अध्यात्मिक यात्रा - The Spiritual Journey
यह रास्ता -The way
यह रास्ता -The way
अपने आप को खोजें, अपने जीवन को बदलें - यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा का मूल मंत्र है। हरेक मानव की गहरी इच्छा है कि वह अपने असली स्वरूप को प्रकट करे, अपने जीवन को सार्थक बनाए, और अपने आसपास की दुनिया को भी बेहतर बनाए। हमारी यह यात्रा आपको आत्म-ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार, आत्मानुभूति, और आत्म-विकास के और ले जाएगी । तो चलिए, इस आध्यात्मिक यात्रा पर हमारे साथ जुड़िए, और अपने जीवन को एक नए आयाम में ले जाने के लिए तैयार हो जाइए। click to read more .....
……”यह उस समय की बात है जब विज्ञान में स्नातक ( B.Sc) के बाद पूर्णकालिक ( whole-timer ) के रूप में मातृभूमि की सेवा करते समय एक *आकस्मिक दुर्घटना के बाद में स्वयं के कुछ प्रश्नों के घेरेमे में आगया था । और वो प्रश्न दूसरे किसी के नहीं थे , खुद मेरे ही थे। परंतु उनके उत्तर नहीं मिल पा' रहे थे। किसको पूछुं, कैसे मिले? उस प्रश्न के उलझन में मेरे खाना, पीना, सोना सब कुछ अस्त-व्यस्त होकर संसार के ठीक से भान नहीं होता था। और बाकी चीजों की बात ही क्या करें ? केवल और केवल वही प्रश्न। .....प्रश्न तो छोटा था परंतु उत्तर कहीं से भी मिलता नहीं था। और किसी किसी अध्यात्मिक सज्जनों को पूछ भी लूं, तो मेरा पागलपन समझकर हँसते थे, बोलते "ये कैसा प्रश्न " है ? उनके लिए तो वो प्रश्न नहीं था पर मेरे लिए हिमालय के पहाड़ से कुछ कम नहीं था।
…….आखिर मन ही मन एक दिन तय हुआ और उन प्रश्न के उत्तर के खोज में सबकुछ छोड़ - छाड़ एकाएक निकल पड़ा।…….
......न मोह रोक पाया, न और कोई बंधन। साथ मे दैनिक संसाधन को भी एक छोटी सी बैग तक ही सीमित रखा। क्यों कि संभालने का भी कोई झंझट न रहे। पैसा भी बस सात सौ के लगभग ही था।
पर मन में विश्वास था कोई न कोई तो होगा। कहीं न कहीं तो मिलेगा। जैसे नरेंद्र ( स्वामी विवेकानंद ) को मिला था। अगर ईश्वर है तो उसको जानने वाला भी कोई होगा। और वही मुझे किसी भी कीमत पर चाहिए। वही मेरे उत्तर दे सकेगा। पर उसको ढूंढ कर निकालूं कैसे ? कभी हिमालय की गिरी कन्दराओं में जाने की विचार आया तो कभी दक्षिणेश्वर , कभी तत्कालीन योगी साधूओं से मिलने का मन होता था तो कभी मंदिरों और तीर्थों में ........|
पर ईश्वर के दर पे देर है अंधेर नहीं। इतने में कुछ दिन बीत चुके थे …..।
भारत वर्ष के पूर्व सागर तट से पश्चिम तट तक यात्रा हो चुका था। एक दिन एक आश्रम में था दूर जगह खड़ा होकर कोई चल चित्र फलक (tv) पर एक दृश्य देख रहा था उसमें भगवान शिव जी नृत्य कर फिर हाथ में त्रिशूल ले कर कुछ बोल रहे थे। और उनके हर एक शब्द मेरे प्रश्न के पहाड़ को तोड़ रहा था। परंतु वह तो संकेत मात्र था। सम्पूर्ण उत्तर तो उनसे प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करना ही था। वह शिव रूप धारी और कोई नहीं स्वयं #बापूजी ही थे।
