"उत्तरायण एवं उत्तम स्वास्थ्य"
भारतीय संस्कृति में समय का विशेष महत्व है। सृष्टि की संरचना का आधार प्रकृति एवं पुरुष को स्वीकृत किया गया है, तथा जीवन की गति और मानवीय जीवन के पुरुषार्थ के साथ सृष्टि की गतिशीलता का आधार सूर्य और चन्द्रमा के अनुसार चलायमान गतिमान होता है। इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता एवं समग्रता निर्भर करती है। सूर्य की स्थिति का जगत में विशेष महत्व है। इन्हीं गतियों में एक का नाम संक्रान्ति है, उत्तरायण है, जो मानव कल्याण से जुड़ा हुआ है।
संक्रान्ति का अर्थ है - समुन्नत जीवन के लिये जिस सुख, शांति एवं सम्पन्नता की आवश्यकता है, उसे प्राप्त करने के लिये मानव को प्राकृतिक, दैवी अनुशासन में रहकर ही क्रियाशील होना पड़ता है- प्रकृति की ऎश्वर्य एवं अनुपम सुंदरता का मूल कारण निश्चित नियमों के अंतर्गत अनुशासित होकर चलना है। समस्त नक्षत्र, तारे, ग्रह, उपग्रह आदि एक सुनिश्चित अवस्था तथा विधान के अनुसार ही क्रियाशील रहते हैं और इन्हीं क्रियाशीलता का एक क्रम है संक्रान्ति ।
जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसे संक्रांति कहते हैं। छह माह सूर्य क्रांतिवृत से उतर दिशा की ओर उदय होता है तथा 6 मास तक सूर्य की स्थिति दक्षिण की ओर होती है। प्रत्येक 6 मास की अवधि काल को अयन काल कहते हैं। सूर्य के उतर की अवधि को उतरायण और दक्षिण की दिशा को दक्षिणायन कहते हैं।
मानव जीवन एवं प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ दिशा उत्तरायण कही गयी है और ऋतु शिशिर ऋतु, जो कि सूर्य के उत्तरायण होने की स्थिति में आते हैं तो इन्हें अमृत काल कहा गया है। उत्तरायण में सूर्य से धरती पर अमृत की वर्षा होती है। उत्तरायण का विशेष महत्व सभी धर्म ग्रथों, वैदिक वाग्डमय में स्वीकार करते हुये कहा गया है कि पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी प्राणियों की सद् गति, स्वास्थ्य, शक्ति, साधना एवं संयम का शुभ संयोग उत्तरायण में ही बनता है।
मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और मोक्ष की प्राप्ति हेतु साधना, संयम, तप, तितिक्षा, सत्कर्म, यज्ञ, दान इत्यादि शुभ कार्य ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। प्रत्येक मनुष्य भव बधंन एवं मृत्यु तथा कर्म योनि से मुक्ति की कामना चाहता है। उत्तरायण इन सभी साधनों की प्राप्ति का सर्वोतम समय कहा गया है।
आयुर्वेद में उत्तरायण की दिशा को आदान काल कहा है जिसमें स्वास्थ्य की गति उत्तम, सर्वश्रेष्ठ होती है। इसी समय में अर्थात शिशिर ऋतु में शारिरिक बल का संचय एवं संरक्षण होता है। उत्तरायण तथा शिशिर ऋतु के प्रमुख मास - माघ, फ़ाल्गुन, बसंत क्रमश: ऋतुएँ हैं। जिनका सबंध समग्र स्वास्थ्य एवं प्रकृति की पूर्णता से होता है।
सृष्टि जगत में मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और मोक्ष का अधिकारी भी। इसी मान्यता के अनुसार माघ का विशेष महत्व सदैव से रहा है,और यह सूर्य की किरणों से बरसते अमृत के कारण है। उत्तरायण एवं माघ मास की महिमा का महत्व बताते हुए भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि- "मासनां मार्गशीर्षोहम्"- अर्थात महीनों में मार्गशीर्ष मैं स्वयं ही हूँ (गीता-अध्याय 10/35)।
