विश्व के रहस्य के बारे में प्राचीन काल से ही बुद्धिमान मनुष्य खोजने में जुटा हुआ है। आज तक कई नए नए सिद्धांतों, मतों की घोषणा कर चुके है, परंतु आज यह इस स्थिति में पहुँच गया है कि, उसको आज विश्व और भी विशाल होते दीखरहा है। इसका फैलाब बहुत तेज गति से हो रहा है। और आज मानव, प्रकाश की गति का 1% भी ठीक से प्राप्त नहीं कर पाया है । तो उसको मापना उसके सोच के बाहर की विषय बन गया है।
आजतक इंसान कितने भी अत्याधुनिक आविष्कार किया है परंतु मृत्यु सभी के लिए एक चुनौती बनकर रह गया है। जन्म और मृत्यु के सीमा से बाहर नहीं जा पाया । इसलिए वो दुखी है, चिंतित है, परेसान है। शांति के शब्द उसके लिए निरर्थक है।
इतने आविष्कार के बावयुद भी मन, बुद्धि, आदि सूक्ष्म तत्व और उसके स्वभाव प्रेम, भय, घृणा, काम, क्रोध लोभ, मोह आदि विकारों की विश्लेषण के लिए उसके पास कोइभी साधन नहीं है।
विज्ञान के प्रति मेरे गहरी रुचि होने के बाद भी जब इसके संकुचित सीमा मेरे अंतर्मन की गुंथी को सुलझाने में असमर्थ रहा , तब मुझे आध्यत्मिकता के प्रति रुचि होने लगा । और इसके द्वारा मेरे हर प्रश्न के उत्तर मैंने पाया। और इसको विश्लेषण के लिए वेदांत ही सर्वोत्कृष्ट मार्ग के रूप में मैंने पाया। पर, हो सकता है आप इससे सहमत हो न हो, ये आप की मती और स्थिति के ऊपर निर्भर करता है।
वेदांत के अनुसार सारा विश्व ईश्वर के संकल्प मात्र है। और वह अपरिसीम है उसे सीमा से नहीं बंधा जा सकता। भौतिक विज्ञान इसके ऊपर अनिश्चित है । पर वेदांत इसका उदाहरण मन के स्वरूप के साथ देता है। जैसा मन की परिसीमा अनंत है पर मेरे अंदर है और में उसको माप नहीं सकता। फिर ईश्वर के संकल्प को कैसे नापें ।
मेरे स्वयं के बारे मे, आज भौतिक विज्ञान केवल नाम और रूप के विश्लेषण तक ही सीमित है, मृत्यु ही मेरे अस्तित्व का अंतिम परिसीमा है, उसके आगे क्या है, उसके बारे में विज्ञान मौन साधा है। पर वेदांत मेरे अस्तित्व अर्थात मुझे अविनाशी बताया है। नाम रूप शरीर ये कितने बार वस्त्र के तरह बदल चुका हूँ पता नहीं। केवल मैं नहीं आप भी ............ |
ईश्वर के बारे में आज भौतिक विज्ञान अनिश्चित है। पर वेदांत, ईश्वर से मुझे एक ही पल में मिलाने में समर्थ है , और कईओं को मिला चुका है, जैसे पानी का एक बूंद समुद्र में मिलता है। इसलिये में वेदांत शास्त्र का चिर ऋणी हूँ | (ये तो आप-हम के व्यावहारिक दुनिया के लिए है उसके लिए ऋणी अऋणी कुछ भी नहीं)
ॐ शांति : शांति: शांति :
संसार के जो भी चीज मिली हुई है वो सब छोड़ने के लिए ही है | उन सबको सदउपयोग कर के छोड़े या रखे रखे छोड़े, मृत्यु आते ही एक झटके में सब कुछ छोड़ना ही पड़ेगा सब छीन जायेगा | कभी न छूटने वाला एक परमात्मा ही है | #बापूजी
संसार के चीजों को सदुपयोग करते करते आसक्ति रहित हो कर वैरग्य पूर्वक छोड़े तो साक्षात्कार हो जायेगा और आसक्ति से संग्रह करे तो मृत्यु अंत में छुड़ा ही लेगा और 84 योनी ने भटकाएगा|