अब संकेत तो मिला पर समाधान नहीं। वह आश्रम उनका ही था और श्री गुरु पूर्णिमा उत्सव हेतु वहीँ आये हुए थे | उनसे प्रत्यक्ष रूप से मिल कर प्रश्न करने हेतु कुछ शिष्टाचार चाहिए और संस्कार भी , और दीक्षा भी नहीं मिला था , अब क्या करूँ। मेरे निष्ठा की मानो परीक्षा शुरू हो गई । जेब से पैसा खत्म और बापूजी भी वहां से प्रस्थान हो गए। …...पता लगा अहमदाबाद गए हैं। परंतु बिना पैसा जाऊँ कैसे ? आखिर ईश्वर के नाम ले कर चालू गाड़ी (ट्रेन) में बैठ गया …… और अहमदाबाद आश्रम में पहुँच गया। कुछ खुल्ले पैसे बैग के कोने में पड़ा था, बाद में मिला भोजन का कूपन (pass) ३ दिन का लिया और भीड़ के चपेट में वो कूपन भी खो गया । अब तो एक ही दिन बिता था , आगे क्या करूँ । दस रुपया का छूटा पड़ा था एक किलो फल (बनस्पति) ख़रीदा और पेट की चूहों को कैसे भी थोड़ी थोड़ी शांत कराता रहा । …..दो दिन बीतने पर एक शाम को थक कर हताश निराश हो कर सत्संग पंडाल के एक खंभे के सहारे बैठा था। आश्रम के स्पीकर में घोषणा हुआ की "जो लोग आश्रम में समर्पित होना चाहते हैं वो पंडाल में आजाएं ।" समर्पित का मतलब क्या होता है पता किया तो उसका मतलब था सेवा साधना हेतु आश्रम के अन्दर निशुल्क रहना| .....और इसी तरह भोजन, भजन, साधन का व्यवस्था हो गया। सुबह दीक्षा भी हुआ। ....अब तो समाधान का रास्ता खुला । पर एका एक बापूजी दूसरे आश्रम के लिए निकल गए। अब क्या करूँ ? आश्रम के नियम अनुसार समर्पित साधक इधर उधर बिना अनुमति के नहीं जा सकते । फिर ज्येष्ठ अनुभवी गुरु भाइयों से संवाद के वाद पता चला कि सतगुरु सत्संग उपदेश से ही सारा समाधान देते हैं। और पता चला कि आश्रम के अन्दर ऐसे अनेको प्रश्न लेकर अनेको भाई, बहिन कई सालों से सेवा साधना कर रहे हैं। उन के संख्या कई हजारों में है। तब मन मे आस्वस्थ हुआ कि एक ना एक दिन गुरु चरणों में समाधान तो मिल ही जाएगा। और नियमित गुरु प्रदर्शित मार्ग में सेवा-साधना करने लग गया।…….
कुछ दिन बाद में शास्त्रों के अध्ययन से पता चला कि मेरे मन मे जो प्रश्न का उदय हुआ था ये कोई साधारण प्रश्न नहीं था । ये संसार के आदि काल से अनेको के मन में उत्पन्न प्रश्न था| जो ब्रह्मा आदि को भी सृष्टि के आदि में स्फुरण हुआ था , सनकादि से लेकर वशिष्ट, विश्वामित्र, श्रीराम, श्रीकृष्ण, आदि आदि समस्त प्राचीन अर्वाचीन और हर एक व्यक्ति के मन में यह प्रश्न आता ही है कि -
“में कौन हूँ ?
और इनमें सम्मन्ध क्या है ?
अंतिम सत्य क्या है ?
मृत्यु क्या है ?
और भी …………..
