दिव्य क्रान्ति की कहानी [AUTOBIOGRAPHY OF LAALAAJI MAHARAJ]

प्रियासः

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"प्रियासः सन्तु सूरयः"

[यजु0 33-14]

"अधिकारी विद्वान हमें प्रिय हों।"

ब्रह्मविद्या के प्रचार- प्रसार के अधिकारी,

स्वनाम धन्य समर्थसद्गुरु महात्मा

श्री श्री राम चन्द्र जी महाराज

[परमपूज्य लालाजी महाराज],

उनके सहोदर

सन्त सद्गुरु महात्मा रघुबर दयाल जी

[श्री श्री चच्चाजी महाराज]

और

उनके सुपुत्र

सन्त सद्गुरु महात्मा जगमोहन नरायन जी

हमें प्रिय हों।

निरन्तर प्रिय लागहूँ मोहिं 'राम'।

ऐसा ही हो ! ऐसा ही हो !! ऐसा ही हो !!!

प्रथम संस्करण

की

भूमिका

सौभाग्यवती डॉ [श्रीमती] सुमन सक्सेना के माध्यम से सुलभ 'दिव्य क्रांति की कहानी' इस संस्थान की अनुपम उपलब्धि है। उन्हें किस प्रकार यह महान कृति सुलभ हुयी, इस विषय की खोज-बीन में न जा कर यह देखना-परखना उपयुक्त एवं समीचीन समझा गया कि यह आत्मकथा प्रामाणिक है या नहीं तथा इसके प्रकाशन से किसी अभीष्ट की सिद्धि होगी या नहीं ?

आत्मकथा अथवा जीवनी, इतिहास और उपन्यास के बीच की कड़ी है। इतिहास में तिथि तथा नामों के अतिरिक्त कुछ भी तथ्य नहीं होता तथा उपन्यास में तिथि और नामों के अतिरिक्त सब कुछ सार्थक होता है। आत्मकथा अथवा जीवनी में नाम व तिथि भी प्रमाणिक होते हैं और उसकी घटनाएँ एवं विवरण भी। बड़े सौभाग्य की बात ही कही जायेगी कि उनके [श्री श्री लालाजी महाराज के] निकट संपर्क में लगभग अर्धशताब्दी की दीर्घ अवधि तक साथ रहने वाले दो वयोवृद्ध महानुभावों के मत प्राप्त होने का सुयोग संभव हो गया। परमपूज्य श्रद्धेय डॉ श्याम लाल जी सक्सेना [ग़ज़िआबाद]

जिनकी आयु इस समय लगभग 84 वर्ष की है एवं इस समय इस परम्परा के सबसे पुराने तथा सबसे अधिक आयुप्राप्त आचार्य प्रवर हैं। वे परमपूज्य लालाजी महाराज के संपर्क में जब वे 17 - 18 वर्ष के थे, तभी आ गए थे। तब से आज लगभग 65 वर्ष की उनकी अनवरत साधना और अभ्यास है। उचित यह समझा गया कि उनको यह पाण्डुलिपि सुनायी जाय और इसकी प्रमाणिकता के सम्बन्ध में उनका मत प्राप्त किया जाय। उन्होंने जिस तन्मयता एवं सद्भाव से इसको सुना वह स्वयं एक सुखद संयोग था। भलीभाँति निरख-परख कर उन्होंने इसको पूर्णतयः प्रमाणिक कृति बताया और यह प्रस्ताव रक्खा कि इसके प्रकाशन में यदि कोई कठिनाई हो तो जितने भी अर्थ की आवश्यकता हो उनसे ले लिया जाय। वे अस्वस्थ थे तथा बैठने की क्षमता उनमे नहीं थी किन्तु इस पाण्डुलिपि को सुनते समय दो दो घण्टे तक 'एक-आसन-पर' निश्चल बैठे, बड़े ध्यान से एक एक शब्द सुनते रहे तथा अपने सदगुरुदेव की वाणी का अमृतपान करते हुए गद्गद् हो गए। परमपिता परमात्मा श्री श्री लालाजी महाराज की पुत्रवधू श्रीमती भगवती देवी जी भी भगवान् की दया व कृपा से आज लगभग 77 वर्ष की आयु की हैं और प्रेमीभाइयों के हिताय सेवासमर्पित आदर्श जीवन धारण किये हुए हैं। वह परमपूज्य लालाजी महाराज के अतिनिकट संपर्क में सेवारत रहीं हैं और उनके जीवन के प्रत्येक क्षण का उन्हें निकट से

