“Nusrat”
from Sīmiyā
Naiyer Masud (Nayyar Masʿūd)
Lucknow, 1984
My dreame thou brok’st not, but continued’st it,
Thou art so truth, that thoughts of thee suffice.
To make dreames truth; and fables histories.
JOHN DONNE
सवार-ए दौलत-ए जावीद बर गुज़ार आमद
इनान-ए ऊ न गिरिफ़्तंद, अज़ गुज़ार बिरफ़्त
[“The rider bearing the eternal treasure appeared on the path, / No one bade him halt. He travelled on.” Translation from Farsi by Muhammad Umar Memon.]
ला-इल्म मुक़्तबस अज़ काग़ज़ात-ए फ़ज़्लुल्लाह हुरूफ़ी
बदकार औरत का क़िस्सा मुझे अब याद नहीं लेकिन उस वक़्त मुझे उस में बड़ी दिलचस्पी थी। इसलिए जब मुझे मालूम हुआ कि उस का क़ज़िया हमारे यहाँ पेश होगा और वह तसफ़ीए के लिए हमारे घर आएगी तो मैं बहुत ख़ुश हुआ। इस से पहले भी एक मशहूर बदकार औरत का क़ज़िया हमारे घर में पेश हो चुका था और मेरे बुज़ुर्गों ने उसे बहुत ख़ूबी से तै कर दिया था लेकिन वह मेरे होश सँभालने से पहले की बात थी। मैंने उस का ज़िक्र ही ज़िक्र सुना था और यह ज़िक्र उस वक़्त तक जारी था जब तक उस दूसरी बदकार औरत का क़िस्सा शुरू नहीं हुआ।
जिस दिन वह हमारे यहाँ आने वाली थी उस दिन मकान का बेरूनी कमरा ख़ूब साफ़ किया गया और उस में कई नशिस्तें बढ़ा दी गईं। कमरे की मज़ीद आरईश के लिए उस में कई नवादिर का इज़ाफ़ा किया गया जिनमें से बाअज़ सैंकड़ों साल पुराने थे। इस इंतिज़ाम में बुज़ुर्गों ने मुझसे भी काम लिया और मैंने अपने हिस्से का काम बड़े शौक़ से अंजाम दिया। जब में एक नशिस्त दरुस्त कर रहा था और बुज़ुर्गों की गुफ़्तगू से मुझे अंदाज़ा हुआ कि बदकार औरत को उसी पर बिठाया जाएगा तो मेरा दिल धड़कने लगा और वह मुझे वहाँ बैठी हुई दिखाई देने लगी। दरअसल मुझे इस पूरे मुआमले में दिलचस्पी ही इस ख़्याल से थी कि में एक बदकार औरत को देखूँगा।
बुज़ुर्गों के इलावा बाहर के कुछ लोग भी इस क़ज़िए के हल में शरीक होने वाले थे। यह मुअज़्ज़िज़ मेहमान थे जो इस से पहले भी हमारे यहाँ आ चुके थे और पज़ीराई का ज़्यादा एहतिमाम उन्हीं मुअज़्ज़िज़ मेहमानों के लिए था। बुज़ुर्ग मुझको बार-बार जो हिदायतें दे रहे थे वह भी ज़्यादा-तर उन्हीं मुअज़्ज़िज़ मेहमानों की ख़ातिर मुदारात के बारे में थीं। बहरहाल मुझे उन मुअज़्ज़िज़ मेहमानों की कोई ख़ास फ़िक्र नहीं थी।
जब सब के आने का वक़्त क़रीब आया तो बुज़ुर्गों में इज़तिराब सा पैदा हुआ और मुझे कई मर्तबा मकान के बग़ली दरवाज़े से निकल कर बेरूनी कमरे तक जाना पड़ा और वापिस आना पड़ा। बेरूनी कमरा मकान की रूकार का एक दर्जा था और बग़ली दरवाज़े से वहाँ तक जाने के लिए लंबा फ़ासिला तै करना होता था। इस फ़ासले में दरवाज़े के सामने का वह अहाता भी शामिल था जिसके बड़े हिस्से को छोटी पत्तियों वाला पुराना दरख़्त घेरे हुए था। बुज़ुर्गों की पै दर पै हिदायतों ने मुझमें भी इज़तिराब पैदा कर दिया था और जल्दी जल्दी बेरूनी कमरे के कई चक्कर लगाने की वजह से मैं आहिस्ता-आहिस्ता हाँप रहा था, ताहम जैसी कि हमेशा से मेरी आदत थी, दरख़्त के नीचे से गुज़रते वक़्त में हाथ ऊपर उठा कर उस की शाख़ों को हिला ज़रूर देता था और उस दिन के हैजान के बावजूद शाख़ों को हिलाने के बाद मेरी नज़र अहाते के एक गोशे में बने हुए बोसीदा छत वाले दालान की तरफ़ ज़रूर उठ जाती थी जहाँ बैठा हुआ बूढ़ा जर्राह ऐसे मौक़ों पर हमेशा कहता:
“दरख़्त को ख़्वाह-मख़ाह क्यों छेड़ते हो।”
