“Sadā-e Jaras”
from Sadā-e Jaras
Mrs. ʿAbd ul-Qādir
Lahore, 1939 (written 1937)
(१)
ख़लील मेरा दोस्त था। हमारी मुहब्बत कॉलेज भर में ज़र्ब-उल-मिसल थी। हम दोनों तारीख़-ए क़दीम से गहरी दिलचस्पी रखते थे। जहाँ कहीं अख़बारात या रिसाइल में किसी क़दीम तहज़ीब के मुताल्लिक़ कोई लिटरेचर शाय होता। या पुराने माबदों और मक़बरों की खुदाई का ज़िक्र होता तो हमारी आतिश-ए-शौक़ भड़क उठती। यही शौक़ हमारी मुहब्बत-ओ-यकजाई की अहम-तरीन वजह था।
तारीख़-ए-आलम में तारीख़-ए-मिस्र का बाब ख़ुसूसन हमारी तवज्जुहात का मर्कज़ था। हम अक्सर औक़ात-ए-क़दीम मिस्रियों की रुहानी ताक़त और दीगर कमालात पर बेहस किया करते। जब हम फ़राइना मिस्र की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियतों और उनकी आहनी हुकूमतों पर तबादला-ए-ख़याल करते तो तसव्वुर हमें हज़ार-हा साल की गुज़श्ता दुनिया में ले जाता और कई कई घंटे हम इन्ही ख़्वाब-ओ-ख़याल की दुनिया में ग़र्क़ रहते। चुनाँचे तालीम का ज़माना हमने इसी ज़बत में बसर किया। लेकिन तालीम के ख़ातमे पर हमारा यह शौक़ अधूरा रह गया। दुनिया के झमेलों ने हमें एक दूसरे से अलैहदा कर दिया। वह फ़ौज में मुलाज़िम हुआ और मुझे अपनी ज़मींदारी सँभालना पड़ी। हम दोनों दस साल तक जुदा रहे। इसी अरसे में मेरी शादी नसीमा से हो गई। नसीमा के नूर-पाश हुस्न और मासूम मुहब्बत ने मुझे ऐसा महव किया कि मैंने अपने सब मशाग़िल तर्क करके अपनी ज़िंदगी को मुहब्बत की जौलानियों के सपुर्द कर दिया।
ख़लील अभी तक मुजर्रद था। वह उस वक़्त तक तक़रीबन आधी दुनिया का चक्कर लगा चुका था। उस के ख़ुतूत अक्सर आया करते थे जिनमें वही पहला सा ख़ुलूस भरा होता। पूरे दस साल के बाद मुझे उस का एक ऐसा ख़त मिला जिसने मेरे पुराने शौक़ को अज़-सर-ए-नौ ताज़ा करके मेरे दिल में जुस्तजू की हलचल डाल दी।
ख़त का मज़मून मुख़्तसर था। यानी वह मुलाज़मत से सबक-दोश हो कर कलकत्ता में सुकूनत-पज़ीर है और मिस्र के एक पुराने मक़बरे से अजायबात का एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना साथ लाया है। उसने मुझे दावत दी थी कि मैं कलकत्ता जाकर इन नादिर और अजूबा-ए-रोज़गार अश्या का मुआइना करूँ। उस के ख़त से फिर एक बार मेरी आतिश-ए-शौक़ भड़क उठी। दबे हुए जज़बात दोबारा उभरने लगे और दूसरे दिन में बमा नसीमा के कलकत्ता रवाना हो गया।
(२)
ख़लील का वसी बंगला शहर से चंद मील परे दरया-ए हुगली के किनारे वाक़े था। जिस पर नारीयल और ज़ैतून के दरख़्तों ने अपना तारीक साया डाल रखा था। शाम क़रीब थी। ताजदार-ए मशरिक़ ऐवान-ए मग़रिब में दाख़िल होनेवाला था। हवा बिलकुल साकिन थी उफ़ुक़ पर ख़ाकसतरी रंग के बादल तूफ़ान की आमद का ऐलान कर रहे थे। फ़िज़ा निहायत उदास और ग़ुबार-आलूद थी। बंगले में बिलकुल सन्नाटा था। मुझे हैरत हुई कि वह इस वीराने में क्योंकर रहता है। बंगले में कोई मुलाज़िम भी दिखाई न देता था। चारों तरफ़ उजाड़ ब्याबान न आदम न आदमज़ाद।
नाचार मैं बंगले का तवाफ़ करने लगा। सब दरवाज़े अंदर से बंद थे। मैंने आवाज़ें दीं। दरवाज़े खटखटाए मगर बेसूद। इस नागवार सुकूत से नसीमा बहुत बद-दिल हुई और वापस चलने पर इसरार करने लगी।
हम लोग मायूस हो कर वापस जाने ही को थे कि सबसे ऊपर वाली मंज़िल की खिड़की खुली मगर फ़ौरन ही बंद हो गई। थोड़ी देर बाद मुक़ाबिल वाला दरवाज़ा खुला और एक शख़्स नमूदार हुआ। यह एक उधेड़ उम्र का पतला-दुबला मदक़ूक़-सा शख़्स था। उस के ज़र्द और बेरौनक़ चेहरे पर दहशत बरस रही थी। उस की फीकी और बेरस आँखें तेज़ी से हलक़ों में गर्दिश कर रही थीं। उस के खुरदुरे और बदरंग बालों पर ख़ुशकी की वजह से गर्द जमी हुई मालूम होती थी। उस शख़्स को देखकर नसीमा बहुत घबराई।
मैंने हौसला करके उस से ख़लील की बाबत पूछा। मगर उसने जवाब देने के इवज़ नफ़रत से होंटों को सुकेड़ते हुए दरवाज़ा खोला और निहायत बे-एतिनाई से हमें ड्राइंग रूम में बिठाकर ख़ुद चुप-चाप ऊपर वाली मंज़िल में चला गया।
इस कमरे में क़दीम सनअत की कई अजीब-ओ-ग़रीब अश्या मौजूद थीं। लेकिन उनमें दो चीज़ें निहायत ही हौलनाक थीं। एक तो संग-ए-जराहत का एक ख़ूबसूरत प्याला था। जिसकी तह में ख़ून की तरह कोई सुर्ख़ चीज़ जमी हुई थी और दूसरी पत्थर की एक छुरी थी जो आधी से ज़्यादा ख़ून-आलूद थी। नसीमा इन चीज़ों को देखकर लरज़ने लगी।
मैं भी इन चीज़ों की देख-भाल कर रहा था कि कार का हॉर्न सुनाई दिया और चंद मिनट बाद ख़लील कमरे में दाख़िल हुआ। वह उसी तरह ख़ूबसूरत और जवान था। उस की वजाहत और शक्ल-ओ-सूरत पर वक़्त ने बिलकुल असर न किया था। वह अंदर दाख़िल होते ही मुझसे लिपट गया। एक दूसरे की मिज़ाज-पुर्सी के बाद मैंने पूछा, “ख़लील! यह भूत की क़िस्म का आदमी दूसरी मंज़िल में कौन है।” उसने हँसते हुए कहा “और तुम्हारा इशारा शायद उस वहशी नौकर की तरफ़ है जो आज बदक़िस्मती से घर पर अकेला था। क्योंकि मेरे तमाम मुलाज़िम आज शहर में मेला देखने गए हुए थे। उसने ज़रूर तुम्हें सताया होगा।”
इस के बाद इधर उधर की बातें होती रहीं। वह नसीमा को देखकर बहुत ख़ुश था। इसी अरसे में ख़लील के हुक्म से हमारे लिए दो कमरे तैयार हो गए। जहाँ हमने आराम किया। मेरी आँख खुली तो शाम काफ़ी गहरी हो चुकी थी। ख़लील कमरे में मौजूद था वहीं हमने खाना खाया उस के बाद वह देर तक ग़ैर मुमालिक के हालात बयान करता रहा, हत्ता कि रात के बारह बज गए। मुलाज़िमीन एक अरसे से अपनी ड्यूटी ख़त्म करके गहरी नींद सो चुके थे। तमाम दुनिया ख़ामोश थी। गर्म और तारीक रात के अंधेरे सायों में लंबे लंबे नारियल के दरख़्त जहन्नुमी रूहों की तरह मायूसी से सिमटे सिमटाए खड़े थे। हर तरफ़ मौत का सा सुकूत था। मैंने ख़लील से आराम करने को कहा वह कसमसाता हुआ उठा मगर चंद क़दम चल कर फिर वापस पलटा और झुक कर मेरे काम में कहने लगा, “अभी सोने का वक़्त नहीं। मैं तुम्हें एक अजीब चीज़ दिखाना चाहता हूँ। ज़रा नसीमा को सो जाने दो।” न जाने उसने यह फ़िक़रा किस तरह सुन लिया, “यह कभी न होगा। मैं इस सुनसान घर में एक लम्हा भी अकेली न रहूँगी।” नसीमा ने चिल्ला कर कहा, “लेकिन वह तुम्हारे देखने की चीज़ नहीं।” ख़लील ने जवाब दिया, “मगर तन्हा रह कर तो शायद मैं ज़िंदा भी न बच सकूँगी।” नसीमा ने मचलते हुए कहा।
