The Eight-Limbed Yoga

योग के आठ अङ्ग

योगदर्शन प्राचीन भारत के ६ दर्शन-शास्त्रों (six systems of philosophy) में से एक है । ये छः शास्त्र हैं - योग, साङ्ख्य, न्याय, वैशेषिक, पूर्व- व उत्तर-मीमांसा । इनमें से न्यायदर्शन सत्य को परखने के साधन देता है; साङ्ख्य व वैशेषिक सृष्टि का क्रम और उसके तत्त्वों का विश्लेषण करते हैं; पूर्व-मीमांसा वेदों में दिए कर्म-काण्ड को स्पष्ट करता है; उत्तर-मीमांसा या ब्रह्मसूत्र ब्रह्म, अर्थात् परमात्मा, की चर्चा करता है । दूसरी ओर, महर्षि पतञ्जलि की रचना, योगदर्शन जीवात्मा को केन्द्र बनाकर लिखा गया है । मोक्ष तो सभी दर्शनों का लक्ष्य है, परन्तु योगदर्शन में हमारे व्यवहार और मन के संयम का विषय होने से, यह विशेष-रूप से पठनीय है । उपलब्ध भाष्यों में से सबसे प्राचीन व्यास-भाष्य है, जिसका महर्षि दयानन्द ने पठनीय ग्रन्थों में उल्लेख किया है । यह भाष्य सूत्रों के अनेक संकेत-मात्र से दिए तथ्यों को स्पष्ट करता है, और उदाहरण, आदि, देखकर विषय को जीवन्त करता है । महर्षि दयानन्द ने इस दर्शन के अनेकों सूत्रों की व्याख्या कई ग्रन्थों में की है, विशेष रूप से ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका, सत्यार्थ-प्रकाश और संस्कार-विधि में ।

आचरण में लाए जाने योग्य जो विषय हैं, उनको पतञ्जलि ने आठ भागों में बांटा है । ये हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । इनमें से पहले पांच तो हम सभी को प्रयत्न करके करने चाहिए । बचे तीन के लिए पहले पांच में थोड़ा पारङ्गत होना पड़ता है । अन्तिम अङ्ग तक पहुंचने पर आत्म- और परमात्म-दर्शन हो जाते हैं । इन अङ्गों का विवरण इस प्रकार है -

१) यम - ये दूसरे के साथ व्यवहार में प्रयोग होते हैं । वस्तुतः, ये मानव-मात्र के लिए महाव्रत हैं । पतञ्जलि ने कहा है कि ये जाति (ब्राह्मण, शूद्र, म्लेच्छ, आदि), देश (स्थान - मन्दिर, विदेश, आदि), काल (तिथि, मुहूर्त, आदि), और समय (विशेष समय - "क्षत्रिय केवल युद्ध में मारेगा", या शिष्टाचार - "केवल ब्राह्मण से सत्य बोलो") - इन सभी से बाधित नहीं है । अर्थात् ये यम सार्वजनिक, सार्वभौम और सार्वकालिक हैं । ये पांच इस प्रकार हैं -

क) अहिंसा - कभी भी, किसी भी प्रकार से, किसी भी प्राणी को पीड़ा न देने की भावना । वेद का यह मन्त्र इस का सरल उपाय बताता है - "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे (यजु० ३६।१८)" - सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखो ।

इसका फल है, पतञ्जलि बताते हैं, कि योगी के सान्निध्य में आने वाले प्राणी का, चाहे वह कितना ही हिंस्र क्यों न हो, वैर समाप्त हो जाता है । महाभारत आदि में हम पढ़ते हैं कि अमुक ऋषि के आश्रम में शेर और हिरण भी मैत्री से विचरते थे । ये ऋषि की अहिंसा-प्रवित्ति के उदाहरण हैं ।

ख) सत्य - जो जैसा है, उसे वैसा ही मानना व बोलने को सत्य कहते हैं । प्रधानतया यह वाणी के लिए है । व्यास जोड़ते हैं कि योगी की वाणी, सत्य होने के साथ-साथ, कटु न हो, ठगने वाली न हो और संशय उत्पन्न न करे; प्रत्युत सबके लिए हितकारी हो । सच्चे योगी तो केवल वही बोलते हैं जो हितकारी होता है, gossip, आदि वे नहीं करते ! अर्थात् वे सत्, हित और मित (कम) बोलते हैं ।

