“Kabāṛ kī Koṭhṛī”
from ʿAjīb
Qāzī ʿAbd ul-Ġhaffār
Delhi, ca. 1935
[दीबाचा:]
किसी ज़माने में−जब बेफ़िक्री के मशाग़िल अगर पैदा ना होते थे तो ईजाद किए जाते थे−यारों ने एक मख़सूस क्लब क़ायम किया था, जो अर्से तक हम चंद बे-फ़िक्रों का मशग़ला रहा। इस क्लब में सिर्फ़ वे लोग शरीक किए जाते थे जो कम अज़ कम एक आप-बीती, अजीब और सच्ची वारदात बयान कर सकते। क़ायदा यह था कि क्लब की रुकनियत का उम्मीदवार इस क़िस्म की एक दास्तान लिख कर अपनी दरख़ास्त के साथ पेश करता था और अराकीन-ए क्लब अगर इस दास्तान को पसंद कर लेते थे तो वे दास्तान बतौर-ए फ़ीस-ए दाख़िला क़ुबूल कर ली जाती थी। इस ज़माने में क्लब के दफ़्तर में ऐसे बहुत-सी अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्से जमा हो गए थे। बाज़ उन में से−बोसीदा और पारीना−क्लब के पुराने काग़ज़ात में दस्तयाब हो गए। अक्सर क़दीम मेम्बरों का पता निशान भी अब मालूम नहीं। ख़ुदा जाने ज़िंदा हैं या मर गए। लेकिन बहर-हाल जिन मेम्बरान की नज़र से ये तहरीर गुज़रे उन से दरख़ास्त की जाती है कि अगर कुछ पुराने क्लब वाले क़िस्से भी उनको याद हों तो नख़ल और सहल-अँगारी ना करें और पुराने नुक़ूश को एक दफ़ा फिर उजाल दें। इन हज़रात में से बहुत से तो ग़ालिबन ऐसे होंगे जिनकी जवानी की याद को आठ दस बच्चों और ऐक दो बीवी ने मिटा डाला होगा कुछ ऐसे भी होंगे। बदनसीब। जिनके “ज़माना-ए जाहिलियत” के नुक़ूश को ज़िंदगी के मद्द-औ-जज़्र ने फ़ना कर दिया होगा। मगर कुछ तो ज़रूर ऐसे होंगे जो बूढ़े हो कर भी अभी ज़रा जवान हूँ!! ऊपर से सुर्ख़ और ताज़ा सेब की मानिंद खाल ख़ुश्क हो कर सिकुड़ गई होगी, लेकिन ज़ाहिरी रंग-ओ-बू से महरूम हो कर भी मुम्किन है कि गूदे के अंदर शायद कुछ रस बाक़ी रह गया हो?? मेरी तरह!! इन ही जवान बूढ़ों के दरवाज़ों पर मैं दस्तक देता हूँ। है कोई “अजीब क्लब” का “अजीब मेम्बर” जो अब भी अपनी कोई अजीब दास्तान-पास्तान हमें सुना दे? कोई ऐसी फड़कती हुई दास्तान जिसमें ज़िंदगी की हरारत हनूज़ मौजूद हो! है कोई? मरहूम क्लब के दफ़्तर-ए पारीना से जो कुछ मिल सका वह तो उस वक़्त हाज़िर है। इन पुराने अजीबों में से किसी अजीब ने अगर यह आवाज़ सुन ली तो बहुत सी दास्तानों की कड़ियाँ मिलती जाएँगी। बहर-हाल, फ़िलहाल तो ये औराक़ हाज़िर हैं।
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“बला-गर्दान” साहिब का यह क़िस्सा तो कुछ ज़्यादा अजीब नहीं, लेकिन अंदाज़-ए बयान बहुत दिलचस्प है। इसलिए फ़ीस-ए दाख़िला क़ुबूल करके साहिब-ए मौसूफ़ को अंजुमन की रुकनियत में शामिल किया जाता है।
ग़दर से पहले दादा साहिब मरहूम ने वह मकान बनाया था जिसमें हम रहते हैं... पुराना है मगर बहुत मज़बूत है! जब ग़दर शुरू हुआ तो दादा साहिब एक बड़े सरकारी ओहदा पर फ़ाइज़ थे। मगर आख़िर में इन्होंने फाँसी पाई। (कोई पुलिस वाला ना सुन ले इल्ज़ाम यह था कि इन्होंने एक भागे हुए दिल्ली के शहज़ादे की मदद की थी। वह बेचारे तो फाँसी पर लटके और इधर उनकी सारी जायदाद और अमलाक ब-हक़-ए सरकार ज़ब्त हो गई। हमारा मकान भी ज़ब्त हो गया। दादी बेचारी इस तरह घर से निकलीं कि सिर्फ़ एक चादर उनके सर पर थी।
