"जल ही जीवन है"
भारतीय संस्कृति में जल को जीवन का आधार माना गया है। सम्पूर्ण सृष्टि एवं चराचर जगत के उदभव एवं विकास का आधार होने के कारण ही सदैव से ही जल के संरक्षण पर बल दिया जाता रहा है। प्रकृति अर्थात पृथ्वी जगत का सृजन एवं प्रलय दोनों जल पर आधारित हैं या यह कहा जाये कि सृष्टि का सृजन ही जल तत्व की कृपा से हुआ तो अतिश्योक्ति न होगी।
मानवीय सभ्यता तथा संस्कृति का जल तत्व से गहरा सम्बन्ध है। विश्व की जितनी भी सभ्यताएं एवं संस्कृतियां रही हैं सबके पीछे जल अर्थात नदियां रही हैं, जैसे- सिंधु, सरस्वती, नील, टिगारिस इत्यादि। विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं यथा मेसोपेटामिया, मिस्र सुमेर, क्रीट बेबी लोन तथा सिंधु घाटी सहित सभी में जल को पूजनीय और पवित्र माना गया है। यही कारण है कि जल का हमारी संस्कृति सभ्यता में विशेष महत्व है। जल संस्कृति के चिंतन की दिशा और दशा का नियामक रहा है, इसलिए जल हमारे साहित्य, संगीत, कला, धर्म- दर्शन या यह कहा जाये कि जीवन के समग्र पक्षों में सदा पूजनीय रहा है।
वेद पुराण, उपनिषद, साहित्य, धर्म, चिकित्सा, स्वास्थ्य कोई भी ऐसा स्थान नहीं जहाँ जल तत्व को सर्वोपरि स्थान न प्राप्त हो। यद्यपि मानवीय सृष्टि एवं विकास में पांचों तत्वों की अनिवार्यता, प्रधानता को स्वीकृत किया गया है, परंतु श्रेष्ठता, पवित्रता, शुध्दता, स्थान, कार्यानुसार जल की महत्ता को अधिक महत्व दिया गया है।
आदि ग्रंथ के रुप में प्रतिष्ठित वेदों में जल अर्थात पानी को प्राण तत्व मानते हुए इसकी स्तुति कि गयी है। अथर्ववेद में जल को कल्याणकारी बताते हुये कहा गया है कि पानी अर्थात जल कहीं भी किसी भी रुप में स्वरुप में हो, कल्याणकारी हो। उदाहरण देते हुये कहा गया है- कुओं का जल हमें समृद्धि प्रदान करें, वर्षा का जल हमें समृद्धि प्रदान करें।
जल अर्थात पानी की शुध्दता, पवित्रता का आधार विभिन्न स्रोतों, संसाधनो को मानते हुए अग्नि पुराण एवं गरुड़ पुराण में कहा गया है कि कुएँ के जल की अपेक्षा झरने का जल अधिक पवित्र होता है, उससे पवित्र सरोवर का जल तथा उससे पवित्र नदी का जल पवित्र एवं शुध्द बताया गया है। और तीर्थ का जल उससे भी पवित्र स्वीकार किया गया है और गंगा का जल श्रेष्ठता- पवित्रता में सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
पुराणों में जल की महत्ता को उसकी अवधि अर्थात समय से आंका गया है। कहा गया है कि जिस जलाशय में केवल वर्षाकाल में ही पानी रहता है वह अग्निस्रोत यज्ञ का सीमित अवधि का परिणाम अर्थात फ़ल देने वाला होता है, जिस जलाशय में जल हेंमत और शिशिर ऋतु तक रहता है वह जल क्रमश: वाजपेय और अतिराम नामक यज्ञ का फ़ल देने वाला होता है, बसंत ऋतु तक रहने वाले जल को अश्वमेघ के समान फ़ल देने वाला कहा गया है और जो जल जलाशय में ग्रीष्मकाल तक रहता है वह जल (सेवन करने पर) राजसूय यज्ञ से भी अधिक फ़ल देने वाला है।
जल/ पानी की इस जीवनदायी महत्ता ने ही मानव को उसके पवित्र स्वरुप का ज्ञान एवं मान भी कराया। इसी कारण मानव जीवन के प्रत्येक आध्यात्मिक, धार्मिक, समाजिक अनुष्ठान में जल का स्थान अति विशिष्ट रहा है।
जल जीवन के पर्याय के रुप में अध्यात्म एवं विज्ञान दोनों के द्वारा चिरकाल से स्तुत्य रहा है, यही कारण है कि मानव सभ्यता के इतिहास में मातृ प्रधान जल सत्ता के व्यापक प्रमाण प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि वेदों में 'अप' अर्थात जल को जीवों की जननी के रुप में स्वीकृत करते हुए कहा गया है कि - हे जल देवता मनुष्य के लिये क्षतिरहित अन्न को पुत्र तथा पौत्र के लिये प्रदान करो, शांति के लिए पृथक-पृथक करो क्योंकि तुम माता से भी अधिक उपकारक हो, तुम सम्पूर्ण स्थावर एवं जंगम जगत की जननी हो, हमारे समस्त विकारों को नष्ट करो।
जीवों की उत्पति और पालन का सम्पूर्ण चक्र जल के इर्द गिर्द ही घूमता है। हिंदू जीवन दर्शन में जल पाँच मूलभूत घटकों में से एक है जिन्हें पंचमहाभूत कहा गया है। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि ही पंचमहाभूतों की जननी है और सभी का जीवन में विशेष स्थान है। इन्हें देवत्व से जोड़ते हुये जल तत्व को वरुण देवता के रुप में स्वीकृत करते हुए स्थानानुसार इसकी महत्ता एवं आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है।
जिस प्रकार सृष्टि के मूल में जल तत्व है, उसी प्रकार मानव शरीर में 90% जल तत्व है। जीवधारियों के शरीर में 65 से 70% जल तत्त्व की उपस्थिति संरचनानुसार होती है।
जल तत्व की महिमा तो अनंत है। कार्य, स्थान, आवश्यकता, उपयोगिता, जीवन, स्वास्थ्य, चिकित्सा सभी में जल तत्व प्रधान है - शुध्दता की दृष्टि से विशेष महत्व है। जल को हिंदू धर्म में पवित्र करने वाला स्वीकृत किया है। भावना द्वारा, मंत्र द्वारा, कर्मकाण्ड द्वारा, पात्र द्वारा अनेकों उपायों के माध्यम से अमृतोपम बनाकर मानव कल्याण हेतु प्रस्तुत किया गया है। कहीं आचमन द्वारा, तो कहीं शांतिपाठ द्वारा, कर्मकाण्ड द्वारा पवित्र जल का छिड़काव करके, तो कहीं सविता अर्थात सूर्य एवं चन्द्रमा को अर्ध्य देकर कितने अनगिनत रुपों में - इस प्रकार हर दृष्टि से जल तत्व मानव जीवन हेतु अमृत समान कहा गया ।