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Department of Ayurveda and Holistic Health
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
स्वस्थ का अर्थ है - स्व + स्थ अर्थात् स्वयं में स्थित होना/ स्वयंको जानना।
आरोग्य स्वाभाविकता है, प्रकृति की देन है और इसकी रक्षा करना हमारा प्रमुख कर्त्तव्य है। ऋषियों ने भी कहा है - 'सर्व धर्मान् परित्यज्य शरीरं अनुपालयेत्।' अर्थात् सभी धर्मों को छोड़कर सर्वप्रथम शरीर की रक्षा करनी चाहिए। और भी बताया गया है -
'धर्मार्थकाम मोक्षाणां आरोग्यं मूलमुत्तमम्।'
अर्थात् धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का प्रधान कारण आरोग्य है। इसीलिए कर्मफ़ल जानने वाले मनुष्यों को रोगों से शरीर की रक्षा करना सर्वप्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए।
स्वास्थ्य की रक्षा के कुछ सामान्य सूत्र हैं, जिनको धारण कर व उसके अनुसार आचरण कर हम उत्तम आरोग्य की प्राप्ति कर सकते हैं तथा अनेक शारीरिक - मानसिक व्याधियों से बच सकते हैं । इन सूत्रों का उल्लेख आयुर्वेद में विस्तार से ऋषियों ने बताया है, जिसे 'स्वस्थवृत्त' की संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। 'स्वस्थवृत्त' का शाब्दिक अर्थ है - स्वस्थ रहने के नियम/ सूत्र ।
शरीर को सही तरीके से संचालित करने व शरीर की क्षीणता (कमी) को पूर्ण करने के लिए आयुर्वेद में स्वास्थ्य के तीन आधार (त्रिउपस्तम्भ) बताए गए हैं-
1. आहार
2. निद्रा
3. ब्रह्मचर्य
शरीर को पुष्ट व सबल बनाए रखने के लिए, इन्द्रियों की कार्यशक्ति ठीक रखने, सुख व आयु की वृद्धि के लिए, हृदय- नाड़ी व फ़ेफ़ड़ों को नियन्त्रित रखने के लिए, शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए तथा थकान रहित जीवन जीने के लिए इन त्रिउपस्तम्भ का संतुलन अति आवश्यक है। और इन्हें संतुलित रखने के लिए हमें दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या, धारणीय - अधारणीय वेग आदि का ज्ञान होना आवश्यक है।
तो सर्वप्रथम हम पहला उपस्तम्भ अर्थात् 'आहार' व उसकी उपयोगिता के बारे में समझेंगे -
" स्वस्थ मन और स्वस्थ काया।
मनुष्य ने आहार से है पाया।। "
उचित आहार वही है, जो शरीर की धातुओं को पुष्ट करे तथा शरीर के दोषों (वात, पित्त, कफ़) में कोई परिवर्तन न करे। आहार का मुख्य उद्देश्य शरीर कि क्षतिपूर्ति करना व धातुओं की वृद्धि करना होता है।
यदि किसी कारणवश शरीर को समय पर उपयुक्त आहार न मिले तो थकावट और कमजोरी मालुम पड़ने लगती है। यदि निरन्तर कई दिन तक ऎसा ही क्रम चले तो शरीर दुर्बल व क्षीण हो जाता है और अंत में प्राणों को धारण कर सकना भी कठिन हो जाता है।
आहार सम्बन्धी कुछ नियम/ विधि- विधान हमारे ग्रन्थों में बताए गए हैं, जिन्हें जानना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। हमारा भोजन कैसा होना चाहिए, हमें भोजन क्यों, कब, कितना व कैसे करना चाहिए, आदि बातें अत्यन्त आवश्यक हैं। जिनका संक्षेप में यहाँ पर वर्णन किया जा रहा है।
