मूलभूत योजना

अपने आप में पूर्ण मानव का निर्माण हो और अन्त में जीवन के परम लक्ष्य के भी अधिकारी बनें, ऐसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए गुरुकुल शिक्षा पद्धति के सिद्धांतों का आधुनिक शिक्षा पद्धति के साथ समन्वय किया जाए तो कैसा ? आईये इस पर विचार करते हैं ।

1) जो माता-पिता अपने होनेवाले बच्चे को गुरुकुल में प्रवेश करवाना चाहते हों, वे गर्भाधान से पहले ही अपना नाम व पता गुरुकुल गर्भ एवं शिशु संस्कार केन्द्र में पंजीकृत करवायें जहाँ भावी शिशु के माता-पिता को संबंधित आवश्यक जानकारियाँ दी जाएं यानि शिशु का इस जगत में कैसे स्वागत करें, आदि-आदि विषयों के बारें में समझाया जाए ताकि उनके घर में दिव्य एवं उत्तम आत्मा ही जन्म लें ।

2) जब शिशु का जन्म हो तब गुरुकुल भावी विद्यार्थी निर्माण केन्द्र में अपना नाम पंजीकृत करवाएं जहाँ शिशु के माता-पिता को शिशु के लालन-पालन के विषय में प्रशिक्षण दिया जाए कि कैसे शिशु के स्वास्थ्य व संस्कार को मजबूत किया जाए आदि-आदि । तो जन्म से लेकर 7 वर्ष की आयु तक माता-पिता बच्चे को स्वस्थ व मजबूत बनायें ।

3) 7 से 9 साल के बच्चों को पूर्व गुरुकुल प्रवेश प्रशिक्षण केन्द्रों में भेजा जाए जहाँ बच्चों को संस्कृत श्लोक उच्चारण, एक आसन पर स्थिर बैठने की एवं चित्त को एकाग्र करने के त्राटक, ध्यान आदि यौगिक प्रयोग करवाए जाएँ । यह कक्षा प्रातः 8 से 10 बजे तक की हो ।

4) 9 वर्ष की उम्र में ‘उपनयन संस्कार’ करवाकर विद्यार्थी को ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ में प्रविष्ट करवाया जाए जिसमें विद्यार्थी को गायत्री मंत्र दिया जाता है, अगर संभव हो तो किसी समर्थ महापुरुष से ‘सारस्वत्य मंत्र’ की दीक्षा दिलवाई जाए ताकि विद्यार्थी की सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत हों ।

5) उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी को गुरुकुल में प्रवेश करवाया जाए जहाँ वह 12 वर्षों तक यानि 9 साल की उम्र से लेकर 21 साल की उम्र तक संपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का पालने करते हुए विद्याध्ययन करे । इसका वर्णन गृहसूत्र में भी आता है कि जन्म से आठवें वर्ष में उपनयन होने के पश्चात् वेदों का अध्ययन आरम्भ करे ।

6) पद्मपुराण के स्वर्गखण्ड में ब्रह्मचारियों के लिए स्पष्ट आदेश है कि दण्ड, मेखला, यज्ञोपवीत और हिंसारहित काला मृगचर्म धारण किये मुनिवेष में रहे, भिक्षा का अन्न ग्रहण करे और गुरु का मुँह जोहते हुए सदा उनके हित में संलग्न रहे ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि उपनयन संस्कार के बाद ब्रह्मचारी यज्ञोपवित धारण करे । विद्यार्थी भले किसी भी वर्ण का हो उसका उपनयन संस्संस्कार गुरुकुल में प्रवेश से पहले होना आवश्यक है ।

उपनयन संस्कार में ‘मेखला बंधन’ भी होता है, यानि कमर पर एक डोरी जैसी बांधी जाती है जो मूँज नामक घास की बनी होती है । पद्मपुराण के अनुसार यह मेखला तीन आवृत्ति की हुई मूँज की ही मेखला बनानी चाहिये । मूँज न मिलने पर कुश से भी मेखला बनाने का विधान है । मेखला में गाँठ एक या तीन होनी चाहिये । वह विद्यार्थी को स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने में मददरुप होती है । इससे विद्यार्थी षड्-रिपुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है और उसकी मानस की रक्षा होती है ।

प्रत्येक विद्यार्थी के हाथों में दंड हो जोकि ब्रह्मवृक्ष यानि पलाश वृक्ष का हो, पद्मपुराण के अनुसार बाँस अथवा पलाश का दण्ड धारण करे । दण्ड उसके पैर से लेकर सिर के केश तक लंबा होना चाहिये अथवा किसी भी यज्ञोपयोगी वृक्ष का दण्ड, जो सुन्दर और छिद्र आदि से रहित हो, वह धारण कर सकता है जो ब्रह्मचारी के सप्तधातुओं को एवं मनोभावों को संयत एवं संतुलित रखता है ।

