ बोलने वालों के देश में भी रहते हों, हमारा धर्म - चुम्बक की तरह - सत्य की ओर ही झुकेगा ! इसके विपरीत, प्रणाम करने का प्रकार हर देश में अलग होता है ।

२) सार्वकालिक - जो हर पल, हर क्षण में लागू हो । जैसे - चोरी न करना । दिन हो या रात हो, हम बड़े हो या छोटे हों, फिर भी चोरी अधर्म ही रहेगी । दूसरी ओर, बच्चों के प्रति कर्तव्य बच्चा रहने तक ही होते हैं, और उनके बड़े हो जाने पर समाप्त हो जाते हैं ।

३) सार्वजनिक - जो मनुष्य-मात्र के लिए विहित हो, किसी सम्प्रदाय-विशेष के लिए नहीं । जैसे - परोपकार करना ऐसा धर्म है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या अन्य किसी के लिए ही विहित हो - ऐसा नहीं है । सभी मनुष्यों का यह कर्तव्य है । दूसरी ओर, जो क्षत्रिय का रक्षा का धर्म है, वह अन्यों का नहीं है ।(१. योगदर्शन में तो इन तीनों को ही ’सार्वभौम’ कहा गया है- "जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् (योग० २।३१)", लेकिन इनको अलग-अलग समझना लाभकर है । )

इस सनातन धर्म के विपरीत, ’सामाजिक धर्म’ देश, काल और हमारी सामाजिक परिस्थिति पर निर्भर होता है, जैसा मैंने ऊपर उदाहरणों से दर्शाया है । ऐसा नहीं है कि वह अनावश्यक हो, परन्तु कम महत्त्वपूर्ण तो अवश्य होता है ।

अब स्वभाव-पक्ष में मनु के द्वारा दिए गए सनातन धर्म के दस लक्षण हम अधिक विस्तार से देखते हैं ।

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ ६।९२ ॥

अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दश लक्षण हैं । आइये, इनको हम एक-एक करके समझते हैं ।

१) धृति - या धैर्य । यह धर्म कैसे हुआ - क्या आपने कभी यह सोचा है ? इस गुण को हासिल करना इसलिए आवश्यक है कि देखने में आता है कि जब भी हम धैर्य खो बैठते हैं, हम अधर्म कर बैठते हैं ! लेकिन इसका और भी महत्त्व है - जब हम धर्म के मार्ग पर निकलते हैं, तब कठिनाइयां अवश्य ही हमारे सामने आती हैं । उनसे डर कर यदि हम वह मार्ग छोड़ दें, तो धर्म के मार्ग पर टिकना हमारे लिए असम्भव है । उपनिषद् कहता है - क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया अर्थात् धर्म का मार्ग तो छुरे की तरह पैना है, उसपर चलने का अर्थ है बहुत संकटों से जूझना । इसलिए धर्म के लिए कमर कसने का पहला उपाय है दृढ़ हो जाना ।

२) क्षमा - दूसरा गल्ती करे और हम कुछ भी वैर अनुभव न करें, बदला न लें, इसे क्षमा कहते हैं । लेकिन यदि हमें यह गुण अपने में उत्पन्न करना है, तो हमें इसके कारण को समझना होगा । हममें बदले की भावना तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरे से धर्म की अपेक्षा रखते हैं, परन्तु वह अधर्म करता है । इसलिए, यदि हम दूसरे से धर्म की अपेक्षा ही न रखें, तो हमें न तो क्रोध आयेगा, न हमें क्षमा करने में कष्ट होगा ! क्षमा में एक ही कठिनाई है - उसके करने पर दूसरा व्यक्ति समझने लगता है कि हम निर्बल हैं, इसलिए मैदान छोड़कर भागने के लिए क्षमा करने का ढोंग कर रहें हैं । अधिकतर तो पत्थर-दिल भी क्षमा से पिघल जाता है, जैसे कि बुद्ध और अङ्गुलिमाल की कहानी से प्रसिद्ध है । परन्तु कुछ नीच व्यक्तियों को दूसरे के व्यवहार में सदा खोट ही दिखता है । ऐसे व्यक्तियों से - क्षमा करते हुए भी - निबटना हमारा कर्तव्य है ।

क्षमा करते समय हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ऊपरी मन से क्षमा न करें । हमारे अन्दर तक द्वेष-भाव का लेश भी नहीं होना चाहिए, नहीं तो वह सच्ची क्षमा न होगी । दूसरे, कभी-कभी द्वेष-भाव न भी होने पर, हमेंं दण्ड देना पड़ता है । इसमें बुराई नहीं है - परमात्मा का स्वभाव भी ऐसा ही है । महत्त्वपूर्ण यह है कि हम मन में सदा दूसरे की भलाई रखें - परमात्मा की तरह !

३) दम - इसका अर्थ है मन को नियन्त्रण में रखना । हमारी कुछ आत्मिक कमियां होती हैं जिनके कारण हमारे विचार अधर्म की ओर झुकते हैं । ये विचार फिर अधार्मिक संकल्पों, वचनों और कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं । इस प्रवृत्ति को रोककर, अपनी इच्छाओं को धर्म की ओर मोड़ना ही दम है । जब हम अपने मन को अधर्म की ओर भटकने ही न देंगे, तो अधर्म हमें धीरे-धीरे छोड़ देगा !

