हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
श्री हरि अनंत हैं, उनका कोई पार नहीं पा सकता और इसी प्रकार उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से सुनते और सुनाते हैं।
परमात्मा प्राप्ति, कोई मेहनत व परिश्रम का फल नहीं है| नहीं तो कर्मियों के पास होता, ये केवल बुद्धि का भी फल नहीं तो बुद्धिबादिओं के पास ही होता। न ही किसी से खरीदकर व मांगकर भी नहीं मिल सकता है। यज्ञ, दान, जप, स्नान, तीर्थ भी प्रत्यक्ष रूप से भी परमात्मा प्राप्ति नहिं करा सकते परंतु परमात्मा प्राप्ति में अपनी योग्यता को बढ़ा सकते अर्थात पुण्य की प्राप्ति होती है।हजार वर्ष समाधि लगाकर भी परमात्मा नहीं मिलते। सिर्फ गुरु कृपा से ही संभव है |
गुरु कृपा ही केवलं, शिष्यस्य परम मंगलम |
वशिष्ठ जी राम जी से कहते हैं - है राम जी। फूल पत्ति तोड़ने में भी मेहनत है । परंतु परमात्मा प्राप्ति में क्या परिश्रम है। गो-खुर को लांघने भी परिश्रम है परंतु उसमे इतने भी परिश्रम नहीं है।
ईश्वर की कसम खा कर कहता हूँ कि- परमात्मा की हर रोज सबको दर्शन होता है। .... परंतु पता नहीं चलता .... की यही ईश्वर है।- साईं लीलाशाह जी
मृत्यु तो एक दिन होकर ही रहेगा। परंतु मरना कैसा है ये आप की हाथ की बात है।
ईश्वर पाना कठिन नहीं है क्यों की वो सर्व व्यापक है। पर ईश्वर को जताने वाला संत महा पुरुष मिलना संसार में सबसे दुर्लभ है।
जो हर पल बदलता है वह है प्रकृति, जो हरपल एक जैसा है वह है ईश्वर परमात्मा। हम गलती ये करते है ,हरपल बदलने वाला शरीर को में मानते है और हमारे आत्म सत्ता के बारे में हमे पता ही नहीं। और ईश्वर को मान बैठे हैं कहीं दूर।
….ये अपने अनुभव की बात ही लिख रहा हूँ। कोई किताब की या सुनी सुनाई बात नहीं।…..
आधुनिक भौतिक विज्ञान की विवशता-
मूलतः मैं अधिकतर विज्ञान अनुरागी विद्यार्थी रहा। इसलिए सभी अनुभवों को विज्ञान के आधार पर ही स्वीकार करता रहा। परंतु जब भौतिक विज्ञान व जैविक विज्ञान के आधार पर जीवन, मृत्यु, मन, बुद्धि, प्रेम, विश्वास, घृणा, भय, क्रोध, आनंद आदि का विश्लेषण नहीं कर पाया। लेबोरेटरी में इस के परीक्षा हेतु कोई उपकरण नहीं मिला। और सब से परे भौतिक विज्ञान का मूल आधार जो शक्ति है उसका उपादान नहीं मिला और सारे ब्रह्माण्ड का आधार जो आकाश है उसका आधार और उपादान के बारे में आज के भौतिक विज्ञान मौन है।
ईश्वर की खोज-
फिर मेरे उस सर्वाधार ईश्वर के अन्वेषण के लिए खोज शुरू हुआ| और अधिकतर समय आप के भाँती सामान्य सामाजिक जीवन नहीं अपनाया , और उसे दूर हट कर खोज जारी रखा तब हमारे प्राचीन व ऐतिहासिक जीवनादर्श तथा ग्रंथो में कुछ झलक मिला और वह था ईश्वर जिसको लोग अपने ढंग से भगवान, गॉड, बुद्ध, अकाल पुरुष, सत, प्रभु, परमेश्वर, अल्लाह आदि आदि और भी कई सुना-अनसुना नाम से भी लोग पुकारते हैं। लेकिन मूलतः सब एक ही है।
परिणाम-
ईश्वर का अस्तित्व-
आप के समक्ष यह सिद्ध करने की कोई आवश्यक नहीं। क्यों कि आप उल्टा प्रश्न करेंगे। अगर में बोलूं की ईश्वर नहीं है तो आप पूछेंगे बताओ कैसे, अगर हां तो भी बोलोगे बताओ कैसे?