हिंसारहित काला मृगचर्म जिसे कृष्णांजीन कहते हैं वह आज के जमाने में मिलना मुश्किल है, तो इसकी जगह हम सिलाईरहित सफेद सूत का कपड़ा जैसे धोती और उपवस्त्र और ठंडियों में ऊन के वस्त्रों का जैसे कि ऊन की धोती एवं शॉल का उपयोग कर सकते हैं जो कि शास्त्र सम्मत हैं ।

भिक्षान्न ग्रहण करना तो आज के वातावरण में संभव नहीं है तो गुरुकुल के लिए सक्षम समाज-सेवी संस्थाएँ अथवा तो राज्य व राष्ट्र सरकारें ब्रह्मचारी विद्यार्थियों के भोजन की व्यवस्था के लिए यानि कच्चा सामग्री पहुँचाने में योगदान प्रदान करें क्योंकि पद्मपुराण के अनुसार गुरु एवं अपने माता-पिता के गृह से भिक्षान्न ग्रहण करना ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध है । पकाने की सेवाकार्यों में विद्यार्थी सहयोग करें और काउंटर से भोजन भिक्षा के रूप में स्वीकार करें जो वहाँ के आचार्यों द्वारा विद्यार्थी के स्वास्थ्य व हित के अनुसार परिमित हो क्योंकि अधिक अथवा एकदम कम भोजन करनेवाले विद्यार्थी आलसी व अपनी ही आयु को क्षीण करते हैं । विद्यार्थी मात्र आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट भोजन ही स्वीकार करें ।

गुरु का मुँह जोहते हुए सदा उनके हित में संलग्न रहे अर्थात् गुरुदेव जो आदेश दें, उसका पूरे तन, मनोयोग से उसमें संलग्न रहें ।

7) विद्यार्थी को तिलक करना अत्यन्त आवश्यक है ताकि उसका तीसरा नेत्र विकसित हो । विशेषरूप से चंदन का तिलक उत्तम है जिसमें हल्दी एवं चुने का परिमित मात्र में मिश्रण हो जो उसके तीसरे नेत्र को विकसित करने में मदद करता है ।

8) पद्मपुराण में आता है कि प्रतिदिन आयु और आरोग्य की सिद्धि के लिये तन्द्रा और आलस्य आदि का परित्याग करके अपने से बड़े पुरुषों को विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनों को नमस्कार करने का स्वभाव बना ले । नमस्कार करनेवाले ब्रह्मचारी को बदले में – ‘आयुष्मान भव सौम्य’ करके आशीर्वाद देना चाहिए, ऐसा विधान है । अपने दोनों हाथों को विपरीत दिशा में करके गुरु के चरणों का स्पर्श करना उचित है । शिष्य जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गुरुदेव को वह पहले प्रणाम करे ।

9) गुरुकुलों की स्थापना शहरी वातावरण से दूर प्राकृतिक वातावरण में हो । गुरुकुल में विद्याध्यन के लिए कक्षाओं के साथ-साथ प्रार्थना भवन, क्रीड़ा मैदान, पुस्तकालय/वाचनालय, भोजनशाला, गौशाला, औषधालय, विद्यार्थी निवास हेतु विशाल भवन एवं स्नानागार हों।

10) कक्षा में विद्यार्थी जमीन पर आसन बिछाकर बैठे और बैठनेवाली डेस्क रहें । आसन कैसा होना चाहिए, जैसे कि श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है कि आसन में तीन चीजें होनी चाहिए- एक पहली परत कुशा की, फिर कृष्ण मृगचर्म की और फिर उसके ऊपर सफेद स्वच्छ वस्त्र परंतु आजकल अहिंसक कृष्णामृगचर्म मिलना मुश्किल है । इसलिए गुरुगीता नामक शास्त्र में भगवान शंकर कहते हैं कि कंबल के आसन पर सर्वसिद्धि प्राप्त होती है तो विद्यार्थियों के आसन में सबसे नीचे कुशा हो, मध्य में कंबल हो और ऊपर स्वच्छ वस्त्र हो । ऊपर जो वस्त्र बिछा हो वह नीचे बिछाए कंबल से आकार में छोटा हो ताकि वह जमीन पर ना लगे क्योंकि जमीन पर लगने से विद्यार्थी के शरीर में जो विद्युतीय प्रवाह दिन-ब-दिन पैदा होंगे उनको अर्थिंग मिल जाएगी तो विद्यार्थी का आंतरिक विकास कुंठित हो जाएगा, इसलिए ।

