अमरता की प्राप्ति - मनुष्य जब आध्यत्मिक होता है वह अपना संमंध आत्मा परमात्मा से जोड़ता है | और आत्मा अविनाशी है जरा मरण से रहित है अतः स्वयं की अविनाशी स्वरुप का बोध होता है | और अमर हो जाता है |
चिरंतन सुख और आनंद की प्राप्ति - जब मनुष्य स्वयं को अमर जान लेता है उसी समय संसार का क्षयं भंगुर स्वरूप को भी जान लेता है | वस्तु व्यक्ति परिस्थिति सभी अस्थायी जान कर उससे प्रभावित नहीं होता , उन सब का उपयोग कर सदा सुखी रहता है, ममता रहित हो कर समता में प्रतिष्टित होता है | सारा संसार को स्वयं का लीला समझ कर सदा आनंद में रहता है| जैसे सागर में तरंग, फेन, बुलबुले शोभायमान होते हैं | ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आने वाला भी सुख और शांति का प्रसाद पा लेता है |
व्यक्ति सदा निर्भय रहता है , दुःख और कष्ट से रहित होता है- जब स्वयं अविनाशी और संसार क्षण भंगुर जान लेता है उसे फिर किस बात का भय होगा ? अतः सदा निर्भय रहता है | दुःख और कष्ट उसे प्रभावित नहीं कर पाते |
संताप रहित हो जाता है - षड्विकार काम , क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन को और इन के कारणों को भलीभांति जान लेने से मन में यह विकार ताप उत्पन्न नहीं कर पाते और संताप रहित हो जाता है | गुणों के प्रभाव से विकार ग्रस्त हो भी जाए तो भी उसे शीघ्र ही उपराम हो जाता है |
वह सर्वज्ञ हो जाता है - सृष्टि का आधार स्वरुप परमात्मा को जान कर वह सर्वज्ञ हो जाता है |
दैवी गुण संपन्न होता है - उद्यम ,साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम, दया, करुणा, क्षमाशील, विद्या , विनय, विवेक आदि गुणों से सु शोभित होता है |
वसुधैव कुतुम्वकम - सारा श्रृष्टि को अपना स्वरुप जान लेने से वह सभी को पोषण करता है जैसे मनुष्य अपना शरीर और परिवार का मनुष्य पालन पोषण और सुरक्षा करता है|
वस्तुवादी होने से क्या नुक्सान ?
अपने को एक शरीर का पुतला मानता है और वह ज़रा व्याधि मृत्यु के भय से प्रभावित रहता है | स्वार्थी , भयातुर , कामातुर, क्रोधी, लोभी, मोहि, अशांत, रुग्ण, खिन्न , रहता है | पुत्र,परिवार, समाज, संसार सभी का शोषण करता है, संग्रही होता है, सदा दुखी रहता है, पीड़ित रहता है | विलाशिता , भोगी आदि दुर्गुण से प्रभावित रहता है | अंततोगत्वा वह पुनः मनुष्य शरीर को प्राप्त न होकर तिर्यक योनी जैसे किट, पतंग, पशु, पक्षी, जलचर , पेड़ पौधे आदि शरीर पाकर दुःख कष्ट पीड़ा भोगता रहता है |
आध्यात्मिक विकास का भावार्थ यह की अपनी चेतना के विकास | साधारणतया अपनी चेतना शरीर में आबद्ध रहता है , शरीर की आवश्यकता को ही पूर्ति करने के लिए इन्द्रियों को परिचालित करता है |
अर्थात यह कह सकते हैं की
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
अर्थात - आहार, निद्रा, भय और मैथुन –ये इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।
यहाँ धर्म क्या है --
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः ।
धी र्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥ ( मनु स्मृति )
अर्थात- धारणा (धर्य) शक्ति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध – ये दस धर्म के लक्षण हैं ।
भावार्थ - विकसित चेतना ही धैर्य धारण कर सकता है क्यों की वो सबमे अपने को देख सकता है | जो भी हो रहा है मेरे अन्दर हो रहा है | उसका वो समाधान कर सके तो समाधान या तो सहन कर लेता है | उसी प्रकार क्षमा करना उसका स्वभाव हो जाता है क्यों की सब में ही कर रहा हूँ तब दोष किसको दूँ ,बदला किस्से लूँ | दम अर्थात इन्द्रीओं को अहित कर्मो से रोकना , हमारी इन्द्रिया हमेसा विषय वासना की तरफ आकर्षित रहता है | वो दूसरों के अधिकारों को अनदेखा करके अपनी स्वार्थ (इन्द्रिय भोग) पूर्ति करने लगता है | क्यूँ की दूसरों में अपने को देख नही पाता | इस लिए चोरी करता है | शौच भी इशी कारण रखना चाहिए नहीं तो चेतना अधोमुखी होता है | बुद्धि भी कलुषित होगा एवं स्वार्थ आपूर्ति हेतु ही निर्णय लेगा सर्वभूत हिते रता की महत्व नही समझ पायेगा | विद्या भी तब प्रगट होता है जब चेतना विकशित होता है | सत्य भी तब बोलेगा अथवा आचरण तब करेगा जब सब में अपने को देखेगा | क्रोध हमेशा दुसरो में होता है , जब दूसरा कोई है ही नहीं तो क्रोध किससे करेगा |