Shrimati Bhagawati Devi

से देखने-परखने का सुअवसर मिला है। उनको यह जीवनी सुनायी गयी। उन्होंने भी प्रत्येक घटना की प्रमाणिकता सिद्ध की। इन दो महानुभावों के अतिरिक्त यथा अवसर अन्यान्य प्रेमी-भाइयों को भी इस कृति को सुनाया गया तथा इसके सात्विक प्रभाव की दृष्टि से परखने की धृष्टता भी की गयी। आश्चर्य ही हुआ जब यह देखा गया कि पाण्डुलिपि सुनते समय प्रायः अभ्यासियों का 'शब्द' संचालित हो गया तथा अभ्यास की गंभीर अवस्था प्रकट हो गयी। प्रेमाश्रु बह निकले और शरीर में कम्प होने लगा। इस प्रकार सभी दृष्टियों से निरख-परख के पश्चात् इस कृति की प्रमाणिकता में कोई सन्देह नहीं रहा और इसके प्रकाशन का विचार किया गया।इस कृति की बहुमुखी उपयोगिता दृष्टिगत हुयी। यदि परमपिता परमात्मा परमपूज्य लालाजी महाराज के जीवनकाल में यह कृति प्रकाशित होती तो अन्यथा आत्मप्रकाशन एवं प्रचार का साधन कही जाती। यद्यपि उन्होंने इस कृति में यथास्थान इस प्रकार के किसी भाव का कोई अंकुर अपने मन में नहीं देखा और मात्र प्रेमी-भाइयों की सेवा के लिए यह प्रयास आवश्यक समझा। आज यह प्रश्न भी शेष नहीं रहा। कदाचित यही आशंका उनके मन में रही हो जिससे उस समय इसको छिपाए रहे तथा इसको प्रकट एवं प्रकाशित न होने दिया। निश्चय ही उनका अपनी पौत्रवधू श्रीमती सुमन पर बड़ा अनुग्रह एवं अनुराग रहा है जो उनको इसका श्रेय व प्रेय देना स्वीकार किया या श्रीमती सुमन ने उन्हें अपने प्रेम एवं सेवा से मानसिक रुप से प्रसन्न कर लिया तथा वरदानस्वरुप यह अनुपम उपहार प्राप्त कर लिया। जो भी रहा हो, है परम अद्भुत, परमअनुपम। इस कृति की उपादेयता निम्नलिखित रूप में आंकी गयी तथा एतदर्थ भी इसका प्रकाशन आवश्यक समझा गया -

[01] अब तक किसी प्रामाणिक जीवनी के अभाव में अनेक भ्रांतियाँ परमपूज्य लालाजी महाराज के जीवन के सम्बन्ध में प्रचलित हो गयीं थीं। यों भी जब कोई संत जितनी अधिक मान्यता प्राप्त करता है, जितना अधिक उसका प्रचार होता है, उतनी ही अधिक अलौकिकता उसके चरित्र के साथ जुड़ती चली जाती है और ऐसा लगने लगता है कि वह कोई ऐसा पुरुष रहा है जिसके लिए मानव जीवन की कल्पना व्यर्थ सिद्ध हुयी है। इस प्रकार की अनेक भ्रांतियों का निराकरण होगा तथा प्रमाणिक जीवन प्रकाश में आएगा।