मगर आज बूढ़ा जर्राह हर बार ख़ामोश रहा था। वह अपने सामने मालूम नहीं कौन कौन सी दवाएँ और मरहम फैलाए बैठा था और इस सामान में ऐसा खोया हुआ था कि उसे दरख़्त की वकालत का होश न था। मैंने उस को इस सामान के साथ पहली मर्तबा उसी दिन देखा क्योंकि वह मेरे होश सँभालने से पहले ही जर्राही का काम छोड़ चुका था। वह अपने ज़माने में जर्राही का कामिल उस्ताद था लेकिन मैंने उस के कमालात का ज़िक्र ही ज़िक्र सुना था। मेरे लिए वह सिर्फ़ एक बूढ़ा था जो घर में पेश आने वाली हर बात के मुताल्लिक़ सवाल पर सवाल कर के हम लोगों को परेशान कर देता था। बुढ़ापे ने उस का तजस्सुस बढ़ा दिया था। मगर उस के ज़्यादा-तर सवालों का अंजाम अच्छा नहीं होता था। बुज़ुर्ग उसे डाँट दिया करते थे और मैं अधूरे और ग़लत-सलत जवाबों से उलझन में डाल कर उस के दिमाग़ को थका देता था। बदकार औरत का क़िस्सा छिड़ते ही बूढ़े जर्राह को इस में निहायत दिलचस्पी पैदा हो गई थी और दिन में कई कई बार वह अपने दालान से लश्तमि पश्तमि निकलता और बड़बड़ाता हुआ वापिस आता दिखाई देता। मगर आज जब उस की सरगर्मी का ठिकाना न होना चाहिए था वह इस तरह ख़ामोश अपने काम में ग़र्क़ था जैसे उसे दुनिया में किसी बात की ख़बर ही न हो।
इस पर में उसे छेड़ता ज़रूर, लेकिन अब मुझे थकन महसूस हो रही थी, इसलिए कि सब लोगों के पहुँचने का वक़्त आए देर हो चुकी थी लेकिन अभी तक कोई नहीं आया था। बुज़ुर्गों की बेचैनी बढ़ गई थी और एक-बार फिर मैं बग़ली दरवाज़े से निकल कर दरख़्त की शाख़ों को हिलाता हुआ बेरूनी कमरे की तरफ़ चला। हर बार की तरह इस बार भी दरख़्त पर से छोटी छोटी ज़र्द पत्तियाँ बरसने लगी थीं जिनको अपने बालों और शानों पर से झाड़ता हुआ जब मैं बेरूनी कमरे में पहुँचा तो वहाँ कोई भी न था।
मैं वहाँ देर तक रुका रहा। आख़िर इस क़दर आरास्ता कमरे का सन्नाटा मुझे बुरा मालूम होने लगा। आने वालों की ताख़ीर से मैं उक्ता गया और मेरा जी चाहा कि अब बदकार औरत और मुअज़्ज़िज़ मेहमानों के बारे में कुछ न सोचूँ। उस वक़्त मुझे नुसरत का ख़्याल आया।
दरख़्त के नीचे से गुज़रते हुए हर मर्तबा मैंने देखा था कि वह उस के तने से टेक लगाए बैठी है। कभी सामने बूढ़े जर्राह की तरफ़ देख रही है, कभी अपने पहलू में ज़मीन की तरफ़, और उँगलियों से मिट्टी पर लकीरें खींच रही है। अब मुझे यह भी ख़्याल आया कि पहली या दूसरी बार जब मैं दरख़्त के नीचे से गुज़र रहा था तो उसने गर्दन घुमा कर मेरी तरफ़ देखा था और शायद मुझे सलाम भी किया था। लेकिन में उस वक़्त की घबराहट में उसे जवाब नहीं दे सका। उस वक़्त तो मेरी समझ में भी न आया था कि उसने मुझे सलाम करने के लिए हाथ उठाया था। वह ख़ुश-लहजा और सुबुक क़दम लड़की थी और अपने किसी बीमार रिश्तेदार की तीमारदारी के लिए हमारे यहाँ आया करती थी। मैं अक्सर उसे देखता कि किसी के बुलाने पर बहुत हल्के क़दमों से चलती हुई, जैसे पैरों के नीचे किसी चीज़ के टूट जाने का डर हो, मकान के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जा रही है। जब वह घर में मौजूद होती तो इस का नाम बार-बार सुनने में आता। मगर में इस से बहुत कम बात करता था, इसलिए कि एक तो वह बहुत धीमी आवाज़ में बोलती थी, दूसरे बात करते वक़्त नज़र नहीं उठाती थी। लेकिन वह मुझको सलाम ज़रूर करती थी।
तो मैं बेरूनी कमरे से वापिस चला। दरख़्त के पास पहुँच कर में रुक गया। मैंने दरख़्त की शाख़ों को आहिस्ता से छूआ। दरख़्त ख़िज़ाँ की गिरिफ़्त में था और इस की ज़्यादा-तर पत्तियाँ ज़र्द हो कर गिर चुकी थीं। शाख़ों पर कहीं कहीं मकड़ियों ने जाले तान दिए थे और बहुत सी पत्तियाँ ऐसी थीं जो ज़मीन पर गिरने के बजाय उन जालों में अटक गई थीं। मैंने नुसरत की तरफ़ देखा। अब वह आगे को झक्की हुई बैठी थी। इस का चेहरा उस के घुटनों पर टिका हुआ था। इस वक़्त भी वह ज़मीन पर लकीरें खींच रही थी। मगर मैंने देखा कि आहिस्ता-आहिस्ता उस का हाथ रुक गया। इस के बालों और शानों पर छोटी छोटी ज़र्द पत्तियाँ नज़र आ रही थीं और इस का लिबास सफ़ैद था। दरख़्त के नीचे तेज़-धूप फैली हुई थी मगर यह धूप में बैठने का मौसम न था।
“इतनी सर्दी तो नहीं है,” मैंने कहा। उसने सर उठा कर मुझे देखा और मैंने फिर कहा:
“बड़ी सर्दी लग रही है नुसरत?”