जैसे मां बेटी को पराई मान कर भी वात्सल्य से पालन पोषण करती है , ऐसे ही संसार पराई है ऐसा मान कर इसका उपयोग करो |
अगर संसार के इन नश्वर चीजों के प्राप्ति के लिए समय और आयु खर्च कर रहे हैं तो बहुत बड़ा घाटा कर रहे हैं| | समय देकर सबकुछ प्राप्त कर सकते हो परन्तु सब कुछ देकर समय वापस प्राप्त कर नहीं सकते |
सम्राट के साथ राज करना भी बुरा है न जाने कब रुला दे| फकीर के साथ भीख मांग कर भी रहना, न जाने रब से कब मिला दे | संसार में सम्राट भी अपने बराबरी से नीचे रखेगा क्यों की दूसरा उसके बराबर सम्राट बने वो कभी नहीं चाहेगा| परन्तु फ़क़ीर अपना अनुभव दे कर अपनि बराबरी करने में देर नहीं करते |
संसार माने - संसरति इति संसार अर्थात जो एक जैसा कभी रहा नहीं , हमेसा ही बदलता रहता है | उसका नाम संसार है |
जिसको कभी छोड़ नहीं सकते वो परमात्मा है। जिसको कभी रख नहीं सकते वो माया है संसार है//
संसार चाह होने मात्र से बैमानी, हेराफेरी करना ही पड़ेगा दुर्गुण ग्राश करलेंगे | परन्तु ईश्वर की चाह होने मात्र से सद्गुण उभरने लगेंगे |
संसार और शरीर में आसक्ति हुई तो दुःख देगी ही , इसलिये भगवान में आसक्ति करो।
संसार से सुख की चाह , शरीर से मजा लेने की इच्छा और शरीर को मैं मानने की बेवकूफी से, ईश्वर से हम दूर हो जाते है।
संसारमें जो कुछ बड़ी उपलब्धि होतीं हैं या मिलती हैं वो सब माया की कृपा है| गुरू की कृपा नहीं, गुरू की कृपा कभी खिलोने देकर फंसाना नहीं चाहती। गुरु कृपा तो ८४ से छुड़ा कर आत्म पद में प्रतिष्ठित करा देगी|
अपना अप्पा इतना महान है कि उसके आगे सारा संसार की कीमत 2 कौड़ी के बराबर का भी नहीं
संसार सपना है | ना रात का सपना सच्चा है , ना जाग्रत संसार सच्चा| जिससे ये सारा संसार दिखता है वो परमात्मा ही सच्चा है।
अज्ञानी, शंकाशील, अहंकारी मनुष्य संसार चक्र में फस जाता है|
हे प्रभु! मुझे संसार की लालसा हो तो उसको जला दे, और तेरे लिये मेरा हृदय में लालसा भर दे।
संसार और शरीर कभी एक जैसा रहा नहीं यह सदा बदलता रहता है, आप इसको जानने वाला साक्षी एकरस चैतन्य स्वरुप हैं।
अंतःकरण से संसार की लालसा हटाने के लिए, उसमे प्रयत्न पूर्वक धीरे धीरे ईश्वर प्राप्ति की लालसा को भरना होगा।
संसार के सारे सहारे ठुकराने के बाद ही अनंत का सहारा मिलता है।
संसार की लालसा हो तो जल जाए, ईश्वर प्राप्ति का लालसा दिन दोगुने रात चौगुनी हो कर बढ़ता रहे |
हम संसार को भी रखना चाहते हैं, शरीर की इज्जत आबरू भी, और ईश्वर का भजन भी करना चाहते हैं इसलिए सफल नहीं होते।
ईश्वर प्राप्ति की भूख बढ़ाये, संसार की चीजें मिल भी गई तो क्या है, संसार मिलकर बिछड़ने वाला है, उसका सदुपयोग करें, सत्य बुद्धि करके उसमें फंसे नहीं।
बनते बिगड़ते हुए ये संसार| ऐसा कौन सा तत्व है जो सब कुछ बदलते हुए भी नहीं बदलता, वो कौन है?