आदि आदि प्रश्न, उप प्रश्न और उसके उत्तर से ही विश्व के सारे वेद, उपनिषद,ग्रंथ , आधुनिक भौतिक ज्ञान विज्ञान ( science) , खगोल (space science) पुस्तक, पुस्तिका आदि रचित हुए हैं और भी रचित होते रहेंगे। मेरे आगे की साधना और इसी सम्मन्ध में आगे क्रमबद्ध और विस्तार से सूची (menu) में देखें……..। सायद ये रास्ते ( THE WAY ) पर आगे बढ़ने हेतु आप को भी सहायक सिद्ध हो , यह इसका हेतु है |
इतिओम
आप सभी के
मोतिराम
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{ यह स्थल (site) प्रगति पर है| दीर्घ अवधि के सारे अनुभवों को एकत्रित करने में समय लगेगा, वही प्रसंग यहाँ सम्मलित कर रहा हूँ जो आप को काम आ सके अच्छा - बुरा या कमी लगे तो ज़रूर कॉमेंट्स, मेल या उपलब्ध माध्यम पर बताने का कष्ट करें , हम उस विषय को यहाँ सम्मिलित कर,आप के प्रति हम आभारी रहेंगे | हिंदी मेरा मूल भाषा न होने के कारण त्रुटीयां स्वाभाविक, अतः क्षमा }
बहुत सारे आध्यत्मिक जिज्ञासु साधना के लिए निकल पड़ते है । परंतु सही रास्ता पता न होने के कारण प्रारंभ से ही भटक जाते हैं। शास्त्र सम्मत साधना पद्धति ज्ञानी, संत, ऋषि, महर्षि ही वर्णन कर पाते हैं | उन महापुरुषों प्रदत्त मार्ग के बारे में आईये जानते हैं | (clik to read more ....)
यह सत्संग मेरे आश्रम जीवन का पहला सत्संग के रूप गुरु कृपा से प्राप्त हुआ था। और आज भी मेरे मानस पटल पर सुरक्षित है।
इस में एक साधक की आध्यात्मिक साधना कहाँ से शुरू होता है और कहाँ पर पूर्ण होता है वह क्रम से बताया गया है| अपनी साधना कहाँ तक पंहुचा है इसके माध्यम से हम स्वयं विश्लेषण कर सकते हैं | इसको समझने के लिए एक सत शिष्य या जिज्ञासु के लिए कठिन नहीं है | दूसरों के लिए कठिन जरुर है | पर हर मनुष्य को पूरा तो करना ही होगा | चाहे इसी जन्म में करे या करोडो जन्म में करे | वो चाहे किसी भी वर्ण, आश्रम, मत, पंथ, संप्रदाय के क्यूँ न हो | या फिर किसी भी योनी में क्यूँ न हो | यह साधना अविनाशी है अर्थात एक जन्म में हम जितना साधना पूरा कर पाते हैं परवर्ती जन्म में ईश्वरीय विधान अनुशार उसके आगे की साधना करना होता है | चाहे वह कर्म योगी, ज्ञान योगी हो , ध्यान योगी हो या अन्य कोई योग करता हो | और यह ज्ञान उस तक ही पहुचेगा जिस पर ईश्वर, गुरु या इष्ट का अनुग्रह होगा | यही एकमेव मार्ग (THE WAY) है | इसको पूरा करने में समय का कोई प्रतिवंध नहीं है | कोई एक जन्म में भी पूरा करसकता है या करोडो जन्म भी लग सकता है |
आध्यात्मिक पथ पर -
सब से पहले मनुष्य जन्म । क्यों कि मनुष्य जन्म में ही विवेक की प्राप्ति होती है। और यह मानव जीवन हम सभी को अभी प्राप्त है। इस का सदुपयोग कर लेना चाहिए।
दूसरा यह कि मनुष्य जन्म होने पर भी अगर क्षण भंगुर संसार का विवेक न हो तो भी जीवन बेकार ही संसार की विषय भोग विलास में पूरा हो जाता है| और फिर मानव शरीर प्राप्त होने को और कई जन्म लग जाते हैं । अथवा यह सृष्टि का जो भी स्रष्टा है उसका उद्देश्य की जिज्ञासा हो तो भी भक्ति की प्राप्ति होगी और हमारे इष्ट हमे अपनालेंगे आगे की राह दिखाएँगे ।
तीसरा विवेक और भक्ति प्राप्त होने पर भी अगर वैराग्य और उपासना न अपनाया और भोग विलास में जीवन पूर्ण किया तो भी दूसरा शरीर भोग प्रधान तिर्यक योनि ही मिलेगा और रास्ता बहुत लंबा हो जाएगा।
चौथा वैराग्य और उपासना को प्राप्त हुए पर, तथाकथित कर्म कांड अर्थात विवेक विहीन श्रद्धा उपासना में जीवन पूर्ण हो-जाता है उसे ऊपर उठ नहीं पाते हैं। इसे उठना भी कठिन लगता है।