वह सीधी हो कर बैठ गई। इस की नज़रें बूढ़े जर्राह पर जमी हुई थीं।
“बड़ी सर्दी लग रही है नुसरत?”
“नहीं तो,” उसने कहा और हल्के से मुस्कुराई।
“फिर भी धूप में बैठी हो?”
इस का उसने कोई जवाब नहीं दिया।
“अंदर घर में क्यों नहीं गईं?” मैंने बग़ली दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया। “यहाँ धूप बहुत तेज़ है।”
“बाबा ने बुलाया था,” उसने बूढ़े जर्राह की तरफ़ देखते हुए कहा।
“चलो फिर बाबा ही के पास बैठें।” मैंने कहा। “यहाँ धूप बहुत तेज़ है।”
और ऐसा मालूम होता था कि वह बूढ़े जर्राह के पास चलने पर तैयार है। लेकिन वह अपनी जगह से उठी नहीं। इस पर मैंने अपनी बात दुहराई और देर तक उस के उठने का मुंतज़िर रहा। आख़िर उसने आहिस्ता से कहा:
“मैं चल नहीं पाती।” और उसने सर को ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश से अपने पैरों की तरफ़ इशारा किया। तब मैंने देखा।
“नुसरत यह क्या हुआ!”
इस के पैर बुरी तरह कुचले हुए थे। उनकी रंगत स्याही माइल सबज़ थी और इतने सूज गए थे कि उनको इन्सानी पैर समझना मुश्किल था। उनकी जिल्द जगह-जगह से चटख़ गई थी और छोटे छोटे शिगाफ़ों में से हल्की सुर्ख़ी झलक रही थी। दाहिना पैर बहुत ज़्यादा मसख़ हो चुका था। बाएँ पैर की उँगलियाँ बिलकुल गोल हो रही थीं और दाहने पैर के तलवे में आधी से ज़्यादा पैवस्त थीं। उनके जोड़ खिले जा रहे थे। ऐसा मालूम होता था कि दाहिना पैर बाएँ पैर की उँगलियों को बड़ी क़ुव्वत से अपने में जज़ब कर रहा है और क़रीब है कि उँगलियाँ टूट कर दाहने पैर में गुम हो जाएँ। यह सब एक ज़बरदस्त कश्मकश मालूम हो रही थी जिसके असर से नुसरत की पिंडुलियों पर नीली रगें उभर आई थीं।
“नुसरत यह क्या हुआ?” और यह मैंने बार-बार कहा।
“सबने कह दिया है कि दोनों पैर काटे जाऐंगे,” उसने कहा, “मगर बाबा चाहता है कि एक बार...।” इस के बाद उस की आवाज़ इतनी धीमी हो गई कि मैं कुछ सुन नहीं पाया। मैंने बूढ़े जर्राह की तरफ़ देखा। अब वह लोहे के कुछ औज़ारों को बारी बारी आँखों के क़रीब लाकर देख रहा था। पास ही मिट्टी के बर्तन में कोई चीज़ पक रही थी और दालान में धुआँ भरा हुआ था।
“...बाबा ने कहा किसी को बताना मत,” नुसरत कह रही थी, “और इस के लिए उसने आज का दिन मुक़र्रर किया। उसने कहा था आज सब दूसरी तरफ़ लगे हुए होंगे।
“नुसरत मगर हुआ क्या था?”
इस पर उसने मुझे पूरा क़िस्सा सुनाया जिसके बाअज़ हिस्से में भूल चुका हूँ और बाअज़ हिस्से में सन ही नहीं सका इसलिए कि बीच बीच में नुसरत की आवाज़ डूब जाती थी। शायद उसे तकलीफ़ ज़्यादा थी। उसने कुछ लोगों का ज़िक्र किया था जो एक गाड़ी पर सवार थे और उन्हें कहीं जाने की जल्दी थी। शायद कोई हादसा हुआ था। गाड़ी के सामने कोई रुकावट थी जिसको हटाना ज़रूरी था। नुसरत ने वह रुकावट हटा दी। लेकिन इस से पहले कि वह ख़ुद भी हटती, गाड़ी चल पड़ी जिससे नुसरत के दोनों पैर कुचल गए। गाड़ी रुके बग़ैर निकल गई और नुसरत देर तक वहीं पड़ी रही।
“कैसे लोग थे,” मैंने उस का क़िस्सा सुनकर कहा। “उनको पता भी नहीं चला कि इन्होंने तुम को कुचल दिया है?”
“नहीं, उन्हें मालूम हो गया था,” नुसरत ने कहा। “इसी लिए मेरे पैर सिर्फ़ अगले पहिये से कुचले। इस के बाद ही इन्होंने गाड़ी को इस तरह मोड़ कर निकाला कि पिछ्ला पहिया मेरे पैरों पर से नहीं गुज़रने पाया।”
“मगर वह रुके नहीं?”
“उन्हें जल्दी थी।”
“न तुमने उन्हें रोका?”
“उन्हें जल्दी थी। फिर भी मैंने यह तो कह दिया...” और उस की आवाज़ डूब गई।
“तुमने क्या कह दिया नुसरत?”
“मगर उन्होंने शायद सुना नहीं।”
“तुमने क्या कहा था नुसरत?”
“मैंने कहा, देखी मेरी लाचारी।”
इस पर मैं हँसे बग़ैर न रह सका।
“ऐसी बेसूद बात!” मैंने कहा, “इस से फ़ायदा क्या था? अगर वह सुन भी लेते तो क्या होता।”
“मैं इस के सिवा और क्या कहती?”
