am the srishti and the observer also. where I concentrate or realise at that moment. I am the srashta (brahm // creator) and the srishti (creation) also. I never define myself. Only my existence is my definition. Everything prove by me but no one can prove me.
Om shantih shantih shantih
मैं कौन हूं?”
( आत्म विश्लेषण ही आध्यात्मिक यात्रा की नीव् है | इसके ज्ञान से वैराग्य का शुरुआत होता है इसलिए मैं कौन हूँ यह जानना जरुरी है | और इसको बार बार मनन और विचार करना चाहिए | इस के ज्ञान के बिना आध्यत्मिक यात्रा असंभव है )
मैं कौन हूं?”
जो स्वयं से इस प्रश्न को नहीं पूछता है,
उसके लिए ज्ञान के द्वार बंद ही रह जाते हैं.
उस द्वार को खोलने की कुंजी यही है.
स्वयं से पूछो कि ”मैं कौन हूं?”
और जो प्रबलता से और समग्रता से पूछता है,
वह स्वयं से ही उत्तर भी पा जाता है.
मैं कौन हूँ ?
मैं कौन हूँ ? हम सब हमेशा यह सोचते रहते है की मैं कौन हुं और क्या हूँ ? इस संसार में मेरा अस्तित्व आखिर क्या हैं ? मैं नाम , रूप , देह , इंद्रिय , मन या बुद्धि हूँ ? या फिर इन सब से कोई भिन्न वस्तु हूँ ?
नाम (Name) : मान लो मुझे आज लोग भोला कहते हैं। भोला मेरा एक नाम हैं। लेकिन जब मेरा प्रसव हुआ तब मेरा कोई नाम नहीं था। लेकिन तब भी मेरा अस्तित्व था। मेरे घर वालों ने थोड़े ही दिनों के बाद मेरा नाम करण किया। उस वक्त अगर मेरे घर वालों ने मेरा नाम भोला की जगह अगर मोला रखा होता तो आज लोग मुझे मोला कहते। मैं न तो गर्भ में भोला था और ना ही मेरे इस शरीर के नाश हो जाने के बाद भोला रहूँगा। यह तो केवल मेरे घर वालों ने निर्देश किया हुआ एक व्यावहारिक सांकेतिक नाम हैं। जो जब चाहे बदला जा सकता हैं। जो विवेक वान पुरुष इस रहस्य को समझ लेता है की मैं एक नाम नहीं हूँ ,मैं अनामी हूँ। इस से वह इस नाम की निंदा - प्रशंसा से कभी भी दुखी-सुखी नहीं होता हैं। इस बात से यह सिद्ध होता हैं की मैं एक नाम नहीं हूँ।
शरीर (Body) : शरीर एक जड़ हैं। मैं एक चेतन हूँ। शरीर क्षय , वृद्धि , उत्पत्ति और विनाश के स्वभाव वाला हैं। मैं इन सब चीजों से सर्वदा परे हूँ। बचपन में मेरे शरीर का स्वरुप कुछ और था। ऐसे ही युवावस्था और वृद्ध-अवस्था में शरीर का स्वरुप कुछ अलग हैं। परन्तु इन तीनों अवस्थाओं को जाननेवाला में एक ही हूँ। इस लिए मैं यह शरीर नहीं हूँ। मैं इस शरीर का ज्ञाता हूँ।
इन्द्रियां (Senses) : मैं इंद्रिय भी नहीं हूँ। हाथ और पैर अगर कट जाए , आँखें नष्ट हो जाए , कान बहरे हो जाते हैं , तब भी मैं जहाँ का तहां पूर्ववत् ही हूँ। मैं कभी मरता नहीं हूँ। अगर मैं इंद्रिय होता तो उसके विनाश के साथ मेरा भी विनाश संभव होता। उसकी हानि के साथ मुझे भी हानि होती। इसलिए मैं जड़ इंद्रिय नहीं हूँ , लेकिन इन्द्रियों का द्रष्टा या ज्ञाता हूँ। मैं भिन्न हूँ।