हमारे वेद, वेदांत, उपनिषद, दर्शन, पुराण आदि सांस्कृतिक ग्रंथ उस ईश्वर के बारे में ही चर्चा करते हैं।
अब इस विषय को सामान्य दृष्टि से ही समझते हैं। अगर मैं पूछूं कि आप वास्तव में हैं या नहीं है।
आप बताएंगे हाँ हैं। आप, आप के शरीर दिखाकर अपना नाम कहकर ही सिद्ध करेंगे, की देखो में तो हूँ ही ।
अब आप भगवान को भी ऐसे ही देखना चाहते हैं, जैसे आप अपने को व दूसरों को आँखों से देखते हैं । अच्छी बात है थोड़ी धीरज रखें। थोड़ा आगे चलते चर्चा करते हैं। अभी मान लो कि थोड़ी देर तक आप के हाथ, पैर, आँख, नाक, चमड़ी, शरीर सबको हटा दिया और आधुनिक संयंत्रों के मदद से मुहं और कान को ही जीवित रखा और पूछा कि आप कौन है। तो यही उत्तर होगा कि में अमुक हूँ। कुछ भी हटाकर नहीं बोलेंगे की में कुछ और हूँ । आपको और भी छोटा करके अणु परमाणु स्वरूप कर दिया जाए फिर भी आप वही एक ही उत्तर देंगे। कि में अमुक हूँ।
- यहीं से सिद्ध होता है आप अस्तित्व रूप हैं जिस रूप में भी आप को रखा जाए आप वही नाम बताएंगे। चाहे वो अणु रूप में हो या ब्रह्मांड रूप में ।
-इस तरह ईश्वर भी वही अस्तित्व रूप ही है। अभी इतना ही समझ ले। जैसे जल की एक अणु और महासागर की जल और बर्फ की पहाड़ एक ही हैं केवल आधार व अवस्था ही भिन्न भिन्न है।
- इतने ही जानने और मानने मात्र से आप ईश्वरीय विद्या अर्थात आत्मविद्या में प्रवेश पा जाएंगे और ईश्वर तक एक दिन पहुंच जाएंगे।
ईश्वर की अनुभवी मार्गदर्शक-(guide)-
ईश्वर है या नहीं, कैसा है, दिखता क्यों नहीं आदि बहुत सी शंकाएं इस संबंध में सटीक उत्तर मिल नहीं पाता। क्यों कि इस मे सबसे बड़ी बाधा यह कि उसको जानने वाला जल्दी मिलते नहीं। अगर ऐसे मार्ग दर्शक मिल भी जाते तो उस ईश्वर को देखने समझने की हमारे खुद की पात्रता नहीं होती। अगर हमारे पात्रता हो और अनुभवी मार्ग दर्शक मिल जाए तब एक दिन क्या एक पल भी ईश्वर को देखने के लिए पर्याप्त है।
जैसे कोई बालक विद्यार्थी को पृथ्वी के स्वरूप अथवा अणु के स्वरूप को समझने हेतु ग्लोब और ड्राइंग नमूने की आवश्यकता है और अनुभवी प्राचार्य का भी । उसे भी ज्यादा बालक की पात्रता की जरूरत है। अगर जो बालक इसे समझ नहीं पाएगा वो फिर दूसरे ब्रह्मांडीय पिंड और परमाणु के बारे में क्या समझेगा। अतः ईश्वर जिज्ञासु को अपनी योग्यता बढ़ाना जरूरी है। ईश्वर तो सर्वव्यापी है, वो अनुभवी व्यक्ति को हम तक अवश्य पहुंचा ही देगा | अगर हममें उससे मिलने की तड़प होगी। इस संबंध में चर्चा हेतु इस लिंक( spiritual syllabus)पर जाएं।
जब हम हो सकते है, आप हो सकते है तो ईश्वर को होने में दिक्कत क्या है? अपनी अस्तित्व को जताने के लिए जैसे हमारा नाम रूप सहायक है , इसी तरह ईश्वर को जानने के लिए उस का गुण और स्वभाव को जानना बहुत जरूरी है/
( जो इस सारे सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण है
उस परम तत्व के बारे में कुछ बताना केवल मात्र बाल प्रयास है |
वो लाबयाँ है जिसको जैसा आता है वो वैसा गाया चला जाता है | )
जो उसके विशालता को देखता है वो उसको अलख कहता है |
जो उसके निरूप्ता को देखता है उसको निरंजन कहता है |
जो उसके उदारता को देखता है वो उसको दाता कहता है|
