परमात्मा का शरीर
वेदों में अनेक बार प्राकृतिक दिव्य शक्तियों का उद्भव परमात्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से बताया गया है, जैसे मुख से अग्नि का उत्पन्न होना । परमात्मा तो अशरीरी हैं, यह सिद्ध है । तो फिर इन उपमाओं का क्या रहस्य है ? व्याख्याकार इनको सुन्दर उपमाएं मानकर छोड़ देते हैं । स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेद-भाष्य में कुछ संकेत मिलते हैं । उन्ही को आगे बढ़ाकर, यह लेख इन उपमाओं की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करता है ।
परमात्मा के शरीर से प्राकृतिक दिव्य शक्तियों की उत्पत्ति के हम दो प्रसिद्ध उदाहरण लेते हैं - एक पुरुष-सूक्त, या यजुर्वेद का ३१वां अध्याय, और दूसरा अथर्ववेद के दसवें काण्ड, सातवें सूक्त में विवरण । ये इस प्रकार है -
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् ॥ यजु० ३१।१२-१३ ॥
अर्थात् परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से अन्य सूर्य जैसे प्रकाश-युक्त तारागण, दो चरणों से भूमि, श्रोत्र से दिशाएं, और इसी प्रकार सब लोक उत्पन्न हुए । यहां एक बात विशेष है - श्रोत्र को तो बार कहा गया है । पहले मन्त्र में उससे वायु और प्राण की उत्पत्ति कही गयी है; दूसरे मन्त्र में उससे दिशाओं की उत्पत्ति बताई गयी है । यह एक संकेत है, कि यह उपमा केवल परमात्मा का आलंकारिक चित्र खींचने के लिए नहीं है, अपितु उससे कुछ महत्त्वपूर्ण विषय बताया जा रहा है ।
महर्षि के संकेत यहां इस प्रकार हैं - परमात्मा के मनन-सामर्थ्य से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ; ज्योतिर्मय चक्षु से सूर्य उत्पन्न हुआ; श्रोत्र अवकाश-रूप सामर्थ्य वाला है, इसलिए उससे आकाश और वायु और वायुमय प्राण - प्राण ही नहीं अपितु सभी इन्द्रियां उत्पन्न हुईं; मुख ज्योति-युक्त और भक्षण करने वाला है, इसलिए उससे अग्नि उत्पन्न हुई; नाभि अवकाशमयी और बीच में होने वाली है, इसलिए उससे मध्यवर्ती अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ; सिर के उत्तम सामर्थ्य और प्रकाशमय होने से, उससे द्युलोक उत्पन्न हुआ; पैरों के ’पृथिवी के कारण-रूप सामर्थ्य से’, पृथिवी उत्पन्न हुई । इनमें से अनेक संकेत अस्पष्ट हैं, जैसे ज्योतर्मय मुख या कारण-रूप सामर्थ्य वाली पृथिवी ।
यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ।
अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन् ।
दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ अथर्व० १०।७।३२ - ३४ ॥
अर्थात् भूमि जिसकी प्रमा है, अन्तरिक्ष जिसका उदर है, द्युलोक जिसने सिर बनाया है; सूर्य और चन्द्र जिसके चक्षु हैं और अग्नि को जिसने मुख बनाया है; जिसके प्राण और अपान यह वायु है, चक्षु किरणें हैं, दिशाएं जिसने प्रज्ञानी= जानने वाली बनायीं हैं, उस सबसे बड़े ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं । पुनः, इन मन्त्रों में चक्षु को दो बार पढ़ा गया है ।
महर्षि के संकेत इस प्रकार हैं - भूमि यथार्थज्ञानसाधन है, जैसे चरण होते हैं । सब के ऊपर सूर्यरश्मियों से युक्त आकाश को सिर के समान बनाया है । ’वात’ समष्टि वायु है, जो कि शरीर में प्राण-अपान के समान है । दिशाएं जनाने वाली होती हैं और व्यवहारों (सभी चेष्टाओं) को सिद्ध करने वाली होती हैं । अन्य उपमाओं के विषय में महर्षि ने कुछ भी नया नहीं कहा है ।