[02] प्रत्येक महापुरुष के जीवन की स्थिति एक साधारण मनुष्य जैसी होती है। वह भी अन्यान्य मानवीय दुर्बलताओं का शिकार होता है किन्तु अनवरत अभ्यास एवं साधना के द्वारा वह अपने चरित्र को उदात्त बनाता है और आदर्श स्थापित करते हुए महापुरुष की स्थिति को प्राप्त होता है। इन महापुरुषों के जीवन के इस अंश की प्रायः उनके भक्तों द्वारा उपेक्षा कर दी जाती है तथा ऐसा अनुभव होने लगता है जैसे वह मानव-जीवन की दुर्बलताओं से सर्वथा अछूते रहे हैं और सदा से ही उनका आदर्श जीवन रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि वह महापुरुष देवता की श्रेणी में रख दिए जाते हैं और मानवमात्र को उनसे प्रेरणा लेने का कोई आधार शेष नहीं रह जाता। परमपूज्य लालाजी महाराज के सम्बन्ध में भी यही हुआ। उनके जीवन के दुर्लभ पक्ष तिरोहित [छिपाना = conceal] हो गए और साधक यह सोचने लगे कि 'वह' तो अवतारी पुरुष थे। उनकी बराबरी एवं उनसे प्रेरणा लेने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस जीवनी में परमपूज्य लालाजी महाराज ने अपनी स्थित स्पष्ट की है और अपनी दुर्बलताओं को सम्यक रूप से यथावत प्रस्तुत किया है। इस जीवनी को पढ़ने के पश्चात साधक साहस बटोर सकेगा और उत्साहित होगा कि जिस प्रकार परमपूज्य लालाजी महाराज ने अनवरत अभ्यास एवं साधना कर अपना जीवन बनाया, उसी प्रकार हम लोग भी बना सकते हैं।

[03] ब्रह्मविद्या एवं अध्यात्म-साधना क्या है, सांख्ययोग का सहज साध्यस्वरूप क्या है, साधक की कठिनाइयाँ एवं उनका निराकरण कैसे होता है, आदि तथा कथित रहस्यपूर्ण एवं गोपनीय तथ्यों का सुस्पष्ट विवरण इस जीवनी में देखने को मिला है जिससे सभी साधकों को चाहें वे किसी भी सम्प्रदाय के हों, लाभ होगा।

[04] ‘गृहस्थ-जीवन’ की इस साधना का व्यावहारिक रूप कैसा होना चाहिए, साधकों के आचार-विचार एवं व्यवहार की कौन सी कसौटी हो, जिसे वह प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे तथा जिससे वह अपनी साधना की प्रगति को मापे - यह विवरण इस जीवनी में है तथा एक साधक ही एक आदर्श गृहस्थ एवं एक आदर्श नागरिक हो सकता है, यह परिकल्पना भी इस जीवनी में साकार हुयी है।

[05] परमपूज्य लालाजी महाराज ने अपने जीवन में किन-किन महानुभावों को दीक्षा दी और उनमे से कितने आचार्यपद के अधिकारी हुए और उन आचार्यों की क्या-क्या उपलब्धियाँ हैं अथवा उनसे परमपूज्य लालाजी महाराज की क्या-क्या आशा-अपेक्षाएँ हैं, ऐसे व्यक्तिगत सन्दर्भ इस जीवनी में हैं जो आज की सत्संग की अन्यान्य समस्याओं का समाधान करेंगे।

[06] महर्षि अरवविंद एवं श्रीमाँ ने 'शक्तिपात' को दृष्टिपात से सम्भव किया था, किन्तु उनका यह प्रयोग भी मानव तक ही सीमित था। परमपूज्य लालाजी महाराज ने काकभशुण्डिजी के आश्रम के अनुकूल इस प्रयोग का मानव के अतिरक्त प्रकृति एवं भूमा [earth] तक विस्तार किया। ग़ाज़ीपुर के दिलदारनगर व रावटी [रतलाम] की भूस्थलियों को ही उन्होंने शक्तिपात से ऐसा शक्तिसम्पन्न बना दिया कि उन स्थानों की भूमि, बनस्पतियाँ इत्यादि सभी दिव्यप्रकाश से प्रदीप्त हो गए और ऐसा प्रभाव पड़ा कि वहाँ का घर-घर धार्मिक विचारों से ओतप्रोत हो गया तथा प्रत्येक निवासी सत्संग में सम्मिलित हुआ। यह अभिनव प्रयोग आध्यात्मिक जगत की अभूतपूर्व क्रान्ति रही है।