कर्म कांड से ऊपर उठ कर भागवत उपासना में मन लगाना कठिन हो जाता है। क्यों कि ऐसे कोई साथी जल्दी से नहीं मिलते । भागवत भजन में अभी मन लगा नहीं, रस आया नहीं। पुराने साथी सहोदर भी तरह तरह की विघ्न पैदा करते हैं। तो संसार मे अधिकतर उपासक इसी श्रेणी के हैं।
अगर तीव्र वैराग्य और विवेक से उपासना में मन भी लगा लेते है तो उपासना को पूर्णता देनेवाला कोई संत जन जबतक साथ नहीं मिलते तब तक रास्ता मिलता नहीं कुंडलाकार कोई रास्ता में कभी किसी को तो कभी और को हम पूजन करते रहते हैं । उपासना अगर सच्चा हो तब इष्ट अनु ग्रह से सदगुरु प्राप्त होते हैं।
सदगुरु मिलने के बाद भी उनको पहचान ने में सालों लगता है। क्यों कि जो सदगुरु होते हैं वो कहीं आकाश पाताल से प्रकट नहीं होते हैं। इसी धरती पर ही अपने जैसे खाते, पीते, सोते दिखते हैं । जबतक उन के उपदेश और दर्शन सान्निध्य प्राप्त नहीं हुआ तब तक उनको पहचान नहीं पाते। ऐसे संसार मे रहने वाले व्यक्ति को ईश्वर का दर्जा देना बहुत ही मुश्किल है। हमारे मन बुद्धि में उत्पन्न प्रश्नों को जबतक उनके ज्ञान रूपी खड्ग से काट नहीं डालते तब तक उनको हम पहचान नहीं पाते। कई बार हमारे पूर्व पुण्य बहुत प्रबल है तो गुरु हमे स्वयं ही हमे ढूंढ कर हमें आध्यात्मिक रास्ता में छोड़ते हैं पहले की साधना को हाथ पकड़कर करा लेते हैं।
उनको पहचान भी गए पर उनके मानवीय लीला को सहन कर उनके वचनों को श्रद्धा पूर्वक सुनना और ईष्वरीय अवधारणा को आत्मसात करना बहुत ही कठिन कार्य है । क्यों कि गुरु शिष्य को जब अपनाते और अपने जैसे बनाते हैं तब हमारी संसारी मान्यता को तोड़ना पड़ता है । और जब यह कार्य करते है हमे बहुत ही धैर्य का आवश्यक होता है। आध्यात्मिक रास्ते पर चलने वाले कुछ ही साधक इस श्रेणी को पार करते हैं। राजसिक और तामसिक साधक यहीं पर रुक जाते हैं। क्यों कि उनकी मनोवृत्ति अधिकतर संसार अभिमुख रहता है।
सात्विक श्रद्धा ही एक मात्र उपाय है जिसे गुरूजी के प्रति श्रद्धा रख कर आगे बढ़ते है। तभी गुरूजी तत्वमसि, प्रज्ञान ब्रह्म,अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि सर्वं खलुइदं ब्रह्म आदि का उपदेश करते हैं। पर इन सबको आत्मसात करना कठिन पड़ता है। क्यों कि यहां पर श्रद्धा विवेक के साथ साथ प्रज्ञा मेधा आदि बुद्धि वृत्ति का जरूरत सर्वाधिक होता है। और यहां से हमारे जीव भाव को काट कर ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित कराने की कार्य शुरू होता है। प्रज्ञा और मेधा बिना यह रास्ता केवल गुरु के प्रति श्रद्धा संयुक्त हो कर भी आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुँच सकते हैं । पर दीर्घकाल तक श्रद्धा बनाये रखने की अग्नि परीक्षा देने पड़ते हैं। भक्ति की गंगा भी यही बहाते हैं। प्रज्ञावान शिष्य ही तत्व ज्ञान को आत्मसात कर आगे बढ़ पाता है।
तत्व उपदेश के बाद तत्वानुरूप वृत्ति बनाना कठिन होता है। क्यों कि चंचल वृत्ति तरह तरह अपना रंग बदलता रहता है उसमें ब्रह्म भाव को प्रतिष्ठित करना बहुत ही कठिन होता है। उसमे एकांतवास, सतत तत्वचिंतन, आदि सहायक है। यह परिपक्व होने पर ब्रह्मा कार वृत्ति फलीभूत होता है। पर आवरण की त्रिपुटी बनी रहती है।
आवरण भंग होने पर ब्रह्मबोध होता है अर्थात साक्षात्कार होता है। पर यदि गुरु की करुणा कृपा से शीघ्र बोध हुआ और साधन चतुष्टय में परिपक्व नहीं हुए तभी विक्षेप की संभावना अधिक रहता है । ब्रह्मभ्यास ही इसकी एकमात्र साधन है।
( संत कवीर नानक,शंकर आदि सभी भक्त व ज्ञानी इसी मार्ग से अपनी पूर्णता को प्राप्त हुए हैं |)
संक्षेप में
संसार से वैराग्य होना कठिन है |वैराग्य हो भी गया तब ?