यकायक एक पुरहसरत और मद्धम सा साज़ सुनाई दिया। हम सब चौंक पड़े, “ओहो वक़्त बहुत हो गया है। वहशी नूत ने अपनी इबादत भी शुरू कर दी।” ख़लील ने कहा... इस साज़ में कुछ ऐसा नापाक शैतानी असर था कि मेरा दिल धड़कने लगा। नसीमा का चेहरा भी ज़र्द हो गया। “उफ़ यह साज़ किस क़दर मनहूस है मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं वादी-ए-मौत में दाख़िल हो रहा हूँ। क्या तुम उसे बंद करा सकते हो?” मैंने बेचैनी से कहा।
“यह तो बहुत मुश्किल है” ख़लील ने कहा, “नूत को कैसे रोका जाये। वह बहरा होने के अलावा इस साज़ के बजाने में इतना महव हो जाता है कि उसे तन-बदन तक का होश नहीं रहता।” “ऐसे ख़ौफ़नाक आदमी को बर-तरफ़ क्यों नहीं कर देते।” नसीमा ने कहा। पसंद तो उसे में भी नहीं करता। ख़लील ने कहा, “लेकिन यह बड़े काम का आदमी है। उस की वसातत से मुझे चंद ऐसी अजूबा और नादिर अश्या दस्तयाब हुई हैं जो एक वहशी क़ौम की मिल्कियत थीं। यह क़ौम सहरा में ग़ारों के अंदर रहती है। नूत उसी क़ौम का फ़र्द है। मैं उसे बमुश्किल राम कर सका।” फिर कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद कहने लगा, “वक़्त गुज़र रहा है। अगर तुम लोग कुछ देखना चाहो तो मैं तैयार हूँ।” हम उठ खड़े हुए और वह हमारे आगे आगे चलने लगा। सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर जाकर उसने एक तवील-ओ-अरीज़ कमरा खोला। उस कमरे में दरवाज़ों पर भारी भारी ज़रतार पर्दे लटक रहे थे और अंदर निहायत उदास और हसरत-आमेज़ भीनी भीनी ख़ुशबू फैल रही थी। ख़लील ने एहतिराम के तौर पर झुक कर वज़नी ज़रतार पर्दा उठाया और हम लोग अंदर दाख़िल हुए। कमरे में ज़रदोज़ पर्दों के साथ साथ जाबजा बर्क़ी क़मक़े जगमगा रहे थे। वस्त में दो ताबूत पड़े थे जिनमें एक सोने का था और दूसरा पत्थर का।
ख़लील ने पहले पत्थर के ताबूत से ढकना उठाया। एक दम हम सब पर रिक़्क़त तारी हो गई। इस ताबूत में दो ख़ुश-रू नौजवान पहलू-ब-पहलू लिटाए गए थे। यह हनूत-शुदा लाशें बिलकुल ज़िन्दा मालूम होती थीं। उनके शानदार चेहरों पर जिन्हें मौत का ख़ून-ख़्वार पंजा भी न बिगाड़ सका था। एक मलाहत आमेज़ ग़म की झलक नुमायाँ थीं। उनकी लंबी-लंबी इबरत-आमेज़ आँखों से बला का दर्द और इंतिहाई बेकसी टपक रही थी। इन मुर्दा नौजवानों को देखकर मेरे दिल में उनके लिए हमदर्दी और रहम का जज़बा तड़प उठा। इन नौजवानों का सिर्फ़ चेहरा ही उर्यां था, बाक़ी जिस्म रोग़नी पट्टीयों में लिपटा गया था। ताहम वे पट्टियाँ उनके बांकपन पर असर-अंदाज़ न थीं। “न जाने यह रना जवान किस तरह मलक-उल-मौत से मग़्लूब हुए होंगे।” मैंने दिली रंज से कहा, “इन दोनों के हालात-ए-ज़िंदगी एक दरख़्त की छाल पर लिखे हुए मौजूद थे।” ख़लील ने कहा, “मैंने एक आलिम के पास जो मुर्दा ज़बानों का माहिर है, भेज दिए है, ताकि यह ज़माना-ए-रफ़्ता की मिटी हुई निशानियाँ मौजूदा ज़माने के मुहज़्ज़ब लोगों से मुतआरिफ़ हो जाएँ।”
इस के बाद उसने सोने के ताबूत से ढकना उठाया। अब एक दिलफ़रेब सीन मेरे पेश-ए-नज़र था। ताबिश-ए-हुस्न से मेरी आँखें झुक गईं। इस ताबूत में एक ऐसी नाज़नीन अबदी नींद सो रही थी जिसे हुस्न-ओ-शबाब की देवी कहना बजा था। हसीन-सा चहरा जो कभी आसमान-ए-हुस्न का चमकता हुआ सितारा थी फ़ना हो कर भी अपने हसीन जलवे बिखेर रही थी। इस के ख़द्द-ओ-ख़ाल से हुस्न के सोते फूट रहे थे। यह हसीना पट्टियों की बजाय क़दीम मिस्री ज़रतार लिबास में मलबूस थी। उस के सर पर उक़ाब-नुमा सुनहरी ताज था। जिसके नीचे काजल के से स्याह बालों की लटें शोला-गो चेहरे के गिर्द हलक़ा बनाती हुई इस तरह सीने पर पड़ी थीं। जैसे चाँद के गिर्द काली घटाएँ। वह एक ज़रदोज़ बिस्तर पर निहायत शान-ओ-शौक़त से रखी गई थी।
ख़लील उसे देखते ही खिल गया। वह इस शमा-ए-ख़ामोश पर परवाना-वार निसार होने लगा। उसे यह एहसास तक न रहा कि यह हुस्न-ओ-जमाल की पुतली किसी नामालूम ज़माने से फ़रिश्ता-ए-अजल की सर्द आग़ोश में सो रही है। उस की गर्म-जोशियाँ अब उसे बेदार न कर सकेंगी। मैं दुनिया की बे-सबाती पर अश्क-ए-हसरत बहाता हुआ फिर इन अजल-रसीदा जवानों के पास आ खड़ा हुआ। यकायक मेरी नज़र एक नौजवान की गर्दन के ऐसे मक़ाम पर पड़ी जहाँ से रोग़नी पट्टी ज़रा नीचे को सरकी हुई थी। शाह रग के क़रीब एक स्याह दाग़ दिखाई दिया। मैंने पट्टी पूरी तरह हटाई। यह एक छुरी के ज़ख़्म का निशान था। मेरे मुँह से एक दिलदोज़ आह निकली। यह जवान शायद लड़ाई में मारा गया था। मैं यही सोच रहा था कि नागाह दूसरे नौजवान की गर्दन पर भी मुझे इसी तरह का एक स्याह दाग़ नज़र आया। मैं काँप उठा और ख़याल करने लगा कि शायद दोनों मुजरिम थे जो उस ज़माना के क़ानून के मुताबिक़ हलाक किए गए मगर उनके चेहरों पर एक मलकूती नूर बरस रहा था वह मज़लूम मालूम होते थे। ख़लील अभी तक उस हसीना की लाश के क़रीब खड़ा था। उस की हालत अब एक अफ़सोसनाक हद तक पहुँच चुकी थी। वह लाश से इज़हार-ए-मुहब्बत कर रहा था।