इस का जवाब मेरे पास नहीं था। ताहम मैंने कहा:
“उनके से लोगों पर ऐसी बातों का क्या असर हो सकता था। देखी मेरी लाचारी!” मैंने नुसरत के लहजे की नक़ल उतारी, “तुम्हारी समझ में इतना भी न आया कि वह कैसे लोग थे।”
“लोग तो ऐसे होते ही हैं।” यह कह कर उसने फिर पहले की तरह घुटनों पर अपना चेहरा टिका लिया। मुझे महसूस हुआ कि वह रोना नहीं चाहती तो मैंने गुफ़्तगू आगे बढ़ाई।
“फिर, इस के बाद क्या हुआ। तुम्हें वहाँ से किस तरह उठाया गया?”
उसने बताना शुरू किया था कि मुझे कुछ करख़त आवाज़ें सुनाई दें। मैंने मुड़ कर बूढ़े जर्राह की तरफ़ देखा। वह कमर पर हाथ रख कर उठ रहा था मगर आवाज़ें इधर से नहीं आ रही थीं। मैंने नुसरत की तरफ़ देखा। वह कुछ कह रही थी लेकिन इस की नरम आवाज़ उन करख़त आवाज़ों में दबी जा रही थी। आख़िर मुझे उनकी सिम्त का अंदाज़ा हो गया और मैंने पीछे हट कर देखा। दूर बेरूनी कमरे की जानिब गाड़ियाँ आकर रुक रही थीं। बदकार औरत आ गई थी।
मैं उस तरफ़ दौड़ा।
○
बेरूनी कमरे की बेशतर नशिस्तें भर गई थीं। मुअज़्ज़िज़ मेहमान भी क़रीब क़रीब सब आ गए थे। उनके चेहरों पर हमेशा से कहीं ज़्यादा संजीदगी तारी थी, इतनी कि इस पर ख़ुशूनत का गुमान होता था। मेरे बुज़ुर्ग चूँकि मेज़बान भी थे इसलिए उनके चेहरों पर ख़ुशूनत और ख़ुश-मिज़ाजी की जंग नज़र आती थी। औरतें भी कई थीं। इस मजमे में बदकार औरत भी थी और मेरी तवक़्क़ो के ख़िलाफ़ वह दूसरों से बहुत मुख़्तलिफ़ नज़र नहीं आ रही थी। उसने एक पर एक कई चादरें ओढ़ रखी थीं और इस के चेहरे से सिर्फ़ थकन ज़ाहिर थी। इतनी कोशिशों के बावजूद उस का लिबास ऐसा था कि इस के पेट का कुछ हिस्सा साफ़ दिखाई देता था जिस पर नीली रगें उभरी हुई थीं। साँस लेने में इस के होंट थोड़े से खुल जाते थे और होंट खुलते ही उस के दो दाँत पूरे दिखाई देने लगते और यह इतनी जल्दी जल्दी हो रहा था कि इस के दाँत मुस्तक़िल बाहर निकले हुए मालूम होते थे। इस को देख कर मुझे मायूसी हुई। इस के बिलकुल क़रीब एक लड़की मौजूद थी जिसकी तरफ़ बार-बार झुक कर वह कुछ कहती थी। एक-बार उस के कुछ कहने पर लड़की ने इधर उधर देखा तो इस की नज़र मुझ पर पड़ी और वह अपनी जगह से उठकर मेरे नज़दीक आई। फिर उसने कहा:
“पानी मिलेगा?”
मैं फ़ौरन बग़ली दरवाज़े की तरफ़ लपका। दरख़्त के नीचे पहुँच कर मैंने देखा कि बूढ़ा जर्राह नुसरत के सामने बैठा उस के पैरों को ग़ौर से देख रहा है। मेरी चाप सुनकर उसने सर उठाया और आँखों के हलक़े तंग कर के मुझे पहचानने की कोशिश की। मैंने दरख़्त की शाख़ें नहीं हिलाई थीं वर्ना वह मुझको फ़ौरन पहचान लेता। मकान के अंदर से पानी का गिलास लेकर मैं बेरूनी कमरे की तरफ़ जा रहा था तो मैंने देखा कि बूढ़ा पहले की तरह अब भी नुसरत के पैरों का जायज़ा ले रहा है।
बदकार औरत ने गिलास एक सांस में ख़ाली कर दिया। लड़की ने गिलास इस से लेकर मुझे वापिस किया और यह तीन मर्तबा हुआ, इसलिए कि कुछ मुअज़्ज़िज़ मेहमान अभी तक नहीं आए थे। कमरे में रह-रह कर अचानक ख़ामोशी फैल जाती थी जिसे तोड़ने के लिए कोई न कोई बुज़ुर्ग आहिस्ता से खंखार कर पास बैठे हुए मेहमानों से कोई रस्मी बात कह देता।
चौथी मर्तबा में पानी लाया और अब की बार लड़की ने गिलास मेरे हाथ से लेकर ख़ुद एक एक घूँट कर के पीना शुरू किया। पानी और शीशे के पीछे से झलकते हुए उस के दो दाँत बहुत बड़े दिखाई दे रहे थे। गिलास इस से वापिस लेकर मैंने वहीं दरवाज़े के क़रीब फ़र्श पर डाल दिया और लड़की फिर बदकार औरत के पास चली गई।
और अब कमरे की फ़िज़ा इतनी बोझल हो गई थी कि मुझे वहाँ ठहरना दुशवार हो गया। मैंने कुछ देर के लिए वहाँ से हट जाना मुनासिब समझा।
○
जब मैं दरख़्त के नीचे से गुज़र रहा था तो मैंने बूढ़े जर्राह की आवाज़ सुनी।
“इधर आओ।” वह मुझे बुला रहा था। मैं उस की तरफ़ मुड़ गया।
