पंचकर्म कोई नई विधा नहीं है। यह आयुर्वेद के प्राचीन ऋषियों जैसे आचार्य चरक, आचार्य सुश्रुत, आचार्य वाग्भट आदि अनेक मनीषियों द्वारा अपन अपनी-अपनी संहिताओं में उल्लेखित है। सभी संहिताकारों ने इस चिकित्सा को अपनी-अपनी कृतियों में विभिन्न रोगों में इस चिकित्सा के उपयोग का वर्णन किया है। उत्तर भारत में यह चिकित्सा पिछले कुछ दशकों से विलुप्त होने की कगार पर थी। परंतु फिर भी इसे दक्षिण भारत विशेष रुप से केरल में व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की पंचकर्म चिकित्सा को पुनर्जीवित करने में केरल के वैद्यो का अनुपम योगदान रहा है। इस विद्या की पुनः वापसी हो रही है।
अब पंचकर्म के अंतर्गत दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की चिकित्साओं के बारे में आपका परिचय कराते हैं। जैसा कि इसके नाम पंचकर्म से ही सभी लोगों को यह पता चल जाता है कि यह कोई ऐसी चिकित्सा है जिसमें पाँच तरह के अलग-अलग उपचार किए जाते हैं। हाँ यह सत्य है कि पाँच तरह के मुख्य रूप से उपचार किए जाने के कारण इस चिकित्सा का नाम पंचकर्म रखा गया है। यह पंचकर्म निम्न प्रकार से है -
आचार्य चरक के अनुसार वर्णित पंचकर्म इस प्रकार है -
वमन
विरेचन
अनुवासन वस्ति
आस्थापन या निरूह वस्ति
नस्य या शिरोविरेचन
आचार्य सुश्रुत ने दूषित रक्त को भी दोष माना है, अत: दूषित रक्त को दोषों की भांति शरीर से बाहर निकालने के लिए रक्त-मोक्षण की प्रक्रिया इसमें जोड़ी है। अत: आचार्य सुश्रुत के अनुसार पंचकर्म का विधान इस प्रकार है -
वमन
विरेचन
वस्ति
नस्य
रक्तमोक्षण
इन शोधन प्रक्रियाओं में कुछ दोषों को मुख मार्ग से बाहर निकाला जाता है, कुछ दोषों को गुदा मार्ग से बाहर निकाला जाता है, कुछ औषधियों को नाक के माध्यम से रोगी के मस्तिष्क के विकारों को दूर करने के लिए दिया जाता है तथा कुछ औषधि को गुदा मार्ग से व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कराते हैं।
इनमें वमन का प्रयोग मुख मार्ग से दोषों को बाहर निकालने में किया जाता है, जबकि विरेचन में गुदा मार्ग से दोषों को बाहर निकालते हैं। नस्य का प्रयोग नाक के छिद्रों द्वारा औषधि को प्रविष्ट कराने में करते हैं। मुख्य तौर पर स्नेह या घी-तेल आदि से तैयार किए गए औषधि को गुदा मार्ग से दिए जाने को अनुवासन वस्ति, जड़ी बूटियों के काढ़े से बनाई गई औषधियों को आस्थापन या निरूह वस्ति कहते हैं। बस्तियां गुदा मार्ग से उपरोक्त द्रव्य को रोगी के शरीर में प्रवेश कराने की विधि है। रक्तमोक्षण विभिन्न प्रकार के उपकरणों की सहायता से शरीर के दूषित रक्त को बाहर निकालने की प्रक्रिया को कहते हैं।
पंचकर्म को रोगी के शरीर पर प्रयोग से पहले रोगी को तैयार किया जाता है, इसे पूर्व कर्म कहते हैं। शास्त्रों में वर्णन है कि जिस प्रकार कच्चे फल से उसका रस निकालने की कोशिश की जाए तो फलों का रस ठीक से नहीं निकलेगा, उल्टा फल बर्बाद होने की अधिक सम्भावना है। पके फल से रस अच्छी तरह से सुगमता से निकाला जा सकता है।
दूसरे उदाहरण के तौर पर किसी कपड़े को रंग चढ़ाना हो तो पहले उस कपड़े की धुलाई सफाई जरूरी है वरना रंग ठीक से नहीं चढ़ेगा। धुलाई सफाई होने के बाद रंग अच्छी तरह से चढ़ेगा।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए पंचकर्म के पूर्व कर्म के रूप में दो कर्मों का प्रावधान किया जाता है -
स्नेहन
स्वेदन
वैसे तो पंचकर्म के पांचों कर्मों में हर कर्म के पहले पूर्व कर्म और उसके पूर्ण होने पर पश्चात कर्म किया जाता है। पंचकर्म में पूर्व कर्म और पश्चात कर्म का बहुत महत्व है। इनका प्रयोग प्रत्येक रोगी में आवश्यक रूप से किया जाता है।
अगले अंक में पंचकर्म के पूर्व कर्मों के बारे में विस्तार से जानेंगे कि इनका प्रयोग क्यों और किस विधि से किया जाता है।
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