ख़लील यह क्या पागलपन है होश में आओ। क्या तुम नहीं जानते कि तुम एक लाश से इज़हार-ए-मुहब्बत कर रहे हो। मैंने उसे समझाते हुए कहा, “मुमताज़ उसे मुर्दा कह कर मेरा दिल न दुखाओ। यह ज़िंदा है और अपनी ख़ामोश आँखों से मेरी मुहब्बत का जवाब दे रही है।” ख़लील ने इसी मजनूनाना अंदाज़ से कहा “आह! ऐसा सेहर-कार हुस्न किसी को नहीं मिला। मैं इस से मुहब्बत करता हूँ। आओ तुम भी इस की मुहब्बत का इक़रार करो।” मैं मुतवह्हिश निगाहों से उस हसीना की लाश को देख रहा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उस की आँखें मुझे अपने अंदर जज़्ब कर रही हैं, “हाँ मैं भी इस से मुहब्बत करता हूँ।” मैंने किसी नामालूम जज़बे से मजबूर हो कर कहा। ऐन उसी वक़्त मुझे अपने क़रीब एक ठंडा साँस सुनाई दिया। मैंने चौंक कर देखा तो नसीमा मेरे पहलू में सहमी हुई खड़ी थी। उस का रंग ज़र्द हो रहा था। मैंने कंधों को झटक कर अपने हवास दरुस्त किए।
“तुम भी इस से मुहब्बत करते हो,” ख़लील ने वफ़ूर मुसर्रत से कहा। “नहीं मेरे पास इस से बेहतर चीज़ मौजूद है।” मैंने बुलंद आवाज़ में कहा और नसीमा का हाथ पकड़ कर जल्दी उस कमरे से बाहर निकल आया।
रात हमने इंतिहाई इज़तिराब में बसर की। ख़लील की बाबत कुछ मालूम न हो सका कि वह उस लाश के पास रहा या अपने कमरे में। सुबह के इजलाले में हमारी हालत क़दरे सुकून-पज़ीर हुई। “जितनी जल्दी हो सके हमें यहाँ से चल देना चाहिए,” नसीमा ने कहा। “इतनी जल्दी तू ख़लील कभी जाने न देगा,” मैंने जवाब दिया। “उस की इजाज़त की ज़रूरत नहीं,” नसीमा ने कहा, “हमारा यहाँ रहना सख़्त ख़तरनाक है।” “अगर तुम इस लाश से डरती हो तो मैं भी उस से नफ़रत करता हूँ,” मैंने कहा, “अब फिर कभी उसे न देखूँगा। ख़ातिरजमा रखो।” “अगर तुम वहाँ न जाओगे तो वह ख़ुद यहाँ आ जाएगी।” नसीमा ने कहा, “क्या ख़ूब लाश यहाँ आ जाएगी।” मैंने हँसकर जवाब दिया... “वह मुर्दा नहीं। मैंने अपनी आँखों से उसे ज़िंदा देखा है।” नसीमा ने बेक़रार हो कर कहा, “यह तुम्हारा वहम है।” मैंने कहा, “हरगिज़ नहीं।” उसने कहा, “जिस वक़्त ख़लील उस से इज़हार-ए-मुहब्बत कर रहा था, तुमने ध्यान नहीं किया। उस के लबों पर एक फ़ातिहाना तबस्सुम खेल रहा था। फिर जब ख़लील उस की तारीफ़ कर रहा था। उस वक़्त भी इस की आँखों में ज़िंदगी के आसार मौजूद थे। चुनाँचे उसने अपनी मख़मूर आँखों से तुम्हें भी मुहब्बत का पैग़ाम दिया और तुम भी मजबूरन उस की मुहब्बत का एतराफ़ करने लगे।” मैं थर्रा गया। रात वाली कैफ़ीयत मुझे याद आ गई। नसीमा सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहने लगी, “शायद तुमने न देखा हो। जब तुमने उस के मुक़ाबले में मुझे बेहतरीन क़रार दिया तो फ़ौरन उस की पेशानी पर बल पड़ गए और जब हम बाहर निकल रहे थे तो मैंने पलट कर देखा तो उस के तेवर बिगड़े हुए थे।” वह ग़ज़बनाक निगाहों से घूर घूर कर हमें देख रही थी।”
मैंने उस का वहम दूर करने की बहुत कोशिश की। मगर वह अपनी बात पर अड़ी रही। इतने में ख़लील भी आ गया। उस की ख़ुमार-आलूद आँखों से साफ़ ज़ाहिर था कि वह रात-भर जागता रहा है। मैंने नसीमा की अलालत का बहाना करते हुए उस से वापसी की इजाज़त चाही और आख़िरकार उस की इंतिहाई मुख़ालिफ़त और नाराज़गी के बावजूद हम लोग वहाँ से चले आए।
(३)
कलकत्ता से आए हमें आठ महीने गुज़र चुके थे कि अचानक ख़लील की मौत का तार मिला। यह तार उस के क़ानूनी मुशीर उपदेश चन्द्र की तरफ़ से था। ख़लील ने अपना बंगला वग़ैरह मेरे नाम छोड़ा था। ख़लील की मौत से मुझे बेहद सदमा हुआ और उसी दिन कलकत्ता चला गया।
उस का बंगला देखकर मेरे रंज-ओ-ग़म में मज़ीद इज़ाफ़ा हुआ। बंगले पर पहले से भी ज़्यादा दिल-शिकन नुहूसत छा रही थी। एक भयानक अफ़्सुर्दगी और दिलगीरी उदासी दर-ओ-दीवार से हुवैदा थी। मैं मुतवफ़्फ़ा के कमरे में गया जहाँ चंद मुलाज़िम और एक बूढ़ा मौलवी मौजूद था। जिसने तजहीज़-ओ-तकफ़ीन की आख़िरी रसूमात अदा करनी थीं। कफ़न का बंद खोला गया। उस की लाश को देखकर मेरे दिल पर सख़्त चोट लगी। मौत से हम-आग़ोश हो कर उस का हुस्न बजाय पॹमुर्दा होने के निखर गया था। उस के नक़्श इतने दिलकश और तीखे हो रहे थे कि मालूम होता था जैसे किसी देवता की मूर्ति तराश कर कफ़न में रखी गई है। मगर जिस चीज़ ने मुझे ज़्यादा मुतवज्जुह किया वह ऐसी अलामात थीं जो उन हनूत-शुदा नौजवान के बुशरे से पाई जाती थीं। जिन्हें गुज़श्ता साल में उसी बंगले में देख चुका था। उन्हीं की तरह उस की नीम-वा आँखों से भी बेकसी ज़ाहिर होती थी। उस के नमकीन चेहरे पर भी वही मज़लूमी की झलक और काफ़ूरी पेशानी पर हुज़न-ओ-मलाल के आसार थे। उस के काग़ज़ी लबों पर ऐसा दर्दनाक ख़म था। गोया वह अभी फ़साना-ए-ग़म सुनाया ही चाहता है। मुलाज़िम ने उसी दम उस की गर्दन से कफ़न सरकाया। आह मैं धक से रह गया। उस की गर्दन पर भी वैसा ही छुरी का ज़ख़्म मौजूद था। पुलिस की तहक़ीक़ात ख़त्म हो चुकी थी। उस की मौत को ख़ुदकुशी क़रार दिया गया। जो उसने पत्थर की छुरी से की थी। यह वही छुरी थी जो पिछले साल मैं ख़लील के ड्राइंग रुम में देख चुका था। गो यह पहले भी ख़ून-आलूद थी मगर अब ख़ून बिलकुल ताज़ा मालूम होता था। इस छुरी को देखकर मुझे संग-ए-जराहत का वह प्याला भी याद आ गया जो पिछले साल मैंने इस छुरी के क़रीब पड़ा देखा था। मैं उसी वक़्त ड्राइंग रूम में गया और प्याले को देखा तो उस की तह में जमी हुई सुर्ख़ी भी अब ताज़ा थी। लोग उस की मौत को ख़ुदकुशी कहें मगर मैं उसे ख़ुदकुशी कहने के लिए तैयार न था।
उसी ज़िमन में मेरी मुलाक़ात डाक्टर रमल बाबू से हुई। जिससे ख़लील उमूमन तिब्बी मशवरा लिया करता था। दौरान-ए-गुफ़्तगू में उसने कहा “ख़ुदकुशी से दो माह पेशतर ख़लील सख़्त बीमार हुआ और तशख़ीस से मालूम होता था कि उस पर किसी दहशत का असर है। वह मुझ से कुछ कहना चाहता था। मगर कह न सकता था। आख़िरकार एक दिन उसने हौसला करके कह ही दिया कि ‘रमल बाबू मेरे पास एक मिस्री औरत की हनूत-शुदा लाश है जिससे मैं सख़्त ख़ौफ़ज़दा हूँ और उस से बचना चाहता हूँ। मगर कोई ग़ैर-मरई क़ुव्वत मुझे ज़बरदस्ती उस की तरफ़ खींच ले जाती है और यही मेरी बीमारी का बाइस बन रही है।’ मैंने उसे सलाह दी कि वह लाश को किसी अजायब-ख़ाने में भेज दे। ताकि लाश को देखने का इमकान ही बाक़ी न रहे। मेरे मशवरे पर उसने वह लाश कहीं भेज दी लेकिन उस के बाद वह बिलकुल पागल हो गया।”