दार-ओ-गीर का ज़माना गुज़र गया। दादी हमारी बड़ी ऊलुलअज़म औरत थीं। कम-उम्री में बेवा हो कर भी वे मसाइब से घबराने वाली ना थीं। डोली में बैठ कर बड़े साहिब की कोठी पर पहुँच गई और जो कुछ कहना सुना था साफ़ साफ़ कहा। साहिब नए नए ज़िला में आए थे, उन्होंने जो तहक़ीक़ात शुरू की तो साबित यह हुआ कि दादा साहिब ने बेगुनाह फाँसी पाई! उजलत में फाँसी पर चढ़ा दिए गए... उस ज़माने में काले आदमी की जान की क़ीमत सिर्फ़ इतनी थी कि जब यह हक़ीक़त वाज़े हुई तो सरकार ने बड़ा करम किया कि जो कुछ ज़बत किया था उस का निस्फ़ वापस कर दिया! दादी ने कहा, चलो, भागते भूत की लंगोटी। यही ग़नीमत है। दो साल बाद फिर अपने बच्चों को लेकर घर आईं... जिस वक़्त घर बंद हुआ था तो ऊपर की मंज़िल पर एक कोठड़ी थी। उस में सारे घर का काट-कबाड़ डाल दिया गया था। कोठड़ी का एक ही दरवाज़ा था, उस में ताला पड़ा हुआ था। घर में वापस आने के बाद भी वह ताला उसी तरह पड़ा रहा... यह सारा क़िस्सा उस ज़माने का है जब में तो कहाँ, मेरी माँ भी ग़ालिबन पैदा ना हुई थीं! यह ना समझिए कि मैं चश्म-दीद बयान कर रहा हूँ!
मेरी पैदाइश के पंद्रह बरस बाद तक इस कोठड़ी में बदस्तूर ताला पड़ा हुआ था। एक गुनाहगार के सीने की तरह उस के अंदर रोशनी जाने का भी कोई रास्ता ना खुला। मुझे याद है कि “दादी अम्माँ” उस कोठड़ी के मुताल्लिक़ अजब अजब क़िस्से सुनाया करती थीं। मैं जब १२ बरस का था तो दादी अम्माँ की उम्र अस्सी बरस के क़रीब थी। वे फ़रमाया करती थीं कि जब ग़दर में हम लोग इस मकान से निकाले गए और दो बरस तक यह मकान ख़ाली पड़ा रहा तो उस ज़माने में एक बहुत नेक-ख़्याल जिन्न उस कोठड़ी में आकर रहने लगे। अक्सर सुबह को उनके क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने की आवाज़ आती है और मुझ पर तो इस क़दर मेहरबान हैं कि जब कभी मेरा दिल गर्मगर्म मिठाई या ताज़े फल खाने को चाहता है, फ़ौरन भेज देते हैं...! मैं बच्चा तो था लेकिन उन्नीसवीं सदी ईसवी का बच्चा था! ये क़िस्से सुनता था और दादी अम्माँ को इस क़दर छेड़ता कि वे चिड़ जाती थीं... “क्यों दादी अम्माँ, ये तुम्हारे दोस्त जो ऊपर कोठड़ी में रहते हैं मिठाई तो लाते हैं, क्या हमारे लिए क्रिकेट का एक बल्ला ना ला देंगे? अच्छी दादी अम्माँ! आप ज़रा उनसे कहीए तो...” “क्यों दादी अम्माँ भला ये जिन्न साहिब इस कोठड़ी में रहते हैं तो पाख़ाना पेशाब भी उसी के अंदर करते होंगे... बड़े ग़लीज़ हैं वे...!” “दादी अम्माँ” को ग़ुस्सा आ जाता था, कहती थीं “तौबा तौबा कर लड़के! वे ख़ुदा के नेक बंदे हैं, हमारे मेहमान हैं ऐसी बातें करता है तो उनके मुताल्लिक़...”