“क़रीब आओ।” मैं उस के क़रीब चला गया। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपनी तरफ़ झुकाया।
“दोनों पैर चिपक गए हैं।” वह सरगोशी में कह रहा था। “सबसे पहला काम उन्हें छुड़ाना है। इस में तकलीफ़ बहुत होती है। शायद वह तड़पे। शायद मैं अकेला उसे न सँभाल सकूँ। शायद अब न सँभाल सकूँ।”
मैंने नुसरत की तरफ़ देखा। इस की आँखों में हिरास था ताहम वह मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी।
“अगर तुम उस को बातों में लगा लो,” बूढ़े जर्राह ने फिर सरगोशी की, “ऐसी बातें करो कि इस का ध्यान मेरी तरफ़ से हट जाये, बिलकुल हट जाये। वर्ना अगर उसने पैर झटक दिए तो बुरा होगा। इस के बाएँ पैर की उँगलियाँ टूट जाएँगी। यह न होने देना। जब मैं इशारा करूँ तो इस का ध्यान इधर से हटा देना। बिलकुल। वह हिलने न पाए। बिलकुल।”
इस के बाद उसने कोई मसखरे पन की बात कह कर नुसरत को हंसाने की कोशिश की और मैंने नुसरत को बूढ़े के पुराने क़िस्से सुनाना शुरू किए। मैंने उस की जर्राही के वह कारनामे बयान किए जिनका मैंने ज़िक्र सुना था। इस तमाम वक़्त में बूढ़ा उस के पैरों को मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से देखता और मुख़्तलिफ़ पहलूओं से ज़मीन पर टिकाता रहा।
मैं देर तक बोलता रहा। मैंने नुसरत को अपने घर के दिलचस्प वाक़ियात सुनाए। फिर मैं ख़ुद उस के बारे में बातें करने लगा। यह बेरबत गुफ़्तगू थी इसलिए कि मैं उसे बहुत कम जानता था, मगर मैंने कोशिश की कि यह बात इस पर ज़ाहिर न होने पाए। अब मैं महसूस कर रहा था कि बूढ़ा जर्राह नुसरत के ज़हन से निकल चुका है। मैं थोड़ी थोड़ी देर बाद एक उचटती हुए नज़र बूढ़े पर ज़रूर डाल लेता था। आख़िर उसने मुझे तैयार हो जाने का इशारा किया।
“और जानती हो नुसरत जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा तो मुझे क्या ख़्याल हुआ था?” मुझे याद न आ सका कि पहली बार मैंने उसे कब देखा था, ताहम मैंने कहा:
“जानती हो मुझे क्या ख़्याल हुआ था? मुझे ख़्याल हुआ था कि तुम फूलों पर चल रही हो।” फिर मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मैंने फ़ौरन कहा:
“नुसरत मैं तुम्हारे हाथों के बारे में एक बात बताऊँ जो तुम्हें किसी ने न बताई होगी!” तब ही मैंने बूढ़े का इशारा साफ़ साफ़ देखा और नुसरत के दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें ज़ोर से दबाया।
“बताऊँ?” मैंने सरगोशी में कहा। इसी वक़्त मुझे बेरूनी कमरे की जानिब से दूर होती हुई करख़त आवाज़ें सुनाई दें और इसी वक़्त नुसरत के हाथ मेरे हाथों में कपकपाए। मैंने देखा कि इस के चेहरे पर नीलाहट दौड़ गई, फिर सुर्ख़ी, फिर उस का चेहरा सफ़ैद पड़ गया। उसने दाँतों से अपने होंट दबा लिए थे और इस की आँखों से सख़्त करब ज़ाहिर था।
“ठीक है,” बूढ़ा जर्राह कह रहा था, “बिलकुल ठीक, शाबाश, अब में उसे ठीक कर लूँगा। अब देखना।”
मैं बूढ़े की तरफ़ मुड़ा। वह नुसरत के पैरों को अपने हाथों से छुपाए हुए था। मैं देखना चाहता था कि उसने क्या किया है लेकिन उसने मुझे झिड़क दिया।
“इधर मत देखो,” उसने कहा, “उसे भी न देखने दो।” मैंने इधर से मुँह फेर लिया। और ऊपर दरख़्त की शाख़ों में लगे हुए जालों को देखने लगा। जर्राही के आलात की हल्की खनखनाहट के सिवा कहीं कोई आवाज़ नहीं थी। मैं इंतिज़ार करता रहा कि बूढ़ा कुछ बोले। आख़िर उसने कहा:
“अब तुम चाहो तो जा के अपना काम करो। बाक़ी सब में देख लूँगा।”
तब मैंने देखा कि नुसरत के हाथ अभी तक मेरे हाथों में हैं। उसने फिर घुटनों पर अपना चेहरा टिका लिया था और इस के हाथ पसेज रहे थे। मैं इस के हाथ छोड़कर उठ खड़ा हुआ और यह मालूम होने के बावजूद कि मुझे देर हो गई है, मैं बेरूनी कमरे की तरफ़ चला।