मन (Mind) : मैं मन भी नहीं हूँ। नींद में मन रहता नहीं हैं परन्तु मैं रहता हूँ। इस लिए नींद में से जगने के बाद मुझे इस बात का ज्ञान होता हैं की मैं शांति से सो रहा था। दूसरी द्रष्टि से भी मन के अनुपस्थित काल में मेरी जीवित सत्ता प्रसिद्ध हैं। मन विकारी हैं। मन में होते विकारो का मैं ज्ञाता हूँ। खान – पान – स्नान आदि के समय अगर मेरा ध्यान अगर दूसरी जगह पर रहा तो इन कामो में कोई न कोई भूल हो जाती हैं। फिर में सचेत हो कर कहता हूँ की मेरा मन किसी दूसरी जगह पर था इस लिए मुझसे गलती हो गयी। क्योंकि केवल शरीर और इन्द्रियों से मन के बिना सावधानी पूर्वक काम नहीं हो सकता। मन चंचल हैं पर मैं स्थिर हूँ। अचल हूँ। मन कहीं भी रहे , कुछ भी करता रहे मैं उसको जानता हूँ। इसलिए मैं मन का ज्ञाता हूँ। मन नहीं हूँ।
बुद्धि (intelligence) : मैं बुद्धि भी नहीं हूँ। क्योंकि बुद्धि भी क्षय-वृद्धि के स्वभाव वाली हैं। मैं क्षय-वृद्धि से सर्वथा परे हूँ। बुद्धि में मंदता , तीव्रता , पवित्रता , मलिनता , स्थिरता और अस्थिरता जैसे विकार होते हैं। परन्तु मैं इन सब से परे हूँ और सब स्थितिओं से वाक़िफ़ हूँ। बुद्धि कब और कौन सा विचार कर रही हैं , क्या निर्णय कर रही हैं वह मैं जानता हूँ। बुद्धि द्रश्य हैं और मैं एक द्रष्टा हूँ। बुद्धि से मेरा पृथकत्व सिद्ध हैं। इस लिए में बुद्धि नहीं हूँ।
इस तरह मैं नाम , शरीर , इन्द्रिय , मन और बुद्धि नहीं हूँ। इन सब से सर्वथा अतीत , पृथक , चेतन , द्रष्टा , साक्षी , सब का ज्ञाता , सत्य , नित्य , अविनाशी , अकारी , अविकारी , अक्रिय , अचल , सनातन , अमर और समस्त सुख – दुःख से रहित केवल शुद्ध आनंदमय आत्मा हूँ। मैं केवल आत्मा हूँ। यह ही मेरा सच्चा स्वरुप हैं।
मनुष्य शरीर के बिना और कोई भी शरीर में इसकी प्राप्ति असंभव हैं। इस स्थिति की प्राप्ति तत्व ज्ञान से होती है। और वह विवेक , वैराग्य , ईश्वर की भक्ति , सद्विचार , सदाचार आदि के सेवन से होती है। और इन सब लक्षणों का होना इस घोर कलियुग में ईश्वर की दया के बिना असंभव हैं।
ईश्वर भी जब दया करते हैं तब गुरु रूप में ही आते हैं या किसी सद्गुरु के पास ही भेजते हैं | फिर सद्गुरु उपदेश करते हैं और मैं कौन हूँ उसका साक्षात्कार या आत्मानुभूति कराते हैं | तबतक सद्गुरु की सान्निध्य (शरण) ही एकमात्र पथ ( the way ) है |
ये प्रश्न
“मैं कौन हूँ?”
कोई प्रयोग या जिज्ञासा मात्र नहीं है।
ये ऐसी चीज़ है जो आपको चीरने लगती है।
जब तक ये आपको चीर के दो टुकड़े न कर दे,
तब तक आप ये नहीं जान पाएंगे कि अंदर कौन है।