जो ज्यादा भटकते और राग द्वेष आदि करते हैं उन केलिए संसार कांटे की झड़ी है/
रोज थोड़ी देर संसार को भूलकर उस अंतर आत्मा में गोता लगाए, हरि ॐ का गुंजन कर के हरि और ओम के बीच में विश्रांति पाए|
अपना आत्म स्वरुप को न जानकर इस संसार में सुख दुख की चक्की में सब पीस रहे है।
ईश्वर के लिए सबकुछ छोड़ देना पर संसार के लिए ईश्वर को नहीं
मूढ़ वही जो संसार के नश्वर चीजो से सूखी होना चाहता है/
संसार का सुख दो घडी का दिखता है पर सजा जीवन भर रहता है |
संसार को सच्चा मानने से मन बुद्धि को आत्मा में टिकने नहीं देता, पर सार का सार बात यह की देर सबेर आखिर आत्मा में आना ही है।
संसार ईश्वर का महा पाठशाला है, यहाँ सब कुछ प्रत्यक्ष है, जैसी कर्म करोगे ऐसा ही फल मिलेगा।
जिससे सारा संसार टिका हुआ है उस आत्मदेव को पाना कर्तव्य है, बाकि सब कुछ जो भी किया वह अकर्तव्य है /
संसार के सारे संबंध एक दिन मिटने वाला है और आत्मा के साथ का संमंध सदा अमिट है।
अज्ञान से संसार आश्रित हो कर , ब्रह्म को कभी प्राप्त नहीं सकते | ब्रह्मज्ञानी के ज्ञान का तत्व उपदेश से संसार के मिथ्यात्व के अभ्यास से प्राप्त कर सकते हैं |
जो संसार के भोगों में गिरता है वो खुद मर जाता हैं।
आत्मा द्वंदातित है , शरीर और संसार जन्म- मरण, सुख-दुःख, लाभ-हनी,उत्पत्ति-प्रलय आदि द्वंद से संयुक्त है।
विचार रहित कर्म करने से संसार के दलदल में फंस जाते है। अतः विचार संयुक्त कर्म करें|
संसार के चीजो को न पकड़ना है न छोड़ना है, उन सबका उपयोग बूद्धि से व्यवहार करें |
गुरु को रिझाओ तो संसार रिझा हुआ ही मिलेगा |
संसार में राग भय और क्रोध के कारण हम ईश्वर से दूर है|
परमात्मा की प्राप्ति ही पूर्ण प्राप्ति है, संसार की प्राप्ति चिरकाल तक भी अधूरा है |
संसार हमारा सिर्फ खिलौना ही है और कुछ नहीं । अबोध बालक ही खिलौनों से भयभीत होता है, आसक्ति करता है, विचारशील व्यक्ति नहीं ।
संसार का पतंगिया छाप मजा कब तक लोगे आखिर पतंग कि नाइ जल मरोगे |
संसार में सभी चीजों का अहंकार बना ही रहता है, चाहे वो शराबी हो, धनवान हो, रागी हो, द्वेषी हो, भक्त हो, धर्मात्मा हो, दुरात्मा हो।
संसार का सार शरीर है, शरीर का सार इन्द्रियां, इन्द्रियों का सार मन है , मन का सार प्राण है , प्राण का सार बुद्धि है ,बुद्धि का सार अहम है, अहम् का सार जीव , जिव का सार चिदावली है, चिदावली का सार संवित है |
संसार की प्राप्ति होना मतलब, समय को बर्बाद करना है|
अपने आप को कोई भी आप से छीन नहीं सकता| अगर देव नाराज हो गए तो आपसे संसारी वस्तु छीनेंगे या स्वर्ग नरक में भेज देंगे पर वो भी सदा के लिए टिकेगा नहीं| और आप मिटेंगे नहें |
आंख खुलते ही जैसे सपना गायब हो जाता है , ऐसा ही ज्ञान होते ही संसार गायब |
संसार की सुख दाद की खुजली जैसी है/
हमारे ऊपर विपत्ति तब आती है, हम जब संसार को सच्चा मानते हैं | और अपना स्वरुप को भूल जाते है |
अगर संसार में चतुराई की तो हमें जन्मांतरों में भटकाएगा |
संसार की सारे पदार्थ मिलकर भी गुरु जी के निगाह के बराबर आत्म शांति नहीं दे सकता//
संसार में, मैं बुद्धि जितना ज्यादा , उतना ही भय भी ज्यादा|
हर रोज संसार को छोड़ते हैं, छोड़े बिना सो भी नहीं सकते|