11) विद्यार्थी प्रातःसंध्या उपरांत सूर्य को अर्घ्य अवश्य दे ताकि विद्यार्थी कुशाग्र-बुद्धि, बलवान-आरोग्यवान बने ।

12) विद्यार्थी शिखा रखे एवं शिखा बंधन का तरीका सीखे, जो वैश्विक सूक्ष्म ज्ञान तरंगों को झेल सकता है । शिखा में निम्न मंत्र कहते हुए तीन गांठ लगाने से मन संयत रहता है और मन में बुरे विचार नहीं आते ।

मन्त्र- ॐ विश्वानीदेव सवितुदुरीतानी परासुव यत् भद्रं तन्न आसुव ।

13) विद्यार्थी हर तीन महीनों में मुंडन करवाएँ जिससे विद्यार्थी में सात्विकता बढ़ती है और धूप में जाते समय सिर खुला न रखे, टोपी आदि पहने अथवा वस्त्र से सिर ढ़के और पैरो में चप्पल पहने, नंगे पैर न धूमे ।

14) विद्यार्थी कौपीन अथवा लंगोटधारी हो ।

15) विद्यार्थी सख्त आसन पर शयन करे ताकि उसका शरीर फुर्तीला व स्वस्थ बना रहे और आलस्य उसे ना घेरे ।

16) गुरुकुल की प्रत्येक छोटे-बड़े सेवाकार्य विद्यार्थियों द्वारा ही करवाए जाएँ जैसे कि,

(अ) गुरुकुल की सफाई ।

(आ) बाग-बगीचों आदि का निर्माण ।

(इ) भोजनशाला में सब्जी काटना, रोटी बनाना, भोजन परोसना आदि आवश्यक कार्य ।

(ई) गौ-शाला में सफाई, गौओं का चारा खिलाना आदि कार्य ।

यानि जो भी जरुरी छोटे-बड़े सेवाकार्य हों वो विद्यार्थियों द्वारा ही संपन्न करवाए जाएँ ताकि विद्यार्थी मेहनती बनें एवं उनमें परस्पर भावयन्तु, स्वनिर्भरता, स्वावलंबन और सेवा-भाव जैसे दैवी गुणों का विकासत हो ।

17) गुरुकुल में विद्यार्थी एक तपस्वी जीवन बिताए । अपना निजी कार्य खुद ही करे, व्यक्तिगत कार्यों जैसे कपड़े धोना आदि में दूसरों का सहारा न ले ।

18) गुरुकुल में प्रथम पाँच वर्ष यानि 9 साल की उम्र से 13 साल की उम्र तक उसे भाषाज्ञान, व्याकरण, संख्याज्ञान एवं गणना आदि मूलभूत विद्या सिखाई जाए जिसमें संस्कृत भाषा सीखना अनिवार्य हो । यानि प्रथम वर्ष से ही संस्कृत सिखाना प्रारंभ करें व दूसरे साल संस्कृत के साथ हिन्दी, तीसरे साल संस्कृत, हिन्दी के साथ स्थानिक भाषा और चौथे साल संस्कृत, हिन्दी, स्थानिक भाषा के साथ अंग्रेजी सिखाना आरंभ करें । तब तक उन विद्यार्थियों का आचार्य एक ही हो और उन विद्यार्थीयों की संपूर्ण जिम्मेदारी उन आचार्य की ही रहेगी ।

तदनन्दर यानि 14 साल की उम्र से 21 साल की उम्र तक एक विशिष्ट विद्या अथवा कला विद्यार्थी की रूचि व योग्यता के अनुसार सिखावें जैसे कि अर्थशास्त्र, भुगोल, आयुर्वेद, संगीत, गणनासंबंधी शास्त्र, कृषि विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र विद्या आदि और कोई प्रतिभाशाली विद्यार्थी हो तो एक से ज्यादा विषय में भी अपना गति कर सके । यहाँ पर जिस विषय का विद्यार्थी हो, उस विद्यार्थी की देखभाल की जिम्मेदारी उस विषय को सिखानेवाले आचार्य की होगी ।

19) विद्यार्थियों की परिक्षा प्रायोगिक हो, न कि लिखित यानि विद्यार्थी अपने सीखी हुई विद्या का प्रायोगिक प्रदर्शन करें । ताकि विद्यार्थी गुरुकुल से बाहर आने के बाद सिखी हुई विद्या का सदुपयोग मानव समाज में कर सकें । यानि विद्यार्थी गुरुकुल से निकले तो किस ना किसी विषय का विशेषज्ञ होकर ही बाहर निकलें जिसका दर्जा आजकल के इंजीनीयरों एवं डॉक्टरों से भी कई गुना ऊँचा हो, जो अपनी खुद की एक समाज उपयोगी संस्था खड़ी कर, समाज व राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में भागीदार हो ।

