पाठकों,
पंचकर्म चिकित्सा की ज्ञानवर्धन श्रंखला पिछले अंक में हमने पंचकर्म चिकित्सा के पूर्वकर्म जिनमें दीपन-पाचन,स्नेहन, स्वेदन, आदि कर्म आते हैं, उसमें स्नेहन चिकित्सा के बारे में जाना था। अब इस अंक में हम लोग स्वेदन चिकित्सा के बारे में जानेंगे।
स्वेदन का यदि सरल भाषा में अर्थ लिया जाय तो स्वेदन का अर्थ पसीना लाना होता है। स्वेद हमारे शरीर का मल है जिसे हमारी त्वचा लगातार बाहर निकालती रहती है, क्योकि स्वेद अर्थात हमारे पसीने में ऎसे विजातीय तत्व घुले होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं तथा जिनकी हमारे शरीर को आवश्यकता नहीं होती है। वो स्वेद यानी पसीने के द्वारा शरीर से बाहर आते रहते हैं।
स्वेदन कर्म वह कर्म है जो शरीर में पसीने की उत्पति को बढ़ा देता है। आचार्य चरक ने इसे इस तरह से वर्णन किया है कि जिस क्रिया से हमारे शरीर का भारीपन,जकड़ाहट और ठंडापन दूर होकर गरमाहट मिले उसे स्वेदन कहा जाता है।
स्वेदन कर्म स्नेहन करने के बाद किया जाता है। स्वेदन हालाँकि पंचकर्म का पूर्वकर्म है परन्तु कई रोगों में यह स्नेहन की तरह एक प्रधान कर्म के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। स्वेदन से हमारे शरीर में मौजूद स्रोतस् में जमे हुए दोषों को बाहर निकालने में बहुत मदद मिलती है। शरीर में जमा चर्बी को पिघलाना भी इसका कार्य है। स्वेद के द्वारा हमारे शरीर में उपस्थित दोषों को बाहर निकाल कर शरीर को स्वस्थ बनाने में इसका महत्व बहुत अधिक है। यह स्निग्ध दोषों को द्रवित करके उदर में लाने का कार्य करता है। जिसे बाद में वमन या विरेचन क्रियाओं से शरीर से बाहर कर दिया जाता है।
स्वेदन के प्रकार :-
आयुर्वेद के विभिन्न आचार्यों के द्वारा स्वेदन के कई प्रकार बताए गए हैं।
1. साग्नि स्वेद - निराग्नि स्वेद
2. एकांग स्वेद - सर्वांग स्वेद
3. स्निग्ध स्वेद, रूक्ष स्वेद, स्निग्ध रुक्ष स्वेद
1. a) साग्नि स्वेद - इसमें अग्नि के ताप की सहायता से स्वेदन कराया जाता है।
b) निराग्नि स्वेद - इस प्रकार के स्वेदन में अग्नि का प्रयोग नहीं करते हैं।
a) साग्नि स्वेद - इसमें अग्नि से ताप उत्पन्न करके अलग-अलग माध्यमों से जैसे - हाथ, धातु, मिट्टी, रेत, मिट्टी के बर्तन, कपड़े, औषधियों या पत्थर को अग्नि में गर्म करके रोगी को स्वेदन करा दिया जाता है। गर्म जल में स्नान भाप की सहायता से या किसी कमरे को अग्नि की सहायता से गर्म करने के बाद उसमें रोगी को बैठा देते है। इससे रोगी को स्वेदन क्रिया कराते हैं। आचार्य चरक ने 13 प्रकार के साग्नि स्वेद बताये हैं, जैसे - वाष्प स्वेद, नाड़ी स्वेद, संकर स्वेद, कुटी स्वेद, परिषेक, अवगाह स्वेद, प्रस्तर स्वेद, भू स्वेद आदि।
b) निराग्नि स्वेदन- इसमें स्वेद करने के लिए रोगी को सीधे अग्नि के संम्पर्क में नहीं लाया जाता है। इस प्रकार के स्वेदन में व्यक्ति को व्यायाम, गर्म वस्त्रोंं से ढक कर, भूख बढ़ाने के लिए उपाय, मद्यपान, क्रोध या भय से पसीना आना, युद्ध -कुश्ती, धूप सेकना या गर्म औषधियों का सेवन - इन उपायों से हो जाता हैं। गर्म औषधियों से स्वेदन आन्तरिक स्वेदन कहा जाता है क्योंकि इस प्रकार की औषधियों के प्रभाव से शरीर में गर्मी आकर पसीना आने से स्वेदन हो जाता है।
2. a) एकांग स्वेद- इसमें शरीर के किसी निश्चित हिस्से का स्वेदन किया जाता है।
b) सर्वांग स्वेद- इस प्रकार के स्वेदन में सम्पूर्ण शरीर का एक साथ स्वेदन होता है।
3. a) स्निग्ध स्वेद- इस प्रकार के स्वेदन में गर्म तेल या घृत से स्वेदन कराते हैं।
b) रूक्ष स्वेद- इसमें गोबर के सूखे चूरे, रेत, धातु आदि को गर्म करके पोटली में बाँध कर सिंकाई के रूप में स्वेदन करते हैं।
c) स्निग्ध रुक्ष स्वेद - स्नेहन के बाद रुक्ष स्वेद करते हैं।
विशेष:-
1. सामान्यत: सभी वात रोगों में स्वेदन किया जाता है।
2. आम वात और कफ़ दोष के रोगों में रुक्ष स्वेद करते हैं।
3. शल्य कर्म से पहले स्वेदन का निर्देश आचार्यों ने किया है।
4. गर्भिणी एवं मासिक चक्र के समय में स्नेहन एवं स्वेदन नहीं किया जाता है।
5. पित्तज रोगों, मधुमेह, दुर्बल, वात रक्त, महाविकारों में स्वेदन का निषेध है।
6. वृषण (अण्डाकोषों ), हदय, नेत्रों को स्वेदन से बचाना चाहिए। अति आवश्यक होने पर कपड़े से ढ़क कर स्वेदन करना चाहिए।
7. अति स्वेदन से बचना चाहिए।
स्वेदन के बाद सावधानियाँ :-
1. रोगी खुली हवा में न रहे।
2. ठण्डे जल के प्रयोग से बचे।
3. गुनगुने जल का पीने एवं स्नान के लिए प्रयोग करें।
4. हल्के द्रव्य और शीघ्र पचने वाले आहार का सेवन करे।
5. सीधे हवा के झोंके से बचने के लिए चादर आदि का प्रयोग करे।
6. कुछ दिनों तक व्यायाम आदि के काम न करें।
Weblink :- https://sites.google.com/dsvv.ac.in/dahh-dsvv/facilities/panchkarma-center
क्रमश: जारी.............