सारा संसार ही ईश्वर की अभिव्यक्ति है | एक मनुष्य जीवन में ही यह गूढ़ रहस्य को समझ सकते है की यह मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ है | हम इसका अभी भली भांति विश्लेषण करते हैं | आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखें तो विश्व में अनगिनत गेलेक्सीयां हैं उनमें से अपनी गैलेक्सी आकाशगंगा में अरवो अरवो सितारे हैं उन हर एक तारो के कुछ ग्रह हैं, पर अब तक एक भी ऐसा तारा नहीं मिला जिसकी अपने जैसे पृथ्वी है जिसमें जीव का सृजन हो। हमारा इकलौता ग्रह है जिसमे जीवों और उद्भिद का सृजन हुआ है। और उनका प्रतिशत अगर निकले तो .००००००१ प्रतिशत से भी कम होगा। इस तरह इस धरती पर जीवो का उत्पत्ति देखेंगे तो उसमें भी मनुष्य का प्रतिशत अतिव नगण्य है।
इस प्रसंग को चेतना की विकास की दृष्टि से देखें तो ईश्वरीय चेतना की जो रूपांतरण हुआ है इसमें सबसे
1 अस्तित्व कला- इसके आधार पर सारी सृष्टि टिकी हुई है। अर्थात इसके अविनाशी स्वरूप। इस सृष्टि के किसी भी वस्तु का कितना भी टुकड़े टुकड़े कर सूक्ष्म सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम कर दिया जाए फिर भी उसका नाश नहीं किया जा सकता। उसको धूल बनाकर आंखों से ओझल किया जा सकता है, परंतु उसका नाश नहीं किया जा सकता । यह अविनाशी तत्व ईश्वर का पहला कला है, यह है अस्तित्व कला | |
2 ग्राह्य कला - यह दूसरा रूपांतरण है ग्राह्य कला अर्थात ग्रहण करने की कला। जिसके अंतर्गत सारे जीव और उद्भिद समूह आते हैं। जैसे एक पेड़ जल मिटटी प्रकाश को ग्रहण कर अपना भौतिक विकास करता है | और पशु, पक्षी, किट , पतंग, एवं सूक्ष्म जिव जगत भी अपने अपने स्वाभाव अनुसार आहार जल आदि ग्रहण करते हैं |
3 स्थलांतर कला- यह ईश्वर का तीसरा रूपांतरण है। अर्थात एक जगह से दूसरा जगह आना जाना। इसी अवस्था में इंद्रियों का और अधिक विकास और संवेदन होता है किसी के एक इन्द्रिय तो किसी के दो किसी के तीन चार अथवा तो ५ इंद्रिय होता है |
4 स्मृति कला - वह ईश्वर का यह का चौथा रूपांतरण होता है। अर्थात अपना संगी साथी संतान की पहचान, रहने खाने की पहचान आदि स्मृति का विकास होता है।
5 मन कला - यह ईश्वर का पांचवा रूपांतरण है | मन के विकास के साथ वह फिर मनुष्य कहलाता है। यहां तक ईश्वर का मनुष्य के रूप में वाह्य विकास पूर्ण होता है।
6 बुद्धि कला - ईश्वर का यह छठा रूपांतरण बुद्धि कला है | जो नया सृजन करने में समर्थ है । जैसे एक चिड़िया सो साल हजार साल पहले भी एक जैसा घोंसला बनाता था अभी भी ऐसा ही बनाता है। परंतु मनुष्य का रहन सहन आहार व्यवहार हमेशा ही बदल रहा है। यह उसकी बुद्धि कला का विकास का परिणाम है।
7 विवेक कला- जब बुद्धि की विकास सात्विक होता है तभी प्रज्ञावान मनुष्य सत जो शाश्वत और असत जो नश्वर है उसी का विवेचन करता है और अविनाशी तत्व को प्राप्त करने की प्रयास करता है यह चेतना का सातवाँ रूपांतरण है विवेक कला है ।
8 वैराग्य कला- विवेक प्राप्त मनुष्य फिर सार को ग्रहण कर असार को त्याग करता है अर्थात वह वैराग्य प्रधान होता है यह चेतना का आठवां कला है ।
9 श्रद्धा कला - वैराग्य प्रधान मनुष्य फिर सत का उपासना में अपना मन लगता है चाहे एक भक्त के रूप में हो या फिर सदगुरु की शिष्य के रूप में यह श्रद्धा चेतना का नवां रूपांतरण है ।
१० ज्ञान कला - तदुपरान्त वह अतींद्रिय ज्ञान में प्रवेश कर सत को भली भांति आत्मसात कर तत्व संपन्न होता है| तदुपरांत वह सत वस्तु को प्राप्त होता है और उसके साथ एकाकार हो जाता है यह इसका १० रूपांतरण है। जिस में वह सृष्टि में और अपने में समानता का अनुभव करता है | नश्वरता में अपनी अविनाशी स्वरुप को देख पाता है | और जीते जी मुक्ति का अनुभव करता है | सामान्य मनुष्य यहाँ तक की विकास कर सकता है | अवतारी पुरुष के जीवन में इसके आगे की कलाओं का विकास होता है जिससे भगवी कला कहते है |