हम जिस चीज को देखना चाहते हैं उस के बारे में पूर्व ज्ञान व ततसम्मंधी धारणा होना अनिर्वार्य है अन्यथा हम वह चीज सामने होने पर भी नहीं देख पाएंगे (दृष्टान्त ) अध्यात्मिक जगत में भी यह सत प्रतिशत लागु होता है | हम ईश्वर को देखना तो चाहते तो हैं , उनसे मिलना तो चाहते हैं न ? तो सबसे पहले - यह जाने की ईश्वर कौन और कहाँ है ?
अगर में यहाँ कोई स्वरुप रखूँगा तब आप की बुद्धि आप की श्रद्धा अनुरूप ही उसको ग्रहण करेगी |
अतः यहाँ गुरु (गाइड )चाहिए| जिसके ऊपर आप की पूर्ण श्रद्धा हो | अन्यथा आप की बुद्धि संकल्प विकल्प कर आप को भुला देगी | अक्सर साधक इसी श्रेणी के ही होते हैं | कोई कोई साधक ही श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ पाते हैं |
( द्रष्टान्त - जैसे विद्यर्थी को शिक्षक अगर वर्णमाला सिखाते समय बताये की यह "क" है तो यहाँ तर्क नहीं होने चाहिए की क्यूँ "क"है | वहां पर "क" को श्रद्धा पूर्वक ग्रहण कर लेने से ही विद्यार्थी आगे पढ़ पायेगा अन्यथा नहीं | ) इसलिए ईश्वर की स्वरुप को जानने के लिए ईश्वर प्राप्त गुरु मिलना जरूरी है |
अगर आप के गुरु हैं तो बहुत अच्छी बात है आप उनके मार्गदर्शन अनुसार साधना करें | अगर आप भक्ति मार्ग के साधक हैं तो इष्ट (जिस भगवान को आप पूजते हैं) दर्शन व उनके आशीर्वाद, प्रेरणा, संकेत मिलने तक पूजा भक्ति करें | अन्यथा यहाँ आगे तब तक बढ़ें, जबतक की आप को कोई सत गुरु न मिल जाएँ | अगर गुरु अभी मिले नहीं , चुन नहीं पा रहे हैं, अथवा गुरु मानने के प्रति अभी रूचि नहीं है , ईश्वर को मानते हैं लेकिन अन्य किसी रूप मैं , अथवा ईश्वर को ही नहीं मानते ( नास्तिक ) परन्तु शक्ति (energy) को तो मानते हैं तब भी कोई बात नहीं | हम आप के साथ आगे की चर्चा जारी रखेंगे
1) पहेले के हमारे दुष्कृत्यों से हम अपने आप को भगवान से मिलने में अयोग्य मानते हैं , इस हिन भावना से बचें..|
( पहेले हुआ तो हुआ लेकिन अभी सत्संग सुना,गुरुदीक्षा लिया तो अयोग्य काहे के हुए ? सत्संग में एक एक कदम चल के जाते तो एक एक यज्ञ करने का फल मिलता है..| हम संसारी है हम अयोग्य है ऐसा नही माने..| गुरु द्वार तक पहुँचे हो, गुरुज्ञान में सराबोर हुए हो तो अयोग्य कैसे हो?....
पाप-वासना हीन भावना पैदा कर देती है..इससे कृपा पूर्वक वचें...| )
2) सुकृत भाव आप को पुण्यात्मा होने का अहम दे देता है.. पुण्यात्मा होने का अहम भी ना करो..|
3) विषय भोग ये भी विघ्न है..|
सूंघने का मज़ा, चखने का मज़ा, पति/पत्नी के काला मुँह करने का मज़ा ये वासना भी भगवान के प्रेम से आप को गिरा देती है..|
4) जिस को ईश्वर से कोई लेना देना नही ऐसे व्यक्ति के साथ हाथ मिलाना , उस के हाथ का खाना , उन के मेहमान बनना , उन को मेहमान बनाना यह दुसंग है ; इस दुसंग से बचें ..|
5) मोक्ष विस्मरण .. | अपना मानव जन्म की उद्देश्य ही अगर भूल जाएँ .....| तो ये भी सबसे बड़ी बाधा है | क्षण भंगुर जीवन का बार बार समीक्षा करें |
ये पाँचो विघ्न से बच कर मनोबल बढाएं..---
जो कष्ट सहकर उपवास करता है, नियम करता है उस का मनोबल बढ़ता है..|
जो शास्त्र के विधान के अनुसार चलता है| गुरुदेव का सत्संग सुनता है उन का मनोबल और मन की प्रसन्नता बढ़ती है ….उन की वाणी का प्रभाव दूसरो पर पड़ता है..ईश्वर की सहायता मिलती है..|
फरियाद करना ईश्वर के रास्ते चलने वालो को शोभा नही देता..|संकट में भी अपने से भी अधिक संकट वालों को देखो..|और प्रेम पूर्वक भगवान का नाम लो..विवश हो कर नही…|
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ईश्वर दर्शन में सबसे बड़ी बाधाएँ
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१- ईश्वर को हम देखना चाहते है , जैसे की हम संसार को देखते हैं। कोई आकृति (physical appearance) लेकर खड़ा हो, कुछ वरदान देता हो।
2-कुछ करके भगवान को हम पाना चाहते । परंतु भगवान क्रिया साध्य नहीं है । ऐसा महापुरुषों का मानना है । क्यों की जो चीज करने से मिलेगा वो न करने से छूट जाएगा।
जो लोग ऐसा धारणा कर बैठे हैं की हम कुछ ऐसा जप करेंगे तप करेंगे, व्रत करेंगे, भूखा मरेंगे तब कहीं से आएगा ऐसा जो मान्यता है वो ईश्वर से हमें दूर कर देता है। हाँ ऐसा करने से चित्त की सामर्थ्य बढ़ जायेगा , अपनी इच्छा अनुरूप दृश्य देखने को मिल जायेगा । परंतु जो ईश्वर तत्व है वो तो स्वतः सिद्ध है। उसको बस जान लो । कहीं से आएगा, कहीं मिलेगा , अभी योग्य नहीं हैं फिर होंगे ये सब भगवान से दूर करने का उपाय है।
सबसे पहले आत्मा परमात्मा है बाद में हमारा अहम है। उदाहरण के लिए - जैसे सबसे पहले सोना दीखता है और बाद मे गहना । परंतु हमारा गहने देखने आदत के कारण सोना के बदले गहना दीखता है। इसी तरह यह सारा संसार ब्रम्ह रूप है परन्तु हमें जगत रूप दीखता है। जैसे सागर और तरंग सब जल रूप है इसी तरह सबकुछ ब्रह्म रूप है । परन्तु इसमे दो भेद है। एक स्थिर और दूसरा अस्थिर अथवा चंचल। जो स्थिर है, अचल है, अपरिवर्तनशील है, वह है परमात्मा ।और जो बदलता है वह है उसकी माया जिसे हम प्रकृति कहते हैं । आपके सामने सारा संसार अदल-बदल हो रहा है, वह है उसके माया और उसको जो सत्ता दे रहा है वह है परमात्मा । और वो जो देख रहा है वह कोई आकाश पा-ताल से थोडे ही आया है , आप ही देख रहे हो। इसलिये आप में ब्रम्ह सत्ता अनुस्यूत है , शास्त्र भी यह दर्शाता है की जीव व ब्रम्ह एकरूप है , जैसे जल और तरंग |
source- बापूजी के 'साक्षात्कार सरल है ' सत्संग से
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