इन अर्थों को हम पहले तालिका में डालते हैं -
संख्या देव शरीरावयव
१. सूर्य चक्षु
२. चन्द्रमा मन, चक्षु
३. द्युलोक सिर
४. अन्तरिक्ष नाभि, उदर
५. भूमि चरण, प्रमा
६. दिशाएं श्रोत्र, प्रज्ञानी
७. वायु/वात श्रोत्र, प्राण-अपान
८. प्राण श्रोत्र
९. अग्नि मुख
१०. किरण चक्षु
तालिका से स्पष्ट है कि इन दो उद्धरणों में थोड़ा भेद है । जहां यजुर्वेद चन्द्रमा को मन से उत्पन्न मानता है, वहीं अथर्ववेद उसको चक्षु-तुल्य मानता है, आदि । इससे भी स्पष्ट होता है कि यहां केवल आलंकारिक वर्णन है - परमात्मा के शरीर से ये देव उत्पन्न होते, या शरीर के यदि ये भाग होते, तो दोनों वाक्य विपरीतार्थक हो जाते ।
अब हमें यह जानना है कि इनको परमात्मा के शरीरावयव क्यों माना गया है । इसके दो कारण हो सकते हैं - या तो प्रभु हमें प्राकृतिक शक्तियों का बोध कराना चाहते हैं - ये मानकर कि हम अपने शरीर को भली प्रकार जानते हैं, या फिर यहां हमारे शरीर के विषय में उपदेश है - ये मानकर कि हम दिव्य शक्तियों के मुख्य लक्षण को समझते हैं । एक तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि ईश्वर हमें इन दो शक्तियों के सम्बन्ध का उपदेश कर रहे हैं । इनको परखने के लिए, पहली उपमा को देखते हैं - सूर्य और चक्षु । सूर्य का मुख्य लक्षण प्रकाश है, और आंख का देखना । देखने की क्रिया से तो सूर्य के बारे में कुछ ज्ञात नहीं होता, परन्तु, चक्षु प्रकाश के कारण ही होता है, यह हम कुछ नया ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । वैज्ञानिकों ने भी प्राणियों का अध्ययन करने पर जाना है कि जो प्राणी सर्वदा अन्धेरे में रहते हैं, वे अन्धे होते हैं । यह ही नहीं, यदि आपकी आंख को प्रकाश का संस्पर्श बहुत काल के लिए न हो, तो वह अन्धी हो जायेंगी, जिस प्रकार से गान्धारी की अवश्य ही हो गई होंगी । इससे अर्थ करने की दिशा देव से शरीरावयव समझ में आई । अब हम आगे अनुशीलन करते हैं ।
चन्द्रमा को भी चक्षु कहा गया है, इसका भी कारण प्रकाश ही प्रतीत होता है । दूसरा, मन से सम्बन्ध बहुत रोचक है । जबकि आधुनिक विज्ञान ने, परीक्षण करके भी, मन और चन्द्र में कोई सम्बन्ध नहीं पाया है, जन-मानस में तो यह सम्बन्ध परम्परा से और अनुभव से उपलब्ध है कि - पूर्णमासी के दिन उन्माद बढ़ जाता है, पागल अधिक पागल हो जाते हैं, अधिक हत्याएं होते हैं, अधिक चोरियां होती हैं, आदि, आदि । शरीर पर चन्द्र का प्रभाव तो प्रसिद्ध ही है - स्त्रियों का मासिक धर्म चन्द्रमा के चक्र के अनुसार होता है, आदि । मानसिक रूप से भी, चांद को देखकर हम स्वयं अपने मन में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं । संस्कृत में ’चन्द्र’ शब्द ’चदि आह्लादे दीप्तौ च’ धातु से निष्पन्न हुआ है, अर्थात् यहां भी दो अर्थ मुख्य हैं - प्रसन्नता और प्रकाश करना । इन सबसे प्रतीत होता है कि चन्द्रमा प्रकाश के लिए तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु मन पर भी उसका गहरा प्रभाव होता है । इस विषय में, वैज्ञानिकों को और अधिक अन्वेषण करने की आवश्यकता है ।
