उस वक़्त डूपट्टे की गातियाँ बाँध कर वे सब ख़ुरशीद-रुख़्सार सिम्त-ए फ़लक उड़ीं इधर तो आफ़्ताब बुलंद हो रहा था उधर ये महर-पैकर ज़रीन-लिबास जो परवाज़-कुनान हुईं गोया हज़ारों आफ़्ताब आज के दिन निकल आए और ये ज़मीन के चाँद फ़लक पर पहुँचे थे कोई माहरू पाँच कोस बुलंद हुई सन्नाटा भर कर इस से ऊँची निकल गई कोई तीन कोस पर जा कर थर्राने लगी यह मालूम होता था कि ऐवान चर्ख़ ज़बर जद्दी में क़ंदीलें लटकाई हैं या हूरें जन्नत से उतर कर बहर सिपर बरू-ए हवा आई हैं जब सबने परवाज़ की मल्लिका गौहर-अफ़शाँ बुलंद परवाज़ हर एक से ज़्यादा बुलंद हुई कि जिला साजिर दूरबीन सेहर की लगा कर देखते थे लेकिन नज़र ना आती थी हर सिम्त ग़ुलफ़ुला तहसीन-ओ-आफ़रीन बुलंद था उस वक़्त कौकब ने बुर्रान शमशीर-ज़न से कहा ए फ़र्ज़ंद तुम भी अपनी तेज़ी दिखाओ और आज इस क़दर बुलंद हो कि तिलिस्म-ए होशरुबा से कोई निशानी लाओ बुर्रान ने हस्ब-ए इरशाद-ए पिदर दुपट्टे की गाती बाँध कर अपने जोड़े को खोला और अख़्तर मर्वारीद यह मोती गुंबद-ए सामरी का है हज़ार दर हज़ार सेहर इस से पैदा होते हैं और साहिरान-ए आलम पर जिसके पास यह मोती हो वह ग़ालिब रहता है निकाल कर हाथ पर रखा ज़िवा उस की मिस्ल-ए शुआ-ए आफ़्ताब के फैली उसने उँगली से इशारा किया कि वह शुआ चिराग़ की लौ की तरह कटने लगी और ज़मीन पर लच्छे हो कर गिरती थी अजब नैरंग उस वक़्त ज़ाहिर था गोया सितारे टूट कर गिर रहे थे उतनी लौ काटीं कि ज़मीन से बढ़ते बढ़ते आसमान तक एक लड़ी मोती की बँध गई फिर तो वह गौहर-ए ताबिंदा-ए सेहर-ए हुस्न लड़ी थाम कर उड़ी अख़्तर मर्वारीद से लौ बन कर गिर रही थीं और ज़मीन तक आते आते वे मोती हो जाती थीं क्या सैर हो रही थी कि बरू-ए हवा हज़ारों मशाल और चिराग़ रौशन थे या सितारे टूटते थे और ज़मीन पर मोती बरसते थे और लड़ियाँ मोतियों की ज़मीन से आसमान तक बँधती थीं यह ज़ाहिर था कि मश्शाता-ए क़ुदरत ने मोती का सहरा अफ़्लाक के सर पर बाँधा है उन्हें लड़ियों में रह-मुहर-ए सिपिहर-ए ख़ूबी बाल-ए शौक़ खोले बुलंद होती जाती थी और अपने रुख़्सार-ए ताबनाक से ख़ूर्शीद-ए दरख़्शाँ को शर्मिंदा फ़रमाती थी या दाम-ए-ज़ुल्फ़ में ख़ातिर-ए ख़िलक़त-ए हवाई फँसा कर बर्बाद करती थी वाह वाह और अहाहा का शोर चार तरफ़ से बरपा था और हर कि दमा ऊपर ही को देखता था कि
मसनवी
फ़ुर्सत जो ज़रा मिले ख़ुदा-साज़ शहपर में भरी हवा-ए परवाज़
चाहा सैर-ए-जहाँ को देखूँ कैफ़ियत-ए आसमान को देखूँ
उठी वह मिसाल दर-ओ-बीमार पुरान हुई शक्ल रंग-ए रुख़्सार