जो उसके भरण पोषण को देखता है वो उसको भगवान् कहता है |
जो उसके रोम रोम में देखता है वो उसको श्री राम कहता है |
जो उसके प्रेम को देखता है वो उसको श्री कृष्ण कहता है |
जो उसके अविनाशी देखता है वो उसको अक्षर कहता है |
जो उसके मंगल कार्य को देखता है वो उसको शिव कहता है |
जो उसके व्यापकता को देखता है वो उसको ब्रह्म कहता है |
जो उसके सौन्दर्य को देखता है वो उसको श्री कहता है |
जो उसके गंभीरता को देखता है वो उसको गुरु कहता है |
जो उसके साक्षीरूप को देखता है वो उसको ज्योति कहता है |
जो उसके सृष्टि कार्य को देखता है वो उसको माता कहता है |
जो उसके पोषण को देखता है वो उसको पिता कहता है |
उसके गुण और कार्य के अनुसार उसके ऐसे असंख्य नाम है और भी नाम उसे मिलता रहे गा |
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ऋषि के मंत्र गान और बालक की निष्कपट हंसी उसे एक जैसे ही प्रिय हैं।
वह शब्द नहीं भाव पढता है, होंठ नहीं हृदय देखता है,
वह मंदिर में नहीं, मस्जिद में नहीं, प्रेम करने वाले के हृदय में रहता है।
बुद्धिमानों की बुद्धियों के लिए वह पहेली है पर एक निष्कपट मासूम को वह सदा उपलब्ध है।
वह कुछ अलग ही है।
पैसे से वह मिलता नहीं और प्रेम रखने वालों को कभी छोड़ता नहीं।
उसे डरने वाले पसंद नहीं, प्रेम करने वाले पसंद हैं।
वह ईश्वर है, सबसे अलग पर सब में रहता है।
यही वैदिक हिन्दू धर्म है। इसी धर्म पर हमें गर्व है।”
(www.agniveer.com)
वो निकट से भी अति निकट है और दूर से भी अती दूर है| ऐसा वेद, उपनिषद्म आदि शास्त्र और मनीषियो का मत है और मेरा अनुभव है |
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ! ||
हे देवर्षि ! मैं न तो वैकुण्ठ में निवास करता हूँ और न ही योगीजनो के ह्रदय में मेरा निवास होता है | मैं तो उन भक्तों के पास सदैव रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त मुझको चित्त से लीं और तन्मय होकर मुझको भजते है | और मेरे मधुर नामों का संकीर्तन करते है |
॥ ओ३म् ॥
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ मंत्रः ५ ॥
भावार्थ :- कोई कहता है वह ( ईश्वर ) चलता है , तो कोई कहता है की नहीं चलता ; कोई कहता है की वह ( ईश्वर ) दूर है तो कोई कहता है की एकदम पास में है । कोई कहता है वह ( ईश्वर ) सबके अंदर ही है तो कोई कहता है हम सबके बाहर है । ॥ ईशोपनिषद् ॥
वह परम पुरुष
जो निस्वार्थता का प्रतीक है,
जो सारे संसार को नियंत्रण में रखता है
, हर जगह मौजूद है और सब देवताओं का भी देवता है ,
एक मात्र वही सुख देने वाला है ।
जो उसे नहीं समझते वो दुःख में डूबे रहते हैं,
और जो उसे अनुभव कर लेते हैं,
मुक्ति सुख को पाते हैं ।
(ऋग्वेद 1.164.39)
“वह तेजस्वियों का तेज,
बलियों का बल,
ज्ञानियों का ज्ञान,
मुनियों का तप,
कवियों का रस,
ऋषियों का गाम्भीर्य
और
बालक की हंसी में विराजमान है।
भगवान बहुभाषी हैं
दुनिया के सभी भाषा समझते हैं |
हमारे मन के भावो को भी समझते हैं |
बस उनको आपना मानकर पुकारने की देर है |
(भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस)
वह शब्द नहीं भाव पढता है,
वह होंठ नहीं हृदय देखता है,