संसार की उपयोग कर परमात्मा प्राप्ति के लिए भगवान ने संसार बनाई है, यहाँ डूब मरने के लिए या फंस मरने के लिए नहीं है |
संसार में दुख के प्रसंग का रुपांतरण को ही सुख मानते हैं | असली आत्म सुख का पता ही नहीं /
परमात्मा विचार में मन अगर लग जाए, तो मनुष्य के लिए संसार तैरना आसान है|
चित्त क्या चाहता है ? - सुख | पर ज्यादातर लोगों को परम सुख का आभास नहीं, और संसार नश्वर है और नश्वर संसार शाश्वत सुख कभी दे नहीं सकता | अतः शाश्वत सुख के लिए संत शरण में जाना पड़ेगा
सावधान ! बुद्धि को कहां लगा रहे हैं ? संसार के चीजों में या परमात्मा प्राप्ति में? बुद्धि को बुद्धिदाता के प्राप्ति में न लगाया और चतुराई से संसार के प्राप्ति में लगाया तो अंत में संसार निचोड़ कर फेंक देगा
संसार सतत परिवर्तनशील है इस को एक जैसा रखना असम्भव हैं, और परमात्मा सर्वव्यापक है इसको छोड़ना असंभव है| सरे ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई जगह नहीं जहाँ परमात्मा नहीं |
संसार में न तो सुख है और न तो दुख है| क्यूँ की संसार जड़ है | हमारे वृत्ति में ही सुख दुख की वृत्ति उत्पन्न होती है |
सिनेमा को सच्चा मानना बेवकूफी है, इसी तरह संसार/
संसार जड़ है | किसी को बाँधने का इसकी ताकत नहीं | अहंता ममता बुद्धि से ही बांध जाते है | यह बंधन स्व निर्मित है |
संसार की चिंतन राग द्वेष लायेगा| क्यों की संसार की वस्तु सब को एक जैसा मिलेगा नहीं, उस का प्राप्त हुआ तो राग और पाने में कोई विघ्न पैदा किया तो उसके प्रति द्वेष होगा|
शरीर को में और संसार को सच्चा मानने वाला कभी सुखी हो नहीं सकता | शरीर को नश्वर और ईश्वर को अपना मानने वाला कभी दुखी हो नहीं सकता |
संत पुरुष का दया होता तो सत स्वरूप ईश्वर का ज्ञान हो जाता , ये उनकी किसी दासी की दया से संसारी लाभ मिलता है |
तुच्छ संसार सुख के लिए अपनी अनमोल आंतरिक सुख का त्याग न करें | संसार की सुख स्वल्प कालिक है आंतरिक सुख शाश्वत है |
संसार सबको एक जैसा मिले यह संभव नहीं | परन्तु पूर्ण परमात्मा सबको एक जैसा ही मिलता है|
संसार के साथी स्वार्थ के हैं, और पक्के विरोधी परमात्मा के हैं| संसार के साथी साथ तब तक रहेंगे जब तक की उनकी स्वार्थ पूर्ति ,होता रहेगा|
आत्म हीरे को छोड़कर संसार की छोटी छोटी बातों में जो उलझते रहते है, वो अपना जीवन बर्बाद कर देते है |
संसार की चीज कितने भी मिले उसे पाकर सम्पूर्ण दुख मुक्त नहीं हो सकते |
जीवन में विघ्न बाधा आये तो उपकार मानो क्यूँ की हमारा संसार की आसक्ति तोड़ती है|
संसार को सच मानने से संसार बंधन बढ़ता है, मिथ्या मानने से आशक्ति छूटती है//
जो रखने पर रहे नहीं वो संसार है प्रेयस है , जो छोड़ने पर छूटे नहीं वो ईश्वर श्रेयस है//
इतनी संसारी प्रवृति ना करे कि थकां दे और इतने आलसी भी ना बने कि तत्व का चिंतन करने की योग्यता ही नष्ट हो जाये।
संसार की चीज बिजली की चमक की नाई क्षयं भंगुर है
संसार की सारे वस्तु किसी एक को नहीं मिलेगा एक अंश ही मिलेगा पर ईश्वर मिलेगा तो पूरा ही मिलेगा, और सबको एक जैसा ही मिलेगा |
सारा संसार सपना है” इस मन्त्र का जो जितना अभ्यास करेगा और समझ लेगा वह मनुष्य उतना ही महान होगा |