द्युलोक को सिर कहा गया है । महर्षि कहते हैं, "क्योंकि वह सबके ऊपर है।" लेकिन यह कल्पना तो केवल पृथ्वी-वासियों के लिए है - अन्तरिक्ष-वासियों के लिए यह कारण नहीं घटेगा ! परन्तु, दूसरा संकेत - "सिर के उत्तम सामर्थ्य और प्रकाशमय होने से" - ध्यान-योग्य है । जिस प्रकार द्युलोक में ही सारी ऊर्जा उत्पन्न होती है, जिसके कारण पृथ्वी आदि लोकों पर जीवन उत्पन्न होता है, और सूर्य जैसे अन्य तारों के आकर्षण से पृथ्वी आदि ग्रह भ्रमण करते हैं, इसी प्रकार सिर के कारण ही प्राणी जीवित होता है और उसी में हो रही क्रियाओं से अपने शारीरिक व मानसिक व्यवहार करता है । "शिर प्रकाशमय है" का अर्थ है - ज्ञानेन्द्रियों के मुख्य रूप से सिर में स्थित होने से, और मस्तिष्क से उनका ज्ञान ग्रहण होने से, शिर ज्ञान के प्रकाश से युक्त है । सभी इन्द्रियों के signal सिर में आकर मस्तिष्क में प्रकाशित=ज्ञात होते हैं । इन कारणों से द्युलोक शिर-स्थानी है ।
प्रकाश से सम्बद्ध ’(१०) किरण’ भी चक्षु-स्थानी बताई गई है । जहां चक्षु और प्रकाश का सम्बन्ध हम पूर्व ही देख चुके हैं, यहां एक किरण से पुनः चक्षु का सम्बन्ध दिखाने का कारण यह प्रतीत होता है कि आंख की पुतली से अन्दर जानी वाली किरणों में से अधिकतर किरणें retina पर पहुंच कर absorb हो जाती हैं, परन्तु उनका एक छोटा भाग वापस बाहर की ओर reflect हो जाता है । इस प्रभाव को हम विशेषकर बिल्लियों की आंखो में रात में देख सकते हैं - रात को लिए हुए बाघ के चित्र में उसकी आंखों की पुतलियां चमकती हुई दिखती हैं ! वास्तव में, यह सभी की आंखों में होता है । Infra-red photographs में हमारी आंखों में भी चमक स्पष्टतः दिखती है । और आजकल चश्मों का automatic नम्बर निकालने के लिए इस लौटती किरण का प्रयोग होता है । Cataract होने पर यह किरण आंख से बाहर नहीं निकलती है या कम निकलती है । अर्थात् किरण का आंख से बाहर न निकलना रोग का सूचक है । इस प्रकार चक्षु में प्रकाश का अन्दर जाना और बाहर आना - दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं । ये ही सम्बन्ध ’सूर्य, चन्द्रमा, किरण’ संज्ञाएं इंगित कर रही हैं ।
अन्तरिक्ष को नाभि और उदर से उपमित किया गया है । जबकि महर्षि ने इसके कारण अन्तरिक्ष का अवकाश देने का गुण और द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्यवर्ती होना बताया है, लेकिन न ही उदर, न ही नाभि अवकाश देते हैं, चाहे वे मध्यवर्ती अवश्य हैं । लेकिन मध्यवर्ती होना इतना महत्त्वपूर्ण लक्षण नहीं है । मुझे लगता है कि ’नाभि’ और ’उदर’ का अर्थ अधिक गहरा है - जिस प्रकार ब्रह्माण्ड की सृष्टि में प्रथम अन्तरिक्ष (या आकाश) उत्पन्न होता है, इसी प्रकार मनुष्य के भ्रूण में प्रथम ’नाभि’ और उससे सम्बद्ध ’उदर’ उत्पन्न होता हैं । इसीलिए अन्तरिक्ष को इनके समान कहा गया है ।
भूमि की तुलना ’पद’ और ’प्रमा’ से की गई है । महर्षि ने पैरों को यथार्थ-ज्ञान का साधन माना है । वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि यदि मनुष्य बृहस्पति, आदि, वायु से बने लोकों में उत्पन्न होता, तो उसके जीवन में इतनी अस्थिरता होती कि वह कुछ भी प्रगति नहीं कर पाता । भूमि के समान, पांव भी हमको स्थिर रखते हैं । यही रहस्य है इस उपमा का !