इस प्रकार यह प्रकाशन पूर्णतयः उपयोगी सिद्ध हुआ और प्रकाशन-योग्य समझा गया। मूल पाण्डुलिपि का पर्याप्त बृहद कलेवर है तथा उसमे उनके जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं रहा है। अतएव यह सोचा गया कि सम्पूर्ण पाण्डुलिपि एक बार में प्रकाशित करने के स्थान पर इसको उपयुक्त खण्डों में प्रकाशित किया जाय और प्रतिवर्ष एक-एक खण्ड प्रकाशित होता जाय। इस प्रकार चार-पाँच वर्षों में सम्पूर्ण कृति प्रकाशित हो जाय।

संस्थान के 'अनुसन्धान एवं प्रकाशन विभाग' की उनके योजनाएँ हैं। परमपूज्य लालाजी महाराज की कृतियों के प्रकाशन के साथ-साथ 'संत-मत' के प्रचार-प्रसार का कार्य करना, सत्-साहित्य उपलब्ध कराना जिसका लाभ उठा कर तथा आध्यात्मिक जगत के नए व सरल प्रयोगों की सुविधा प्राप्त कर जनसामान्य इस ओर उन्मुख होगा।

पत्रिका के प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत ‘संकुल’ की सभी इकाइयों की उपब्धियों को प्रकाश में लाने का अवसर मिलेगा। साथ ही साधकों की साधनागत एवं व्यक्तिगत कठिनाइयों का समाधान सुलभ हो सकेगा।

अन्य संतों की वाणियों एवं साहित्य का प्रकाशन 'संस्थान' के उदार दृष्टिकोण का पोषक ही नहीं होगा अपितु इससे साम्रदायिक एकता तथा सद्भाव के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह हो सकेगा।

शोध की विभिन्न परियोजनाओं के अन्तर्गत साधना के तात्विक विवेचन के पक्ष को प्रस्तुत करते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया जाएगा, जिसकी वर्त्तमान सन्दर्भ में अपेक्षा है तथा विदेश के जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं का जिससे समाधान संभव हो सकेगा।

'संस्थान' की अनुसन्धान एवं प्रकाशन योजना के अंतर्गत हस्तगत कृति एवं अभिनव शैली प्रयोग का प्रकाशन है और इस दृष्टि से श्रीमती सुमन भूरि-भूरि प्रशंसा एवं बधाई तथा साधुवाद की पात्रा हैं। वह बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पीएच0 डी की शोध-क्षात्रा भी हैं तथा उनकी परिपक्व शोध एवं अनुसंधान वृत्ति का प्रस्तुत प्रकाशन अप्रतिभ उदाहण है।

श्रीमती सुमन के इस प्रकाशन से वस्तुतः संस्थान की वैज्ञानिक शोध-साधना का श्रीगणेश होता है तथा संस्थान को अपनी आकांक्षाओं के स्वप्न को साकार होता देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।

'प्रकाशन एवं शोध' की परियोजनाओं में इस संस्थान के श्री बेनी माधव अग्रवाल, महामंत्री, श्री बी बी लाल ऍम ए पीएच डी, डी लिट् [अवकाशप्राप्त प्राचार्य] निदेशक शोध एवं अध्यन, तथा श्री ज़हूर मोहम्मद खाँ निदेशक 'कार्यक्रम एवं व्यवस्था' की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ रहीं हैं। संस्थान की ओर से इनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हुए मैं बड़ी प्रसन्नता एवं संतोष का अनुभव कर रहा हूँ। श्री दिनेश कुमार जी [पौत्र ब्रह्मलीन महात्मा राम चन्द्र जी महाराज] संस्थान के संचालक एवं महानिदेशक के अथक प्रयास एवं प्रयत्नों का ही यह परिणाम है कि बहुत अल्प अवधि में इस संस्थान की एक निश्चित रूपरेखा उभर कर सामने आयी है। इनसे बड़ी आशापेक्षाएँ हैं। विश्वास है कि निकट भविष्य में संस्थान के उद्देश्यों के अन्तर्गत उसकी सभी आशापेक्षाएँ पूरी होंगी। बड़ी प्रसन्नता है कि इन उपलब्धियों के सन्दर्भ में श्री दिनेश कुमार जी के लिए वैदक साहित्य की विभूति महामना डॉ मुंशीराम जी शर्मा 'सोम' के भगवत्प्रसादस्वरुप आशीर्वाद एवं शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं हैं। ऋषितुल्य श्री शर्माजी की वाणी अमोघ है और उनकी यह शुभकामनाएँ एवं शुभ आशीष श्री दिनेश जी के लिए सर्वथा सुफला एवं मंगलकारी होंगी। एतदर्थ हम श्री 'सोम' जी के हार्दिक आभारी हैं और संस्थान की ओर से श्रद्धापूर्वक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।