वहाँ अब सन्नाटा था। नशिस्तें बे-तरतीब हो चुकी थीं। बाअज़ नशिस्तों के पास काग़ज़ के पुर्जे़ पड़े हुए थे जिन पर बड़ी उजलत में कुछ लिखा गया था। मैंने उन पुर्ज़ों को इकट्ठा किया। यह बुज़ुर्गों और मुअज़्ज़िज़ मेहमानों के बाहमी मश्वरे थे। मैंने नशिस्तों की तर्तीब दरुस्त की। फिर पुर्ज़ों की तहरीरों को बमुश्किल पढ़ पढ़ कर यह अंदाज़ा करने की कोशिश करता रहा कि मेरी ग़ैरमौजूदगी में यहाँ क्या हुआ होगा। मैंने उन पुर्ज़ों को तरह तरह से तर्तीब देकर पढ़ा मगर मेरी समझ में कुछ न आ सका, इसलिए कि पुर्ज़ों की तर्तीब में ज़रा सी तबदीली से तमाम वाक़ियात बदल जाते थे। मैंने इस में बहुत वक़्त ज़ाए किया मगर मेरी समझ में कुछ न आ सका। यहाँ तक कि मेरी दिलचस्पी जो इन पुर्ज़ों को देखकर बहुत बढ़ गई थी आहिस्ता-आहिस्ता कम होने लगी। फिर ख़त्म हो गई। फिर नवादिर से आरास्ता इस कमरे में मेरा दम घुटने लगा और मैं वहाँ ठहर न सका। बाहर निकलते हुए मैंने देखा कि दरवाज़े के क़रीब शीशे का गिलास इसी तरह फ़र्श पर पड़ा है। मगर मैंने उसे उठाया नहीं। मैं सीधा दरख़्त की तरफ़ चला।
लेकिन दरख़्त के नीचे सिर्फ़ ज़र्द पत्तियाँ बिछी हुई थीं। मैंने बूढ़े जर्राह के दालान की तरफ़ देखा। दालान ख़ाली था। धुआँ अलबत्ता इस में अब तक भरा हुआ था।
○
इस के बाद से मेरा घर ख़ाली होना शुरू हुआ, तमाम लोग बिला-तवक़्कुफ़ एक के बाद एक ख़त्म होते चले गए और सारे बुज़ुर्ग तो यूँ ख़त्म हुए जैसे कोई चावलों की ढेरी पर गीला हाथ रखकर उठा ले। मैं यह सब देखता था और ख़ुद को ख़ाब की हालत में तसव्वुर कर के बेदार होने की उम्मीदें बाँधता था। कभी कभी मुझे ख़ौफ़ भी महसूस होता था। बहरहाल आख़िर-ए-कार मैंने ख़ुद को एक बहुत बड़े मकान में तन्हा पाया और इस तन्हाई से मानूस होने की कोशिश में लग गया। मैं मकान के हर हिस्से में जाता और हमेशा इस फ़िक्र में रहता कि मकान का कोई गोशा ज़्यादा वक़्त तक मेरे वजूद से ख़ाली न रहने पाए। अगर इन दिनों कोई मुझे देख पाता तो ज़रूर यही समझता कि मैं किसी खोई हुई चीज़ की जुस्तजू में हूँ।
लेकिन एक दिन मुझे ख़्याल आया कि मैं बेरूनी कमरे को भुलाए बैठा हूँ। तो मैं वहाँ पहुँचा। इस का बीच वाला दरवाज़ा हमेशा की तरह खुला हुआ था और इस पर पड़ा हुआ भारी पर्दा आहिस्ता-आहिस्ता हिल रहा था। कमरे में रोशनी कम थी और दौर की नशिस्तें ठीक से दिखाई न देती थीं। लेकिन इस कम रोशनी में भी मैंने देखा कि नवादिर पर गर्द की तह जम गई है। दीवारों पर भी गर्द थी और बुज़ुर्गों की तस्वीरें धुँदला गई थीं। मैंने नवादिर को एक एक करके छूआ जिससे उन पर मेरी उँगलियों के निशान पड़ गए। मैंने बुज़ुर्गों की तस्वीरें हाथ से पूँछें और वह इतनी उजागर हो गईं कि मेरा उनसे बातें करने को दिल चाहने लगा। और जब मैं बोला तो मेरी आवाज़ कमरे में गूँजी। मैं देर तक बातें करता रहा। एक तस्वीर के पास आकर मैं रुका। मेहरबान चेहरा मुझे फ़िक्रमंद नज़रों से देख रहा था। राएगानी के एहसास ने मुझ पर ग़लबा किया और मैंने तस्वीर को अपने माथे से छूआ।
“मुझे सब याद आता है,” मैंने कहा। “मुझे सब याद आता है।”
फ़िक्रमंद नज़रें इसी तरह मेरी तरफ़ लगी रहीं।
“मगर अब कुछ नहीं हो सकता। पहले मुझे नहीं मालूम था कि एक ही मकान उतना आबाद और इतना ख़ाली हो सकता है। यही कमरा...” मैंने कमरे में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, “यही कमरा कभी...” और मैंने देखा कि दरवाज़े के क़रीब फ़र्श पर शीशे का गिलास पड़ा है, “यहाँ तक कि बदकार औरत भी...” उस वक़्त मुझे लिबास की सरसराहाट सुनाई दी और मैंने मुड़ कर देखा।
दूर अंधेरे में डूबी हुई एक नशिस्त से कोई उठकर मेरी तरफ़ आ रहा था। वह कोई औरत थी। बदकार औरत? मैंने सोचा। मगर इतने में उस की आवाज़ सुनाई दी।
“मुझे पहचाना न होगा,” उसने आहिस्ता से कहा। अब वह क़रीब आ गई थी। मैं झुका और मैंने उस के पैरों को छू कर देखा।
“मुबारक हो,” मैंने कहा। “मुझे ख़ुशी है नुसरत कि तुम्हारे पैर ठीक हो गए।”