इसी कारण वैदिक काल से ही इस महीने का उपयोग प्राय: सभी लोग अध्यात्मिक एवं धार्मिक साधना के लिये करते थे - कारण शरीर धर्म का पालन करते शरीर से मुक्ति हो पाना।
सूर्य को जीवन एवं जगत की आत्मा माना गया है। सूर्य से ही सभी की स्थिति एवं जीवन संभव है। उस से भी विशेष समय उत्तरायण अर्थात आदान काल। आयुर्वेद के अनुसार इस काल में स्वास्थ्य उत्तम रहता है। उत्तरायण में उत्तरोतर गति, मुक्ति कर्म एवं मोक्ष के रहस्य की सर्वप्रथम खोज छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित विद्या के प्रर्वतक महर्षि प्रवाहण ने की थी। शास्त्रकारों का कहना है कि उन्होंने अपनी साधना के अनन्तर इसी दिन पंचम अमृत प्राप्त किया था जो मकर राशि में प्रवेश एवं संक्रांति के चरम योवन पर रहता है इसलिये माघ मास में उत्तरायण का विशेष महत्व है, साथ ही स्वास्थ्य की दृष्टि से बल को अक्षुण रखने का सर्वोतम समय भी। कारण की शरीर के सभी अंग, मन, आत्मा, कर्म, सभी जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि उत्तरायण में धर्मनिष्ठा आनन्द भक्तिपूर्वक तप, साधना एवं सूर्य ताप व जल तत्व की महिमा के प्रतीक के रूप में गंगा, यमुना आदि विभिन्न तीर्थो के जल में स्नान का पुण्य़ जोड़ा गया है।
मुक्ति एवं तप के साथ यश और पूर्णता हेतु माघ मास में कल्पवास एवं तपस्या का विशेष महत्व दिया गया है और पुण्य क्षेत्र की महिमा का उल्लेख रामायण काल में स्पष्ट रुप से प्राप्त होता है।
प्राचीन काल में हमारे ऋषियों ने अन्तग्रही प्रवाहों की गति देख परख कर ही हमारे पर्व त्याहारों का निर्धारण किया था, इसके लिये इन्होने विशेष रूप से चार महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान दिया था। पहली उत्तरायण दक्षिणायन की स्थिति, दूसरी चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलाएं, तीसरा नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव और चौथा सूर्य की अंश किरणों का मार्ग।
इन सबका हमारी शरीर गत अग्नियों का ऋतु के साथ संबध होने से क्या परिणाम होता है, साथ ही मन की गति इनके अनुसार किस तरह परिवर्तित होती है, इन सूक्ष्म तत्वों का त्योहारों के निर्धारण से घनिष्ठ संबध है। इनका मनुष्यों के जीवन मूल्यों एवं स्वास्थ्य पर बहुत सूक्ष्म व स्थाई प्रभाव पड़ता है। माघ के महीने में सूर्य की दिशा उत्तरायण होती है इसलिये इसका विशेष महत्व है। इसका आश्य यह है कि ईश्वर भी हमें निर्देशित करता है कि हे प्राणियों अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ो और इस संदर्भ में रामचरित मानस में कहा गया है कि -
"माघ मकर गत रवि जब होई। तीरथ पतिहि आव सब कोई।।"
समाजिक- धार्मिक- मगंल कार्य करने के संकेत एवं प्रमाण भी मिलते हैं। साथ ही इस ऋतु में आयुर्वेद में स्वास्थ्य संर्वधन हेतु तिल गुड़ आदि द्रव्यों के सेवन का वर्णन किया गया है।
सूर्य किरणों का प्रभाव जल पर विशेष रूप से होता है । सेवन के संबध में कहा गया है कि देवता, दैत्य, किन्नर, नर अर्थात मनुष्य आदि सभी प्राणी तीर्थराज प्रयाग आकर गंगा, यमुना और अन्त: सलिला सरस्वती के पवित्र त्रिवेणी संगम में पुण्य़ की डुबकी लगाते हैं और मोक्ष की प्रार्थना करते हैं।