कर्मकांड छूटना कठिन है | कर्म कांड छुट भी गया तब ?
उपासना में मन लगना कठिन है | उपासना में मन लग भी गया तब ?
तत्त्वज्ञानी गुरु मिलना कठिन है | तत्त्व ज्ञानी गुरु मिल भी गए तब ?
तत्वज्ञानी गुरु मे श्रद्धा होना कठिन है | श्रद्धा हो भी गया तब ?
तत्वज्ञान में मन लगना कठिन है | तत्वज्ञान हो भी गया तब ?
ब्रह्मकार वृत्ति होना कठिन है | ब्रह्मकार वृत्ति होने के बाद ?
आवरण भंग कर , ब्रम्हसाक्षात्कार करना यह परम पुरुषार्थ है |
उपासना अगर ठीक ढंग से नहीं की तब साक्षात्कार करने के बाद विक्षेप रहेगा ,
साक्षात्कार होने के बाद ध्यान भजन में लगे रहना यह साक्षात्कारी की शोभा है |
* साधन चतुष्टय
वेदांत दर्शन के अध्ययन में प्रवेश के लिये साधन चतुष्टय की आवश्यकता होती है| मनुष्य के अंदर चार योग्यता होनी अति आवश्यक है: 1. विवेक 2. वैराग्य 3. शम दमादि छह सद्गुण 4. मुमुक्षुत्व ॥
श्री सतगुरु चरणारविन्दम
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धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्, महाजनो येन गतः स पन्थाः|
क्या हम स्वयं को जानते हैं ?हर इन्सान अपने अभिव्यक्ति के मूलकारण को अनादीकाल से जानने को बेचैन है | परन्तु बताए कौन ? क्यूँ की ,
श्रुति: विभिन्ना श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम् .
इस संसार में श्रुति ( वेद ) अनेक है , और स्मृतियाँ भी अनेक है | इसमें से किसको प्रमाणिक मानें ? क्यों की धर्म की तत्त्व अत्यंत गोपनीय है | इस लिए कहा गया की उस महान तत्व को जिन्होंने पा' कर आचरण किया वही एक मात्र पथ ( THE WAY) है |वही परम सतगुरु हैं नास्ति तत्त्वं गुरुर्परम उनके श्रीचरण में जो उपदेश मिला,
उन प्रमाण समूह को एकत्र करने का प्रयास ही इस साईट ( THE WAY ) की पृष्ठ भूमि है|
तीन चीज़ें वास्तव में अत्यंत जरुरी हैं - जो हर एक गुरु भक्त को मिला है -
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मनुष्यत्व यानी - मनुष्य जन्म
मुमुक्षत्व यानी - मुक्ति की इच्छा
महापुरुष संश्रय यानी - ज्ञानी व्यक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण की क्षमता
आदि शंकराचार्य ने कहा है कि ये तीन चीज़ें वास्तव में दुर्लभ हैं और केवल भगवान की कृपा से ही प्राप्त होती हैं|
त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय: ॥
मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कृपा पर निर्भर रहते है |
....... सभी के जीवन पथ पर ऐसे कुछ खट्टे मीठे अनुभव लेते लेते कई मोड़ आते हें। जहां से कुछ नए जीवन का शुरुआत होता है। कुछ नया करने का, कुछ नए सोचने का एक उमंग छेड़ता है। और हम आगे बढ़ते जाते हैं|
