इस अंक से हम आयुर्वेद की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग पंचकर्म से किस प्रकार जटिल एवं जीर्ण रोगों का इलाज किया जाना सम्भव है, इस विषय पर एक श्रंखला आरम्भ कर रहे हैं। इसमें पचंकर्म चिकित्सा का परिचय तथा सामान्य जन कैसे अपने दैनिक जीवन में इससे लाभ उठा सकते हैं, इस पर भी चर्चा की जाएगी।
आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति के दो प्रमुख सिद्धांत हैं, जिन पर आयुर्वेद चिकित्सा का पूरा ताना-बाना टिका हुआ है - वह हैं - शमन चिकित्सा और शोधन चिकित्सा।
1-शमन चिकित्सा
इस तरह की चिकित्सा में बढ़े हुए या कुपित हुए दोषों को शान्त करके उसे सम-अवस्था में लाया जाता है । इस प्रकार दोष जब सम अवस्था में आ जाते है, तब रोगी को रोग में आराम मिल जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा में शमन किए गए दोष कुछ समय बाद फ़िर से कुपित होकर व्यक्ति को रोगी कर सकते हैं।
2- शोधन चिकित्सा
इस प्रकार की चिकित्सा में रोगी के प्रकुपित दोष को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। जिससे दोष प्रकोप के कारण शरीर के मल धातु आदि जो विषम अवस्था में रोगों का कारण बन जाते हैं, उनका शोधन करके रोगी को रोग मुक्त किया जाता है। इस प्रकार शोधन की चिकित्सा को श्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि शमन किए गए दोष बार-बार कुपित हो सकते हैं, पर शोधन के द्वारा दोष, मल, धातुएँ आदि शुध्द होकर नया जीवन प्राप्त करती हैं। य़ह ठीक उसी तरह से है जैसे किसी गन्दे मैले कुचले वस्त्र को अच्छी तरह से धोने पर वस्त्र में चमक आ जाती है, और उसे फ़िर से प्रयोग के लिए काम में लाया जा सकता है।
आयुर्वेद के दो प्रयोजन हैं -
1-स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना 2-रोगी के रोग को ठीक करना
इसमें पहला अति महत्वपूर्ण है, अर्थात व्यक्ति को स्वस्थ-वृत के नियमों का पालन करते हुए जीवन जीना। जिससे कि शरीर रोग मुक्त रहे और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को व्यक्ति सरलतापूर्वक प्राप्त कर सके ।
इन स्वस्थ-वृत के नियमों का पालन करने के लिए कई उपाय हमारे ऋषियों मुनियों के द्वारा आयुर्वेद में बताए गए हैं। जिसमें सुबह उठने से लेकर रात्रि में विश्राम-शयन तक किए जाने वाले विभिन्न क्रिया कलापों का विधान है। उनके पालन के लिए पंचकर्म में प्रयोग की जाने वाली कई विधाओं का उल्लेख है। जैसे अभ्यंग यानि स्नेह (तेल, घी, आदि) का शरीर पर मालिश, वमन, विरेचन आदि। इसका आगे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।
पंचकर्म स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थय संरक्षण में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है -
एक मोती लेकर उसे किसी स्वच्छ जल के पात्र में डालकर यदि उसे ढक कर भी रख दिया जाए तो कुछ दिनों के बाद उस मोती पर काई सी जमने लगती है, हालांकि पानी व पात्र दोनों साफ थे और मोती भी साफ रखा गया था। इसी प्रकार किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में भी दैनिक चयापचय की क्रियाओं के कारण शरीर में मलो का एकत्रित होना स्वाभाविक है। उन एकत्रित हुए मलो को बाहर निकाल कर शरीर को बाहर भीतर से स्वच्छ निर्मल बनाना भी आयुर्वेद के प्रथम उद्देश्य को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रक्रिया है।
आयुर्वेद का दूसरा उद्देश्य - स्वस्थ व्यक्ति के किसी भी कारण से रोग ग्रस्त होने की स्थिति में यथाशीघ्र निरोग करना, उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही आयुर्वेद में पूर्व में वर्णित शमन और शोधन चिकित्सा विधियों को आयुर्वेद के मनीषियों द्वारा उल्लेख किया गया है। इसमें शोधन चिकित्सा ही मुख्य रूप से पंचकर्म चिकित्सा का उद्देश्य है। शोधन के द्वारा रोगों के मूल कारण दोषों को शरीर से निकालकर रोगी को रोगमुक्त किया जाता है
इस प्रकार पंचकर्म चिकित्सा आयुर्वेद में बताए गए दोनों प्रयोजनों को पूर्ण करता है। इसी कारण इस चिकित्सा की ओर लोग आकर्षित हो रहे हैं। देश में हो या विदेश में सभी जगह पंचकर्म चिकित्सा का आयुर्वेद की अनोखी विधा का डंका बज रहा है। परंतु बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ता है की पंचकर्म जैसी दिव्य चिकित्सा को लोग सिर्फ मालिश और शिरोधारा तक ही सीमित समझते हैं । जैसे कुछ लोग इसे केरलिय चिकित्सा पद्धति भी समझते हैं। कुछ लोग इसे नेचुरोपैथी या प्राकृतिक चिकित्सा ही समझने की भूल करते हैं। इस प्रकार की भ्रांतियाँ जब समाज में फैली हो तो हम चिकित्सकों का कर्तव्य बन जाता है कि जनमानस को इस चमत्कारिक उपचार के सही रूप से परिचित करायें। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए यह श्रृंखला आपके सामने प्रस्तुत है।
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