मैं कहता, “दादी अम्माँ! वे उड़ते भी तो होंगे... हमने सुना है कि सब जिन्न उड़ते हैं... भला उनसे कहीए एक दिन हमको उड़ाकर दिल्ली ले चलें... हज़रत सुलेमान की क़सम दीजियेगा तो ज़रूर मान जाऐंगे!”
दादी अम्माँ दिक़ हो जातीं तो अपनी लाठी उठा कर मुझे डरातीं... “नहीं जाएगा तू, नहीं जाएगा? बके जाएगा, बके जाएगा? अच्छा ठहर तेरे मौलवी साहब आएँ तो देख मैं कैसा कुछ पिटवाती हूँ...”
कभी “दादी अम्माँ” चंद चिराग़ जलाकर... शाम के वक़्त... उस कोठड़ी के दरवाज़े पर रख देतीं और सबसे कहतीं, “देखो बचोगे उस वक़्त ग़ुल शोर ना होने पाए, आज जिन्नात जमा हैं मीलाद शरीफ़ की महफ़िल हो रही है...”
मैं कहता, “दादी! यह कैसा मीलाद शरीफ़ है, कोई आवाज़ तो आती ही नहीं!” वे फ़रमातीं, “जा भाग! बच्चों को आवाज़ नहीं आया करती...!”
एक रात को... जाड़ों का ज़माना था... हम सब दालान में सो रहे थे, दालान के सब दरवाज़े बंद थे। दादी अम्माँ के पलंग के पास ही मेरा पलंग था। यकायक मेरी आँख खुली, यह मालूम हुआ जैसे कोई मेरे पलंग पर कूदा हो, डर के मारे मेरी चीख़ निकल गई, सब लोग जाग उठे, देखा तो एक सफ़द रंग का बिल्ला था... मालूम नहीं किधर से आ गया... था बहुत बड़ा, बकरी के बच्चे के बराबर... वह तो हम लोगों के जागने के बाद किसी तरफ़ से निकल गया। मगर दादी अम्माँ ने सुबह तक किसी को अपनी बातों से सोने ना दिया। उनका ख़्याल था कि ऊपर वाले जिन्न उस वक़्त बिल्ले की सूरत में आए। मालूम नहीं मुझसे क्या कहना चाहते थे? बार-बार दादी अम्माँ फ़रमाती थीं! ग़रज़ यह कि सुबह से दोपहर तक सारे मुहल्ले में दादी अम्माँ ने ख़बर कर दी कि अब तो कोठड़ी वाले जिन्न ख़ुद ही उनके पास आने लगे हैं! मैं कहता दादी अम्माँ आपने उस वक़्त उनकी दम ना पकड़ ली, जाने क्यों दिया? वे मुझे झिड़क देतीं “चुप, बदतमीज़...!” जिन्न साहिब के आने जाने का सिलसिला भी अरसे तक जारी रहा।
एक रात को मेरी एक फूफी जो उसी दालान में सो रही थीं, सोते-सोते किसी ज़रूरत से उठीं तो उन्होंने देखा कि दादी अम्माँ अपने पलंग पर नहीं हैं। बाहर निकलीं तो देखा कि वे सेहन में खड़ी सफ़ेद बिल्ले से खेल रही हैं। दादी अम्माँ ने कहा कि रात बिल्ले ने उनको सोने ना दिया तो एक दफ़ा ग़ुस्सा में आकर वे उस की कमर पर सवार हो गईं, बिल्ला उनको लेकर भागा... सेहन से उसने जुस्त की तो सामने की दीवार पर पहुँचा तो सामने की दीवार से जुस्त की तो कोठड़ी की छत पर पहुँच गया... वहाँ से जुस्त की तो फिर सेहन में... और दादी अम्माँ बराबर उस की कमर पर जमी रहीं...! मैंने जो यह क़िस्सा सुना तो ख़ूब तालियाँ बजाईं... दादी अम्माँ बहुत नाराज़ हुईं, मगर में कई रातें इस फ़िक्र में जागता रहा कि अगर सफ़ेद बला आ जाये तो मैं भी ज़रूर उस की कमर पर बैठ ही तो जाऊँ!