चेतना का विकाश करने की प्रक्रिया यह की ,पहले अपने शरीर , फिर परिवार ,घर ,मोहल्ला ,ग्राम, सहर, नगर,तालुका, जिल्ला , प्रान्त, देश, पृथ्वी, लोक ,लोकांतर , से ले कर विश्व ब्रह्माण्ड तक , एवं अंतिम में आता है परमात्मा वहां तक अपने चेतना विकशित होने में समर्थ है | अब हमारी तत समन्धि प्रवृति ही विकास की और ले जायेगा | उसके लिए निस्वार्थ कर्म , भक्ति पूजा , सेवा , जप , तप ,ध्यान , स्वाध्याय एवं आध्यात्मिक विचार आदि अनेक मार्ग है | अपनी रूचि के अनुसार हम उसका अभ्यास कर के अपनी चेतना को विकशित कर सकते है | और इसका फल है | शांति एवं आनंद जो की हम सभी के मांग है |
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
//आत्मा सब को सदा प्राप्त है। परंतु चित्त से संसार में जुड़ कर इसको सच्चा मानता है और अपना स्वरूप को भूल जाता है|
// तुम निर्दोष परमात्मा का अंश हो तुम में लेश मात्र दोष नहीं, परन्तु जब बहिर्मुख चित्त से जुड़ जाते हो उसे तादात्म्य कर विषय विक़ार भोग से दोषी हो जाते हो|
// संसार की चिंतन से विषय भोग से चित्त स्थूल होती है आत्मा चिंतन से सूक्ष्म होती है
// स्थूल चित्त आत्मा से विमुख हो कर काम क्रोध लोभ आदि का शिकार होता है और अपना शुद्ध स्वरूप को विस्मृत होता है।
// महापुरुषों का वचन है की - “भूल्या यदि आप नू तभी होया खराब”, जब अपना स्वरूप को भूल जाता है तभी बाहर परिस्थिति के सुख दुख चित्त को प्रभावित करते हैं|
// चित्त से उत्पन्न संसार के राग द्वेष हमे तुच्छ बना देता है //
// दुराशा पान से चित्त पुष्ट होती है , चित्त पुष्ट होने से दुखी होता है| अर्थात बहिर्मुख चित्त को जितना सांसारिक भोग मिलता है उतना पुष्ट होता है| जितना अंतर्मुखी होता है उतना ही सूक्ष्म होता है और परमात्मा में तदाकार करता है |
// अखंड आत्म स्वरूप का स्मृति न हो तो चित्त में अहंकार आता हैं, उसे चित्त मलिन होता है |
// जब हमारी चित्त शुद्ध होती है तब सत्संग के थोड़े से वचन से भी बड़ा काम हो जाता है, आत्म स्वरुप में प्रतिष्टित करा देता है | और अशुद्ध चित्त बार बार सत्संग सुन सुन कर कल्मस दूर हो कर शुद्ध होने लगता है |
// चित्त का प्रसाद आत्म तत्व की प्राप्ति है, यह सत्संग श्रवण मनन निदिध्यासन से सूक्ष्म होने पर मिलता है|
// मलिन चित्त अपनी ग़लती स्वीकार कर जब परमात्मा शरण में जाता है तब शुद्ध होने लगता है |
// जिन के संग से चित्त मलिन होता है ऐसे संग से प्रयत्न पूर्वक बचना चाहिए| नीचा संग से चित्त नीचा होता है और ऊंचा संग से ऊंचा उठता है|
// “प्रमादो ही मृत्यु उच्यते” , चित्त से जुड़ जाना और असत संसार सच मानना ही मृत्यु है |
// चित्त को बस में करने का दो उपाय है प्रथम अष्टांग योग, और चित्त से संबंध विच्छेद
// चित्त का दोष यह है की वो कुछ खा कर, कुछ दे कर, कुछ पाकर सुखी होना चाहता है और वास्तविक सुख स्वरूप परमात्मा से दूर हो जाता है|
// विषय संयोग से चित्त चंचल से चित्त अस्थिरता के कारण हम परेशान हैं|
// संसार के अनुकूल परिस्थिति में फूलना और प्रतिकूल में सिकुड़ना यह चित्त का दोष है ।
// चित्त ही शरीर से जुड़ कर अपने को देह मानता है, और आत्मा से जुड़ कर आत्म स्वरुप मानता है|
// चित्त सतत सुख चाहता है वो चार प्रकार माना गया है पहला क्रियाजन्य सुख , दूसरा भावजन्य सुख तीसरा समाधि जन्य सुख और चौथा ज्ञान जन्य सुख | क्रिया का सुख अस्थाई है , इसमें मेहनत बहुत ज्यादा और तदनुसार सुख भी कम मिलता है| और भाव का सुख क्रिया जन्य सुख से थोड़ा ज्यादा स्थाई है, समाधि का सुख सबसे ज्यादा स्थायी है और इससे सामर्थ्य और शांति भी प्राप्त होती है| परन्तु ज्ञान जन्य सुख सब से निराली है अविनाशी है उसका कोई अंत नहीं |
// समाधि सुख भी दो प्रकार है | चित्त कार्य में लीन होना सविकल्प, और चित्त कारण में लीन होना निर्विकल्प समाधि कहलाता है|
//बहिर्मुखी चित्त को संसार सत्य लगता है| और वह संसार के परिस्थिति उत्पन्न कर सुखी होना चाहता है , जो की अस्थायी है //
// चित्त में राग द्वेष से संसार के कर्म हमे बंधन में डालता है
// चित्त के अनुसार मनुष्य की स्थिति मानी गयी है। चित्त जब संसार में विचरता है तब संसारी और विकारी होता है | और जब अंतर्मुखी होकर परमात्मा में तदाकार करता है तभी परमात्मा स्वरुप हो जाता है|