इधर उपदेश चन्द्र का बयान भी कुछ अजीब-ओ-ग़रीब था वह कहता था कि “ख़ुदकुशी से आठ दिन पेशतर उसने उसे बुलाकर वसीयत लिखाई। उस के होश-ओ-हवास क़ायम थे। ताहम वह इंतिहाई ख़ौफ़ज़दा था। ‘उपदेश बाबू शायद यह हमारी आख़िरी मुलाक़ात हो। क्योंकि मुझे अनक़रीब एक रूह इस दुनिया से ले जाएगी।’ यह उस के आख़िरी अलफ़ाज़ थे। इस तहक़ीक़ात के बाद मैं कई दिन तक खोज लगाने में कोशाँ रहा। मगर इस से ज़्यादा कुछ मालूम न हो सका। नूत भी मौजूद न था। क्योंकि वह ख़लील की ज़िंदगी में ही अपने वतन को जा चुका था। वरना उसी से कुछ सुराग़ मिल सकता। आख़िरकार मेरा शक यक़ीन में तबदील हो गया कि ख़लील की मौत का राज़ उस मिस्री हसीना की पुर-असरार लाश से वाबस्ता है और इस राज़ को समझने की मैंने बेहद कोशिश की लेकिन यह एक ऐसा मुअम्मा था जिसका हल मेरी ताक़त से बाहर था। चुनाँचे मैंने मायूस हो कर यह ख़याल तर्क कर दिया और ख़लील की आख़िरी रसूमात अदा करके अपने घर चला आया।
इस अन्दोहनाक वाक़िया को अभी बमुश्किल एक माह ही गुज़रा था कि एक रात नसीमा ख़्वाब में डर गई। चूँकि ख़लील वाले पुर-हौल वाक़िये की याद अभी हमारे दिलों में ताज़ा थी। इसलिए इस ख़्वाब को हालात का असर समझ कर कोई अहमियत न दी गई। मगर कुछ दिन बाद जब वह फिर ख़्वाब में डर गई तो मुझे बहुत तशवीश हुई। इस दफ़ा वह इंतिहाई ख़ौफ़ज़दा थी। उसे ख़्वाब में उस मिस्री हसीना की लाश भी दिखाई दी। इस ख़्वाब का उस पर ऐसा बुरा असर हुआ कि वह बीमार रहने लगी और रोज़ बरोज़ उस की सेहत गिरती गई। इस अरसे में मैंने उस के इलाज में कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त न किया लेकिन कुछ फ़ायदा न हुआ।
ख़ुश-क़िस्मती से उन्ही दिनों मिस्टर सईद जो मेरा क़रीबी रिश्तेदार था विलायत से डाक्टरी पास करके आया। उसने नसीमा का मुआइना करके बताया कि कोई ज़हरीली ख़ुराक खाने से इस की सेहत ख़राब हो रही है। चुनाँचे वह बहुत तनदही से इस का इलाज करता रहा। उसे कई क़िस्म के बाथ और इंजैक्शन दिए गए। रंगीन शुआओं का अमल भी होता रहा। फिर भी वह सेहत-याब न हो सकी। एक दिन सईद ने मुझे हिदायत की कि इस की ख़ुराक वग़ैरह का ख़ास ख़याल रखों। उस का ख़याल था कि अभी तक थोड़ी थोड़ी मिक़दार में ज़हर उस के अंदर जा रहा है। जब इस एहतियात के बावजूद भी इफ़ाक़ा की सूरत दिखाई न दी तो उसने मायूस हो कर कहा “मुमताज़ मैं तुम्हें ज़्यादा देर लाइल्मी में रखना नहीं चाहता। नसीमा की ज़िंदगी ख़तरे में है। उसे बराबर ज़हर दिया जा रहा है और मैं नहीं जानता कि यह अजीब क़िस्म का ज़हर हिन्दुस्तान में कैसे आया। क्योंकि यह ज़हर मिस्री छिपकली के पित्ते से निकलता है। यह इन्सान को यकदम हलाक नहीं करता बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता अपना काम करता है।” सईद के मुँह से यह अलफ़ाज़ सुनकर मैं दहल गया। मैंने ख़लील की मौत और हनूत-शुदा लाश की शैतानी क़ुव्वत का सबब वाक़े उस के गोश-गुज़ार कर दिया। “मैं नहीं कह सकता, इन वाक़ियात में कहाँ तक सदाक़त है।” सईद ने कहा। “ताहम यह ज़रूर मशवरा दूँगा कि नसीमा को मिस्र ले जाओ। वहाँ के डाक्टर ज़रूर उस ज़हर का तिरयाक़ जानते होंगे। शायद वे उसे अच्छा कर सकें।”
सईद की गुफ़्तगू से साफ़ ज़ाहिर था कि नसीमा का मर्ज़ लाइलाज है। मैं बे-इख़्तियार फूट फूटकर रोने लगा। सईद ने मुझे तसल्ली दी और अपनी हमदर्दाना बातों से मेरा हौसला बढ़ाया। दुनिया बामीद क़ायम है। मैं आख़िरी बार क़िसमत-आज़माई करने को तैयार हो गया। इस मुसीबत में सईद ने मेरी बहुत मदद की। उसने अपने एक मिस्री दोस्त उमर आफ़ंदी के नाम (जिसने उस के साथ ही डाक्टरी पास की थी) चिट्ठी लिखी कि मेरा एक अज़ीज़ अपनी बीवी के इलाज के लिए मिस्र आ रहा है। इस की इमदाद में कोताही न की जाये। चुनाँचे इसी महीने के अख़ीर में हम लोग अपने वतन से रवाना हो गए।
(४)
उमर आफ़ंदी निहायत नेक-दिल, मेहमान-नवाज़ और मुशफ़िक़ दोस्त साबित हुआ। उसने हमारी तन्हाई और ग़रीब-उल-वतनी का ख़याल करते हुए न सिर्फ़ अपनी कोठी के एक हिस्से में कुछ कमरे दे रखे थे। बल्कि उस की नेक नफ़सी ने यह भी गवारा न किया कि हम खाने का इंतिज़ाम ही अलैहदा करें। उस की ख़ुश-इख़्लाक़ी और ख़ुलूस ने हमें गिरवीदा कर लिया। मिस्र की मोतदिल आब-ओ-हवा और उमर आफ़ंदी की क़ाबिल-ए-क़दर कोशिशों से नसीमा तीन महीने के अंदर अंदर तंदरुस्त हो गई। मगर उमर आफ़ंदी की हिदायत के मुताबिक़ अभी कुछ अरसा हमें यहाँ और ठहरना था।
इन्ही अय्याम में यकायक मुझे एक अजीब आरिज़ा लाहिक़ हो गया। यानी रात को नींद मुझसे कोसों दूर हो जाती और मैं बेचैनी से करवटें बदलता रहता। मैं अक्सर ख़याल करने लगता। शायद मेरी कोई चीज़ गुम हो गई है। मैं उस चीज़ को हासिल करना चाहता था। मगर मालूम न था वह चीज़ क्या है।
