योग की महत्ता को प्राचीन अर्वाचीन भारतीय साहित्य की सभी विधाओं में स्वीकृत किया गया है। लगभग सभी का कथन भी एक ही है, अंश व अंशी का तादात्म्य भाव, या फिर पूर्णता अथवा विलय, विसर्जन, समर्पण आदि विधियाँ विभिन्न रुपों में व्यवहत की गयी हैं, लक्ष्य सभी का एक ही रहा है। जड़ और चेतन प्रकृति का ही स्वरुप है, उसी में पूर्णता, उसी में लय, उसी के साथ साक्षी भाव, उसी में सर्मपण, उसी में समाधि, अर्थात एकरुपता एवं पूर्णाहुति का भाव, अपने को अणु समझते हुए विभु में विसर्जन करना ही योग कहा गया है। परमात्मा तक पहुँचने का माध्यम शरीर इन्द्रिय एवं मन ही है।
जीवात्मा का परमात्मा से मिलन योग कहा गया है, समता समानता का भाव योग कहा गया है, कर्म की कुशलता पूर्वक करने की विधि को योग कहा गया है, तथा अपनी सम्पूर्ण वृत्तियों को प्रयास के माध्यम से संतुलित करने के भाव को योग कहा गया है।
व्यावहारिक जीवन का योग एवं वास्तविक योग में बहुत अन्तर है। व्यवहार से योग की यात्रा का मार्ग बनाया जाता है पर माध्यम शरीर ही है, अतः शरीर की शुद्धि के संदर्भ में गीता का कथन है युक्ताहार विहारस्य (गीता- 6/17)। योग साधना शरीर के द्वारा होती है इसलिए योगेश्वर श्री कृष्ण निर्देश देते है कि पहले युक्त समुचित सीमित आहार विहार के द्वारा, शरीर इन्द्रिय, मन, कर्म, को संतुलित करें ऐसे आहार विहार सधने से शरीर को साधने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। आहार संयमित होने से चितवृतियों के शांत होने उपरान्त ही आगे का पथ प्रशस्त होता है।
मानव मात्र के कल्याण प्राप्ति का उचित साधन योग है। वह इसलिए कि मानव देह में रहकर सत्य को स्वीकार कर शरीर मन को साधते हुए भौतिक संसार की यात्रा को पूर्णता के साथ ही देहभाव का अहंभाव का विर्सजन आवश्यक है। ऐसा चितंन विचार जब बारम्बार अभ्यास द्वारा कर्म द्वारा होगा तभी समता का भाव जाग्रत होगा, प्रकृति के प्रति परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण जगत के तत्वो के प्रति आत्मवत सर्वभूतेषु की इच्छा जागृत होगी। तभी पूर्णता का प्रार्दुभाव होगा और तभी मानव योग की दिशा में प्रयत्नशील हो सकेगा। तब साक्षी भाव जाग्रत होकर योग की यात्रा सुगम होती चली जाती है। परंतु इस सब के लिये प्रक्रिया प्रारंभ होती है स्थूल शरीर से, इन्द्रियों द्वारा अभ्यास इसका प्रथम तल होता है, और जब कर्म कर्ता तथा अहम का क्षय होने लगे तब समझना चाहिये कि वास्तविक योग प्रस्फुटित होने लगता है। आन्तरिक शक्तियों जागरण संभव होता है, ऐसे में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने कहा है कि मानवमात्र में जब सेवा संवेदना दया करूणा सहिष्णुता उदारता प्रीति धैर्य क्षमा इत्यादि गुणों के विकास का होना ही वास्तविक यौगिक जीवन का परिचायक है। जब मनुष्य में उपरोक्त गुणों का विकास होगा तब मनुष्य में देवत्व का उदय धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव होगा ।
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