पाठकों,
पंचकर्म चिकित्सा की ज्ञानवर्धन श्रंखला में अब हम पंचकर्म चिकित्सा के पूर्वकर्म जिनमें दीपन-पाचन,स्नेहन, स्वेदन, आदि कर्म आते हैं, इनके बारे में जानेंगें।
पूर्वकर्म अर्थात पंचकर्म चिकित्सा के प्रधान कर्म (वमन, विरेचन, वस्ति आदि) करने से पहले रोगी के शरीर को तैयार करना शामिल है। इसके पीछे सिध्दान्त यह है कि रोगी के बल में वृध्दि करना जिससे कि वह प्रधान क़र्मो में होने वाले शोधन कर्मो को सहन करने के लायक बन सके। पूर्व कर्म करने के बाद रोगी के शरीर में लचीलापन, मृदुता आती है एवं शरीर सुदृढ़ बनाता है।
पूर्वकर्म करने का दूसरा उदेश्य है कि रोगी के शरीर में स्थित जड़ जमाए बैठे तरह-तरह के दोषों को ढीला करके उन्हे अपने स्थान से चलायमान करके उदर यानी पेट में लाना है, जिससे उन दोषों को निकटतम मार्ग से शरीर से निकाला जा सके जो कि पंचकर्म चिकित्सा के दौरान किया जाता है।
इस क्रम में सबसे पहले दीपन पाचन का क्रम आता है।
दीपन-पाचन:-
दीपन शब्द का सामान्य अर्थ है अग्नि जलाना और पाचन का अर्थ पकाने के रुप में लिया जाता है।
हमारे शरीर में उपस्थित 13 प्रकार की मन्दपड़ी अग्नियों को फ़िर से जीवित और क्रियाशील अवस्था में लेकर आना। इस प्रक्रिया का लाभ यह होता है कि शरीर में रोगोत्पादक तरह-तरह के विष जैसे-कि आम एवं अन्य प्रकार के विषों को पचा दिया जाता है जिससे कि वह सुगमता से शरीर से बाहर निकाले जा सकें। इसको इस उदाहरण से भली भांति समझा जा सकता है।
यदि हम किसी फ़ल से उसका रस प्राप्त करना चाहें तो उसका भली भांति रस पकने के बाद ही मिल सकता है। कच्चे फ़ल से रस निकालने का प्रयास करने पर न तो फ़ल का रस ही निकल पाएगा बल्कि इस प्रयास में वह नष्ट हो जाएगा। एक पके फ़ल का रस आसानी से तथा पर्याप्त मात्रा में रस प्राप्त किया जा सकता है।
इसी प्रकार एक उदाहरण और है कि यदि किसी सूखी लकड़ी को मोड़ना चाहें तो वह लकड़ी मोड़ने कि कोशिश में टूट कर क्षतिग्रस्त हो जाएगी। उसी लकड़ी में यदि तैल लगा दिया जाए तो और थोड़ा गर्म कर दिया जाए तो वह लकड़ी सुगमता से मन चाहें आकार में मोड़ी जा सकती है।
शरीर में आम और अन्य दोषों को पचाने के लिए अलग-अलग तरह कि औषधियों का प्रयोग कराया जाता है। इन औषधियों को वटी(गोलियाँ),काढ़ा, चूर्ण आदि के रुप में प्रयोग में लाते हैं। रोग और रोगी की अवस्थानुसार इन औषधियों को प्रयोग में लाया जाता है।
स्नेहन:-
स्नेहन कर्म का अर्थ है शरीर में चिकनाई उत्पन्न करना।
स्नेहन मुख्यत: दो प्रकार का पंचकर्म में प्रयोग कराया जाता है।
1. बाह्य स्नेहन
2. आभ्यन्तर स्नेहन
बाह्य स्नेहन का अर्थ है शरीर में स्नेहन द्रव्यों अर्थात तेल घी का प्रयोग शरीर पर बाहर से करना। इस प्रक्रिया में तैलादि स्नेहन को अभ्यंग जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में मालिश भी कहा जाता है, का प्रयोग शरीर पर बाहर से करते हैं।
बाह्य स्नेहन के अन्य प्रकार भी पंचकर्म चिकित्सा में प्रयोग में लाये जाते है।
जैसे - शरीर के विभिन्न अंगो पर अलग-अलग नाम से तैल आदि स्नेहन द्रव्यों का मात्रा में प्रयोग करना । इसमें मुख्यत: कटि वस्ति, जानु वस्ति, ग्रीवा वस्ति, उदर वस्ति, हदय वस्ति, नेत्र वस्ति, शिरोवस्ति आदि का प्रयोग किया जाता है। शरीर के अलग-अलग अंगों के अनुसार इसके नाम दिये गये है। जैसे- कटि वस्ति कमर पर ग्रीवा वस्ति पेट पर आदि अलग-अलग स्थानों के रोगों पर प्रयोग अलग-अलग नामों से करते है। यह बाह्य या स्थानिक प्रयोग हेतु है।
आन्तरिक स्नेहन-
आन्तरिक स्नेहन का प्रयोग तैल घृत आदि स्नेहन द्रव्यों को मुख मार्ग से दिया जाता है। इस प्रक्रिया में रोगी को या तो स्नेहन द्रव्यों को मुख से पिलाया जाता है अथवा स्नेहन द्रव्यों में भोजन बनाकर या भोजन के साथ मिलाकर प्रयोग करते हैं। एक अन्य प्रकार से नस्य अर्थात नाक से स्नेह द्रव्यों को दिया जाता है। स्नेह को वस्ति के रुप में गुदा मार्ग से भी दिया जाता है।
स्नेहन पूर्वकर्म के साथ-साथ स्वतन्त्र चिकित्सा भी है। स्नेह वात रोगों को प्रमुख चिकित्सा है। रोगी को बल वृद्धि करने के लिये दोषों का शोधन करने एवं दोषों को शमन करने के लिये आभ्यन्तर आन्तरिक स्नेह का प्रयोग किया जाता है।
स्नेहन से होने वाले सामान्य लाभ :-
1. शरीर मे सप्त धातु के क्षय में लाभ
2. वात प्रधान रोगों का शमन
3. शरीर में उपस्थितस १३ प्रकार की अग्नियाँ को प्रदिप्त करना।
4. कोष्ठ का शोधन
5. शारीरिक बल में वृधि
6. रोगों से लड़ने की क्षमता में वृध्दि
क्रमश: जारी.............