मन की सुखाकार और दुखाकार वृत्ति से हम शुद्ध बुद्ध चैतन्य आनंद स्वरुप होते हुए भी संसारी बन जाते हैं |
भगवत भजन तो करें और उसके बदले कुछ संसार की चीज मांगे नहीं, ,तब जाकर भजन का रस प्रकट होता है |
साधन भजन का लोक दिखावा न करें , जैसे धन को लोग छुपाते है ऐसे ही छुपायें , नहीं तो संसार उस को लूट लेगा | साधन भजन के बदले सांसारिक चीज जाचना कर आप के आत्मा खजाना को क्षीण कर देंगे |
संसार में गड़बड़ी ही तुम्हें परमात्मा और सत्संग की और ले आता है, संसार अनुकूल हो तो तुम्हारा मन सत्संग में आने ही नहीं देगा, तरह तरह का बहाना बना लेगा|
हम अपना अंगों का जैसे देखभाल करते है इसी तरह संसार के साथ व्यवहार करे |
अविवेकी मलिन बुद्धि विषय वासना में फसकर क्षण भंगुर संसार में रस लेना चाहता है और पवित्र बुद्धि वाला विवेकी पुरुष अविनाशी शास्वत परमात्मा सुख में डूबा रहता है
हम आप की फल फूल सांसारिक चीजों की स्वीकार इसलिए करते हैं की आप भी थोड़ा हमारा आत्म खजाना स्वीकार कर लो |
परमात्मा में रुचि हो तो संसार की प्रतिकूल परिस्थिति में भी साधक अपनी मंजिल तय कर लेता है और परमात्मा में रुचि न हो तो अनुकूल समय को वह भोग विलास में गंवा देता है
जैसी मकड़ी अपनी जाल में फस मरती है ऐसी ही राग द्वेष की जाल में जीव फस मरती है | ऐसे लोग के लिए संसार झाड़ी है|
जिसे जितना, संसार की सुख की इच्छा, उसका जीवन इतना ही तुछ, जिसको कोई इच्छा नहीं तो वो सहनसाह है |
जैसे नाव में पानी नहीं होना चाहिए, पानी में नाव होने चाहिए , ऐसे ही संसार में रहे पर अपने अंदर संसार को आने न दे |
संसार के उपलब्धि में सुख नहीं, अपने आत्मा में आना ही सुख है |
संसार के चीजो को उपयोग करें उपभोग नहीं |
अपने सदगुरु से सत की प्राप्ति करें संसार की जाचना नहीं|
संसार का सुख आत्म सुख से वंचित करता है /
संसार का ऐसा कोई सुख नहीं जिसमे गंदगी नहीं/
जो भगवान का समय संसार को देता है संसार उसको थपेड़े देता है /
संसार को सच्चा मानु या न मानू वो मेरे हाथ की बात है |
संसार सदा सरकने वाली है , यहाँ इन चीजों का उपयोग करें, उनमें आसक्ति न करे|
संसार के विषय वासना में न फंसें, मन को ईश्वर की और ले जाए//
सचमुच ईश्वर में हमारी प्रीति है, या नश्वर पदार्थो में | चित में संसार का राग होता है और भजन ईश्वर का करते है, इसलिए ईश्वर साक्षात्कार में लम्बा समय लग जाता है।
संसार को जानने के लिए संशय, सवाल करना पड़ेगा | सत्य को जानना हो तो सतगुरु को स्वीकार करना पड़ेगा। #बापूजी
जब हम ईश्वर से जुड़े होते हैं तभी लोग हमें प्रेम करते है अगर हम संसार से आकर्षित होकर उससे जुड़ जाते है तो लोग दूर हो जाते है।
बुद्धि को हमने शरीर के भोगों मे, संसार के सुखों में खर्च कर दिया तो परमात्मा से प्रीति नहीं होगी। #बापूजी
शरीर, इंद्रियां, संसार बेवफ़ा है | बेवफ़ा से प्रीति हटके ईश्वर में प्रीति हो जाए।
संसार की आसक्ति दुख परेशानी देगी प्रभु की आसक्ति प्रभु बना देगी
जिनको संसार सच्चा लगता है उनके लिए उपाधि का महत्व होता है | जिसका अंतः कारण नीच है वो छूटने वाली चीजों में आस्था करता है | #बापूजी
समाधि सुख में मन, बुद्धि इन्द्रिय के सामर्थ्य का निर्माण होता है , संसार सुख में इन के सामर्थ्य का नाश/ #बापूजी
