• वनस्पतिक नाम - सिजिगियम एरोमेटिकम ( Syzygium aromaticum)
• सामान्य नाम- लवंग लौंग
• कुल- मिटेंसी- (Myrtaceae)
• स्वरुप – इसका सदारहित वृक्ष 30-40 फ़ीट ऊँचा होता है। काण्ड से चारों और कोमल और अवनत शाखायें निकल कर फ़ैली रहती है।
गुण
• गुण- लघु, स्निग्ध
• रस- तिक्त, कटु
• विपाक- कटु
• वीर्य-शीत
• प्रयोज्य अंग – पुष्पकलिका
• मात्रा- 1-2 ग्रा. , तैल 1-3 बूँद
• विशिष्ट योग - लवंगादि चूर्ण, लवंगचतु;सम, लवंगादि वटी, लवंगोदक, अविपतिकर चूर्ण।
प्रयोग
• दोषप्रयोग - यह कफ़पितजन्य विकरों में प्रयुक्त होता है।
• संस्थानिक प्रयोग- बाह्य- शिर;शूल तथा प्रतिश्याय में ललाट में इसका लेप करतेअ है। मुखरोगों एवं कण्ठरोगों में चूसते है। चर्म रोगों लवंग का लेप किया जाता है।दन्तशूल या दन्तकोटर में इसका प्रयोग किया जाता है।
• आभ्यन्तर- पाचनसंस्थान- अरुचि, अग्निमांद्य, अजीर्ण, आध्मान, उदरशूल, अम्लपित, छर्दि एवं तृष्णा में इसका प्रयोग होता है।
• रक्तवहसंस्थान- इसका व्यवहार ह्रदौर्बल्य तथा रक्तविकारों में किया जाता है।फ़िरंग, उपदेश में भी यह कार्यरत होता है। इसका 'देवकुसुमादि रस' दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित है।
• शवसनसंस्थान- यह कास, श्वास एवं हिक्का में प्रयुक्त होता है। क्षय रोग में यह कास को शान्त करता है। कफ़ की दुर्गन्ध को दूर करता है। और उदारविकारों को ठिक करता है।
• प्रजननसंस्थान- यह शत्रुस्तम्भन रोगों में दिया जाता है। स्तन्यवृध्दि तथा स्तन्यशोधन के लिए भी उपयोगी है।
• मूत्रवहसंस्थान- मूत्रकृच्छ में प्रयुक्त होता है।
• त्वचा- यह चर्मविकारों में लाभकार है।
• तापक्रम- ज्वरों में इसका प्रयोग होता है। लंवगोदक का प्रयोग ज्वरों के लिए प्रशस्त माना गया है। इससे आमदोष का पाचन होता है तथा तृष्णा, छर्दि आदि उपद्रव शान्त होते है।