४) अस्तेय - अर्थात् चोरी न करना । यह चोरी तीन प्रकार की होती है । प्रथम, शारीरिक तो हम जानते ही हैं - वस्तु के स्वामी की आज्ञा लिए बिना उसका उपयोग करना या उसपर अधिकार जमाना । दूसरी होती है वाचिक चोरी जिससे हम वाणी के द्वारा दूसरे का कुछ ले लेते हैं । जैसे - हमने किसी को प्रसन्नता से अपनी नई गाड़ी को देखते हुए देखा । हमसे रहा न गया । हमने तुरन्त कहा - "लेकिन इससे अच्छी तो वह दूसरी गाड़ी है । आपने वह क्यों न खरीदी ?" इस छोटे से वचन से हमने उस व्यक्ति का, पूरा नहीं तो, आधा सुख तो हर ही लिया ! इस प्रकार कई बार हम वाणी से दूसरों का सन्तोष, शान्ति, आत्मसम्मान, आदि, हर लेते हैं । इन को भी चोरी ही मानना चाहिए । इसीलिए मनु स्वयं कहते हैं -

"सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।

प्रियं च नानृतं च ब्रूयादेष धर्म: सनातन: ॥ ४।१३८ ॥"

अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो, पर मत बोलो अप्रिय सत्य, और मत बोलो प्रिय असत्य, क्योंकि यही सनातन धर्म है ।

तीसरी होती है मानसिक चोरी । जो हम मन से किसी की वस्तु पर नजर लगाते हैं, ईर्ष्या करते हैं, अपना बनाने की सोचते हैं - ये सभी चोरी ही हैं । इसीलिए ईर्ष्या आदि को अधर्म कहा गया है ।

५) शौच - शारीरिक शुद्धता को शौच कहते हैं । (मानसिक और वाचिक शौच अन्य बिन्दुओं में आ जाते हैं ।) इसे धर्म क्यों कहा गया हैं ? शरीर तो हमसे भिन्न है ! यह इसलिए कि, भिन्न होते हुए भी, हमारे लक्ष्य तक पहुंचाने वाला यही हमारा परम साधन है । परमात्मा ने हमें एक perfect machine दी है । इसके द्वारा हम भौतिक सुख ही नहीं, मोक्ष का परम लक्ष्य भी प्राप्त कर सकते हैं, और इसके बिना - कुछ भी नहीं ! कोई भी machine बिना maintenance के नहीं चल सकती । सो, इस शरीर की रक्षा करना और इसमें बल की वृद्धि करना उसने हमारा कर्तव्य बना दिया है । इसीलिए, शरीर को कष्ट देना, अपने प्राण ही ले लेना - अपराध हैं । जो समझते हैं कि शरीर को ’तपाना’ परमात्मा का आदेश है, वे नासमझ हैं । परमात्मा ने तो सौ वर्ष जीने के लिए प्रयत्न करने का उपदेश दिया है - "जिजीविषेच्छतं समा: ॥ यजु० ४०।२ ॥" ! हां, आलस्य न करके, इसपर इतना जोर डालना जो यह टूटे भी न, परन्तु और बलवान् हो जाए - यह तो ठीक है ।

६) इन्द्रियनिग्रह - यह हमारी इन्द्रियों का स्वभाव है कि वे अपने विषयों की ओर दोड़ती हैं । जैसे - जब हम किसी कार्य में संलग्न होते हैं, तो हमारा सारा ध्यान उस कार्य पर केन्द्रित होते है । परन्तु, बाहर जोर का धमाका होता है । हमारी इन्द्रियां झट से उसपर केन्द्रित हो जाती हैं । यह स्वभाव हमारी रक्षा के लिए ही प्रभु ने उनमें डाला है । परन्तु, दूसरी ओर, इस स्वभाव को हर विषय में जाने से रोकना - महत्त्वपूर्ण कार्य करने बैठे, तो टी०वी० ने हमें खींच लिया - इस व्यवहार को रोकना हमारा कर्तव्य है । जितना हम अपनी इन्द्रियों को अन्दर को समेट लेंगे, समेटते-समेटते ध्यान में केंद्रित हो जायेंगे, उतना ही हमें परमात्मा के दर्शन मिलने की सम्भावना बढ़ जायेगी ।

७) धी - धी का अर्थ है बुद्धि । बुद्धि एक साधन है जो परमात्मा ने मनुष्य को इसलिए दिया है कि वह ज्ञानार्जन कर सके । फिर विभिन्न प्रकारों से उसका प्रयोग करके, अनेकों उपकरणों, कार्य के साधनों का निर्माण करके, इस जीवन में हम सुख प्राप्त करें और दुखों को घटाएं । और, बुद्धि मोक्ष के लिए भी उतनी ही आवश्यक है, क्योंकि ज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त करना सम्भव ही नहीं । भक्ति-मार्गी ऐसा समझते हैं कि भक्ति ही परमात्मा को पाने के लिए पर्याप्त है, परन्तु यह सही नहीं । ज्ञान, भक्ति और कर्म का सही समन्वय ही हमें उस अत्यन्त दुरूह लक्ष्य तक पहुंचा सकता है ।

