भूमिका

वेदों को अपौरुष माना गया है यानि वेदों का सर्जन किसी इन्सानी दिमाग से नहीं बल्कि परमपिता परमात्मा द्वारा सृष्टि की सुव्यवस्था हेतु किया गया है जिन्हें सृष्टि का कानून भी माना जाता है जिसके विपरित आचरण करने से मानव दुःख एवं कष्ट ही उठाता है । वेदों में ऐसी-ऐसी युक्तियाँ हैं जिनके अनुसार यानि वेदोक्त आचरण करने से मानव अपने जीवन को उन्नति के शिखरों पर ले जा सकता है । वेद सृष्टि के आरंभ से ही अस्तित्व में हैं यानि 17,28,000 वर्ष का सतयुग होता है । इस प्रकार कुल मिलाकर 43,20,000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी पूरी होती है ।

ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वन्तर और ऐसे 14 मन्वन्तर बीतते हैं तब एक कल्प होता है अर्थात् करीब एक हज़ार चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक कल्प अर्थात् ब्रह्माजी का एक दिन होता है और एक कल्प का रात होता है । ऐसे ब्रह्माजी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष में 28वीं चतुर्युगी के कलियुग के प्रथम चरण में हैं और उसके भी 5,242 वर्ष बीत चुके हैं और ब्रह्माजी के एक दिन में यानि एक कल्प में एक सृष्टि की रचना होती है और ब्रह्माजी की रात्रि में वे सृष्टि का प्रलय करके योगनिद्रा में सोते हैं । तो जब भी सृष्टि बनी है तब वेदों का प्राकट्य हुआ है । सो इस सृष्टि के प्रारम्भ से भी वेद अस्तित्व में आए और ऐसे वेदों की ही आज्ञा है – “गुरुकुल शिक्षा पद्धति” जो सृष्टि की संरचना और व्यवस्था के अनुकूल है । तो आप ही सोचिये कि हमारी “गुरुकुल शिक्षा पद्धति” कितनी प्राचीन और सम्पूर्ण है जिसे अपनाकर हम अपने जीवन को उन्नत आदर्शों से पूर्ण कर सकते हैं, अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी व सम्मानित बना सकते हैं और एक उन्नत राष्ट्र का निर्माण भी तभी संभव है ।