रमेश चन्द्र माथुर

[पत्रकार एवं क्षेत्रीय प्रतिनिधि]

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, पायनियर, स्वतंत्र भारत,

आकाशवाणी- 29

निदेशक प्रकाशन विभाग, रामाश्रम संस्थान

फतेहगढ़ [उ0 प्र0]

फतेहगढ़ 209601

बसन्त पञ्चमी 30 जनवरी 1982

"य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय।।"

गीता - 18:68

[जो पुरुष मुझसे परम प्रेम करके इस परमरहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा।]

"मुझको ही प्राप्त होगा" कह कर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार जो भक्त, केवल मेरी भक्ति के ही उद्देश्य से व निष्काम भाव से मेरे भावों का, अधिकारी पुरुषों में विस्तार करता है, वह मुझे प्राप्त होगा - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अर्थात यह मेरी प्राप्ति का एकान्तिक उपाय है।

द्वितीय संस्करण की भूमिका

'दिव्य क्रांति की कहानी' के प्रथम संस्करण का प्रकाशन, परमपूज्य श्री श्री लालाजी महाराज के 109वें जन्मदिन, बसन्त पञ्चमी, सुदिन शनिवार दिनांक 30 जनवरी सन 1982 [ईस्वी0] के अवसर पर उनके पवित्र महासमाधिप्रांगण में एक सँक्षिप्त से सादे-समारोह के मध्य किया गया था।

'आत्मकथा' के सुलभ हो पाने से सम्बंधित अनेक प्रश्नों का व उसके संकलन, सम्पादन व आलेख की प्रस्तुति सम्बंधित अनुभवों का अब कोई न तो मूल्य ही शेष रहा है और न ही कोई सरोकार। क्योंकि पाठकों ने इसमें निहित सच को पहँचाना है और उसे स्वीकार भी किया है। अतः प्रकाशन की उपयोगिता व उसका अभीष्ट सिद्ध हुआ है और इस कृति ने सभी वर्गों व प्रत्येक सर्किल में अपनी पैठ बनायी है। 'कहानी' की प्रथम बार में कुल 500 प्रतियाँ छप पाईं थीं जो बहुत कम समय में ही हाथों-हाथ निकल गयीं। इसी से जुड़ी सच्चाई यह भी है कि इस [प्रस्तुत] संस्करण के प्रकाशन में विलम्ब के हेतु अन्य कारणों के अतिरिक्त, आप मानें या न मानें, उसके परिवर्धन, पुनः सम्पादन एवं प्रिंटिंग में हो गयी त्रुटियों के सुधार हेतु, आवश्यकता पड़ने पर, पुस्तक की दो प्रतियां भी एक लम्बे अरसे तक नापैद रहीं। इसी प्रकार की अन्य कठिनाइयाँ भी आती-जाती रहीं। मूड भी बनता-बिगड़ता व बदलता रहा और इस संस्करण के प्रकाशन में अप्रयाशित विलम्ब होता गया। किन्तु पुस्तक के माँगकर्ताओं के आग्रह का घनत्व भी कुछ कम न था। अंततः प्रकाशन के मध्य संभावित व वास्तविक कठिनाइओं और पाठकों के आग्रह में सामंजस्य की स्थिति बनी। इस बीच हमारे राजस्थान अंचल के कुछ उत्साही बहन-भाई भी, अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर इसकी छपवाई से सम्बन्धित समस्त दायित्व के निर्वाह का प्रस्ताव ले कर सामने आये और मुख्यतः उन्हीं के बल-बूते पर इस कृति के द्वितीय संस्करण का सच आज आपके हाँथों में है।