इसका फल है - योगी सत्य-सङ्कल्प हो जाता है - जो वह निश्चय करता है, जिसके लिए प्रयत्न करता है, वह सफल होकर ही रहता है ।

ग) अस्तेय - किसी पदार्थ के स्वामी की आज्ञा के बिना उसका उपयोग करना या छीन लेना, यहां तक इच्छा भी करने को ’स्तेय’ = चोरी कहते हैं । इस चोरी को मन, वचन व कर्म से त्याग देने को ’अस्तेय’ कहते हैं ।

इसका फल है - अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि होने लगती है ।

घ) ब्रह्मचर्य - गुप्तेन्द्रिय का संयम है । इसका फल - शरीर और बुद्धि का बल बढ़ जाता है ।

ङ) अपरिग्रह - भौतिक पदार्थों के सङ्ग्रह करने का नाम परिग्रह है । इसमें यह दोष है कि उनके सङ्ग्रह में धन का व्यय और उनसे लगाव होता है । साथ-साथ, उनके रक्षण में समय, श्रम व धन का व्यय होता है । ऊपर से, इनके कारण हम हिंसा, असत्य और स्तेय का आश्रय भी ले सकते हैं । इसलिए पतञ्जलि इन्हें त्यागते जाने का उपदेश देते हैं ।

इसका फल बहुते ही विचित्र है - यह जन्म क्यों हुआ है, अगला जन्म क्या होगा - इसका ज्ञान हो जाना । सम्भवतः, यह इतना कठिन व्रत है कि इसका फल भी अधिक है !

२) नियम - योग के इस दूसरे अङ्ग को हम personal discipline के रूप में समझ सकते हैं । ये हमें यमों को करने में सहायता भी देते हैं । ये भी पांच हैं -

च) शौच - शरीर की अन्दर और बाहर से स्वच्छता, और मन की शुद्धी । शरीर की बाहरी शुद्धी के लिए हम साबुन, आदि लगाते हैं । आन्तरिक शुद्धि के लिए हमें भोजन में अभक्ष्य का आहार नहीं करना चाहिए, जैसे - मांस, मदिरा, सड़े पदार्थ, आदि । मानसिक शुद्धि के लिए हमें राग-द्वेष को प्रयत्न से अपने मन से निकाल देना चाहिए ।

इसका फल है - अपने शरीर से घृणा और दूसरों के शरीरों से दूर रहना । यह अजीब-सा फल लगता है, लेकिन इसका एक प्रयोजन है । जब हम अपने शरीर को मल का भण्डार जानने लगेंगे तब हम में मोक्ष की इच्छा और तीव्र हो जायेगी । इसके अन्य भी फल हैं - मन का प्रसन्न और एकाग्र हो जाना, इन्द्रियों पर वश हो जाना । इनसे योगी आत्म-दर्शन के योग्य हो जाता है ।

छ) सन्तोष - अर्थात् जितना प्रयत्न से प्राप्त हुआ है, उससे अधिक की लालसा न करना । यह भौतिक पदार्थों के लिए - परिवार, धन, आदि - के लिए ही है, क्योंकि आध्यात्मिक स्तर पर तो आत्मा को सदैव परमात्मा के और अधिक पास आने की लालसा रहनी चाहिए !

इसका फल है अत्यन्त सुख की प्राप्ति । महर्षि ने तो इसे मोक्ष-तुल्य सुख कहा है !

ज) तप - द्वन्द्वों (ठण्डी-गर्मी, भूख-प्यास, आदि) को सहन करना, उपवास करना ।

इसका फल - शरीर और इन्द्रियों की अशुद्धियों का क्षय होना, उनका दृढ़ और स्वस्थ होना ।

झ) स्वाध्याय - मोक्षपरक शास्त्रों का अध्ययन करना और ओम् का जप करना । इसके फलस्वरूप, परमात्मा और विद्वानों का सहाय मिलता है, जिससे मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है ।

ञ) ईश्वरप्रणिधान - अर्थात् अपने सब कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर देना ।

इसका फल है - समाधि की सिद्धि सरलता से होना । व्यास के अनुसार, जीवात्मा सब पदार्थों को ठीक- ठीक जानने लगता है, चाहे वे दूसरे स्थान, दूसरी देह या दूसरे काल में क्यों न हों ।

