“Us kā Ek Hāth Kaṭā Huā Thā”
from Konṭ Ilyās kī Maut
Hijāb Imtiyāz ʿAlī (Hijāb Ismāʿīl)
Lahore, 1935
एक गर्म रात मैं अपना एक अफ़साना ख़त्म करके कुतुबख़ाने से बाहर निकली थी। कि अचानक बाग़ के ज़ीने पर किसी की क़दमों की आहट सुनाई दी।
“ए माबूद यह कौन था। ज़ूनाश?"
मैंने ख़ौफ़ से लरज़ कर अपनी बूढ़ी हबशिन को आवाज़ दी, मगर वह बहरी चूहीया अल्लाह जाने किधर थी कि उसने जवाब न दिया। आप जानते हैं कि मैं हमेशा से भूतों की कहानियाँ पढ़ने की शौक़ीन हूँ। चुनाँचे इस आहट को सुनकर दो क़दम पीछे इस ख़ौफ़ से हट गई कि कहीं कोई भूत या पुरानी रूह न हो। लेकिन इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त खिड़की में जो छोटा सा आईना आवेज़ाँ था उस में मुझे आने वाले की शक्ल नज़र आ गई। और जान में जान आई। वह हमारे प्यारे जनरल हारली थे। उन्हें देखकर मैं बेताब हो गई और पर्दा हटा कर दौड़ती हुई ज़ीने पर निकल आई।
"मेरे हारली।" बेसाख़्ता मरी ज़बान से निकला।
“उफ़ रूही…" हारली कहने लगे, "तुम्हारा चेहरा तो लीमू की तरह ज़र्द हो गया है। क्या बात है मेरी नन्ही?"
यह कह कर हारली ने मुहब्बत से मुझे अपनी तरफ़ खींच लिया। आह वह ख़ुशगवार लम्हे! उस वक़्त उन्होंने एक ख़ूबसूरत स्याह ऊँचा साटन का कोट पहन रखा था। शाम की सफ़ेद टाई लगा रखी थी। उनके रूमाल में से हल्की हल्की "क़ाहिरा में इक शब" की ख़ुशबू आ रही थी।
मैंने ताम्मुल करके कहा, "हाँ मैं डर गई थी हारली, अभी मैंने भूतों का इक अफ़साना लिखा था। उसे ख़त्म करके बाहर आ रही थी कि तुम्हारे क़दमों की आहट सुनाई दी। मैंने यही जाना कि कोई भूत आ गया है। इन मशरिक़ी मुल्कों में भूत अक्सर नज़र आते हैं।"
यह सुनकर उन्होंने आहिस्ता से मेरी पीठ ठोंकी और अपनी मोटी आवाज़ में हँस पड़े, "यह लड़की तो पागल हो गई है। देखो मरी जान अब रूहों के मुताल्लिक़ ज़्यादा न सोचा करो। वरना किसी दिन मालिक न करे, मालिक न करे तुम भी रूह बन कर हवाओं में तहलील हो जाओगी। देखो तो कितनी दुबली हो गई हो जैसे हिलाल।"
यह सुनकर मैंने अपने काहीदा जिस्म पर निगाह डाली। जो नीली जॉर्जेट में वाक़ई मोमबत्ती के शोले की तरह नाज़ुक मालूम हो रहा था।
मैंने मुस्कुरा कर कहा, "हारली मेरा दुबलापन कोई आरिज़ी मर्ज़ नहीं है। तुम जानते हो मैं हमेशा की नाज़ुक अंदाम वाक़े हुई हूँ। अलबत्ता अब चंद साल से सय्याही की मुसीबतों और जंगली कैम्पों की ज़िंदगी ने मुझे कुछ हद से ज़्यादा काहीदा और नाज़ुक बना दिया है। इस पर मुस्तज़ाद मशरिक़ी सहराओं और तपते हुए पहाड़ों की गर्मी देखो तो आफ़ताब को ग़ुरूब हुए दो घंटे होने को आए मगर अब तक बाग़ीचे में गर्म हवाएँ बराबर चल रही हैं। उन्हीं हवाओं ने मरी सेहत का नास किया।"
“कोई दम में रात की ख़ुशगवार हवा शुरू हो जाएगी रूही। इन गर्म मुमालिक में आठ बजे के बाद रात दिल-फ़रेब और मौसम मोतदिल हो जाता है।"
यह कह कर उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी देखी, "लो, आठ बजने में चंद ही मिनट बाक़ी हैं। तुम पसंद करो, तो मैं तुम्हें चहल-क़दमी के लिए बाहर ले चलूँ?"