उसके गुण अनंत हैं और शब्दों में वर्णन नहीं किये जा सकते ।
फिर भी कुछ मुख्या गुण इस प्रकार हैं :
1. उसका अस्तित्व है ।
2. वह चेतन है ।
3. वह सब सुखों और आनंद का स्रोत है ।
4. वह निराकार है ।
5. वह अपरिवर्तनीय है ।
6. वह सर्वशक्तिमान है ।
7. वह न्यायकारी है ।
8. वह दयालु है ।
9. वह अजन्मा है ।
10.वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता ।
11. वह अनंत है ।
12. वह सर्वव्यापक है ।
13. वह सब से रहित है ।
14. उसका देश अथवा काल की अपेक्षा से कोई आदि अथवा अंत नहीं है ।
15. वह अनुपम है ।
16. वह संपूर्ण सृष्टि का पालन करता है ।
17. वह सृष्टि की उत्पत्ति करता है ।
18. वह सब कुछ जानता है।
19. उसका कभी क्षय नहीं होता, वह सदैव परिपूर्ण है ।
20. उसको किसी का भय नहीं है ।
21. वह शुद्धस्वरूप है ।
अ) ईश्वर की स्तुति करने से हम उसे और उसकी रची सृष्टि को अधिक अच्छे से समझ पाते हैं ।
ब) ईश्वर की स्तुति करने से हम उसके गुणों को अधिक अच्छे से समझकर अपने जीवन में धारण कर पाते हैं।
स) ईश्वर की स्तुति करने से हम ‘अन्तरात्मा की आवाज़’ को अधिक अच्छे से सुन पाते हैं और उसका निरंतर तथा स्पष्ट मार्गदर्शन प्राप्त कर पाते हैं ।
द) ईश्वर की स्तुति करने से हमारी अविद्या का नाश होता है, शक्ति प्राप्त होती है|
इ ) अंततः हम अविद्या को पूर्ण रूप से हटाने में सक्षम हो जाते हैं और मुक्ति के परम आनंद को प्राप्त करते हैं । और हम जीवन की कठिनतम चुनौतियों का सामना दृढ आत्मविश्वास के साथ सहजता से कर पाते हैं ।
मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व, महापुरुष संसर्ग
मनुष्यत्व – ईश्वर प्राप्ति अर्थात स्वयं की पहचान के लिए मनुष्यत्व प्रथम योग्यता है। मनुष्य व्यतिरेक अन्य सभी नीच योनि अर्थात जलचर स्थलचर नभचर सूक्ष्म जीव और देव किन्नर यक्ष राक्षस कोई भी जन्म (योनी) ईश्वरप्राप्त की अधिकारी नहीं है। बड़े सौभाग्य की बात है की हमें मनुष्य जन्म मिला है और वह भी ज्ञान की भूमि भारत में|
मुमुक्षत्व – योग्यता के लिए दूसरी योग्यता मुमुक्षत्व है। अर्थात मोक्ष की इच्छा। साधारण मनुष्य जीवन में अर्थ(भोग्य वस्तु) संग्रह और काम (भोग की इच्छा) में जीवन (आयुष्य) पूरा कर देते है। उनमें से कुछ लोग जगत की नश्वरता को देख विवेक जागृत होता है और वो धर्म संयुक्त होकर अर्थ और काम भोग करते है। इनमें से कुछ इहलौकिक और कुछ पारलौकिक मोक्ष की इच्छा रखते है।
महापुरुष संसर्ग – ये ईश्वर प्राप्ति की तीसरी योग्यता और अतिव महत्वपूर्ण है। “महापुरुष” उन को कहते है जो महान तत्व (ईश्वर) को प्राप्त हो गए हैं। ऐसे लोग साधारण जीवन में बहुत ही दुर्लभ होते हैं । ऐसे लोगो को प्रयत्न पूर्वक ढूंढ कर प्राप्त करना होता है। वह पुरुष ईश्वर प्राप्ति का सही मार्ग दिखाते हैं।
संतों की ऐसी मान्यता है की ' विशुद्ध प्रेम ' ही ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन का प्रधान उपाय है | यह प्रेम किस प्रकार होता है , इसका विवेचन करना चाहिए |