सृष्टि का सृजनकर्ता जब किसी जिस्म का निर्माण करता है तो उससे दो हज़ार वर्ष पूर्व ही वह उसकी रूह [आत्मा] भी निर्धारित कर देता है। जिस्म की सुरक्षा और रूह की तरक़्क़ी का दायित्व संतों और फ़क़ीरों का होता है, जिसके निर्वाह का किया जाना बखूबी परिभाषित किया गया है। 'दिव्य क्रान्ति की कहानी' की विषय-वस्तु और उसकी भाषा को जीवन प्रदान करने वाली शब्द-संगत ध्वनियों से गुज़रती निरंतर उसकी चेतना का बहुआयामी विस्तार और परमपूज्य श्री श्री लालाजी महाराज के प्रति समस्त दिशाओं से बरसता हुआ उनका अस्तित्व, पाठक के मन-मस्तिष्क पर, बरबस अपना क़ब्ज़ा कर लेता है।

एक गृहस्थ-संत की, प्रथम-पुरुष में, जीवनगाथा इस कृति की अन्तर्वस्तु है, जो कि गूढ़ [गुह्य] और रहस्यमय है। ऐसे विषयों से सम्बद्ध साहित्य को हृदयङ्गम करने हेतु दर्शनशास्त्र, ब्रह्मविद्या और अध्यात्म के भेद को व्यावहारिक तौर पर समझ लेना अतिआवश्यक है। दर्शन का अर्थ है - किसी भी वस्तु या विषय का तात्विक स्वरुप। अध्यात्म - समस्त सिद्धांतों की सार्वभौमिक्ता पर प्रश्नचिन्ह स्थापित करता है तथा उनके अपवादों को प्रस्तुत व मुखर भी करता है। ब्रह्मविद्या साधारण मनुष्य से ईश्वर [ब्रह्म] में लय हो जाने तक की यात्रा की कार्ययोजना है। प्रस्तुत 'कहानी', इन तीनों की ही त्रिवेणी है।

'कहानी' के प्रथम संसकरण के प्रकाशन के समय, उसका पर्याप्त, बृहत कलेवर और उसमें एक गृहस्थ-संत के जीवन के प्रत्येक पक्ष और उसके बहुआयामी संस्पर्श को दृष्टिगत करते हुए यह निर्णय लिया गया था कि सम्पूर्ण पाण्डुलिपि का प्रकाशन, उपयुक्त खण्डों में किया जाय और प्रतिवर्ष, एक-एक खण्ड पाठकों के हाथों में पहुँचता रहेगा। यदि ऐसा किया जा पाता तो कलेण्डर वर्ष 1982 [ई0] के बाद, मात्र चार-पाँच उत्तरवर्ती वर्षों में 'कहानी' पूर्ण हो चुकी होती। किन्तु 'सोंच' और 'सच्चाई' में अंतर जो देखने को मिला उसके परिणामस्वरूप एक बार लिए गए निर्णय को बदलने के लिए मज़बूर होना पड़ा। इस प्रकार अब यह इस 'कहानी' का अगला खण्ड अथवा उसी खण्ड का दूसरा संस्करण न रह कर, यह उसका परिवर्धित संस्करण, पाठकों के हाथों में है। पूर्ववर्ती संस्करण में दी गयी कुल अंतर्वस्तु के अतिरिक्त इसमें चार अध्याय - [01] जीवनवृत्त के प्रकाशन की सार्थकता, [02] मेरे रहनुमाँ मेरे हुज़ूर, [03] सायुज्जता और [04] उत्तरदीप्ति नामक शीर्षक सन्निविष्ट करते हुए उनके क्रम में भी फेर-बदल करनी पड़ी है । पूज्यपाद श्री श्री लालाजी महाराज द्वारा लिखित शेष अप्रकाशित सामिग्री को, यथानुसार, अलग से प्रकाशित किया जाएगा।