अब समझें कि दिशाओं को ’श्रोत्र’ या ’प्रज्ञानी’ क्यों कहा गया है । यदि यहां श्रोत्र का ’अवकाश देना’ गुण ग्रहण करना होता, तो उसकी तुलना अन्तरिक्ष से की जानी चाहिए थी, न कि दिशा से ! दिशा का मुख्य ज्ञान तो आंखों से होता है - सूर्य से पूर्व दिशा स्थापित होती है, आदि । तो फिर दिशा से श्रोत्र का क्यों सम्बन्ध कहा गया है ? आप जानते ही हैं कि कोई भी ध्वनि सुनकर, हम यह अनुमान लगा लेते हैं कि वह ध्वनि कहां से आई, अर्थात श्रोत्र के शब्द-ग्रहण में दिशा का ज्ञान भी सम्मिलित है । और इस दिशा के ग्रहण में किसी अन्य वस्तु, यथा सूर्य व ध्रुव तारे, की आवश्यकता नहीं है । यह ज्ञान स्वयं में परिपूर्ण है । आंखों से हम अन्धेरे में दिशा नहीं बता सकते, परन्तु कान हमें सर्वदा ध्वनि के स्रोत का ग्रहण कराते रहेंगे । वस्तुतः, दिशा आकाश से उत्पन्न हुई है (दिक्कालावाकाशादिभ्यः ॥ साङ्ख्यदर्शनम् २।१२ ॥) । इसलिए आकाश के गुण वाली है । आकाश में जो शब्द उत्पन्न होते हैं, उनमें भी एक दिशा होती है - शब्द स्रोत के केन्द्र से बाहर की ओर जाता है । रेल की पटरी में शब्द हवा से अधिक तेज जाता है, ऐसा रेल से कान लगाकर पता किया जा सकता है । और पटरी की दिशा बदलने पर, ध्वनि भी रेल के साथ मुड़ जाती है ! इस प्रकार दिशा का सम्बन्ध शब्द या श्रोत्र से अधिक है, आंख से कम । ’प्रज्ञानी’ तो विशेष ज्ञान देने वाली होने के कारण दिशा को कहना सही ही है । दिशा के ज्ञान के बिना हमारे अनेकों व्यवहार न हो सकें !
श्रोत्र का सम्बन्ध वायु, और उसी के पर्यायवाची प्राण से इसलिए है कि ध्वनि का ग्रहण vacuum में नहीं होता । Vacuum में कम्पन (vibration) तो उत्पन्न की जा सकती है, पर श्रोत्र से सुनने के लिए परमाणुओं या अणुओं की आवश्यकता है । ’वायु’ से इन का ही ग्रहण करना चाहिए ।
प्राण-अपान का वायु से सम्बन्ध तो प्रसिद्ध ही है, उसमें कुछ भी रहस्य नहीं ।
अग्नि और मुख का सम्बन्ध तो आश्चर्यजनक लगता है ! यहां मुख से शिर अर्थ लेना ठीक नहीं लग रहा, क्योंकि वह द्युलोक के सम्बन्ध में आ गया है । भक्षण वाले मुंह का अर्थ लेने पर, अग्नि के भक्षण और मुंह के भक्षण में तो बहुत अन्तर दीखता है । परन्तु विज्ञान बताता है कि जलने की प्रक्रिया में मुख्य रूप से oxidization होता है, और यही प्रक्रिया भोजन को पचाने में भी होती है । इस प्रकार अग्नि मुख के समान सिद्ध हो गई !
इस प्रकार, हम पाते हैं कि वेद प्रकृति और शरीर की उपमाओं के द्वारा शरीरावयवों की सृजन पर प्रकाश डाल रहे हैं । ये ही नहीं, वे इन अवयवों का प्रकृति की विभिन्न शक्तियों से जुड़ा हुआ घोषित कर रहे हैं । इनको पूर्ण रूप से समझने से अनेकों तथ्य उजागर होते हैं । "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे (वैशेषिक-दर्शनम् ६।१।१)" - वेदों में वाक्यों की संरचना बुद्धिपूर्वक है !