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Department of Ayurveda and Holistic Health
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
श्रीमद् भगवद्गीता में अन्न से प्रजा की उत्पत्ति, सृष्टि की उत्पत्ति की बात कही गयी है और यही सत्य है, अन्न को परमंब्रह्म भी माना गया है, क्योंकि मनुष्य मात्र का जीवन अन्न अर्थात आहार, भोजन, पथ्य, डाइट कुछ भी कहे उसी पर आधारित है, मनुष्य का स्वास्थ्य, वृध्दि विकास शरीर का निर्माण क्षतिपूर्ति सभी कुछ अन्न पर ही निर्भर है। पोषण का, जीवन का माध्यम भी अन्न ही है, स्वरूप उसका कुछ भी हो सकता है।
भारतीय संस्कृति में इसी कारण सर्वत्र अन्न की शुध्दता, स्वच्छता, संस्कार, अर्जन, विधि विधान एवं ग्राह्यता पर विशेष ध्यान दिया गया क्योंकि जीवन का आधार मनुष्य के स्वास्थ्य एवं रोग अन्न पर निर्भर है, संस्कारित शुध्द अन्न गति और मति का आधार माना गया, वेद, उपनिषद, पुराण, आयुर्वेद सभी जगह अन्न की महिमा का विशेष व्याख्यान प्राप्त होता है। प्राणि मात्र के कल्याण कही आरोग्यं भोजनाधीनम् कहा गया तो कही "आहार शुद्धौ सत्व शुध्दि" की बात कही गयी, तो सामाजिक परिप्रेक्ष्य में 'जैसा खाये अन्न वैसा बने मन' की बात कही गयी।
आयुर्वेद में तो महर्षि चरक मनुष्य की आयु, अन्न पर आधारित मानते हैं। शरीर निर्माण और पोषण, रोग और स्वास्थ्य को स्वीकारते हुए विशेष विधि-विधान संस्कार और उपयोग की बात को कहते हैं कि आहार को औषधि के रूप में ग्रहण करना चाहिये। मनुष्य का जीवन अन्न पर आधारित होने के कारण स्वस्थहित में आयुर्वेद ओजस्कर, ऊर्जा देने वाले भोजन की आहार की, प्रशंसा की गयी, प्राथमिकता दी गयी। परंतु आज का भोजन रोग प्रधान हो गया कारण दूषित होना, न शुध्दता रही न संस्कार, न सेवन विधि सदुपयोग की जगह भोग आ गया। स्वास्थ्य की जगह इन्द्रिय सुख, स्वाद लोलुपता ने ले ली, इसलिए वर्तमान में सबसे अधिक रोग आहार प्रदूषण, जल प्रदूषण, कुपोषण अतियोगता, मिथ्या योग और असंयम, अनर्गल आहार के कारण हो रहे हैं।
अन्न का उपयोग पहले हमारे सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, उत्सव पर्व, व्रत, त्यौहार, ॠतु अनुकूल होता था सीमित मात्रा में साथ सहयोग सामूहिक रूप से सदुपयोग पूर्वक था, अब व्यक्ति आधारित धन आधारित है ॠतु के विपरीत है, आयु के विपरीत है और सबसे बड़ी बात बाजार तथा उपभोग प्रधान है।
क्योंकि बुद्धिवादियों और तार्किक तथ्यों के साथ अब परोसा जा रहा है, इसलिए भारतीय परम्परा संस्कृति को न मानकर हम इसे इसी रूप में स्वीकार करते है चाहे वह हमारे आयु के स्वास्थ्य के विपरीत ही क्यों न हो परिणाम कुछ भी क्यों न हो, न उसका स्वरूप सही है न विधि न ही प्रभाव।
आज अन्न को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां प्रचारित की जा रही है, कही क्षार और अम्ल के नाम पर डराया जाता है, तो कहीं आहार की गुणवत्ता और प्रकार के नाम पर, कहीं वर्ग कैलोरी प्रधान पर तो कहीं कीटोडाइट और न जाने किस-किस प्रकार के आहार का प्रचार चल रहा है, भ्रांतियां फैलायी जा रही है जबकि हमारा देश ऋषि प्रधान, कृषि प्रधान संस्कृति पर सदैव से रहा है, परन्तु आज विडम्बना विज्ञान के दुष्प्रभाव और पाश्चात्य संस्कृति के प्रचलन के कारण है, हम हर प्रकार से अपनी जड़ों से संस्कृति से वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वे भवन्तु सुखिन: के मार्ग से भटकते जा रहे हैं, आवश्यकता पुनर्बोध की है, जागृति की है, आत्मनिरीक्षण की और अपनी संस्कृति पर आधारित भारतीय पद्यति जो शतायु की है और जीवेत शरदंशतम् की है। स्वाद की प्रधानता को छोड़ना होगा। स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाने वाला, अक्षुण बनाने वाला भारतीय, सात्विक, सही, वास्तविक संस्कारित अन्न को स्वीकार करना होगा तभी हम संतुलित जीवन और सदगति की कामना कर सकेंगे।