एक दिन आधी रात को एक नाक़ा सड़क पर गुज़रा उस के गले की घंटियों की सदा मुझे इस क़दर प्यारी मालूम हुई कि मैंने महसूस किया, मैं उसी चीज़ की तलाश में था। वह आवाज़ मुझे अपने अंदर जज़्ब करने लगी। मैंने इरादा किया कि उस सारबान के साथ कहीं चला जाऊँ। उस दिन से रोज़ाना वह नाक़ा आधी रात को सड़क पर से गुज़रने लगा। मैं घंटों इस आवाज़ का मुंतज़िर रहता जूँही वह सुहानी सदा मेरे कान में पड़ती मैं एक मुसर्रत-आगीं ख़्वाब में महसूर हो जाता। रफ़्ता-रफ़्ता यह सदा मेरी ज़िंदगी का जुज़ु बन गई और न जाने किस तरह मैंने सारबान से दोस्ती भी पैदा कर ली। इस घंटी की सदा सुनते ही मैं फ़ौरन सड़क पर पहुँच जाता और उस से बातें किया करता। उस की बातें कुछ ऐसी दिलकश और प्यारी थीं कि मेरा दिल मुसर्रत से लबरेज़ हो जाता और मेरी रूह एक लज़्ज़त-अंगेज़ नशा में सरशार हो जाती। मैं नहीं कह सकता कि वह किस क़िस्म की बातें होतीं जिनसे मैं इतना मसरूर होता। क्योंकि उस के जाने के बाद मुझे वह बातें एक भूला हुआ ख़्वाब मालूम होती थीं। मैं उस की साथ किसी नामालूम और पुरसुकून दुनिया में जाना चाहता था मगर उसे देखकर मेरी ज़बान पर मोहर लग जाती और आज़ा बे-हिस-ओ-हरकत हो जाते। मैं उस पर अपनी दिली कैफ़ीयत का इज़हार न कर सकता था। जब वह आगे बढ़ जाता तो मैं नाक़ा के नक़्श-ए-पा पर वहशियाना अंदाज़ से दौड़ने लगता और थक जाने पर जब उस महसूर-कुन रंगीन ख़्वाब से होशयार होता तो मेरी बहुत बुरी हालत होती। सारबान की पुर-हलावत बातों से मेरा दिल ऐसा मुसख़्ख़र होता कि मुझे दुनिया की किसी चीज़ से दिलचस्पी न रही। मैं नसीमा को अब भी ख़ुश रखने की कोशिश करता। मगर मजबूरन। उमर आफ़ंदी से अब भी मेरे दोस्ताना ताल्लुक़ात थे मगर ख़ाली अज़ ख़ुलूस। उमर आफ़ंदी ने मेरी इस कैफ़ीयत को ख़ास तौर पर महसूस किया वह मुझे पहरों टिकटिकी बाँधे घूरा करता और मेरे हरकात-ओ-सकनात की सख़्ती से निगरानी करता। आख़िरकार उसने मेरे सेहरज़दा इन्क़िलाब का ख़ूगर हो कर मेरा ख़याल बिलकुल छोड़ दिया। उमर आफ़ंदी को उन दिनों घोड़ों का ख़बत समा रहा था उसने कई आला नसल के घोड़े ख़रीदे जिनमें एक अरबी नसल का सुबुक-ख़िराम और शानदार घोड़ा औफ़ नामी उसे बहुत महबूब था। नसीमा भी उस के इस शुग़्ल में शामिल थी। वह इन घोड़ों की देख-भाल में गहरी दिलचस्पी लेती। मौसम-ए-ख़िज़ाँ की मुज़्तरिब रातें और क़मरी महीने की सत्रहवीं तारीख़ थी। ज़वाल-पज़ीर चाँद के रुख़-ए-रौशन पर हवाएँ उड़ रही थीं। फ़लक-नशीन और दरख़शाँ सितारों का रंग फ़क़ हो रहा था। चाँदनी किसी हसीन बेवा की तरह सोगवार थी। इस उदास चाँदनी के साये में तमाम सहरा कफ़न-पोश दिखाई देता था। ठंडी रेत के पामाल-शुदा ज़र्रात से परागंदा फ़िज़ा में परेशान हुआ के सुस्ताए हुए झोंकों के साथ अर्वाह ख़बीसा के मातमी नग़मे गूंज रहे थे। दरिया-ए-नील की बदमस्त लहरें निहायत इंतिशार के साथ हर एक के सामने तारीख़-ए-मिस्र को दुहराती हुई रवाँ-दवाँ थीं।
आज मैं बहुत बेताब था। मैंने तहय्या कर लिया कि अपने सहराई दोस्त से इल्तिजा करूँगा कि वह मुझे इस उज़लत कदा से निकाल कर किसी दिल-आवेज़ फ़िर्दोसी दुनिया में ले जाये।
वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर जब नाक़ा की घंटियों की सुरीली सदा मेरे कानों में पड़ी तो मैं दीवाना-वार बाहर निकल आया। न जाने मेरे दिल में क्या आरज़ू थी। मैं उस से क्या कहने वाला था। मगर उसे देखकर मेरी ज़बान बंद हो गई। मैंने बे-इख़्तियार बाज़ू फैला दिए वह एक लम्हा के लिए रुका फिर उसने एक छोटी सी रस्सी की सीढ़ी मेरी तरफ़ फेंकी और मैं बे-ताबी से नाक़ा पर सवार हो गया।
मैं एक सरवर की हालत में कजावे पर बैठा था। घंटियों की मुतरन्निम रीर सदा मेरे साज़-ए-दिल की तारों को छेड़ रही थी। मैं ख़ुशियों की लामहदूद और शानदार लहरों में समा रहा था और नाक़ा बरक़-रफ़तारी से चल रहा था।
न जाने नाक़ा कब तक यूँही चलता रहा। यकायक एक बड़े घंटे की आवाज़ दूर से सुनाई देने लगी, जिसे सुनते ही मैं उछल पड़ा। मेरी रूह सिमट कर आँखों में आ गई और सीने में जज़बात का तूफ़ान उमडने लगा। मैं उस जगह जाने के लिए बे-ताब हो गया, जहाँ से वह दिलनवाज़ और अछूती सदा बुलंद हो रही थी। नाक़ा अब छोटी छोटी घाटियों को उबूर करके एक अज़ीमुश्शान वादी में दाख़िल होने वाला था। कहीं दूर झिलमिलाती हुई बर्क़ी रोशनी में फ़लक-शिकोह एहराम की चोटियाँ दिखाई दे रही थी।
नाक़ा यक-दम घाटी के नीचे एक शिगाफ़ के सामने रुक गया। यहाँ चार आदमी हाथों में मशालें लिए हमारे मुंतज़िर थे। मैं उसी बेताबी से नीचे उतरा। यह शिगाफ़ दरअसल एक ग़ार था। मैं उन लोगों के हमराह उस में दाख़िल हुआ। मगर अन्दर क़दम रखते ही घंटे की सदा बंद हो गई और यकलख़्त इस सेहरज़दा मदहोशी से बेदार हो कर मैंने गिर्द-ओ-पेश के मनाज़िर पर नज़र डाली। “शायद मेरा सहराई दोस्त मुझे किसी ख़ुफ़िया ख़ज़ाने का राज़ बताने वाला है।” मैंने दिल में कहा। ग़ार में एक लंबा और नीचा रास्ता था जिसके ज़रिये हम किसी तहख़ाने में उतर रहे थे। हत्ता कि ग़ार के इख़्तताम पर पहुँच कर हम रुक गए। यह जगह इतनी तारीक थी कि मशाल की रोशनी भी काम न दे सकती थी। मैंने चारों तरफ़ आँखें फाड़ फाड़ कर देखने की कोशिश की मगर कुछ दिखाई न दिया। यहाँ किसी नामालूम जगह से एक मद्धम से साज़ की आवाज़ आ रही थी। यह साज़ बिलकुल वैसा था जैसा कि ख़लील के घर में नूत बजाया करता था। इस आवाज़ से मुझ पर दहशत तारी हो गई और किसी नामालूम ख़तरे का एहसास होने लगा। मगर मैं वहशियों के नर्ग़े में था, बचाओ की सूरत ही न थी।
यकलख़्त अंधेरे में एक चोर दरवाज़ा खुला, वह लोग मुझे एक फ़राख़-ओ-आरास्ता कमरे में ले गए जो रोग़न-ए-ज़ैतून के चिराग़ों से जगमगा रहा था। कमरे में चारों तरफ़ शह-नशीन बने थे। जिन पर कई ताबूत क़रीने से रखे गए थे। जाबजा तिलाई-ओ-नुक़रई अंगीठियों में चंदन और ऊद सुलग रहा था। कमरे के वस्त में अलाव के गिद बीस बाईस ग़ैर मुहज़्ज़ब सहराई किसी ख़ास ज़बान में कोई मंत्र गा रहे थे और उनमें एक आदमी किसी अनोखी तर्ज़ का साज़ बजा रहा था। साज़ बजाने वाले को मैंने फ़ौरन पहचान लिया, वह नूत था।