“हाँ हारली। मैं ख़ुद यही चाहती थी। दिन-भर कुतुब-ख़ाने में बैठे-बैठे तबीयत उकता गई है।"
यह कहते कहते मैं हारली के साथ बाग़ के ज़ीने पर से होते हुए नीचे बाग़ में उतर आई।
हम दोनों बातें करते हुए इक सड़क पर निकल आए। हल्की हल्की चाँदनी थी। मगर बर्क़ी लैम्पों की रोशनी ने उसे नाबूद कर दिया था। सड़क के दाएँ बाएँ अज़ीमुश्शान इमारतों का एक सिलसिला दूर तक चला गया था।
चंद ही मिनटों में हम लोग "फ़ॉरक्यूज़ होटल" की शानदार इमारत तक पहुँच गए। उस की बर्क़ी रौशनियों से आँखें चुन्धियाई जाती हैं। उस के अहाते में कहीं अन्दर दिल-फ़रेब सुरों में बैंड बज रहा था। उस की रौनक़ और चहल-पहल सारे शहर में मशहूर थी।
मैंने कहा, "हारली। मुझे यह मक़ाम बहुत पसंद है। मैं जब भी दो-चार दिन के लिए यहाँ आई हूँ तो इसी होटल में ठहरी हूँ। इस के चप्पे-चप्पे में ज़िंदगी नज़र आती है।"
हारली ने नज़र उठा कर अज़ीमुश्शान इमारत को देखा। फिर बोले: "अगर तुम पाँच साल पहले यहाँ आतीं और इत्तिफ़ाक़ से नवंबर की २१ तारीख़ को यहाँ पहुँचतीं, तो तुम्हें बड़ा ताज्जुब होता। शायद वहशत से चीख़ पड़तीं।"
“वह क्यों?" मैंने हैरान हो कर पूछा, "मैं वहशत से चीख़ क्यों पड़ती?"
“हाँ प्यारी।" हारली कहने लगे, "यहाँ एक अजीब क़िस्सा गुज़रा करता था। साल भर तो यहाँ ऐसी ही चहल-पहल और रौनक़ हुआ करती थी। जैसी तुम उस वक़्त देख रही हो। मगर नवंबर की इक्कीसवीं तारीख़ को यह होटल ऐसा ख़ामोश और वीरान हो जाता था जैसे मम्मी ख़ाना।"
“ए अल्लाह! तेरी पनाह…" मैंने वहशत से सीने पर हाथ रखकर कहा, "आख़िर सबब क्या था?"
“रूही यहाँ उस तारीख़ की रात को एक ऐसा दहशतनाक वाक़िया होता था जिसे याद करके भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। तुम्हें यह सुनकर हैरत होगी कि इस ख़ौफ़नाक क़िस्सा का ख़ातमा मैंने और मरे एक फ़ौजी दोस्त ने किया था।"
मैं हैरान हो कर हारली का चेहरा तकने लगी, "हारली तुम तो अल्फ़-लैला की सी बातें करने लगे हो।"
“हाँ नन्ही" हारली ने वुसूक़ के लहजे में कहा, "मैं झूट नहीं बोलता। तुम मेरे दोस्त कैप्टन फ़ीरोज़ी को तो जानती हो, न?"
“हाँ।"
“वे भी मरे साथ थे। हम दोनों ने इस क़िस्से को अपनी आँखों से गुज़रते हुए देखा। चलो रूही। सामने वाले बाग़ीचे में किसी कोच पर बैठें। वहाँ तारीकी भी है। तारों की छाओं भी। ऐसी जगह क़िस्सा बयान करने और सुनने का लुत्फ़ है।"
यह सुनकर मैंने हारली का ख़ूबसूरत हाथ पकड़ लिया और एक रूह की सी तेज़ गामी से तारीकी की तरफ़ बढ़ी। बोली, "हारली अगर यह इतना ही दिलचस्प और ख़ौफ़नाक वाक़िया था तो तुमने पाँच साल पहले मुझे ख़त में क्यों नहीं लिखा? तुम भी बड़े वह हो।”
“रूही मैं तुम्हें उस वक़्त वह ख़ौफ़नाक वाक़िया भला कैसे लिख सकता था? तुम शोराक के साहिल पर अपने वालिद के साथ थीं और सख़्त अलील थीं। मज़ीद बर-आँ मैं तो इस वाक़िये को अब भूल भी गया था। अब तुमने इस होटल की चहल-पहल का ज़िक्र किया तो मुझे याद आया कि यही बारौनक़ होटल पहले इक रात के लिए किस तरह क़ब्र की तरह वीरान हो जाया करता था। सोच कर उस वक़्त हैरानी होती है।”