आहार सम्बन्धी विधि- विधान -
1. आहार की मात्रा - कभी भी भर पेट खाना नहीं खाना चाहिए। आमाशय को ३ भागों में विभाजित कर एक भाग ठोस पदार्थ, दूसरा भाग चाटने योग्य या पेय पदार्थ तथा तीसरा भाग वातादि दोषों के विचरण के लिए खाली रखना चाहिए।
2. गर्म, स्निग्ध (कुछ चिकना) व मात्रापूर्वक (निश्चित मात्रा में ही लिया गया भोजन) आहार करना चाहिए।
3. एक बार का खाया हुआ भोजन पच जाने पर ही दुबारा भोजन करना चहिए। अजीर्ण में किया गया भोजन कई प्रकार के रोगों की उत्पत्ति का कारण होता है।
4. अत्यधिक ठण्डा या अत्यधिक गरम भोजन नहीं करना चाहिए। इससे दाँतों को हानि पहुँचती है।
5. निश्चित समय के अंतर परही भोजन ग्रहण करना चाहिए। ३ घंटे से पूर्व व ६ घंटे से ज्यादा का अंतर दो अन्नकाल के मध्य नहीं रखना चाहिए। हमेशा कुछ- कुछ खाते रहने की आदत व बिना कड़ी भूख लगे खाने की आदत से बचना चाहिए।
6. बहुत जल्दी- जल्दी या अत्यधिक धीमी गति से भोजन नहीं करना चाहिए। भोजनको भली- भाँति चबाते हुए ग्रहण करना चाहिए।
7. एक समय में कई प्रकार के भोजन (जैसे - शाक, अचार, मुरब्बा, मिठाई आदि) का सेवन करने से बचना चाहिए। इससे भोजन के पचने में कठिनाई होती है।
8. तला हुआ, मिर्च - मसालेदार व गरिष्ठ (भारी) भोजन न करें या कम मात्रा में करना चाहिए।
9. परस्पर विरोधी चीजों को एक साथ ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे - दूध व नमक की चीजें, गुड़ या मधु के साथ मूली, गर्म किया हुआ मधु, घी व मधु सम मात्रा में आदि।
10. दोपहर के भोजन के बाद 10 से 15 मिनट विश्राम तथा सांय भोजनके बाद मील भर टहलना लाभदायक होता है। इससे भोजन आसानी से पचता है।
11. सांयकाल का भोजन सोने से 2 से 3 घंटे पूर्व कर लेना चाहिए। खाते ही तुरंत सो जाने से पाचनतंत्र गड़बड़ होने लगता है तथा नींद भी अच्छी नहीं आती।
12. भोजन करते समय अत्यधिक बोलना, हंसना आदि मना है। भोजन एकाग्र मन से ग्रहण करना चाहिए। जैसा कि कहा भी गया है- 'जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन'।
शरीर को शक्ति व स्वास्थ्य अधिक भोजन से नहीं, वरन् भोजन के अच्छे ढंग से पचने से मिलता है। भली-भाँति पचा हुआ भोजन रस- रक्त आदि धातुओं को पुष्ट करता है व शरीर को पोषण देता है। अत्यधिक भोजन करने से या हीन मात्रा में भोजन करने से, दोनों से ही शक्ति व स्वास्थ्य दोनों का ह्रास होता है।
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के लिए एक समान आहार की आवश्यकता नहीं होती। अत: अपनी आत्मा को भली प्रकार समझकर, जो द्रव्य स्वंय के लिए लाभकारी है, शरीर व मन के अनुकूल है, उसे ग्रहण करना चाहिए तथा जो द्रव्य शरीर व मन के प्रतिकूल है व तन- मन के लिए हानिकारक है, उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।
अत: आहार सदैव सादा, सात्विक, सुपाच्य तथा शुद्ध मनोभाव से ही ग्रहण करना चाहिए।
अपने अगले अंक में अब हम द्वितीय उपस्तम्भ अर्थात् निद्रा के बारे में चर्चा करेंगे।