जल्द उड़ के वह दूद-ए आह की तरह गरदूँ पे गई निगाह की तरह
परवाज़ का हौसला निकाला देखा चुप-ओ-रास्त ज़ेर-ओ-बाला
जिस-दम बुलंद इस दर्जा हुई कि गीरी बराबर-ए दाना-ए-ख़रदल के नज़र आने लगी कि
बैत
फिर बरू-ए बहर का आना मुहाल था सारा सवाद चहरा-ए लैला का ख़ाल था
इस बुलंदी पर मानिंद-ए नसीम या मानिंद-ए ख़ुरशीद वह रश्क-ए नाहीद थर्राती और पैके-ए निगाह दौड़ा कर तमाम आलम की ख़बर गीरान हुई तिलिस्म-ए आईना-ओ-तिलिस्म-ए हज़ार बुर्ज और तिलिस्म-ए सोसन-ओ-तिलिस्म-ए होश-रुबा सब पेश-ए निगाह थे हर सिम्त की सैर करते करते तिलिस्म-ए होश-रुबा में नया तमाशा नज़र आया यानी एक तिलाई जाल को बरू-ए हवा उतना देखा कि सिरा उस का गुंबद-ए अन्वर में बँधा है और दूसरा दरया-ए ख़ून-रवाँ के क़रीब एक बारगाह के कलस से अटका हुआ है और हज़ार-हा आदमी इस में लटकता है बाज़ इस में सिसकते हैं बाज़ का दम घुटता है बाज़ तड़प कर मर गए हैं और एक मैदान में लश्कर उतरा है पहरा चौकी मुईन है सूलियाँ खड़ी हुई हैं जल्लाद बा शमशीर-ए बरहना खड़े हैं एक शोर मचा है यह देखकर हैरान हुई कि माजरा क्या है और आगे बढ़ी नागाह निगाह उस की उमरो पर पड़ी एक शख़्स-ए अजीब उल-ख़िलक़त को जाल में लटके देखा समझी यह कोई तिलिस्मी जाल में फँस गया है जब तो शक्ल अजीब उस की है कि तोमड़ी सा सर ज़ीरे की ऐसी आँखें कुलचे की तरह गाल मोती की तरह दाँत मुँह गर्दन फँसे से जो खुला है तो ज़ाहिर में गर्दन तागे के मानिंद है रस्सी की तरह हाथ पाँव हैं छह गज़ का धड़ नीचे का है तीन गज़ का धड़ ऊपर का है यह देखकर सोची कि इस बेचारे को इस आफ़त से छुड़ाना चाहिए और यही निशानी इस तिलिस्म की अपने बाप के पास ले जाना चाहिए ऐसा कुछ दिल से सोच कर अख़्तर-ए मर्वारीद की लौ खड़े खड़े बरू-ए हवा काटी और इतनी लौएँ जमा हुईं कि आफ़्ताब इकट्ठा हो कर बन गईं इस आफ़्ताब में ग़ायब हो कर यह भी चली जाल में जो लोग फँसे थे वे गोया दिल से दुआ अपनी रिहाई की माँग रहे थे ज़बान-ए हाल से कहते थे कि ए ख़ालिक़ ख़ीत उल-अब्यज़ सन ख़ीत उल-अस्वद हमको इस दाम-ए बला से रिहाई दे कि बमक़्तज़ा-ए
नज़्म
[पाँच अशआर का नज़्म यहाँ काटा गया है।]