बातों बातों में हम दोनों संतरे और नारंगी के एक बाग़ में पहुँचे और कोच पर बैठ गए। रात की हवाओं में अर्ग़ुनूँ का सा सुरीला शोर मिला हुआ था। और झाड़ियों में से "मल्लिका-ए-शब" की ख़ुशबूदार कलियों की महक आ रही थी। हाय वह बिछड़ी हुई रात गए हुए दिनों की इक रात जब कि एशिया की ख़ुशगुवार गर्मी में तारों भरे शफ़्फ़ाफ़ आसमान के नीचे हारली मरे क़रीब बैठे हुए वह क़िस्सा सुना रहे थे। अल्लाह वह दिन फिर कब आएँगे? आएँगे भी।
“पाँच साल हुए।" हारली कहने लगे, "मैं कैप्टन फ़ीरोज़ी के साथ यहाँ आया था। मैं उसी वक़्त नया नया फ़ौज में दाख़िल हुआ था रूही। हम लोग २० नवंबर को यहाँ पहुँचे थे और चार दिन ठहरने की नीयत से आए थे। मगर मैनेजर ने कहा कि जनाब-ए-आली! आप शौक़ से चार दिन यहाँ ठहरें। पर इतनी बात है कि कल २१ नवंबर की रात आपको कहीं बाहर बसर करनी पड़ेगी। जब उस से इस की वजह पूछी तो कहने लगा कि २१ नवंबर की रात को यह होटल ख़ाली कर दिया जाता है। यहाँ न मुसाफ़िर रहते हैं न होटल के मुलाज़िम। बात यह है कि यहाँ कई साल क़बल एक मज़लूम औरत को किसी ने निहायत बेदर्दी से क़तल किया था। यह औरत अपने क़तल की तारीख़ को अपनी क़ब्र से निकलती है और होटल के तमाम कमरों की गशत लगाती है और अपना इंतिक़ाम लेना चाहती है।”
यह सुनकर फ़ीरोज़ी ने कहा, "एक औरत, ख़ुसूसन एक मज़लूम मक़्तूल औरत से तो हरगिज़ नहीं डरना चाहिए।”
दूसरे दिन सुबह ही हम लोग शहर से बाहर शिकार के लिए चले गए। वापसी में हमें कुछ देर लगी। ग्यारह बज गए थे। जब हम होटल के अहाते में पहुँचे तो हर तरफ़ क़ब्रिस्तान की सी उदासी और वीरानी छाई हुई थी। किसी मुलाज़िम का पता न था। सिर्फ़ सफ़ेद चाँदनी ऊँचे ऊँचे शाह-बलूत और अमरूद के दरख़्तों को आग़ोश में लिए हुए थे। रात की ख़ामोशी में दरख़्तों के पत्ते इक अजीब पुर-असरार आसेबी अंदाज़ से बचने लगते थे।
इस वक़्त दफ़तन मुझे और मेरे दोस्त को याद आ गया कि आज २१ नवंबर की रात है।
“ग्यारह बज गए हैं हारली" कैप्टन फ़ीरोज़ी ने मुझसे कहा, "अब यहाँ से जाना फ़ुज़ूल है।”
यह कहकर उसने बरामदे में जा कर रोशनी का बटन दबाया और एक आराम-कुर्सी पर लेट गया। मैंने भी उस की तक़लीद की। हम दोनों बेहद थक गए थे रूही। दफ़तन मेरे ग़ुस्ल-ख़ाने का पीछे का दरवाज़ा पट से खुल गया।
हारली से इतना सुन के ख़ौफ़ से मेरे रौंगटे खड़े हो गए। मैंने तारीकी की तरफ़ लरज़ कर देखा। फिर हारली के बाज़ू से लग कर बैठ गई, "बुलंद आसमान हारली" मैंने काँप कर कहा, "कितना ख़ौफ़नाक वाक़िया है!"
“अभी तो कुछ नहीं प्यारी। इस की हैबत और बढ़ती जाएगी। तुम मेरे और क़रीब हो बैठो रूही। नन्ही सी लड़की डर जाओगी।"
यह कह कर हारली ने मुस्कुराकर मुझे और क़रीब खींच लिया। उनके रूमाल से हल्की हल्की ख़ुशबू आ रही थी। आह आज भी जब कभी "क़ाहिरा में इक शब" की ख़ुशबू आती है तो मुझे वह रात, वह बिछड़ी हुई रात याद आ जाती है।
“थोड़ी देर में हमने देखा कि ग़ुस्ल-ख़ाने में से कुछ आवाज़ आ रही है। दफ़तन कैप्टन फ़ीरोज़ी ने घबरा कर मुझसे कहा “हारली हारली वह देखो ग़ुस्ल-ख़ाने के दरवाज़े में क्या चीज़ है?"