सबसे प्रथम यह विस्वास होना आवश्यक है की ईश्वर है और वह सुहृद , सर्वशक्तिमान , सर्वान्तर्यामी , परम दयालु , प्रेममय , आनंददाता , सर्वत्र साक्षात विराजमान है | जब तक इस प्रकार का विश्वास नहीं होता , तब तक मनुष्य परमात्मा से मिलने का अधिकारी ही नहीं हो सकता | पवित्र अंत:करण होने पर ही मनुष्य अधिकारी हो सकता है | निष्काम भाव से किये हुए भजन , ध्यान ,सेवा , सत्संग मनुष्य के हृदय को पवित्र करते हैं और हृदय पवित्र होने से मनुष्य अधिकारी बनता है | ईश्वर का ज्ञान भी उसके अधिकारी बनने के साथ- ही -साथ बढता रहता है |
इस प्रकार जब मनुष्य को ईश्वर का भली प्रकार ज्ञान हो जाता है और जब वह ईश्वर को तत्त्व से जान लेता है तब ईश्वर से वह जिस रूप में मिलना चाहता है , भगवान उसी रूप में उसको दर्शन देते हैं | भगवान सर्वव्यापी परमात्मा सचिदानन्द्रूरुप से तो सर्वदा बिराजमान हैं ही , पर भगवान के रहस्य का ज्ञाता भगवद्भक्त जिस सगुण , साकार , चेतन्यमय मूर्ति में उनसे मिलने की इच्छा करता है , वह नटवर उसी मोहिनी मूर्ति में अपने प्रेमी भक्त से मिलता एवं बातें करता है |
इसमें प्रधान कारण प्रेम और पूर्ण विस्वाश है , जिसको विशुद्ध श्रद्धा भी कहा जाता है , इसीकी भगवान ने गीता में जगह - जगह प्रशंसा की है
योगिनामपि सर्वेषाम मद्गतेनान्तरात्मना
श्रद्धावान भजते यो मां स में युक्ततमो मतः | [ श्लोक ६ / ४७ ]
सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है , वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |'
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मैं युक्ततमा मता:
[ श्लोक १२ / २ ] |'
मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन - ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रधा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं , वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं|
भजन , ध्यान , सेवा , सत्संग आदि से पवित्र अंत:करण होने के साथ ही साथ ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश मनुष्य के हृदयाकाश में चमकने लगता है | उस परम प्यारे परमात्मा की मोहिनी मूर्ति का साक्षात दर्शन करनेवाले एवं उसके तत्व को जानने वाले पुरुषों द्वारा ईश्वर के गुण , प्रेम और प्रभाव की बातों को प्रेम से सुनने एवं समझने से ईश्वर में तर्क रहित विशुद्ध श्रद्धा उत्पन्न होती है | यदि महात्मा न मिले तो साधकों का सत्संग करना चाहिए एवं उनसे ईश्वर - विषयक गुण , प्रेम और प्रभाव की चर्चा करनी चाहिए | यदि साधक भी न मिले तो सत- शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए |
यदि इसको भी समझने की बुद्धि न हो तो परम पिता परमात्मा से नित्य प्रति एकांत में , सचे हृदय से , प्रेम सहित विशुद्ध श्रद्धा होने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए | श्रधा से ही तत्त्व ज्ञान होकर परम शांति प्राप्त होती है [ श्लोक ४ / ३९ ] |
श्रद्धा की वृद्धि से परमेश्वर में सर्वदा दृढ़ भावना बढती है , भावना के दृढ़ होने से सर्वत्र ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है | वो साकार इच्छा रखनेवालोको साकार और निराकार रखनेवालों को निराकार तत्व रूप में प्रत्यक्ष्य होते हैं |
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श्रीरामकृष्णदेव भक्तों से-
‘‘शास्त्र कितने पढ़ोगे ?