मुझे देखते ही सबने एक नारा लगाया। सहराई मुझे शह-नशीन पर ले गया। जहाँ सोने की एक चौकी रखी थी जो उक़ाब की मूर्ति के परों पर बनाई गई थी। मुझे उस पर बिठा दिया गया और एक शख़्स ने कोई निहायत ख़ुशबूदार सफ़ूफ़ मेरे बदन पर मलना शुरू किया जिसके बाद मुझे चंद बहुत वज़नी तिलाई ज़ेवर पहनाए गए। फिर एक तिलाई मुकट मेरे सर पर रखा गया जो साँप की शक्ल का बना हुआ था... ग़रज़ यह कि मुझे किसी क़दीम शाहाना तरीक़े से सजाया गया। बादअज़ाँ सबने मिलकर किसी ख़ास ज़बान में ख़ास तरीक़े से मेरी पूजा की। पूजा के बाद वह सब दुबारा अलाव के क़रीब जाकर अपनी मज़हबी इबादत में मसरूफ़ हो गए। नूत शह-नशीं के नीचे मेरे पाँव के क़रीब बैठ कर इस मनहूस साज़ को पूरी क़ुव्वत से बजाने लगा और सहराई ने क़रीब रखे हुए एक ताबूत का ढकना उठाया।
ताबूत में रखी हुई किसी लाश के दोनों हाथ ऊपर को उठे और फिर आहिस्ता-आहिस्ता वह लाश अँगड़ाइयाँ लेती हुई उठकर बैठ गई। लाश को देखकर मेरा रहा सहा ख़ून भी ख़ुश्क हो गया। क्योंकि यह लाश उसी पुर-असरार हसीना की थी जिसे मैं ख़लील के घर देख चुका था। अब वह हैरत-अंगेज़ तौर पर ज़िंदा थी। वह एक शाहाना तम्कनत के साथ ताबूत से बाहर निकली और अजीब नाज़-ओ-अंदाज़ से ख़िरामाँ ख़िरामाँ मेरे पास आ खड़ी हो गई।
मैं इंतिहाई दहशत से चीख़ने लगा। “कमबख़्त डरता क्यों है?” सहराई ने हक़ारत से कहा, “ऐसी बाइज़्ज़त मौत तो किसी ख़ुश-क़िस्मत को ही मुयस्सर होती है।”
नूत ने कहा, “वक़्त ज़्यादा हो गया है। इस के सामने देवी का मुक़द्दस ऊद दोहराकर यह रस्म जल्दी अदा कर देनी चाहिए।”
सहराई लाश के पास बाअदब खड़ा हो कर कहने लगा, “सुन ए हिन्दी आज से कई हज़ार साल पेशतर फ़राइना मिस्र में से हारहब नामी एक जलील-उल-क़दर बादशाह था। जो अपने अक़ीदे का पक्का और मज़हब का ज़बरदस्त हामी था। उस की एक हसीन और आली वक़ार बेटी थी जिसे वह बहुत चाहता था। शहज़ादी का नाम मरेस्तार था उस के हुस्न का तमाम मुल्क में शोहरा था कई आली मुरत्तब शहज़ादे और वालियान-ए-मुल्क उस के ख़्वाहाँ थे। सैंकड़ों बहादुर और रंगीले दरबारी उस की मुहब्बत में दीवाने हो रहे थे। हर नौजवान के सर में उस का सौदा था। मगर शहज़ादी का नज़रिया दुनिया-ए-मुख़्तलिफ़ था वह मर्दों को नफ़रत की निगाह से देखती और ख़ुसूसन उश्शाक़ के साथ निहायत हक़ारत-आमेज़ सुलूक करती। वह आबिदा और ज़ाहिदा होने के अलावा अपने बाप की तरह मज़हब की दिलदादा थी। इसी मज़हबी दीवानगी की वजह से वह सोलह साल की उम्र में ख़ुदा-ए-रा के माबद में राहिबा बन गई। उसने अपने मज़हबी तरीक़े पर क़सम उठाकर ऐलान कर दिया कि अब वह मज़हबन या क़ानूनन किसी मर्द की नहीं हो सकती। दो साल के अंदर अंदर उसने इतनी रुहानी तरक़्क़ी की कि उस की अज़मत का सिक्का अवामुन्नास के दिलों पर बैठ गया। उस की ज़बान में ऐसी तासीर पैदा हो गई कि जो कुछ वह ज़बान से कहती पूरा हो जाता। यानी उसे एक देवी का रुत्बा हासिल हो गया।” लेकिन जब वह इस मंज़िल में थी तो ख़ुदा-ए-रा ने उस से एक कड़ी आज़माईश चाही। उसे एक ऐसा ग़ैर मुतवक़्क़ु मामला पेश आया कि इरादे मुतज़लज़ल हो गए। उस को सही रास्ते से बहकाने वाला नारमर था। यह नौजवान ख़ुदा-ए-रा के अक़ीदत-मंदों में से था जो थोड़े ही दिनों से माबद में वारिद हुआ था।”
“नारमर ख़ूबसूरती और बांकपन की ज़िंदा मिसाल था। उस की आवाज़ में मिठास थी। जब वह ख़ुदा-ए-रा की बारगाह में उस की अज़मत के गीत ख़ुलूस-दिली और ख़ुशगुलूई से गाता, तो मरेस्तार के दिल पर उस का ख़ास असर होता। मुहब्बत-ओ-मुसर्रत से मामूर नग़मे उस की रूह की लताफ़तों से हमकिनार होते और किसी नामालूम जज़बे से उस का दिल धड़कने लगता। रफ़्ता-रफ़्ता मरेस्तार को मालूम होने लगा कि वह अपना मुक़द्दस दिल नारमर की नज़र कर चुकी है। वह अक्सर इश्क़-ओ-मुहब्बत के रंगीन और शीरीं ख़्वाबों में मदहोश रहने लगी और उस का दिल गुनाह की आलूदगियों से मुलव्वस होने लगा। गो उसने नारमर से बचने की बहुत कोशिश की। लेकिन इस की ख़ुशनुमा पैकर में कुछ ऐसी कशिश थी जिसके आगे शहज़ादी मरेस्तार जैसी मुस्तक़िल मिज़ाज और ग़यूर औरत को झुकना पड़ा। उसने अपनी क़सम तोड़ कर अपने आपको नारमर के हवाले कर दिया।”
“शहज़ादी का यह नाजायज़ इश्क़ कुछ ज़्यादा देर तक क़ायम न रह सका। नारमर उसे छोड़कर किसी दूसरे शिकार की तलाश में फिरने लगा। मरेस्तार को अपनी नाकामी का सख़्त सदमा हुआ। उसने दुबारा ख़ुदा-ए-रा की बारगाह नयाज़ में पनाह लेना चाही। मगर अब वह मातूब थी। ख़ुदा-ए-रा के मज़हबी क़ानून के मुताबिक़ उसे अपने महबूब का ख़ून पीना ज़रूरी था। चुनाँचे वह एक दिन किसी तरीक़े से अपने बेवफ़ा आशिक़ को माबद में लाई और उस की शाह-रग का ख़ून निकालकर पिया। इस क़ुर्बानी से उसे फिर देवी का रुत्बा मिल गया। लेकिन नारमर की मौत ने उस का दिल तोड़ दिया और उसने अपना दिल बहलाने की ख़ातिर यह तरीक़ा इख़तियार किया कि हर साल वह एक नया आशिक़ तलाश करती और कुछ अरसा इश्क़-बाज़ी करके फिर नारमर की तरह उस का ख़ून पी कर ख़ुदा-ए-रा की ख़ुशनुदी हासिल कर लेती। इन मुतअद्दिद क़ुर्बानियों से ख़ुदा-ए-रा उस पर बहुत मेहरबान हुआ। शहज़ादी का रुहानी इक़तिदार इतना बढ़ा कि उस की भी परस्तिश होने लगी। चुनाँचे उसने इज़हार-ए-शुक्रिया के तौर पर ख़ुदा-ए-रा के हुज़ूर में वादा किया कि वह ऐसी क़ुर्बानियाँ हमेशा किया करेगी और उसने अपनी ज़िंदगी में इस अहद की पाबंदी सख़्ती से जारी रखी। हमारे बुज़ुर्गान-ए- सलफ़ इस देवी के पुजारी थे। तीस साल की उम्र में जब वह सफ़र-ए-आख़िरत करने लगी तो उसने अपने बड़े पुजारी को एक ऐसा तरीक़ा सिखाया जिसके ज़रीया वह पस-ए-मर्ग भी उश्शाक़ की क़ुर्बानी का यह सिलसिला जारी रख सकती थी। ग़रज़ यह कि वह इस ख़ास तरीक़े से मरकर भी ख़ुश-रौ नौजवान से मुहब्बत करके उनका ख़ून पीती रही। इस ज़माने को सदियाँ गुज़र गईं।”