मैंने डर कर सर फेरा और ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ देखा। इक औरत सफ़ेद चादर लपेटे हुए खड़ी थी, उस का एक हाथ कटा हुआ था, थोड़ी देर हमने मबहूत हो कर उसे देखा। मेरी आँखें बंद हो हो जाती थीं। और ख़ौफ़ से अजीब हालत थी।
थोड़ी देर में औरत ने हाथ के इशारे से हमें अपनी तरफ़ बुलाया। और बुलाते हुए ग़ुस्ल-ख़ाने का ज़ीना तय करके आहिस्ता-आहिस्ता नीचे बाग़ में चली गई। मुड़ मुड़ कर हमें देख रही थी। हम दोनों उस के पीछे उस से किसी क़दर फ़ासले पर चले जा रहे थे। आख़िर अमरूद के एक दरख़्त के नीचे जा कर वह चुपचाप खड़ी हो गई। दरख़्त के नीचे इक फावड़ा पड़ा हुआ था। औरत ने फावड़े की तरफ़ इशारा किया। मेरे दोस्त ने बा-दिल-नाख़्वास्ता उसे उठा लिया और औरत की तरफ़ देखने लगा। जब औरत ने अच्छी तरह इतमीनान कर लिया कि फावड़ा उठा लिया गया है तो हाथ के इशारे से अपने पीछे बुलाती हुई वह बाग़ के इस हिस्से में पहुँची जहाँ कुआँ था। वहाँ एक नन्हे से दरख़्त के नीचे जा कर साकित-ओ-जामिद खड़ी हो गई। और हमारा इंतिज़ार करने लगी, जब हम पहुँचे तो उसने निहायत आजिज़ाना अंदाज़ से ज़मीन खोदने का इशारा किया। वह नौजवान और ख़ूबसूरत थी। चेहरे पर मज़लूमियत बरस रही थी। चाँद की ज़र्द रोशनी में उस का चेहरा निहायत दर्दनाक मालूम होता था।
मेरे दोस्त ने ज़मीन खोदनी शुरू की। जब थक कर फ़ीरोज़ी दो मिनट के लिए खड़ा हो जाता तो औरत अजीब बेक़रारी के अंदाज़ में उसे बार-बार जल्द ज़मीन खोदने का इशारा करने लगती।
खोदते खोदते दफ़तन फ़ीरोज़ी रुका, "हारली फावड़ा किसी चीज़ से टकराता है! अब मुझसे खोदा नहीं जाता।”
यह कह कर उसने फावड़ा मुझे दे दिया। मैंने कोट उतार कर उसे दिया और फिर ज़मीन खोदने लगा। एक लंबूतरा पत्थर अंदर से निकाला। मैंने उसे उठा कर बाहर फेंका। फेंकना था कि औरत ने फ़ौरन दौड़ कर उसे उठा लिया।
“यह पत्थर तो नहीं मालूम होता।" मिरे दोस्त ने कहा। "हड्डी मालूम होती है।”
अभी मैं कोई जवाब भी न देने पाया था कि औरत आहिस्ता-आहिस्ता कुएँ की दूसरी तरफ़ जाने लगी और इशारा से हमें अपने पीछे बुलाने लगी।
“लो और क्या मुसीबत आने वाली है?" फ़ीरोज़ी ने कहा।
औरत कुएँ के परली जानिब जा कर खड़ी हो गई और फिर वहाँ ज़मीन खोदने का इशारा किया।
मैंने फिर खोदना शुरू किया। अब तो खोदते खोदते मैं थक गया था। जब दो फ़ुट से ज़्यादा गहराई का सुराख़ बन गया तो औरत ने इशारे से मना किया। मैं रुक गया। हम तीनों ख़ामोश खड़े थे। औरत दूसरी तरफ़ फिर कर किसी काम में मसरूफ़ थी। वह क्या काम था? तुम सुनकर लरज़ जाओगी… जो लंबूतरी हड्डी ज़मीन से निकली थी उसे वह अपने कटे हुए हाथ पर जोड़ रही थी। गोया वह उस का ही हाथ था जब हाथ दूसरे निस्फ़ से जुड़ गया तो उसने पलट कर हम दोनों को दो लम्हे देखा। फिर चुपचाप अपनी क़ब्र में उतर गई और हमारी आँखों से ओझल हो गई। हमारे होश-ओ-हवास गुम थे। हमने उस की क़ब्र में मिट्टी भर दी। उस के बाद इस होटल में सुना है कि कभी २१ नवंबर की रात ख़ौफ़नाक नहीं गुज़री।