वेदों में गुरुकुलों का वर्णन

अथर्ववेद, खण्ड– 6, सूक्त– 13, मंत्र– 7 में आता है –


एमां कुमारस्तरुण आ वत्सो जगता सह ।

एमां परिस्त्रुतः कुम्भ आ दध्नः कलशैरगुः ।।


अर्थात् इस शाला में तरुण बालक और गमनशील गौओं के साथ उनके बछड़े आएँ । इसमें मधुर रस से परिपूर्ण घड़े और दधि से भरे हुए कलश भी आएँ ।


अथर्ववेद, खण्ड- 11, सूक्त- 7, मंत्र- 3 में आता है –


आचार्य उपनयनमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः

वं रात्रीस्तिस्त्र उदरे विभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।।


अर्थात् ब्रह्मचारी को अपने समीप बुलाते हुए (उपनयन संस्कार करके) आचार्य अपने ज्ञानरुपी शरीर के गर्भ में उसे धारण करता है । आचार्य तीन रात्रि तक उसे अपने गर्भ में रखता है । जब (दूसरे आध्यात्मिक जन्म को लेकर) वह बाहर आ जाता है, तो देवगण (दिव्यशक्ति प्रवाह अथवा सत्पुरुष) एकत्रित (उसके सहयोग या अभिनन्दन के लिए) होते हैं ।


‘उपनयन संस्कार’ से विद्यार्थी को नवीन एवं स्वच्छ वस्त्र पहनाकर गुरुकुल में प्रवेश करवाया जाता है जिसका वर्णन सर्वप्रथम ऋग्वेद, मंडल- 3, सूक्त- 8, मंत्र- 4 में आता है –


युवा सुवासाः परिवीत आगत् स उ श्रेयान भवति जायमानः ।

तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा देवयन्तः ।।


अर्थात् उत्तम वस्त्रों से लपेटे हुए ये तरुण आ गये हैं । ये जन्म से ही उत्तम होते हैं । देवत्व की कामनावाले मेधावी, अध्ययनशील, दूरदर्शी, विवेकवान पुरुष मनोयोगपूर्वक इनकी उन्नति करते हैं ।