इसी हंगाम में कि ख़ुरशीद-ए हयात उनका लब-ए बाम था वह माह-ए तमाम आफ़्ताब बनी हुई जाल पर आकर थर्राई और गर्मी आफ़्ताब-ए सेहर की जो पड़ी कड़ियाँ जाल की फुकने लगीं और आफ़्ताब यकायक शक़ हुआ बुर्रान ज़ाहिर हो कर मिस्ल-ए शहबाज़ के गिरी उमरो जाल से छूट कर गिरा चाहता था कि भागूँ कि उसने पंजे में वाबा और संभल कर जाया चाहती थी कि जाल की कड़ी टूटने से तमाम मुक़य्यद पिस्ती की तरफ़ चले लेकिन गर्दन हर एक की फँसी रही क्योंकि सब कड़ियाँ तो उस की दरुस्त थीं और ग़िर्बाल जिसका यह सेहर है वह भी ज़िंदा है यह सब क्योंकर रिहा होते दूसरे यह कि इस को सिर्फ़ ले जाना अमरो का मंज़ूर था इसलिए जाल को टुकड़े टुकड़े ना किया अल-हासिल जाल जैसे ही गिरने लगा साहिरों ने ग़ौग़ा मचाया अफ़्रासियाब दौड़ा और उड़ कर जुता जाल कि टूट गया था इस को तो छोड़ दिया और जो दो एक क़ैदी इस टुकड़े में थे वे जो गिरने लगे सेहर पढ़ा कि पंजों ने सेहर के उन्हें रोका बाक़ी दूसरा सिरा जाल का शाह-ए तिलिस्म ने रोक कर नारा किया ए ग़ुर्बाल चल वह एक तरफ़ से उड़ कर आया और जाल को रोका शाह-ए तिलिस्म-ए जाल उस को देकर आफ़्ताब की तरफ़ झुटा बुर्रान कुछ दूर गई थी कि उस को जा कर घेरा और शाह के आने से बहुत से साहिर दौड़ पड़े बुर्रान ने मर्वारीद की लौएँ जो काटीं वह शोला बन कर साहिरों पर गिरीं कि उनका रख़्त-ए हस्ती जलने लगा और साहिरों के मरने का ग़ुल बरपा किया आग पत्थर बरसने लगे लेकिन शाह-ए जादूवान अॹदर बन कर बुर्रान पर चला और क़ुल्लाब-ए आतिशीन ऐसे झोड़े कि इस मूज़ी के हाथ से ख़ुदा की मार वह सरापा-नाज़ ज़ख़्मी हुई असर-ए आतिश-ए दहन-ए अॹदर के छाले जिस्म में पड़े लेकिन जी कड़ा कर के उमरो को हाथ से ना छोड़ा और अख़्तर-ए मर्वारीद शाह-ए-तिलिस्म पर खींच मारा वह भी जुस्त कर के अलग हुआ अगर पड़ जाता तो सीना तोड़ जाता मगर उस की ज़ौ पड़ने और पास के निकल जाने से अफ़्रासियाब अॹदर से बसूरत-ए असली हो गया बुर्रान ने उड़ कर अपना मोती फिर हाथ में रोका और शाह कमंद-ए सेहर लेकर उस की सिम्त चला उसने सेहर पढ़ कर दस्तक दी कि दो पुतले बावर के उड़ते हुए आए और शाह के हाथ में लिपट गए अफ़्रासियाब ने उँगलियाँ चमकाईं कि बिजलियाँ तड़प कर पुतलों पर गिरीं दोनों जल गए सदा आई कि हक़-ए नमक-ए कौकब से हम अदा हुए शाह-ए तिलिस्म फिर कमंद लेकर दौड़ा अज़-बसकि यह बादशाह-ए शहनशाह-ए जादूवान और मालिक-ए तिलिस्म है बुर्रान उस की हम-सर नहीं अब की कमंद का वार ना रद्द कर सकी उसने कमंद में उस को फाँसा मगर ऐसी ज़बरदस्त यह साहिरा है कि तड़प कर निकल गई हलक़े उसने कमंद के तोड़े और कमंद के डोरे तमाम आज़ा में पैवस्त हो गए ख़ून सारे जिस्म से जारी हुआ और जा-ब-जा बदन फ़िगार हो गया उधर अफ़्रासियाब ने खींचा इस तरफ़ उसने ज़ोर किया फिर यह औरत-ए नाज़ुक-अंदाम वह मर्द कोई बाज़-ओ-आख़िर खींचती हुई चली