पतञ्जलि समझते थे कि इन यम-नियमों को व्यवहार में लाना कोई सरल बात नहीं है । इसलिए उन्होंने एक tip भी दे दी ! उन्होंने बताया कि जब इनको व्यवहार में लाने में बाधा आए, तो उस बाधा के विपरीत विचारना चाहिए - कि इस व्रत को तोड़ने से मुझे जन्म-जन्मान्तर में इसका फल भोगना पड़ेगा; कि यह श्वान-वृत्ति के समान है - थूक कर चाट लेने के बराबर है, इत्यादि ।

इससे आगे हम समाधि की ओर अग्रसर होना आरम्भ करते हैं ।

३) आसन - यह जो हम योगासन के रूप में - शरीर को विभिन्न प्रकार से कठिन मुद्राओं में ढालना - समझते हैं, वह नहीं है, प्रत्युत समाधि के लिए इस प्रकार बैठना है, जिससे कि हमारे किसी भी अङ्ग में tension न रहे और हम लम्बे समय तक बिना किसी कष्ट के बैठ सकें । सब प्रकार से शरीर को शिथिल करके, चित्त को अनन्त में लीन कर देना चाहिए ।

आसन की सिद्धि हो जाने पर द्वन्द्व बाधित नहीं करते ।

४) प्राणायाम - इस चौथे अङ्ग में, आसन में बैठकर, सांसों को संयमित करना होता है । पतञ्जलि ने इसके चार प्रकार बताए हैं -

बाह्य - जिसमें प्राणों को बाहर फेंककर सांस रोकते हैं ।

आभ्यन्तर - जिसमें प्राणों को अन्दर पूरा भरकर उन्हें रोक देते हैं ।

स्तम्भवृत्ति - इसमें धीरे-धीरे दोनों श्वास-प्रश्वास को कम करते हुए रोक देते हैं ।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी - इसमें प्राण की प्रवृत्ति से उल्टा चलाना होता है - सांस जब बाहर जाना चाहे तो अन्दर लेना, अन्दर जाती सांस को बाहर छोड़ना ।

प्राणायाम के नित्य अभ्यास से सांसे लम्बी और हल्की हो जाती है । धीरे-धीरे, प्रकाश का आवरण छिन्न-भिन्न होता है, और ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम सूर्य में ही बैठे हों ! यह मेरे अपने अनुभव से प्रमाणित है । (अन्य भाष्यों के अनुसार, यदि हम यहां सूत्र में दिये ’प्रकाश’ शब्द से ’अज्ञान का नाश’ मानें, तो समाधि में प्राप्त करने को कुछ बचेगा ही नहीं !)

५) प्रत्याहार - इन्द्रियों को अपने विषयों से निकालकर, अन्दर संकुचित कर लेना । इससे वे ’चित्त के आकार’ की हो जाती हैं । प्रत्याहार के अभ्यास से पूर्ण जितेन्द्रियता प्राप्त हो जाती है । फिर हम जिसको देखना चाहे, उसको छोड़ हमें और कुछ नहीं दिखेगा । अर्थात् पूर्ण focus प्राप्त हो जाता है ।

जहां पूर्व के पांच अङ्ग बहिरङ्ग हैं, अन्तिम तीन अन्तरङ्ग-योग हैं ।

६) धारणा - एक देश (point) पर चित्त को स्थिर करना । ये शरीर का कोई भी भाग हो सकते हैं, जैसे - नाभि, हृदय, मस्तक ।

७) ध्यान - धारणा में चित्त को स्थिर करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए, ध्यान में उसे एक-तार (continuous, without break) किया जाता है, जैसे - पिघले हुए घी की धारा ।

८) समाधि - ध्यान करते-करते, जब केवल ध्येय का ज्ञान रह जाय, अन्य किसी वस्तु की सुध-बुध न रहे, तो वह समाधि-अवस्था होती है । इससे भी अन्तरङ्ग ’निर्बीज समाधि’ होती है, जिसमें आत्म- व परमात्म-दर्शन होते हैं ।

धारणा, ध्यान व समाधि को एक के बाद एक करने से प्रज्ञा (बुद्धि) बहुत बढ़ जाती है ।

इस प्रकार योग के ये आठ अङ्ग हमें साधारण मनुष्य से देवत्व की ओर ले जाते हैं, और अन्त में मोक्षके भागी बना देते हैं । यदि हम इनका पूरा पालन न भी कर पाएं, हम अपनी शक्ति-अनुसार इनका अभ्यास प्रतिदिन बढ़ाते रहना चाहिए, क्योंकि बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है...