संसार को सच्चा और अपने शरीर को में मानने से हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं |
जो सदा रहता है वो में हूं , जो बदलता है वह शरीर है, संसार है |
तबला को जैसा काम में लेने के बाद उतार देना यह बुद्धिमानी है | ऐसे ही बुद्ध पुरुष संसार के साथ करता है।आवश्यक हो तब काम में लेता है फिर किनारा कर लेता है|
साधक बनकर गुरु आज्ञा पालन न करने से साक्षात्कार नहीं होगा | न संसार के सुख मिला और न ही ईश्वर , अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट |
संसार सदा रहता नहीं इसलिए मन उसके पीछे लगा रहता है, परमात्मा सदा मौजूद है इसलिए उसका परवाह नहीं करता|
संसार की चीज जब तक नहीं मिला तब तक मन में लालसा होती है मिल जाने के बाद बोझा लगता हैं #बापूजी
अंतःकरण, बहिकरण के उपयोग संसार के लिए करने से शक्ति खर्च होता है इससे थकान होता है फिर नींद में सो कर ताजा हो जाते हैं क्यों की अनजाने में हम ईश्वर में सो जाते हैं //
परमात्मा को न जाना तो यह प्रपंच संसार है, परमात्मा जाना तो यह सारा आप ही है | #बापूजी
संसार के विषय भोग से बच कर आत्मविश्रांति करो|
संसारी को संसार में ही सार दिखता है, परंतु ज्ञानवान को संसार सारा असार दिखता है |
कंस का स्वभाव – यह शरीर में हूं और सारा संसार की भोग मेरा अधीन है । कृष्ण का स्वभाव – सब में मैं, और मुझ में सब
आप के शुद्ध स्वरूप और हमे समझने वाला कोई कोई दुर्लभ मिलते है , ज्यादा तर लोग संसार में उलझ रहे हैं/
आत्म बल को जिधर लगाओ उधर की सफलता मिलता है ईश्वर की और लगाओ तो ईश्वर और संसार की और लगाओ तो संसार | #बापूजी
जो ईश्वर शरण होता है संसार उसे प्रभाभीत नहीं कर पाता
आप के पास भाव क्रिया विचार को ईश्वर की और नहीं लगाया तो संसार ले डूबेगा
संसार में बहुत कुछ जानता हूं पर ये नहीं जानता कि मौत कब पकड़ ले इसलिए संन्यासी बना
आप अमिट हो, शरीर और संसार के मिटने से आप मिटते नहीं | परन्तु वास्तविक ज्ञान के आभाव से आप बारम्बार जन्म मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं| #बापूजी
अज्ञानी जागृत को सच मान कर व्यवहार करता हैं पर ज्ञानी दो भाषी होता है, कभी संसार में तो कभी परमार्थ में रह कर व्यवहार करता है|
ज्ञान का चादर ले कर संसार में जाओ तो संसार की सुख दुःख की ताप से बचे रहोगे|
संसार के राग द्वेष हमे तुच्छ बना देता है| परमात्मा में प्रीति हमें महान बना देता है |
जैसे मां बेटी को पराई मानती हैं और वात्सल्य से पालन पोषण करती है ऐसे ही संसार पराई है ऐसा मान कर इसका उपयोग करो
मनुष्य चित्त से संसार में जुड़ कर इसको सच्चा मानता है और अपना वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है|
चित्त से जुड़ कर असत संसार सच मानना ही मृत्यु है
संसार की चिंतन से विषय भोग से चित्त स्थूल होती है आत्मा चिंतन से सूक्ष्म होती है
आदमी जिस समय जिस विचार में हैं वो उस समय वही है, संसार में रहते हुए भी अगर ज्ञान के विचार है तो उसे सत्संग का फल मिलेगा और कोई मंदिर में रहकर भी संसार चिंतन है तो उसे उसका फल मिलेगा
इस संसार के खट पट मिटने वाला नहीं इसी चालू खट खट में परमात्मा रस को पी लो |
84 लाख बार जन्म का दुख दर्द के बाद भी अगर तुच्छ संसार की सुख अच्छा लगे तो हमारा दुर्भाग्य है|