इस के बाद कुछ देर तक ख़ामोशी रही। फिर मैं बोला:
“उम्मीद है निशान बाक़ी न रहे होंगे।”
उसने भारी पर्दे के नीचे से आती हुई रोशनी की तरफ़ अपने दोनों पैर बारी बारी उठाए।
“निशान भी नहीं रहे,” उसने कहा।
फिर देर तक ख़ामोशी रही जिसे तोड़ना मैंने ज़रूरी समझा।
“अब कुछ दिन में तुम्हें याद भी न रहेगा,” मैंने कहा, “कि कभी तुम किस तकलीफ़ में थीं, निशान होते तो याद रहता।”
“मुझे याद रहेगा।”
“सब शुरू में यही समझते हैं। निशान नहीं तो कुछ याद नहीं रहेगा। न वह ज़ख़म, न वह बूढ़ा जर्राह।”
इस पर शायद वह उलझन में पड़ गई, और अब बोली तो यूँ रुक रुक कर जैसे अपनी किसी ग़लती की जवाबदेही कर रही हो।
“निशान ज़रूर रह जाते। मगर बाबा ने ख़ुद ही... उसने कहा था कि कोई निशान बाक़ी न रहना चाहिए।” फिर उसने दो तीन बार एक ही बात कही। “मैंने कुछ नहीं कहा था।”
“सफ़ाई पेश करने की ज़रूरत नहीं,” मैंने हाथ उठा कर कहा। “मैं तुमको इल्ज़ाम कब दे रहा हूँ। बहरहाल निशान नहीं रहे।” मैंने अपने लहजे की सख़्ती को ख़ुद भी महसूस किया। यह मुनासिब नहीं है, मैंने सोचा, मगर में क्या करता। उस वक़्त मुझको बहुतों के न होने का ग़म था।
“तुम हैरान होगी नुसरत कि मैं इस तरह क्यों बात कर रहा हूँ,” मैंने कहा। “तुम सोच रही होगी कि उस दिन दरख़्त के नीचे तो मैंने तुमसे इस तरह बात नहीं की थी।”
“वह दिन और था,” नुसरत ने कहा। वह अपने पैरों की तरफ़ देख रही थी। फिर उस की आवाज़ और धीमी हो गई, “उस दिन मेरी हालत रहम के काबिल थी।”
अब उसने सर उठा कर मेरी तरफ़ देखा। कुछ देर ख़ामोशी रही, फिर और भी धीमी आवाज़ में बोली:
“वह ग़मख़्वारी का दिन था।”
“और यह?” मैंने कहा और मेरी आवाज़ बुलंद हो गई। “यह ग़मख़्वारी का दिन नहीं? तुम्हें उसी दिन का इंतिज़ार नहीं था?” मैं तेज़ी से आगे बढ़ा और उस के बिलकुल क़रीब पहुँच गया। “मगर मैं तुम्हें बताऊँ नुसरत, मेरी हालत रहम के काबिल नहीं है।”
“यह मैंने कब कहा।” उस की आँखों में अज़ियत और आवाज़ में ख़ौफ़ था। “मैंने तो यह सोचा भी न था।”
आवाज़ उस के गले में घट गई और मैंने देखा कि वह ज़मीन पर गिरने वाली है। मैंने उस का बाज़ू पकड़ कर उस को सँभाला। फिर में उसे छोड़कर पीछे हट आया। उस का चेहरा बेरंग हो गया और वह इतनी देर तक गुमसुम खड़ी रही कि कमरे के नवादिर में से एक मालूम होने लगी। उस के बाज़ू पर मेरी गर्द-आलूद उँगलियों के निशान थे।
अब मुझे कुछ पशेमानी महसूस हुई।
“मुझे अफ़सोस है नुसरत,” मैंने कहा, “यहाँ गर्द बहुत जमा हो गई है और तुम्हें सफ़ैद लिबास पसंद है। तुम पर अच्छा भी लगता है। मैंने बहुतों को उस की तारीफ़ करते सुना है। अगरचे ख़ुद मुझे सियाह-रंग ज़्यादा पसंद है। जानती हो क्यों?” उसने सर उठा कर मेरी तरफ़ देखा और मैंने वह फ़िक़रा दोहरा दिया जो मैंने कहीं लिखा हुआ देखा था और मुझे बार-बार याद आता था:
“इसलिए कि सियाह-रंग अदम का रंग है।”
और राएगानी के एहसास ने फिर मुझ पर ग़लबा किया। मुझे अंदाज़ा नहीं कि इस के बाद नुसरत कितनी देर तक इस इंतिज़ार में रुकी रही कि मैं कुछ और कहूँ। लेकिन आख़िर मैंने देखा कि वह आहिस्ता से मुड़ी और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगी। मैंने शीशा टूटने की घुट्टी घुट्टी सी आवाज़ सुनी और नुसरत को देखा कि दरवाज़े के पास दम-भर को रुकी। फिर उसने भारी पर्दा उठाया। कमरे में बाहर की रोशनी फैली और ग़ायब हो गई।
वह सुबुक क़दम लड़की थी। उस की दूर होती हुई चाप मुझे सुनाई नहीं दी।
मुझे ख़्याल आया कि मकान के दूसरे हिस्से बहुत देर से ख़ाली हैं। तो मैं बाहर चला। दरवाज़े के पास पहुँच कर मैंने देखा कि फ़र्श पर पड़ा हुआ शीशे का गिलास टूट चुका है। मैंने उस के टुकड़ों को पैर से सरका कर एक तरफ़ कर दिया। मैंने यह भी देखा कि बाअज़ टुकड़ों के किनारे किसी चीज़ से आलूदा हैं। कम रोशनी के बावजूद इस चीज़ को पहचानने में मुझे देर नहीं लगी। वह ताज़ा ख़ून था।