“दादी अम्माँ! तुम उनसे कहो” मैंने कहा कि रोज़ हमें सवारी दे जाया करें, आहा हा! क्या मज़े की सवारी होगी... इस आहा हा के जवाब में दादी अम्माँ का डंडा मेरी कमर की तरफ़ आया... और मैं भागा।
ग़रज़ कि जब तक दादी अम्माँ ज़िंदा हैं वे ज़रूर “जिन्न साहिब” का कोई ना कोई नया क़िस्सा ज़रूर सुनाया करतीं और मैं ज़रूर कोई ना कोई फ़िक़रा चुस्त करता। कभी कभी एक दो डंडे भी खाता। फिर मैं स्कूल में दाख़िल हो गया और चंद ही रोज़ बाद “दादी अम्माँ” का इंतिक़ाल हो गया। उस के बाद से “जिन्न साहिब” भी ग़ायब हो गए। कम अज़ कम कोठरी में उनकी मौजूदगी के आसार नज़र ना आते थे। गर्म-गर्म मिठाई थी ना सफ़ेद बिल्ला था ना क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने की आवाज़ थी। मुम्किन है कि वे दादी अम्माँ के साथ ही रुख़्सत हो गए हों।
बचपन की नासमझी नौजवानी की शरारतों में बदल गई। मैं स्कूल से फ़ारिग़ हो कर कॉलेज में दाख़िल हुआ। जवानी दीवानी होने लगी। वालिद ने जो यह रंग देखा तो मेरी शादी का एहतिमाम शुरू कर दिया। रिश्ता बचपन ही से क़ायम हो चुका था। मेरी मंगनी उस वक़्त हो गई थी जब मैं ५ बरस का और मेरी बीवी सिर्फ़ २ बरस की थी! ग़रज़ यह कि मैंने कुछ इंकार भी किया, मगर कौन सुनता है, पकड़-धकड़ के यह बेल आख़िरकार ज़िंदगी के हल में जोत ही दिया गया... हमारा ख़ानदान था। इसलिए शादी बहुत सादा और शरई किस्म की हुई। शाम को बारात गई। शब-भर हम ससुराल में पड़े रहे, दूसरे दिन शाम तक बीवी को लेकर घर आए... लेकिन वाक़िआत के सिलसिला को तोड़ कर, पहले इस कोठरी के मुताल्लिक़ थोड़ा-सा क़िस्सा बयान कर दूँ।
जब शादी का एहतिमाम शुरू हुआ तो वालिदा से मैंने कहा कि ज़नाना मकान की बालाई मंज़िल पर मैं अपने लिए एक हवा-दार कमरा बनवाना चाहता हूँ और कमरे के लिए बेहतरीन जगह वही है जहाँ वह पुरानी कोठरी है। वालिद ने फ़रमाया कि बेटा! तुम्हारी दादी ने कभी इस कोठरी के ताले को हाथ ना लगाने दिया। उनके बाद भी मैंने इस कोठरी को बदस्तूर बंद छोड़ दिया। बेहतर हो कि इस को यूँ ही छोड़ दो और किसी और तरफ़ अपने लिए कमरा बनवा लो। मैंने कहा, अब तो ये सब बातें फ़ुज़ूल हैं। अगर कभी कोठरी में कोई जिन्न या भूत था भी तो वह भी अब बाक़ी नहीं, क्या फ़ायदा कि कोठरी को बंद रखा जाये और इस क़दर हवा-दार मौक़े को छोड़कर दूसरी तरफ़ कमरा बनाया जाये... वालिद ख़ामोश हो गए... वे उन्नीसवीं सदी ईसवी के बेटे से इख़तिलाफ़ ज़रा कम ही किया करते थे। अल-क़िस्सा कोठरी का दरवाज़ा खोल दिया गया। ग़दर से पहले का काट कबाड़... टूटे हुए पलंग, बक्स, पालने, मिट्टी के घड़े और ख़ुदा जाने क्या-क्या... पच्चास बरस की गर्द से ढका हुआ सामान वहाँ से निकाला गया, दीवारें गिरा दी गईं और उसी जगह नया कमरा तामीर हो गया।