केवल विचार करने से क्या होगा ? पहले उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करो ।
पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? ‘‘खाली पुस्तकें पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता ।
पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अन्तर है ।
ईश्वर-दर्श- के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्क- जैसे लगते हैं ।
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पहली बात यह है कि ईश्वर दर्शन करना होगा ।
कुछ मन्त्र या श्लोकों का कण्ठस्थ कर लेने का नाम धर्म नहीं है ।
भक्त यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारने, तभी ईश्वर-दर्श- होता है ।
चाहे इस जन्म में हो या अगले शो जन्म में ।
(श्री- रामकृष्ण परमहंस )
हर जिव का मांग है सुख और आनंद । उसकी सारी क्रियाएँ उस सुख के लिए है, आनंद के लिए है। खेलना, कूदना, कमाना, खाना, लेना, देना, सोना, जागना, आदि आदि सभी कार्य उसी सुख के लिए आनंद के लिए है। क्रूर, खल, असाधु, लम्पट व्यक्ति के भी कार्य उसी के लिए जैसे किसी को सताना, चोरी, व्यभिचार, अनाचार, आदि भी उसी सुख और आनंद के सिवाय कुछ नहीं । हाँ भैया और किसी को कुछ नहीं चाहिए। शराबी को पूछो, किसी कामी को पूछो सभी उसीके पीछे भागे जा रहे हैं। साधु भी संसार छोड़कर वही ढूंढ रहा है। राजा भी अहंकार सजाकर वही ढूंढ रहा है। वैज्ञानिक के हर अविष्कार के पीछे वही सुख। फिर संसार में इतने लोग दुखी क्यों हैं। क्योंकि स्थायी सुख का पता नहीं । स्थायी चीजो से ही तो स्थायी सुख मिलेगा ना। अस्थायी चीजो से सुख भी तो अस्थायी ही होगा यह तो गणित या तर्क है। अब बात आया की स्थायी क्या है और अस्थायी क्या है?
कई युगों से मानव इसका विवेचन करते करते यह पाया कि संसार की हर वस्तु अस्थायी है। ऐसे की मन बुद्धि भी अस्थायी है तो इससे स्थायी सुख कहाँ से मिलेगा । इस गहनतम विषय पर मनीषियों ने यह पाया कि जो सुख और आनंद ये है क्या चीज इसका अनुभव कहाँ होता है तो मिला यह की मन और बुद्धि ही इसका संवेदी sensor है। इसके विवेचन के लिए कई शास्त्र हैं । और उसका नियामक controller है आत्मा, परमात्मा, ईश्वर या गॉड जो भी कहो। यहाँ पर आस्तिक और नास्तिक दोनों पक्षों को थोड़ा ध्यान देना होगा। नास्तिक मन consusness औए बुद्धि inteligence को ही चरम विंदु मानने के कारण कभी सुखी तो कभी दुखी मिलेंगे जैसे मन की अवस्था होगी । परंतु आस्तिक व्यक्ति भगवान या परमात्मा को चरम विंदु मानने कारण उनकी अन्वेषण करने लग जाता है। उस परम तत्व का अनुभूति करना ही उसका लक्ष्य बन जाता है।