परोपकार और मोक्ष
हमारी संस्कृति में परोपकार का बहुत महत्त्व है । अनेकों कथाओं और सुभाषितों में परोपकार के लाभ वर्णित हैं । इसी को मन में रखकर हम समझने लगते हैं कि परोपकार ही जीवन का परम उद्देश्य है, क्योंकि उससे जीवन के परम लक्ष्य - मोक्ष - की प्राप्ति हो सकती है । परोपकार अवश्य ही समाज के लिए आवश्यक है - इसमें कोई सन्देह नहीं है, परन्तु मोक्ष-विषय में उसकी कितनी सार्थकता है - लेख में इस विषय पर विचार किया गया है ।
कुछ मोक्ष-विषयक शास्त्र इस विषय में क्या कहते हैं - आइये, पहले उसे देखते हैं ।
मुण्डकोपनिषद् में लिखा है -
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढा: ।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ मुण्डको० १।२।१० ॥
श्लोक में इष्ट और पूर्त कर्मों के फल के विषय में बताया गया है । ’इष्ट’ कर्म अग्निहोत्रादि पञ्चमहायज्ञ और अन्य श्रुति-विहित कर्मों को कहा जाता है । रुग्णालय बनवाना, गरीबों को भोजन कराना, आदि स्मृति-विहित कर्म ’पूर्त’ कर्म कहाते हैं । पूर्त कर्मों को ही आजकल ’परोपकार’ समझा जाता है । यज्ञ आदि के महत्त्व को जानने वाले कभी-कभी इष्ट कर्मों को भी परोपकार के अन्तर्गत गिनते हैं, परन्तु ऐसे लोगों की गिनती आजकल न्यून ही है ! मोटे तौर पर, इष्टापूर्त कर्म को आज की भाषा में ’परोपकार’ कहा जायेगा ।
अब देखिए उपनिषद् इस विषय में क्या कह रहा है - इष्ट और पूर्त कर्मों को ही सबसे श्रेष्ठ मानते हुए, विशेष रूप से मूर्ख जन उनसे भिन्न श्रेय, अर्थात् वास्तविक श्रेयस्कर कर्मों, को नहीं जानते । इन पुण्यकर्मों के कारण, वे स्वर्ग के उच्चतम पद को प्राप्त कर वहां के सुखों का अनुभव करके, पुन: इस लोक में पूर्व की मनुष्य योनि में, या उस से भी हीन योनियों में प्रवेश करते हैं ।
पूर्णतया स्पष्ट करते हुए, ऋषि आगे लिखते हैं -
तप:श्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्यां चरन्त: ।
सूर्यद्वारेण ते विरजा: प्रयान्ति
यत्रामृत: स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥ मुण्डको० १।२।११ ॥
अर्थात् - परन्तु जो शान्त, धैर्यवान् विद्वान, जीवन के सब ऐश्वर्य त्याग कर, वन में रहकर, भिक्षा से जीवन-निर्वाह करते हुए, तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं, वे रजोगुण-रहित, सत्त्वगुण-पूर्ण सूर्य के द्वार से वहां चले जाते हैं, जहां वह मृत्यु-रहित, अक्षय पुरुष या परमात्मा है । अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।
इन दोनों श्लोकों पर विचार करें तो इनमें कई बातें कही गई हैं -
१. इष्टापूर्त कर्म अवश्य ही पुण्य हैं और इनसे स्वर्ग, अर्थात् सुखों, की प्राप्ति होती है ।
२. परन्तु इनके फलरूप प्राप्त सुखों को भोग लेने पर आत्मा इसी लोक में पुन: लौटता है और पूर्व से भी हीनतर योनि प्राप्त कर सकता है । अन्य पुण्य और पाप कर्मों की तरह, इन कर्मों का फल अत्यधिक सीमित है । इसलिए जो जन इन कर्मों को ही सबसे श्रेयस्कर मानते हैं, वे विशेष रूप से मूढ - प्रमूढ - हैं ।
३. दूसरी ओर, जो अपने में शान्त स्वभाव बढ़ाते है, ज्ञानार्जन करते हैं, भौतिक वस्तुओं पर अपना स्वामित्व छोड़ देते हैं, अपने शरीर व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए परमेश्वर की खोज में सतत परिश्रम करते रहते हैं, वे ही मोक्ष-पद के भागी हो पाते हैं ।
स्पष्टत:, ऋषि ने मोक्ष के प्रयत्न को सुखों के प्रयत्न से बहुत भिन्न माना है ।
यही बात वेद भी कह रहा है -
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं
आदित्यवर्णं तमसो परस्तात् ।
तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति
नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजु० ३१।१८ ॥