मेरी इज़दिवाजी ज़िंदगी की यह पहली शाम थी। वह शाम जिसके मुताल्लिक़ शायर गीत गाते हैं! दुल्हन उसी कमरा में बिठाई गई थी, मेरी बहनें उस के पास बैठी थीं। कमरे में पुरानी वज़ की हाँडियाँ लटक रही थीं, दीवारों पर दीवार-गीर फ़ानूस लगे हुए थे। उसी मंज़िल पर एक दूसरा कमरा मेरी नशिस्त-गाह था। मग़रिब के वक़्त मुझे वहाँ से बुलाया गया और कहा गया कि इन फ़ानूसों और हाँडियों की मोमबत्तियाँ रोशन कर दूँ। दुल्हन एक चाँदी के पलंग पर सर झुकाए बैठी थी। उस के पलंग के पास एक कुर्सी रखकर ऊपर चढ़ा ताकि हाँडी की बत्ती को रोशन कर दूँ। दिया-सलाई जला कर मैंने हाथ बढ़ाया ही था कि दफ़तन यह मालूम हुआ कि किसी ने मेरे पाँव के नीचे से कुर्सी को खींच लिया और मैं बेक़ाबू हो कर दुल्हन के पलंग पर गिरा... कुछ यूँ ही चोट भी आई और ख़्याल यह हुआ कि किसी बहन ने शरारत कर के मुझे गिराया। एक शरीर बहन... ख़ुदा मग़फ़िरत करे... हँसने लगी। “वाह भाई वाह! इस क़दर बेसब्री, तुम्हें इस पलंग पर बैठने से मना किस ने किया था जो यह बहाना निकाला।” अब तो यक़ीन हो गया कि शरारत की गई... फिर कुर्सी पर चढ़ा और फिर दिया-सलाई जला कर मोमबत्ती जलाने का इरादा किया... और फिर वही हश्र हुआ आया, इस दफ़ा कुछ चोट भी ज़्यादा लगी। मगर अजीब बात यह थी कि कुर्सी बदस्तूर अपनी जगह पर मौजूद थी। हालाँकि मुझे साफ़ यह महसूस हुआ था कि कुर्सी हटाई गई।
“यह क्या बेमौक़ा मज़ाक़ है?” मैंने बिगड़ कर कहा... मेरी बहनों ने क़समें खाईं कि उन्होंने कोई शरारत नहीं की। फिर मैं कुर्सी पर चढ़ा, दिया-सलाई जलाकर हाथ मैंने बत्ती की तरफ़ बढ़ाया लेकिन नीचे की तरफ़ भी देखता रहा... सब लड़कीयाँ कुर्सी से काफ़ी फ़ासले पर बैठी हुई थीं। मगर फिर मैं गिरा और इस दफ़ा बिलकुल दुल्हन के ऊपर...! झल्लाकर मैंने दिया-सलाई की डिबिया फेंक दी और बाहर चला गया।
उसी शब को ९ बजे के क़रीब मैं फिर अंदर गया, मेरी बहनें जा चुकी थीं। मेरी बीवी के पास सिर्फ़ एक मामा बैठी हुई थी। वह भी उठकर चली गई। मैंने वहीं बैठ कर खाना खाया और एक दरवाज़ा के पास आराम-कुर्सी बिछा कर हुक़्क़ा पीने लगा। गुलाबी जाड़ों का मौसम था। कमरा के तीन दरवाज़े थे वे बंद थे। कमरे के सामने ग़ुस्ल-ख़ाना था, मेरी बीवी ग़ुस्ल-ख़ाना जाने के