जो आकाश दृष्टि रखता है उसका वृत्ति व्यापक रहता है , और संसार में दृष्टि रखने वाला पुरुष विषय विकारी से प्रभावित रहता है //
नश्वर संसार हमारे अंदर इतना घुस गया है की शाश्वत को समझ नहीं पाते|
विश्व के जन्म के संमंध में हमारे विश्व के सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेद को ही माना गया है और इसमें सृष्टि सम्मंधी एक सूक्त है जिन्हें हम नासदीय सूक्त के नाम से जानते हैं -
नासदीय सूक्त - (अंग्रेज़ी:Nasadiya Sukta) ऋग्वेद के 10 वें मंडल कर 129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है की यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफ़ी सटीक तथ्य बताता है। इसी कारण दुनिया में काफ़ी प्रसिद्ध हुआ है। नासदीय सूक्त के रचयिता ऋषि प्रजापति परमेष्ठी हैं। इस सूक्त के देवता भाववृत्त है। यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी।
ब्रह्माण्ड विज्ञान
हमारे सम्मुख दो प्रकार के जगत् हैं- सूक्ष्म ब्रह्माण्ड और बृहत ब्रह्माण्ड; जिसे हम अन्तर्जगत (Microcosm) और बाह्य-जगत् (Macrocosm) कहते हैं। हम अनभूति के द्वारा ही दोनों से सत्य प्राप्त करते हैं। जो सत्य हमें आन्तरिक अनुभव के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें मनोविज्ञान (Psychology) या आत्मतत्वज्ञान (Metaphysics) और धर्म कहा जाता है। बाह्य अनुभव से भौतिक विज्ञान (शरीरविज्ञान या फिजियोलॉजी) प्राप्त होते हैं। अतः किसी पूर्ण सत्य का इन दोनों जगतों के अनुभव के साथ अविरोध (harmony) होना चाहिये। सूक्ष्म ब्रह्माण्ड बृहत ब्रह्माण्ड का साक्ष्य (testimony) प्रदान करेगा, बृहत ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड का। भौतिक सत्य का प्रतिरूप अन्तर्जगत में, और अन्तर्जगत के सत्य का प्रमाण भी बहिर्जगत में मिलना चाहिये। तथापि इन सब सत्यों का अधिकांश सर्वदा परस्पर विरोधी पाया जाता है। विश्व-इतिहास के एक काल में 'अन्तर्वादी' प्रधान हो उठे; और उन्होंने 'बहिर्वादियों' के साथ विवाद आरम्भ किया। वर्तमान काल में 'बहिर्वादी' अर्थात् भौतिक वैज्ञानिकों ने प्रधानता प्राप्त की है, और उन्होंने मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों के अनेक सिद्धांतों को उड़ा दिया है।
सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥1॥
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥
अर्थ– उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥3॥
अर्थ- सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, आज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥4॥
अर्थ- सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥5॥
अर्थ- पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान् रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥
अर्थ- कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
अर्थ- यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुई इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय जनों ! वह आनंद स्वरूप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
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