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Department of Ayurveda and Holistic Health
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar
भारत में जलवायु परिवर्तन होता है। हमारी भौगोलिक स्थिति ऐसी है, जिसमें सूर्य और चन्द्रमा के साथ धरती के तापक्रम एवं वातावरण में परिवर्तन, तथा मौसम में बदलाव होता रहता है। इसका प्रभाव मनुष्य के ऊपर पड़ता है, जिसके कारण स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव लगा रहता है। ॠतुओं का हमारे स्वास्थ्य से गहरा संबंध होने के कारण हमारे ॠषियों ने आयुर्वेद में इसे ॠतुचर्या के नाम से उद्धृत किया है, और कहा है कि ॠतु के, अर्थात मौसम के अनुसार ही हमारा आहार-विहार, यानि खाना-पीना, तौर-तरीका, व्यवहार-आचरण होना चाहिए, नहीं तो स्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। अगर हम ॠतु के विपरीत चलते हैं, तो उसका परिणाम हमें बीमारी/रोग के रूप में मिलता है। अत: अच्छे स्वास्थ्य हेतु यह आवश्यक है कि हम मौसम के विपरीत न चलें।
आयुर्वेद के अनुसार हमारा शरीर दोष (वात, पित्त, कफ), धातु (रस, रक्त ,मांस, मेद, मज्जा, आदि) तथा मल (अपशिष्ट) को मिलाकर बना है, और इनका संतुलन ही स्वास्थ्य कहलाता है; इसके लिये पालनीय नियम हैं, जिनको व्यवहार में लाने से हम निरोगी रहते हैं।
हमारे यहाँ छ: ॠतुएँ प्रमुख रूप से मानी गई हैं, जिनके आधार पर ही सम्पूर्ण प्रकृति परिवर्तित होती है, और इसी के साथ हमारा स्वास्थ्य भी। हम पूरी तरह से स्वस्थ रहें; शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक संतुलन बना रहे; इसके लिए दैनिक खान-पान, पर्व-उत्सव, व्रत-त्यौहार, इत्यादि की परम्परा है, तथा रोगों से बचाव हेतु कुछ नियम अनुशासन हैं, जिसे (हम) ॠतुचर्या के नाम से जानते हैं।
ॠतुओं में से एक है - वर्षा ॠतु। यह विशेष इसलिए है कि इस समय सम्पूर्ण प्रकृति में परिवर्तन बहुत तेजी से होते हैं, जिससे रोगों के पैदा होने की सम्भावना बहुत अधिक रहती है; ऐसे में सावधानीपूर्वक रहना बहुत आवश्यक होता है।
नवीन वनस्पतियाँ, घास, पेड़, पौधे, आदि के उगने का, और वृक्षारोपण का श्रेष्ठ सर्वोत्तम समय वर्षा ॠतु है। वर्षा ॠतु में यदि अतिवृष्टि न हो तो मौसम सुहावना होता है। मंद पूर्वी हवा चलती है, जो शीतल प्रकृति की होती है।
वात प्रकोपक होने के कारण शरीर में स्वाभाविक रूप से वात वृद्धि का काल है। इस समय वात रोगियों को, विशेषकर जोड़ों के दर्द से युक्त रोगियों के कष्ट में वृद्धि हो जाती है। वात वृद्धि से अतिसार आदि का भी प्रकोप हो जाता है। जल स्रोतों के प्रदूषित होने से जलज बीमारियों से लोग पीड़ित हो जाते है। सर्प, कीट, आदि के दंश का भी भय होता है। वनस्पति, पराग-जन्य एलर्जी, त्वचा के रोग, तथा श्वास रोगों में वृद्धि हो सकती है।
इन सब बातों का ध्यान रखते हुए, इस समय पथ्य-अपथ्य का विचार करते हुए, व्यक्ति को अपना आहार-विहार शुद्ध एवं नियमित रखना चाहिए। पथ्य-अपथ्य आहार की तालिका निम्न है-
पथ्य आहार-विहार (पालन करने योग्य)
आहार- आहार पुराना चावल, लाल चावल, भुने धान्य, पुराना जौ, कुल्थी, मूंग, जीरा, हींग, काली मिर्च, परवल, ताजा धनिया, पुदीना, भिंडी, लहसुन, प्याज, सोंठ, कद्दू, छाछ, दूध, घी, उबला हुआ पानी, सेंधा नमक, नींबू, अनार, अंगूर, ताजा एवं गरम भोजन पथ्य आहार है।
विहार- चन्दन, खस आदि के सूखे चूर्ण को स्नान से पहले शरीर पर मलना अच्छा रहता है। नीम के उबले हुए क्वाथ को स्नान के जल में मिलाकर स्नान करना लाभकारी रहता है। सूखी जगह पर रहना, जूते पहनना, जिससे सर्पादि कीट दंश से बचाव हो, आवश्यक है।
'ॠतु हरीतकी' के अनुसार वर्षा ॠतु में हरीतकी (हरड़) को सेंधा नमक के साथ सेवन करना लाभदायक है।
अपथ्य आहार-विहार (नहीं करने योग्य)
आहार- बाजरा, मकई, नया चावल, अरहर, मसूर, चना, हरे मटर, पालक, मेथी, करेला, फूलगोभी, आलू, ककड़ी, सिंघाड़ा, खरबूजा, कैथ(कपित्थ), भैंस का दूध, पनीर, श्रीखण्ड, मिठाई, ठंडा पानी, नदी तथा कुएँ का जल, तले पदार्थ, खुले पदार्थ, बासी भोजन।
विहार- दिन में सोना, अधिक परिश्रम, अत्यधिक व्यायाम, जोर से बहती हवा में रहना, आदि।