लिए उठीं और मेरी कुर्सी के सामने से गुज़र कर बाहर चली गईं, चंद मिनट बाद वे वापिस आईं तो मैंने उनसे कहा कि दरवाज़ा बंद करती आओ। उन्होंने चौखट से गुज़र कर बग़ैर मुँह मोड़े एक हाथ से किवाड़ बंद कर दिया और साथ एक क़दम आगे बढ़ीं। अगर वे एक क़दम आगे ना बढ़ गईं होतीं तो मालूम नहीं किस क़दर ज़ख़मी होतीं, इसलिए कि किवाड़ बंद होते ही यह मालूम हुआ कि गोया बाहर से किसी ने दोनों किवाड़ों पर पूरी क़ुव्वत से एक लात मारी और किवाड़ दफ़तन खुल गए।
ख़ैरीयत गुज़री कि मेरी बीवी चशम-ज़दन पहले उनकी ज़द से निकल चुकी थीं...! फिर वह धड़ाके की आवाज़... सारा मकान गूँज गया... मैं घबरा कर उठा, समझा कि आंधी का कोई झोंका आया। आसमान की तरफ़ देखा तो बिलकुल साफ़ था। चाँदनी खुली हुई थी। सामने की छत बहुत वसी थी। ख़्याल आया कि शायद नीचे की मंज़िल से किसी शरीर लड़की ने आकर यह मज़ाक़ किया हो... लेकिन ज़ीना इस क़दर दूर था... और बिलकुल सामने कि कितना ही तेज़ कोई आता जाता छुपना मुश्किल था और फिर उस खुली हुई चाँदनी में! छत पर एक चक्कर लगाकर में वापस आया। कोई बात समझ में ना आई... बहर-हाल किवाड़ बंद करके और ११ बजे के क़रीब सो गया... मेरी आँख छुपके शायद दस-पंद्रह मिनट ही हुए होंगे कि फिर दरवाज़ा पिटना शुरू हुआ। घबराकर उठा, दरवाज़ा खोला, बाहर गया। हर तरफ़ देखा। चांदनी खुली हुई थी। सारी छत साफ़ थी, हवा का नाम ना था। कोई ऐसा रास्ता ना था कि ग़ैर शख़्स आ सकता, ज़ीने का दरवाज़ा मैंने पहले ही अंदर से बंद कर लिया था, वह बदस्तूर बंद था... फिर सो गया, ज़रा आँख लगी थी कि फिर किवाड़ पिटने शुरू हुए। फिर उठा, फिर सोया, फिर जागा, रात-भर इसी तरह चौकीदारी करते गुज़री, जब तक जागता रहता था कोई खटका ना होता था। जहाँ आँख लगी और किवाड़ पिटने शुरू हुए! सारी रात तो इसी तरह गुज़र गई, बीवी से मैंने मना कर दिया कि इस वाक़िये का किसी से ज़िक्र ना करें।
दूसरे दिन कमरे के बाहर बरामदे में, दरवाज़े के पास दो कुत्ते बाँधे गए। ज़ीने का दरवाज़ा बंद करके ताला डाला गया। बारह बजे तक मैं बैठा हुआ बीवी से बातें करता रहा... वह डर तो बहुत रही थीं लेकिन अपना ख़ौफ़ ज़ाहिर ना होने देती थीं। बातें करते करते हम लोग सो गए... पंद्रह ही मिनट के बाद फिर किवाड़ पिटने शुरू हो गए और यही हाल रात-भर रहा। कुत्ते दरवाज़े के सामने बैठे थे और सिर्फ़ उसी वक़्त भौंकते थे जब किवाड़ पिटने की आवाज़ शुरू होती थी यक़ीनन वे किसी को दरवाज़े के पास आता ना देखते थे... फिर यह मुअम्मा क्या था?