“मुल्क में कितने इन्क़िलाब हुए। कई नए नए मज़हब दुनिया में आए। रफ़्ता-रफ़्ता लोगों के अक़ीदे कमज़ोर होते गए। हत्ता कि ख़ुदा-ए-रा का दीन इस दुनिया से बिलकुल नाबूद हो गया और यह माबद जो इस देवी की आख़िरी आरामगाह था लोगों की नज़रों से रुपोश हो गया और उस ज़माना की सच्ची बातें सिर्फ़ रिवायतें बन कर रह गईं। इक़दार-ए-ज़माने से पुजारियों का इक़्तिदार ख़ाक में मिल गया। हमारे बुज़ुर्गान-ए-सलफ़ मुफ़लिसी में मुबतला हो कर ख़ाना-बदोशी पर मजबूर हो गए और इस अरसा-ए-दराज़ की सहराई ज़िंदगी ने उन्हें बिलकुल वहशी बना दिया। मेरा बाप नूत बचपन ही से अपने बुज़ुर्गों के क़दीम मज़हब की तरफ़ राग़िब था, वह इन ख़ुदाओं की परस्तिश किया करता जिनके नाम वह कभी अपनी बड़ी बूढ़ियों से सुन चुका था। इस पुराने अक़ीदे की बरकत से मेरे बाप को आलम-ए-रूया में इस देवी की ज़ियारत हुई। उसने उसे अपनी आख़िरी आरामगाह का पता देकर अपने मुक़द्दस अहद से भी आगाह किया और वादा किया कि अगर वह या उस की क़ौम उस के बताए हुए तरीक़े से क़ुर्बानी का सिलसिला दुबारा क़ायम करेगी तो वह लोग ख़ुश-हाल हो जाएँगे। अहद-ए-गुज़िश्ता की और भी कई बातें मेरे बाप को इल्हामी तरीक़े पर मालूम हुईं। इस तरह मेरे बाप ने इस माबद का खोज तो लगा लिया लेकिन क़ुर्बानी के वास्ते नौजवानों को मुहय्या करना सख़्त ख़तरनाक था क्योंकि इस तरह हुकूमत इस माबद का बरामदगी से मुतल्ले हो कर उसे अपने क़बज़े में ले सकती थी। इसलिए इंतिहाई सोच विचार के बाद मेरे बाप ने नौजवान सय्याहों को फाँसने का फ़ैसला किया और देवी के हुज़ूर में कामयाबी की दुआ माँगी। इसी रात फिर मेरे बाप को इल्हाम हुआ और देवी ने उसे एक ख़ास मंत्र बताया। सो जब कभी मेरा बाप किसी सय्याह को क़ुर्बानी के वास्ते मुंतख़ब करता तो रातों को इस माबद में उस की सूरत का तसव्वुर करके देवी के बताए हुए मंत्र का विर्द करता जिसके असर से सय्याह का दिल इस नाक़ा की घंटियों से तसख़ीर हो जाता। मैं इसी ग़रज़ से इस तरफ़ ले जाया करता था और वह एक दिन इसी नाक़ा के ज़रिये यहाँ पहुँच कर देवी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाता। हत्ता कि साल के इख़्तताम पर उस की क़ुर्बानी कर दी जाती।”
“इस तरीक़े से कई साल तक क़ुर्बानी का सिलसिला जारी रहा। लेकिन आज से दो साल पेशतर एक हिन्दी सय्याह ने जिसका नाम ख़लील था न जाने किस तरह इस माबद का सुराग़ लगा लिया। उसने हुकूमत को मुतल्ले करने की धमकी देकर मेरे बाप से देवी की लाश ख़रीदना चाही। मेरा बाप शश-ओ-पंज में पड़ गया। न तो वह देवी की लाश को फ़रोख़्त कर सकता था और न ही इस से पीछा छुड़ा सकता था। क्योंकि उस के आने से चंद दिन पेशतर सफ़ेद क़ौम के एक नौजवान का ख़ून पिया जा चुका था और साल ख़त्म होने से पेशतर उस की क़ुर्बानी जायज़ न थी। मेरा बाप तफ़क्कुरात में घर गया। उस की समझ में न आता था कि यह गुत्थी क्योंकर सुलझाई जाये। इसी हालत में उसे देवी ने हुक्म दिया कि उस की लाश ख़लील को दे दी जाये और आइन्दा साल क़ुर्बानी भी ग़ैर मुल्क में ही अमल-पज़ीर हो। चुनाँचे देवी की लाश के अलावा उस के उश्शाक़ में से नारमर और एक शहज़ादे की लाश भी मा चंद नादिर अश्या के इस के हवाले करना पड़ीं। उन लाशों की क़ीमत में उसने हमें इतना ज़र-नक़द दिया कि हमारा कुम्बा ख़ुश-हाल हो गया।”
“ख़लील देवी को कलकत्ते ले गया और मेरे बाप को क़ुर्बानी की रसूमात अदा करने के लिए उस के साथ जाना पड़ा। ख़लील पर देवी के इश्क़ का बहुत बुरा असर हुआ और अय्याम-ए-क़ुर्बानी के क़रीब वह सख़्त बीमार हो गया। आख़िरकार दो एक डाक्टर के कहने पर देवी की लाश को मिस्र के अजायब-ख़ाने में भिजवा देने पर आमादा हो गया। नूत के पासपोर्ट वग़ैरह का इंतिज़ाम करके उस को बरतरफ़ कर दिया गया और लाशों को भी बज़रीया-ए-जहाज़ मिस्र रवाना कर दी। मगर देवी की रुहानी ताक़त कामयाब रही। यानी माल गोदाम-वालों की ग़लती से देवी की लाश जहाज़ पर लादी न गई और दूसरे जहाज़ को रवानगी तक वह माल गोदाम में पड़ी रही। इस अरसे में मेरा बाप लाश की खु़फ़िया तौर पर निगरानी करता रहा। हत्ता कि क़ुर्बानी की मुक़द्दस रात आ पहुँची। नूत ने अपने मंत्रों से देवी को माल गोदाम में ही जगाया। जो नूत के हमराह ख़लील के घर गई और क़ुर्बानी की रस्म अदा करके अपने ताबूत में वापस आ गई। उसी सुबह को दूसरा जहाज़ रवाना होने वाला था। जिसके ज़रिये यह दुबारा मिस्र में आ गई और हम लोग अजायब-ख़ाने में इस लाश के बदले एक और लाश रखकर उसे चुरा लाए। अब मेरे बाप को आइंदा साल की क़ुर्बानी के वास्ते फिर फ़िक्र लाहिक़ हुई तो देवी ने उसे बताया कि आइन्दा साल के लिए वह नौजवान मुंतख़ब हो चुका है। जो उसे ख़लील के घर देखने आया था। मगर तुम दूर थे। इसलिए तुम्हारे यहाँ लाने के लिए बाप को सख़्त मेहनत करना पड़ी। वह पूरे दस माह मंत्र जपता रहा ताकि तुम नींद की हालत में रोज़ाना अपनी बीवी को छिपकली के पित्ते का ज़हर देकर हलाक कर दो। चूँकि ख़लील के घर तुमने बावजूद देवी की मुहब्बत का इक़रार करने के बीवी की ख़ुशनुदी के लिए उसे देवी से बेहतर क़रार देकर देवी की तौहीन की थी। इसलिए वह तुम्हारी बीवी को हलाक करके अपने इंतिक़ाम की आग बुझाना चाहती थी। वह ज़हर जो तुम अपनी बीवी को हालत-ए-नौम में दिया करते थे वह इन चंद मिस्री नादिर अश्या में मौजूद था जो तुम्हें ख़लील के विरसे में मिली थी। लेकिन तुम्हारी बीवी की ज़िंदगी बाक़ी थी। तुम उसे अपने साथ मिस्र ले आए। वह इस ज़हर का तिरयाक़ इस्तेमाल करने से बच गई। इसी तग-ओ-दौ में साल ख़त्म हो गया। आज क़ुर्बानी की मुक़द्दस रात है लिहाज़ा तुम जवाँ-मर्दी से क़ुर्बानी के वास्ते तैयार हो जाओ।”
आलम-ए-यास में मैंने सब बातें सुनीं, कभी कभी मुझे ख़याल आता कि में कोई ख़ौफ़नाक ख़्वाब देख रहा हूँ। मेरी हालत सख़्त ख़राब हो रही थी। गो मैं ज़िंदा था मगर मुर्दों से बदतर। नूत निहायत ख़ुलूस-ओ-अक़ीदत से अपने काम में मसरूफ़ था। सहराई झट एक संग-ए-जराहत का प्याला और एक पत्थर की छुरी उठा लाया। आह यह वैसा ही प्याला और वैसी ही छुरी थी जैसा कि मैं ख़लील के घर देख चुका था। शिद्दत-ए-ख़ौफ़ से मैं तशन्नुज के मरीज़ की तरह अकड़ कर रह गया।