कहानी के पूर्ववर्ती संस्करण के आलेख को तैयार करते समय, भाषान्तर [ट्रांसलेशन] की ईमानदारी के तहत, बीच-बीच में कुछ ऐसे क्लिष्ट व अलोकप्रिय शब्द प्रयोग में लिए गए, जिनपर पाठकों की प्रतिक्रिया सामने आयी। हमने उनकी आशापेक्षाओं के अनुरूप, उन शब्दों को यथा-सम्भव, साधारण बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले और सम्प्रत्यथानुरूप शब्दों को उनके स्थान पर प्रतिस्थापित कर दिया है।

सुखद अनभूति की आकंठ तृप्ति अनायास ही अभिव्यक्ति की पयस्विनी बन जाती है। प्रदर्शन और प्रकाशन इसका हेतु नहीं होता। होती है वस्तुतः वह आन्तरिक आत्मीयता एवं अपनत्व जिसके प्रेयस श्रेयस परिवेश में साधक अपने सभी अपनो को ले जाना चाहता है। ये अपने प्रेम की व्यापक परिधि में विकीर्ण किसी परिवार की सीमा में आबद्ध नहीं होते। मानव-मात्र की कल्याण कामना ही प्रत्येक साधक का मुख्य लक्ष्य होता है।

ब्रह्मविद्या युगों युगों तक परम गोपनीय तथा व्यक्तिगत रहस्य की स्थित में अवस्थित रही। अधिकारी पात्रों की खोज रही और वही इन-गिने व्यक्ति ही लाभान्वित हुए। इस सन्दर्भ में परमपिता परमात्मा प्रातःस्मरणीय श्री श्री लालाजी महाराज का दृष्टिकोण परिवर्तित हुआ और आज पूरे विश्व में उनके साधन और सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है, लाखों साधक और भक्त आत्मकल्याण के परमलक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं।

नीव के पत्थर न कभी किसी को दिखाई दिए है, न दिखाई देंगे। लेखक, प्रकाशक व मुद्रक के नाम भी सदा सर्वदा श्रेय होते हैं किन्तु ऐसी भूमिका का निर्वाह करने वाले साधकों की ललक ही कुछ कम मर्मस्पर्शी नहीं होती। इसी क्रम में, इनके माध्यम से जन-जन की आर्त प्रार्थना प्रस्तुत हुयी है। हम समर्थगुरु महात्मा श्री श्री राम चन्द्र जी [लालाजी] महाराज से आग्रहपूर्वक विनय करते है कि वह अपनी दया व कृपा से, उरई के डॉ बृजवासी लाल, जोधपर [राजस्थान] के श्री ज्योति प्रकाश अरोरा, जयपुर [राजस्थान] के श्री राम अवतार शर्मा एवं श्री यशपाल जॉली इत्यादि शान्त और चुपचाप साधकों की, जिनके अथक परिश्रम व लगनशीलता के परिणामस्वरूप यह प्रकाशन संभव हुआ है, उन्ही के साथ वे जन-जन की प्रार्थ्रना भी स्वीकार करें, प्रत्येक जन की झोली मुरादों से भर दें।

प्रकाशन की सुन्दर प्रिंटिंग तथा उसे समय से उपलब्ध कराने के सुप्रयास के लिए मुद्रण संस्था के प्रति हम ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं।

दिनेश कुमार सक्सेना

प्रिंसिपल ट्रस्टी

महात्मा राम चन्द्र पब्लिकेशन लीग

फतेहगढ़ उ0 प्र0 209601 भारत

बसंत पञ्चमी मंगलवार 23 जनवरी 2007 [ई0]

दिव्य क्रान्ति की कहानी

[आत्मकथा श्री श्री लालाजी कहराज]

कब वो सुनता है कहानी मेरी।

और फ़िर वो भी ज़बानीं नेरी।।

[ग़ालिब]

- राम चन्द्र