एक दिन, दो दिन, चार दिन... एक हफ़्ता इसी तरह गुज़र गया। रात की नींद हराम हो गई। मैंने और मेरी बीवी ने बहुत उस क़िस्से को छुपाया लेकिन कहाँ तक, बहनों तक बात पहुँची, फिर वालिदा को मालूम हुआ, फिर वालिद के कान तक सारा क़िस्सा पहुँचा और होते होते हमारी सास को ख़बर लगी... वे बेचारी पुराने ज़माना की बड़ी बी, सुनते ही डोली पर चढ़ कर दौड़ीं... सारे घर में क़यामत आ गई।
“ग़ज़ब ख़ुदा का! पहले दिन से यह ज़ुलम हो रहा है मेरी बच्ची को मार डालने का इरादा है कुछ? और यह मियाँ लड़के तो पागल मालूम होते हैं, मुझे क्या ख़बर थी कि दामाद पागल मिला है। बंद करो, इस कमरे को, साहबज़ादे नीचे की मंज़िल में रहना चाहें तो रहें नहीं तो मैं अपनी बच्ची को लिए जाती हूँ। क्या कहा? नीचे तकलीफ़ होगी? क्या तकलीफ़ होगी? तुम्हारे बाप दादा सब यहीं रहे, तुम यहीं पैदा हुए, यहीं परवरिश पाई। हमेशा कमरे पर ही तो रहा करते थे गोया...! चलो झक-झक ना करो... वहीं रहोगे तो रहो, मैं तो अपनी बच्ची को लिए जाती हूँ..., अल्लाह बचाए आज कल लड़कों से... दीदा की सफ़ाई तो देखो... जिन्नात से मुक़ाबला करेंगे ये! अपनी दादी की बातों पर हँसा करते थे। इस वक़्त तो मियाँ बालिश्त ही भर के थे... अब मुझसे दिल-लगी करने लगे...! जो तुम्हारे जी में आए करो...”
एक लंबा चौड़ा लेक्चर देकर वे तो मेरी को लेकर घर चली गईं। अब अम्माँ बावा की यूरिश मुझ पर शुरू हुई... अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी का सख़्त-तरीन मुक़ाबला हुआ। मगर मैंने किसी की ना सुनी। तन्हा भी वहीं सोया... इतना तो हुआ कि अब्बा जान ने बग़ैर मेरी इत्तिला के दो नौकर बराबर की छत पर बिठा दिया। लेकिन रात की धड़ाधड़ को वे भी ना रोक सके, सिलसिला बराबर जारी रहा... मैं भी अपने सिरहाने तिलिस्म-ए-होश-रुबा और रेनॉल्ड्स के नावल रखकर लेटता था और तीन चार बजे सुबह तक पढ़ता था। इसलिए सुबह के क़रीब जब आँख लगती थी तो एक दो दफ़ा से ज़्यादा किवाड़ पिटने का मौक़ा ना आता था। इस तरह दो हफ़्ते गुज़रे एक दिन मैंने कहा छोड़ो मैं नहीं सोता कमरे में। किवाड़ खोल दो और दरवाज़ा के सामने बरामदे में बिस्तर बिछा... वो शब अमन से गुज़री, उस के बाद कभी यह सिलसिला जारी ना हुआ। बल्कि मैं जब फिर अन्दर सोने लगा और तब भी वह वाक़िया पेश ना आया। सास साहिबा को जब काफ़ी इतमीनान हो गया तो उन्होंने भी बहुत से तावीज़ पहनाकर और बहुत फ़लीते कमरे में जलाने के लिए साथ करके मेरी बीवी को भेज दिया। १८ बरस तक हम उस कमरे में रहे, गर्मी, जाड़ा, बरसात तमाम मौसम वहीं गुज़रते थे, मेरे बच्चे भी वहीं रहते थे... मालूम होता था कि दादी अम्माँ के वे रुहानी दोस्त नाराज़ हो कर हमेशा के लिए रुख़स्त हो गए।
अब यह ना पूछिए कि मेरी राय क्या है और इस सारे वाक़िये की असलियत में क्या समझता हूँ! जिन्नात के मुताल्लिक़ बदअक़ीदा में अब भी हूँ। अब भी मैं इन बातों को ढकोसला ही समझता हूँ! लेकिन अगर आप मुझसे यह दरयाफ़्त करें कि आख़िर दो हफ़्ते तक मेरे किवाड़ कौन पीटा करता था तो मैं जवाब कुछ ना दे सकूँगा, अलबत्ता आपसे कहूँ कि जदीद रूहानियत के यूरोपियन माहिरीन से मश्वरा कीजीए। बग़ैर यूरोपियन माहिरीन के मश्वरा के इस उलझने का भी... सुलझना मुश्किल है! तालीम-याफ़्ता मुतमद्दिम और “रोशन-ख़्याल” आदमी हूँ... इलम-ओ-साईंस की क़सम खाकर कहता हूँ कि ये जिन्नात-विन्नात सब पुरानी बूढ़ियों के ढकोसले हैं।