सहराई ने छुरी उस लाश के हाथ में दे दी और प्याले को मेरी गर्दन के क़रीब लगा दिया। लाश मेरे क़रीब-तर आ गई। हत्ता कि उस के कपड़े मेरे हाथों को छूने लगे। उस का छुरी वाला हाथ आहिस्ता-आहिस्ता मेरी गर्दन की सीध पर उठा। मेरे हवास जवाब देने लगे, कमरा घूमता हुआ दिखाई देने लगा। मैंने मायूसी से आँखें बंद कर लें।
क़रीब था कि मेरे क़लब की हरकत बंद हो जाये। यकायक एक ज़बरदस्त धमाका हुआ। दनादन दनादन की आवाज़ से कमरे में एक ख़ौफ़नाक गूंज पैदा हुई और मुझ पर एक पुरसुकून ग़ुनूदगी तारी हो गई।
(५)
कुछ देर बाद जब मैं इस म-नुमा ग़ुनूदगी से होशयार हुआ तो उमर आफ़ंदी अपने रूमाल से मुझे हवा देता हुआ दिखाई दिया। मैं घबराकर उठ बैठा।
कमरे में बदस्तूर शमाएँ रोशन थीं। आग का अलाव जल रहा था मगर आदमी सब ग़ायब थे। क़रीब ही सहराई की नाश पड़ी थी और संग-ए-जर्राहत का प्याला गिर कर चूर हो चुका था। मैं बेतहाशा चीख़ें मारता हुआ उमर आफ़ंदी से चिमट गया। उस की तसल्ली-आमेज़ बातों से मुझे बहुत कुछ ढारस हुई। मैंने अपने हवास दरुस्त करके इतमीनान से अपने गिर्द-ओ-पेश देखा। आह! शह-नशीन के क़रीब एक ऐसा नज़ारा मेरी नज़र से गुज़रा कि एक दफ़ा फिर इज़तिराबी कैफ़ीयत से मेरी हालत ग़ैर होने लगी। लेकिन उमर आफ़ंदी ने मुझे सँभाल लिया।
नूत उसी तरह शह-नशीन के सहारे बैठा था और मरेस्तार की लाश अपनी बाहें उस के गले में हाइल किए उस की आग़ोश में पड़ी थी। पत्थर की छुरी नूत की शहरग में पैवस्त थी और ख़ून के बहते हुए शर्राटे लाश के नीम-वा धुन में कर रहे थे। वह दम तोड़ रहा था।
उमर आफ़ंदी के आदमियों ने इस लाश को नूत की आग़ोश से अलैहदा करना चाहा। मगर उसने इशारे से रोक दिया और सिसकती हुई आवाज़ में कहने लगा “मुझे इस से जुदा न करना। मैं इस माबूद की आख़िरी क़ुर्बानी हूँ। आह मैं पहले दिन से ही उस की मुहब्बत में असीर हो गया था। लेकिन जान के ख़ौफ़ से आज तक अपने इश्क़ का इज़हार न कर सका। मेरा ख़याल था कि यह राज़ इस पर कभी ज़ाहिर न होगा। मगर वह आलिम-उल-ग़ैब थी इस से पर्दा-दारी फ़ुज़ूल थी। आज में इस की अज़मत-ओ-जबरूत की गवाही देता हूँ। वह बिला-शुबा देवी थी जिसने अपने सच्चे आशिक़ के दिल की तर्जुमानी करके उस की क़ुर्बानी क़बूल की। अब मैं ख़ुशी की मौत मर रहा हूँ।” यह कहते हुए उस की आवाज़ बंद हो गई। वह ख़त्म हो चुका था।
उमर आफ़ंदी के ईमा पर उस के आदमियों ने शिकस्ता ताबूतों की रोग़नी तख़्तियों को जमा करके नूत और मरेस्तार की लाशों को जला दिया और राख-भस्म हो जाने पर जब हम इस मनहूस तहख़ने से बाहर निकले तो सुबह-ए-सादिक़ के नूरानी पर तोसे शब की रूस्याही ही धुल चुकी थी।
कई दिन तक इस ख़ौफ़नाक वाक़िये का असर मेरे दिल पर क़ायम रहा। रफ़्ता-रफ़्ता जब मेरे दिल को क़रार हुआ तो मैंने उमर आफ़ंदी से बरवक़्त इमदाद के मुताल्लिक़ दरयाफ़त किया। उसने कहा जब तुम मिस्र में आए थे तो सईद ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी। जिसमें उसने मिस्री लाश का ज़िक्र करके लिखा कि कहीं तुम ख़ुद नसीमा को ज़हर न दे रहे हो। सो उस के इलाज के अलावा उसे तुमसे बचाने की बहुत कोशिश की गई। चुनाँचे इस तरीक़-ए-अमल से वह मौत के मुँह से बच गई। मुझे सख़्त हैरत थी कि बावजूद इतनी मुहब्बत के तुम यह फ़ेल क्यों कर रहे थे और मुझे यह राज़ मालूम करने की बहुत ख़ाहिश थी। कुछ दिन बाद नसीमा ने मुझे बताया कि तुम अक्सर रातों को अपनी ख़ाबगाह से ग़ायब हो जाते हो। मैं तुम्हारी निगरानी करने लगा। जिससे बहुत जल्द मैंने मालूम कर लिया कि तुम्हें नींद की हालत में चलने फिरने का आरिज़ा लाहिक़ है। अब यह राज़ तो हल हो चुका था। मगर तुम्हारी यह हालत देखकर मुझे बहुत तशवीश हुई और तुम्हारी लाइल्मी मैं तुम्हारा इलाज करता रहा। रफ़्ता-रफ़्ता मुझे यह भी मालूम हुआ कि तुम एक बाद-रफ़्तार नाक़ा के इंतिज़ार में सड़क पर खड़े रहते हो और अक्सर औक़ात उस के पीछे इस क़दर तेज़ी से दौड़ते हो कि तुम्हारा तआक़ुब मुहाल हो जाता है। इसी ग़रज़ से मैंने चंद बरक़रफ़तार घोड़े ख़रीदे जिन पर मैं तुम्हारा तआक़ुब करके देख सकूँ कि तुम कहाँ जाते हो। चुनाँचे क़ुर्बानी की रात जब तुम नाक़ा पर सवार हो कर कहीं जा रहे थे तो मैंने अपने दोनों साईसों को पीछे आने का हुक्म देकर अपने घोड़े औफ़ पर तुम्हारा तआक़ुब किया। नाक़ा जादू के असर से इस क़दर तेज़ चल रहा था कि तआक़ुब करना मुश्किल हो गया। ताहम मैं घंटी की आवाज़ पर घोड़े को सरपट दौड़ाता हुआ वहाँ तक पहुँच गया।
इतने में मेरे साईस भी मुझे आ मिले और काफ़ी देर तक हम लोग दरवाज़े की तलाश में इस ग़ार के अंदर सर-गर्दान रहे। आख़िरकार बड़ी मुश्किलों से हमें एक चोर दरवाज़े का सुराग़ मिला और जब हम लोग अंदर दाख़िल हुए तो मामला एक ख़तरनाक हद तक पहुँच चुका था। मैंने वक़्त की नज़ाकत का एहसास करते हुए गोली चला दी जिससे सहराई तो उसी दम मर गया और मंत्र पढ़ने वाले भाग खड़े हुए। इसी बदहवासी में नूत के हाथ से भी साज़ गिर पड़ा।
“साज़ और मंत्र बंद होते ही उस लाश की शैतानी क़ुव्वत भी ज़ाइल हो गई। वह नेवरा कर नूत पर गिर गई और इत्तिफ़ाक़ समझो या हक़ीक़त लाश का सर उस की छाती के क़रीब जा लगा और इस तरह वह नूत का ख़ून पीने में कामयाब हो गई।”
इस वाक़िये से तक़रीबन एक माह बाद हम लोग अपने वतन को वापस चले आए। अब ज़माना-ए-क़दीम की मालूमात का ख़ब्त मेरे दिमाग़ से निकल चुका था। चुनाँचे घर पहुँचते ही मैंने पुरानी मालूमात का वह ज़ख़ीरा जो काग़ज़ात की सूरत में जमा था और वह नादिर अश्या जो ख़लील की विरासत में मुझे मिली थीं, नज़र-ए-आतिश कर दीं।