८) विद्या - केवल बुद्धि के विकास से ही कुछ प्राप्त नहीं होगा ! उसका उपयोग करना भी लक्ष्य है । इसलिए एक या अनेकों प्रकार के ज्ञानों - भौतिकी, अर्थशास्त्र, संगीत, आदि - का ग्रहण मनुष्य का कर्तव्य है । परन्तु ग्रहण करने योग्य विषय ही विद्या हैं - विभिन्न प्रकार के जुओं को जानना अविद्या है ! यजुर्वेद (यजु० ४०।१२, १३) में तो उपर्युक्त विद्या को भी अविद्या कहा गया है, लेकिन वहां बहुत ऊंचे स्तर के अध्यात्म-विषय की चर्चा है । मनु-स्मृति का यह श्लोक सामान्य जनों के लिए है ।

९) सत्य - जो पदार्थ जैसा हो, उसे वैसा ही समझना, मानना, बोलना व करना सत्य है । अर्थात् ज्ञान, मन, वचन और कर्म में एकीभाव ही सत्य है । जब हम मानते कुछ और हैं, और बोलते कुछ और हैं - इसे तो सभी असत्य-रूप में समझते हैं, परन्तु कुछ और करना भी असत्य है । जैसे - कोई नेता जानता हो कि न्यायपूर्ण व्यवहार यह है, परन्तु करे कुछ और । इस प्रकार सभी अपराध असत्य में सम्मिलित हो जाते हैं । इसीलिए मनु को उनको अलग-अलग कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी । जिसकी उनको आवश्यकता अनुभव हुई, वह है - चोरी । वैसे तो चोरी - कोई पदार्थ अपना न होने पर भी, अपना होने जैसा व्यवहार करना - भी असत्य ही है, परन्तु यह इतना व्यापक अपराध है कि मनु को उसको अलग करके लिखना पड़ा ।

१०) अक्रोध - पुन:, क्रोध न करना दम के अन्तर्गत ही है, परन्तु यह इतना सामान्य है कि मनु ने इसपर विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए इसको अलग स्थान दिया । यह अन्त में इसलिए है कि यह सबसे कठिन है । यह हमारे अहंकार से सम्बद्ध है, जो कि जीव से सबसे पहले जुड़ता है । सामान्यत:, यह हमारे जीवन की रक्षा भी करता है । यदि कोई हमपर आक्रमण करे, और हम क्रोध न करें, तो हम अपनी रक्षा नहीं कर सकते । परन्तु जब हम आपे से बाहर निकल जाते हैं, हमारे विचार, बोल और क्रिया हमारे वश में नहीं रहते, तो यह क्रोध का त्याज्य रूप है । अन्याय पर, दुर्गुणों पर क्रोध सात्विक क्रोध है, जिसको कि ’मन्यु’ कहा गया है, और सद्गुण के रूप में प्रार्थना द्वारा मांगा गया है - "मन्युरसि मन्युं मयि धेहि (यजु० १९।९)" । यहां हमारी सोचने की शक्ति काम करती रहती है । जिस प्रकार ईश्वर पापियों पर क्रुद्ध होकर उनको दण्ड देता है, उसी प्रकार हमें भी अपने और अन्यों के पापों से क्रुद्ध होना चाहिए - सदा अच्छे की कामना करते हुए ।

असात्विक क्रोध के कुछ रूप इस प्रकार हैं । अपमान पर आग-बबूला हो जाना - सत्पुरुष कभी भी दूसरों की मान्यताओं से विचलित नहीं होते । अहंकार का दूसरा रूप है - मोह - अपनी प्रिय वस्तु या जन या मान्यता के लिए लड़ मरना । जहां एक ओर राष्ट्र आदि के लिए लड़ना सही भी है, जब हम संकीर्णताओं = मोह-बन्धनों से ऊपर उठने लगते हैं, तो सभी धन-जन, यहां तक कि तन भी परमात्मा का ही प्रतीत होने लगता है - "कस्य स्विद्धनम् (यजु० ४०।१)" । सांसारिक जीवन में थोड़े क्रोध की आवश्यकता रहती है, परन्तु अधिक न करें ।

इस प्रकार, मनु का दश-लक्षणात्मक धर्म प्राप्त करने योग्य मनुष्य-स्वभाव को इंगित करता है - कर्तव्य-रूपी साधारणतया समझे जाने धर्म को नहीं । लेकिन स्वभाव और व्यवहार में घनिष्ठ सम्बन्ध होने से, इससे कुछ व्यवहार कर्तव्य बन जाते हैं । और यह धर्म किसी जाति या सम्प्रदाय-विशेष के लिए नहीं है, अपितु सारे मानव-समाज के लिए उपदिष्ट है । इसे ठीक-ठीक समझना, व ग्रहण करना हमारा परम कर्तव्य है ।