अर्थात् उस महान् पुरुष को, जो सूर्य के जैसा तेजस्वी है और अज्ञान के अन्धकार से अछूता है, उस को मैनें जान लिया है । उसी को जानकर मृत्यु के पार जाते हैं, क्योंकि इससे भिन्न कोई मार्ग ही नहीं है । यहां ’पुरुष’ का अर्थ महर्षि दयानन्द ने परमात्मा किया है । सो, पुन:, मोक्ष प्राप्त करने के लिए, हम परमात्मा को जानने की बात पाते हैं, परोपकार करने की नहीं । वेद में अन्य मन्त्रों में अवश्य परोपकार करने की बात आई है, परन्तु इनमें भी स्पष्टतया लौकिक सुखों के लिए ही इसका महत्त्व बताया है ।
आश्चर्य की बात यह है कि उपनिषद् और छहों दर्शन-शास्त्र - जिनका प्रतिपाद्य विषय मोक्ष ही है - वे परोपकार के बारे में बात ही नहीं करते ! यज्ञों का अवश्य वर्णन आया है, परन्तु कुएं खुदवाने की किसी ने कहीं पर भी बात नहीं की है । योगदर्शन के यम-नियमों में परोपकार नहीं मिलता । जहां योगदर्शन में समाधि से आत्मदर्शन को जीवन का लक्ष्य बताया है, वहां अन्य दर्शन भी सम्मत हैं । न्याय कहता है -
तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै: ॥
ज्ञानग्रहणभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवाद: ॥ न्यायदर्शनम् ४ । २ । ४६ - ४७ ॥
अर्थात् अपवर्ग- या मोक्ष-प्राप्ति के लिए यम, नियम, योग (यहां योग का अर्थ ध्यान-धारणा-समाधि है) और अध्यात्म-शास्त्रों में कहे अन्य उपायों से आत्मा का संस्कार करना चाहिए । यही नहीं, अध्यात्म-ज्ञान को ग्रहण करने के लिए यत्न करना चाहिए और ज्ञान पाकर, उसको जीवन में उतारना चाहिए । इसके लिए अध्यात्म-विषय में पारङ्गत लोगों के साथ संवाद - शंका-समाधान, आदि - बहुत हितकारी है । इस प्रकार न्याय भी वही कह रहा है जो योग ने कहा ! और अन्य दर्शन भी यही दोहराते हैं ।
इन उद्धरणों से प्रतीत होता है कि परोपकार के ऊपर इतना जोर देना परवर्ती - महाभारत, आदि - काल का अंश है । परन्तु, परोपकार का उपर्युक्त ग्रन्थों में इतना कम महत्त्व क्यों है ? क्या हमारा इस विषय में आग्रह निराधार है ? मोक्षार्थी के लिए क्या इसका कोई भी लाभ नहीं ?
उत्तर के लिए हमकों ऋषियों के जीवन पर विचार करना होगा, वैदिक आश्रम-व्यवस्था को समझना पड़ेगा । हम जानते हैं कि मोक्षार्थी को सारे सामाजिक बन्धनों को त्याग कर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना होता है । इसके अन्तर्गत उसे वन में जाकर (अर्थात् समाज से दूर जाकर), सरल जीवन-यापन करते हुए, शास्त्रों और अन्य सिद्धों से सीख लेते हुए, जितेन्द्रिय होते हुए, परमात्मा में चित्त को स्थिर करना होता है (यही तो मुण्डक आदि कह रहे थे!) । अब जब वानप्रस्थी वन में एकाकी बैठा हो, तो क्या परोपकार का उस समय कोई अर्थ होता है ? जब ’पर’ (दूसरा व्यक्ति) ही नहीं तो ’पर-उपकार’ कैसे हो ?
सामान्य जीवन में भी हम देखते हैं कि, किसी भी क्षेत्र में, समाज को कुछ भी दे सकने से पूर्व, पहले हमें अपनी योग्यता बढ़ानी पड़ती है । मुख्यत:, विद्यार्थी जीवन में (ब्रह्मचर्य आश्रम में) हम पुस्तकीय ज्ञान अर्जित करते है । फिर, गृहस्थ आश्रम के अन्तर्गत, किसी उद्योग में लगकर, अपने ज्ञान को काम में लाते हैं । इससे हमारे ज्ञान और साथ-साथ धन का भी विस्तार होता है । धीरे-धीरे, हम अपने काम के द्वारा, या अपनी सीख के द्वारा, या फिर धन के द्वारा, समाज को कुछ लौटाने लगते हैं । यह ’परोपकार’ सामाजिक व्यवस्था की नींव है । यदि सभी अपनी-अपनी सोचें, तो समाज का निर्माण असम्भव है, और उससे उपलब्ध सुरक्षा, आर्थिक व मानसिक वृद्धि दुरूह है ।
दूसरी ओर, वानप्रस्थ आश्रम मोक्ष का ’स्कूल’ है ! वहां हम अपनी आध्यात्मिक योग्यता को बढ़ाने जाते हैं । उस आध्यात्मिक योग्यता की पराकाष्ठा है - मोक्ष । जब हम उस पद को प्राप्त कर लेते हैं, तो हम graduate हो जाते हैं । फिर संन्यास आश्रम में हम consultant बनकर औरों को अपना सीखा पाठ सिखाने निकल पड़ते हैं ।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि परोपकार केवल सामान्य सुखों की प्राप्ति के लिए है । सम्भवत:, आत्मशुद्धि में भी इसकी कुछ भूमिका हो । परन्तु, मोक्ष के परम आनन्द के लिए तो हमें अकेले ही यात्रा करनी है !