20) 21 वर्ष की आयु के बाद विद्यार्थी यदि गुरुकुल में आचार्य के तौर पर नियुक्ति पाना चाहे तो पा सकता है ।

21) आचार्य वर्ग का निवास स्थान गुरुकुल में ही हो, यानि आचार्य अपने पूरे परिवार के साथ गुरुकुल में ही निवास करें, विद्यार्थियों को अपने पुत्रवत् पालन करें व अपने बच्चों को शिक्षार्थ योग्य आयु होने के पश्चात् अन्यत्र गुरुकुल में भेजे अथवा वह खुद शिक्षा न देकर दूसरे आचार्यों से ही शिक्षा दिलवाएँ ।

22) और आचार्य की पत्नियों का गुरुकुल के विद्यार्थी माता के समान आदर करें और वे भी विद्यार्थियों के पालन पोषण पर अपने पुत्रों के समान सस्नेह करें एवं ध्यान दें अथवा तो गुरुपत्नियाँ अलग से कन्याओं के लिए नगर के पास में गुरुकुल चलाएँ जहाँ कन्याएँ आचार्याओं के देख-रेख में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए संयम व सदाचारपुर्वक विद्याध्यन करें ।

23) गुरुकुल में आचार्यों को नियुक्त करने से पहले गुरुकुल आचार्य प्रशिक्षण केन्द्र में इच्छुक व्यक्ति अपना नाम दर्ज करवाएँ, जहाँ उन्हें गुरुकुल के नीति नियमों के बारे में अच्छी तरह से परिचित करवाया जाए । यह प्रशिक्षण कम से कम 6 माह तक का हो । परंतु यह विधान गुरुकुल में ही पढ़े हुए विद्यार्थियों के लिए लागू नहीं होता । यह तो केवल नवीन व्यक्तियों को ही लागू होता है ।

24) गुरुकुल में पहले 5 वर्ष तक पढ़ानेवाले आचार्य की उम्र 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए और 14 वर्ष से 21 वर्ष तक के विद्यार्थियों को पढ़ानेवाले 45 से 50 वर्ष से अधिक आयु के होने चाहिए ।

25) गुरुकुल में विद्यार्थी पद्मपुराण के स्वर्गखण्ड में बताये गये ब्रह्मचारी शिष्यों के धर्म का यथासंभव पालन करें ।

26) गुरुकुल में विद्यार्थी की दिनचर्या निम्न प्रकार की हो -

समय - कार्य

04.00 प्रातः जागरण

04.00 से 05.00 - प्राणायाम, जलपान (न ठंडा, न गरम शीतोष्ण) एवं शुद्ध वायु में प्रातः भ्रमण

05.00 से 06.00 - स्नान, वस्त्र धोना आदि

06.00 से 07.30 - प्रार्थना, प्रातःकालीन संध्या एवं योगासन

07.30 से 08.00 - गुरुकुल की साफ-सफाई एवं अन्य भोजनालय, गौशाला आदि के सेवाकार्य

08.00 से 10.00 - कक्षा में विद्याध्ययन

10.00 से 11.00 - सामूहिक भोजन भोजनशाला में

11.00 से 11.45 - भोजन के बाद कुक्षी आदि क्रिया

11.45 से 12.30 - मध्याह्न संध्या

12.30 से 02.30 - कक्षा में विद्याध्ययन

02.30 से 03.00 - जल, शरबत आदि के लिए छुट्टी

03.00 से 04.00 - कक्षा में विद्याध्ययन

04.00 से 05.00 - क्रीड़ा मैदान में खेलकूद

05.00 से 06.00 - सायं स्नान एवं आवश्यक सेवा कार्य भोजनालय में आदि

06.00 से 06.45 - सायंकालीन संध्या

06.45 से 07.30 - भोजन भोजनशाला में

07.30 से 08.30 - विद्याध्ययन (गृहपाठ जो आचार्य के द्वारा दिया गया हो)

08.30 से 09.15 - सत्शास्त्राध्ययन, प्रार्थना एवं ध्यान (15-15 मिनट)

09.15 से 04.00 - शयन


मित्रों ! अभी तो यह मात्र एक वैचारिक क्रांति है, लेकिन जब ये विचार कार्यरूप के परिणित होकर एक विद्यार्थी को पूर्ण बनाएँगे तब वो उन्नति, वो विकास केवल एक विद्यार्थी का ही नहीं होगा बल्कि पूरे राष्ट्र का होगा । उस भारत देश की तस्वीर कुछ अलग ही निराली होगी | हमारा भारत देश सारे विश्व का मार्गदर्शक सिद्ध होगा ।