....... 21 साल इस शरीर के बीत चुके थे फिर भी जीवन असार जान पड़ता था। घर, परिवार, कुटुम्बी, स्वजन, बंधु बांधव , मकान, धरती, आसमान की ग्रह तारे ये सभी तो नस्वर ही है। कोई अभी, कोई सालों बाद तो कोई युगों बाद नष्ट तो होंगे ही। इसी शृंखला में ये शरीर भी तो एक दिन नष्ट हो कर हे रहेगा । पर मुझे मरना पसंद नहीं था। एक एक कर के एक दिन परिवार के लोग भी तो बिछुड़ेंगे, पर में किसी को भी छोड़ना नहीं चाहता था। आप भी, किसी भी कीमत पर न मरना पसंद करते हैं, न किसी स्वजन को छोड़ना, पर ये होता था, है और रहेगा। इसीलिए जब भी अकेले होता तो ये चिंता मुझे घेर लेती। आप को भी कभी कभी ऐसा होता होगा। तब ये ज्यादा पकड़ता था जब कोई प्रिय वस्तु, व्यक्ति की आकस्मिक वियोग होता था। ऐसे ही मेरे जीवन मे भी हुआ।
क्यों कि जब भी समय मिलता महापुरुषों के जीवन गाथा, शास्त्र, आदि सद्ग्रन्थों का बराबर अध्ययन करता। इसलिए दुनियां के लोगो को जो चीज वस्तु मोहित करता था वो सबकुछ मुझे नश्वर दिखता था ।
पर हर कोई जीवन मे कुछ अच्छा करना ही चाहता है । में भी उसे अलग कैसे हो सकता हूँ । कुछ अच्छा करना ही चाहता था। पर क्या करूँ? उस समय मेरे पढ़ाई विज्ञान में स्नातक (बी एससी) हो चुका था। और प्रचारकों के आदर्श जीवन देख कर एक प्रचारक का जीवन अपना लिया । आप सब भी ऐसे कुछ अच्छे निर्णय लेते होंगे और अच्छे कार्य करते होंगे। और फिर संघ प्रचारक के रूप में 1995 से ले कर 2005 तक कार्य निर्वाह किया। 2005 के मध्यवर्ती समय मे एक संघ के सहकर्मी भाई, किसी भाडुतिया आततायी के पिस्तौल की गोली के शिकार हुए । और उनके अबसान के बाद मृत पिंडों का हर कार्य दाह संस्कार तक प्रत्यक्ष रूप में करता रहा। जब कि वो अती सज्जन श्रेणी के थे। उन के शत्रुता किसी से हो नहीं सकता। पर उन के छोटे भाई एक असामाजिक समूह के सरदार थे । और उनके जो शत्रु थे वो सहकर्मी भ्राता को इसलिये मारा की उन के असामाजिक भाई को कुछ नुकसान पहुँचा सके ।
वह परिस्थिति देखकर क्षणभंगुर जीवन की अहसास हुआ । सुप्त वैराग्य जाग उठा। और-
-जीवन क्या है?
-मृत्यु क्या है?
-संसार क्या है?
-अंतिम सत्य क्या है?
इन सब प्रश्नों के झुंड शुरु हो गए। आप को भी कभी कभी ऐसा होता होगा कुछ नई बात नहीं है। पर समाधान के लिए जो निकल पड़ते हैं वे राम, परशुराम, बुद्ध, महावीर, कवीर, तुलसीदास, वाल्मीकि, कालिदास, आदि के श्रेणी में स्वतः आ जाते हैं और कालजयी होते हैं। और बाद में जो जीवन की निष्कर्ष निकालते हैं वह शास्त्र बन जाता हैं । और जो निकल नहीं पाते उनको काल नियम अनुसार अपना गर्भ में समा लेता है। और कई जन्मों का चक्कर खिलाता है।
और भी उसी समय स्थानीय संघ कार्यकर्ताओं के बीच भी ठीक ताल मेल नहीं बैठ रहा था अतः मैं अती उदासीन था परिवार में भी पिताजी पक्षाघात विमारी का शिकार होकर स्वास्थ लाभ कर रहे थे। और भी कई राग द्वेष की दुनियां देखकर । जीवन के ऊपर खिन्नता हो गई। और जीवन के हर प्रश्न के उत्तर ढूंढने निकल पड़ा। ...................
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