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इस के बाद भी मैं बारहा दरख़्त के नीचे से गुज़रा। अब वह फिर ख़ूब ग़नजान हो गया था। उस की शाख़ें पत्तियों से बोझल हो कर इतनी लटक आई थीं कि मुझे उनके नीचे से झुक कर निकलना पड़ता। अगर कभी बे-ख़याली में इधर से गुज़रता तो नरम पत्तियाँ मेरे चेहरे से टकरातीं। कभी कभी में सोचने लगता कि इन शाख़ों को काट दूँ जिनसे मेरी आमद-ओ-रफ़्त में ख़लल पड़ता है।
एक बार मैं बग़ली दरवाज़े की तरफ़ आ रहा था। दरख़्त के क़रीब पहुँच कर में बलाइरादा थोड़ा झुक गया। लेकिन इस के बावजूद उस की पत्तियाँ मेरे चेहरे से टकराईं और मैंने देखा कि शाख़ें कुछ और लटक आई हैं। मुझे झुँझलाहट महसूस हुई और मैंने हाथ मार मार कर शाख़ों को इधर उधर हटाना शुरू किया। मगर शाख़ें पहले से ज़्यादा क़ुव्वत के साथ पलट पलट कर मुझसे टकराती थीं। मेरे चेहरे और गर्दन में खुजली होने लगी और मैंने झटके दे देकर कई शाख़ें तोड़ डालें। बहुत नीचे झुक कर में इस वबाल से निकल सका और जब मैं सीधा खड़ा हो कर अपने बदन को झाड़ रहा था तो मैंने देखा कि दरख़्त के तने से टेक लगाए कोई बैठा है। दरख़्त की घुन्नी छाओं में उस की सूरत नज़र न आती थी लेकिन मैंने उसे पहचान लिया।
“नुसरत!” मैंने उस की तरफ़ बढ़ते हुए कहा। क़रीब पहुँच कर मैंने देखा कि उस के लिबास का रंग स्याह है।
“नुसरत!” मैंने आहिस्ता से पुकारा और मेरी नज़र उस के चेहरे पर पड़ी। उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल दिखाई नहीं दे रहे थे। मेरी समझ में कुछ न आ सका। मैंने झुक कर ग़ौर से देखा। उस के चेहरे पर सूखी हुई ज़र्द पत्तियाँ निक़ाब की तरह पड़ी हुई थीं। मैंने चाहा कि इन पत्तियों को उस के चेहरे पर से हटा दूँ। लेकिन मैंने देखा कि यह पत्तियाँ मकड़ी के जाले में लिपटी हुई हैं और मेरा बढ़ता हुआ हाथ रुक गया।
“नुसरत!” मैंने फिर पुकारा। मेरी आवाज़ धीमी होती जा रही थी। मैंने देखा कि स्याह ओढ़नी उस को पैरों से शानों तक ढके हुए है। उस का सिर्फ़ एक हाथ बाहर निकल कर ज़मीन पर टिका हुआ नज़र आ रहा था। उस की उँगलियों पर गर्द जम गई थी और ज़मीन पर बेशुमार लकीरें खिंची हुई थीं।
“नुसरत,” मैंने कहा, लेकिन यूँ जैसे अपने आपसे मुख़ातब हूँ। मैंने उसे हिला कर चौंकाना चाहा। मैंने चाहा कि उस के पैरों को आहिस्ता से जुंबिश दूँ। तब मैंने देखा।
उस के पैरों के ऊपर पड़ी हुई स्याह ओढ़नी बदहैयती के साथ उभरी हुई थी। मैंने उसे नहीं छूआ। मैं जानता था कि स्याह ओढ़नी के नीचे उस के पैर मसख़ हो चुके हैं।
मैंने चारों तरफ़ देखा। बूढ़े जर्राह के दालान पर जाकर मेरी नज़र ठहर गई। उस के फ़र्श पर छत का मलबा ढेर था। कहीं कोई आवाज़, कोई जुंबिश नहीं थी। दरख़्त के नीचे सर्दी अचानक बढ़ गई थी और एक-बार मेरा बदन ज़ोर से कपकपा या।
मैं उठा और भागता हुआ बग़ली दरवाज़े में दाख़िल हो गया। चंद क़दम अंदर जाने के बाद में पल्टा। मैंने दरवाज़े के दोनों पट मज़बूती से पकड़े और उन्हें आपस में मिला दिया। बंद होते हुए दरवाज़े की आख़िरी झुर्री से झांक कर मैंने देखा कि आया नुसरत अब भी इसी तरह बैठी है। वह अब भी इसी तरह बैठी थी।
मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया और फिर वह मुझसे कभी न खुला।
My dreame thou brok’st not, but continued’st it,
Thou art so truth, that thoughts of thee suffice.
To make dreames truth; and fables histories.
JOHN DONNE
عنانِ او نہ گرفتند، از گزار برفت
[“The rider bearing the eternal treasure appeared on the path, / No one bade him halt. He travelled on.” Translation from Farsi by Muhammad Umar Memon.]
لا علم مقتبس از کاغذاتِ فضل ﷲ حروفی